मुनि परम्परा आचार्य श्री शांतिसागरजी से प्रारम्भ होकर फिर आचार्य वीरसागरजी, आचार्य शिवसागरजी, आचार्य ज्ञानसागरजी, आचार्य शांतिसागरजी (छाणी), आचार्य महावीरकीर्तिजी, आचार्य विमलसागरजी, मासोपवासी आचार्य सन्मतिसागरजी, आचार्य वर्धमानसागरजी, आचार्य अभिनन्दनसागरजी, आचार्य विद्यानंदजी इन सभी आचार्य परम्परा में आचार्य विद्यासागरजी महाराज के नाम से उनकी चर्या से सभी परिचित हैं। ऐसे और भी अनेक आचार्य, मुनि जिनके मुख से समय-समय पर ध्वनि निकलती आयी है-“यदि चतुर्थकाल की चर्या देखना है तो आचार्य विद्यासागरजी को देखो, उनके दर्शन करो।'' मुनियों में महान्, गुणियों में महान्, विद्वानों की सभा में भी या उनके समूह में भी आचार्य गुरुदेव का नाम अवश्य लिया जाता है। उनके दर्शन, प्रवचन, तत्त्वचर्चा के लिए विद्वान्, स्वाध्यायीजन हमेशा लालायित रहते हैं। साधु की निरीहता, निजता, निष्कामता, स्वहित कार्यशैली देखकर कौन नहीं उनको देखना, सुनना, नाम लेने से चूक सकता है। मुनि आदर्शों को कायम बनाये रखना, जैसे श्मशान में, नदी के किनारों पर, पहाड़ की चोटियों पर, वृक्षों के नीचे, शिलाओं पर, निर्जर स्थानों में, साधना और निवास करना यह मुनि माहात्म्य को प्रकट करने वाली बातें सबके कानों में समाहित होकर मन श्रद्धा से भर देती है। वहीं बैठे-बैठे मस्तक झुक जाता है। लोगों के सपनों के विषय भी बन जाते हैं। जिन लोगों के सपने में ऐसे गुण सम्पन्न, चर्या सम्पन्न, त्याग सम्पन्न, षट् आवश्यक सम्पन्न, चारित्र शिरोमणि के दर्शन होते हैं तो उसका आगे का भव अपने आप ही सफलता के सूत्र में बँधता चला जाता है। व्यक्तियों से बात तो करते हैं लेकिन कोई तत्त्वज्ञानी हो तो उनके इस तत्त्व ज्ञान की रुचि ने उन्हें तत्त्वज्ञानियों का चहेता बना दिया है। मुनियों की ऊँचाइयों को छूने वाले, मुनियों की मणियों की माला में ५० वर्षों से उनका नाम ज्यों का त्यों बना नजर आ रहा है।