धर्मध्यान की भूमिका आर्त और रौद्रध्यान के त्याग से प्रारम्भ होती है। जिसने चित्त की प्रसन्नता प्राप्त की हो, जो इस लोक व परलोक की अपेक्षा से रहित हो, २२ परीषहों का विजेता हो, जो क्रिया योग के अनुष्ठान में स्नातक हो, जैसे सिद्धों की आराधना की भक्ति का अनुष्ठान, ध्यान के उद्यम में लगे रहना, महा सामर्थ्यवान पुरुषों के सामर्थ्य का विषय होता है। अशुभ लेश्यायें बुरी भावनाओं को अलविदा करने वाला धर्मध्यान का पात्र होता है। गुरुदेव साधुता को प्राप्त कर गुणों के कीर्तन में शुभ की प्रवृत्ति में, शास्त्र के अभ्यास में, चित्त की स्थिरता में, वैराग्य से भरे भावों में समाये रहते हैं। इसी बाह्य और अंतरंग चिह्न के द्वारा धर्मध्यान को जाना जा सकता है। जो गंध-दुर्गंध में साम्यभाव को रखता है, अल्प भोजन, अल्प मलमूत्र आदि योग्यता से सहित धर्मध्यानी महात्मा, समता से भूषण, संयम के आभूषण, आर्त-रौद्रध्यान के त्यक्ता, सामायिक चारित्र में लीन रहने वाले, प्रतिक्रमण में एक पाठ आता है इसी पाठ की भावना में गुरुदेव अपने को समाहित रखते हैं-समता सर्वभूतेषु....धर्मध्यान का ध्याता, आत्म तत्त्व का ज्ञाता, इन्द्रिय काम से रहित, इन्द्रिय भोगों से विरक्त, परिग्रह के त्यागी, जिन आज्ञा में चलने वाले, संयम और तप के आश्रय में रहने वाले, प्रमाद से विरक्ति को धारण करने वाले, ये सब कारण ध्यान की सिद्धि की प्राप्ति के साधन हैं। कषाय का निग्रह, व्रत की धारणा, इन्द्रिय विजय, मनोविजय, गुरु के उपदेश की पालना, तत्त्व का श्रद्धान, निरन्तर मन की स्थिरता के अभ्यास में लगे रहना, मन की शुद्धता केवल ध्यान से प्राप्त होती है, जो कर्ममल नि:संदेह काटती रहती है। आचार्यश्री धर्मध्यान की इन समस्त योग्यताओं से परिपूरित धर्मध्यान की परिभाषाओं के घेरे में रहकर अन्य घेरों से अपने को बचाये रखने वाले, शुभ का चिन्तन करने वाले, अशुभ से रागद्वेष की परिणति से अपने को बचाने वाले, माध्यस्थभाव के समाहित इन सबसे ऊपर उठकर शुद्ध ध्यान की परिणति में चेतना के आनंद में मग्नता के भाव में ५० वर्षों से साधना करते हुए हमेशा शिष्यों को शुद्ध धर्मध्यान की प्राप्ति की प्रेरणा देने वाले धर्मध्यानी महात्मा हैं।