मनुष्य, मनुष्ययोनि में जन्म तो ले लेता है। यदि जन्म होने के बाद चारित्ररूपी व्रत गुरुओं के द्वारा मिल जाते हैं तो मनुष्य का जीवन एक चारित्रनिष्ठ पुरुष की संज्ञा पा जाता है। चारित्र जन्म से लेकर वृद्ध अवस्था तक वृद्धिंगत होता चला जाता है तो सुखदुख में साम्यभाव की अवधारणा मजबूत बनती चली जाती है। यही मार्ग जीवन में गम्भीरता, उदासीनता, शांत रहने के भाव में समा देता है। समुद्र में कितने रत्न होते हैं, यह समुद्र भी नहीं जान पाता है। कितनी प्रतिकूलता में भी वह गंभीर और शांत बना रहता है। थोड़ी भी विकृतियाँ उसके अंदर समाहित होने की कोशिश करती हैं, वह उसे कचरे के समान तट के किनारे बहुत जल्दी फेंक देता है। तब कहीं वह बहुत लंबे समय तक अपने इस विराट् रूप में स्थिर बना रहता है। वह अपने तट का विस्तार ही करता चला जाता है न कि संकोच। इसी प्रकार १२ प्रकार के तप, १३ प्रकार का चारित्र, २८ मूलगुणों को धारण करने वाले समुद्र के समान गंभीर चारित्र के सागर में समाहित होने वाले आचार्य परमेष्ठी इस चारित्र के सागर में अपनी आत्मा को निमग्न कर परभाव से स्वभाव में लगे रहना ही जिनमार्ग का चारित्र ही मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराकर इस चारित्र रूपी जहाज में न जाने कितने नौजवानों, नवयुवतियों को अपने जैसा चारित्र का मार्ग प्रशस्त कर समुद्र के समान धीर-गंभीरता, सहजता-सरलता के रूप में ढालने के लिए कटिबद्ध हैं। प्रतिकूल हवा में भी चारित्र का जहाज संसार के समुद्र में बिना लड़खड़ाये आत्मविश्वास, समर्पण, अनुभव की प्रबलता के सहारे, बिना रोक-टोक के ५० वर्षों से विरोधियों के विपरीत बुद्धि वालों के, विपरीत मार्ग वालों के होते हुए भी निष्पन्द होकर समुद्र के समान धीर-गम्भीर चारित्र की अवधारणा में चलने वाले, चलाने वाले गुरुदेव जयवन्त हों, जयशील हों।