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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. चलो खजुराहो संयम स्वर्ण महोत्सव समापन समारोह सर्वोदय सम्मान आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की दीक्षा के 50 वर्ष पूर्ण होने पर मनाए जाने वाले, संयम स्वर्ण महोत्सव के समापन अवसर पर आयोजित, नेपथ्य के नायकों का सम्मान सत्र 17 जुलाई 2018 ,मंगलवार ठीक दोपहर 2:00 बजे से खजुराहो मध्य प्रदेश में प्रस्तावित है, वर्ष 2018 का यह सर्वोदय सम्मान देश के उन नायकों को दिया जा रहा है जो सामाजिक ,सांस्कृतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला रहे हैं, भारी मात्रा में शामिल होकर कार्यक्रम की गरिमा को दुगुना करें। कृपया इसे जन जन तक पहुँचाने में सहयोग करे वर्ष 2018 के हमारे 7 नक्षत्र अथवा नायक हैं- 1.आदिलाबाद आंध्र प्रदेश में स्थित कला के स्वर्गीय रविंद्र शर्मा गुरुजी - कला ,कारीगरी एवं सामाजिक व्यवस्था के जानकार 2.श्री एच वाला सुब्रमण्यम संगम एवं तमिल साहित्य के गैर हिंदी भाषी सुप्रसिद्ध अनुवादक. आपने दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार एवं प्रसार में निर्णायक भूमिका निभाई है 3. टिहरी उत्तराखंड प्रदेश से आए हुए श्रीमान विजय जड़धारी जी. विजय जी चिपको आंदोलन की उपज है, और वर्तमान में बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े हुए हैं. 4. श्रीराम शर्मा जी मध्य प्रदेश से संबंध रखते हैं, आपके पास भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम आंदोलन के तमाम महत्वपूर्ण दस्तावेज यथा पत्र पत्रिकाएं ,अखबार एवं ऐतिहासिक महत्व की वस्तुओं का अद्भुत संग्रह है 5. बाबा आया सिंह रियारकी महाविद्यालय जिला गुरदासपुर पंजाब के संचालक गण. महिला शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ एक स्वदेशी प्रयोग, एक ऐसा अकादमिक संस्थान जो बालिकाओं के लिए बालिकाओं के द्वारा बालिकाओं का महाविद्यालय है. 6. महाराष्ट्र राज्य के गढ़चिरौली जिले के मेडा लेखा गांव के भूतपूर्व सरपंच श्री देवाजी तोफा भाई. आपने गांधीवादी संघर्ष कर प्राकृतिक संसाधनों पर ग्राम वासियों के अधिकारों को सुनिश्चित किया. आप का नारा है हमारे गांव में, हम ही सरकार. 7. राजस्थान उदयपुर के भाई रोहित जो विगत कई वर्षों से जैविक कृषि में संलग्न है और अपने प्रयोगों के माध्यम से इसे युवा पीढ़ी में लोकप्रिय भी कर रहे हैं 8. श्री विष्णुभाई कांतिलाल त्रिवेदी - प्राचीन वास्तु शास्त्र के माध्यम से अद्भुत मंदिर श्रंखलाओं के निर्माता एवं शिल्पकार| आपने मंदिरों का सम्पूर्ण कार्य नक्शों के मुताबिक घाड़ाई व फिटिंग का काम करवाया हैं जिसमे आपका ४५ वर्ष का अनुभव हैं | 9 श्री शफीक जी खान - आप गौ संरक्षक एवं गाय संस्कृति के पालन हार |
  2. View this quiz आचार्य विद्यासागर चिंतन यात्रा प्रतियोगिता आचार्य विद्यासागर चिंतन यात्रा प्रतियोगिता कुल २० प्रश्न , समय ३० मिनिट पहले स्वाध्याय करें Submitter संयम स्वर्ण महोत्सव Type Graded Mode Time 30 minutes Total Questions 19 Category संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता Submitted 07/13/2018
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    संयम स्वर्ण महोत्सव मोक्ष पथ के राही लघुनाटिका
  4. स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी ज्ञानावरणादिक कर्मों से, पूर्णरूप से मुक्त रहे। केवल संवेदन आदिक से युक्त, रहे, ना मुक्त रहे ॥ ज्ञानमूर्ति हैं परमातम हैं, अक्षय सुख के धाम बने। मन वच तन से नमन उन्हें हो, विमल बने ये परिणाम घने ॥१॥ बाह्यज्ञान से ग्राह्य रहा पर, जड़ का ग्राहक रहा नहीं। हेतु-फलों को क्रमशः धारे, आतम तो उपयोग धनी॥ ध्रौव्य आय औ व्यय वाला है, आदि मध्य औ अन्त बिना। परिचय अब तो अपना कर लो, कहते हमको सन्त जना ॥२॥ प्रमेयतादिक गुणधर्मों से, अचिदात्मा यह होता है। तथा ज्ञानगुण दर्शन से तो, चिन्मय शाली होता है। अतः सचेतन तथा अचेतन, स्वभाव वाला आतम है। तत्त्वदृष्टि से भीतर देखो, पलभर में मिटता तम है ॥३॥ संज्ञा संख्या लक्षण द्वारा, आत्मज्ञान दो भिन्न रहे। किन्तु भिन्न ना प्रदेश उनके, अनन्य हैं, ना अन्य रहे॥ आत्म द्रव्य हो ज्ञान उसी का, त्रैकालिक गुण साथ रहे। आतम गाथा गाता आगम, यही हमें शिव-पाथ रहे ॥४॥ मात्र ज्ञान के रहा बराबर, आतम ऐसा मत समझो। तथा देह के रहा बराबर, समझो मानो मत उलझो॥ इसीलिए भी रहा सर्वगत, नहीं सर्वथा माना है। संत जमाना यही मानता, ज्ञानोदय का गाना है ॥५॥ नाना ज्ञानों की पर्यायों, को धारण करने से ही। एक रहा है अनेक भी है, कह ना सकते ऐसे भी॥ मात्र चेतना एक स्वभावी, होता है नि:शंक रहा। एकानेकात्मक आतम हो, यही न्याय अकलंक रहा ॥६॥ पर के गुणधर्मों से निश्चित, अवाच्य है माना जाता। अपने गुणधर्मों से सुनलो, अवक्तव्य ना कहलाता। इसीलिए एकान्त रूप से, वाच्य नहीं निज आतम है। वचन अगोचर नहीं सर्वथा, सन्तों का यह आगम है ॥७॥ अपने गुणधर्मों से आतम, अस्तिरूप से रंजित है। पर के गुणधर्मों से यह तो, नास्तिरूप से संचित है। बोधमूर्ति होने से सचमुच, मूर्तिक माना जाता है। किन्तु रहा विपरीत धर्म से, सदा अमूर्तिक भाता है॥८॥ इसविध बहुविध धर्मों को औ, बन्ध मोक्ष के कारण को। बन्ध मोक्ष को बन्ध मोक्ष के, फल को अघ के वारण को॥ आतम ही खुद धारण करता, निजी योग्यता यही रही। श्रद्धा ऐसी मति को करती, और चरित को सही सही ॥९॥ ज्ञात रहे यह नियम रहा, जो कर्मों का कर्ता होता। कर्म फलों का भी वह निश्चित, आतम होता है भोक्ता॥ उपादान औ निमित्तपन से, कर्मों का हो छुटकारा। होता है यह स्वभाव से ही, मन को दो अब फटकारा ॥१०॥ ज्ञान चरित दर्शन ये, तीनों समीचीन जब होते हैं। उपाय बनते आत्म सिद्धि के, कर्म कीच को धोते हैं। तथा तत्त्व में अचल अचल से, होना माना जाता है। आतम दर्शन दुर्लभतम है, आगम ऐसा गाता है ॥११॥ पदार्थ जिस विध उस विध उसको, जाननहारा ज्ञान सही। यथा प्रकाशित दीपक करता, निज को पर को भान सही॥ समीचीन यह ज्ञान कथंचित् , ज्ञप्ति क्रिया से भिन्न रहा। करण क्रिया से अभिन्न भी ना, नहीं सर्वथा भिन्न रहा ॥१२॥ ज्ञान तथा दर्शन गुण की जो, पर्यायें होती रहती। लहरें सी है लगातार हो, पीछे ना आगे बहती॥ उन पर सवार होकर यात्रा, पूरी अपनी करनी है। या सुख दुख में समता रखना, ममता तन की हरनी है ॥१३॥ जाननहारा देखनहारा साकारा हूँ अविकारा। सुख का अवसर या दुख का हो, एकाकी तन से न्यारा॥ इस विध चिंतन मंथन का जो, प्रवाह बहता है मन में। परमोत्तम सो चारित होता, विरले ही साधक जन में ॥१४॥ चिंतन मंथन मौनादिक, ये निशिदिन मन का जो रमना। मूल-भूत निज उपादान को, जागृत करना उपशमना॥ उचित देश में उचित काल में, उचित द्रव्य से तप तपना। निमित्तकारण बाह्य रहा सो, पूरण करता है सपना ॥१५॥ प्रमाद तजकर इन विषयों पर, विचारकर भरपूर सही। दुविधा में हो या सुविधा में, अपने बल को भूल नहीं॥ रागरंग से दूर रहा जो, रोष कोष से रहित रहा। आतम का अनुभव कर ले अब, और भाव तो अहित रहा ॥१६॥ कषाय कलुषित चित्त हुआ है, चिन्ता से जो आहत है। भूल कभी भी तत्त्वबोध में, होता ना अवगाहित है। नीलकण्ठ सम नील वसन पर, कुंकुम का वह रंग कभी। चढ़ सकता क्या? आप बता दो, तथ्य रहा यह व्यंग नहीं ॥१७॥ अतः मूलतः दोषों को यदि, उखाड़ना है आर्य महा। मोह भाव को प्रथम पूर्णतः, उजाड़ना है कार्य रहा॥ उदासीनता की धरती पर सुखासीन हो रहना है। तथा तत्त्व की गहराई में, खोना फिर क्या कहना है ॥१८॥ उपादेय सो कौन रहा है, और हेय वह कौन रहा। उचित रूप से सोच समझ ले, और और सो गौण अहा॥ हेय तत्त्व के आलम्बन को, पूर्णरूप से तजना है। उपाय का आलम्बन लेकर, उपादेय को भजना है ॥१९॥ पर में निज को, निज में पर को मत परखो तुम बचपन से। पर को परखो, परपन से तो, निज को निरखो निजपन से॥ विकल्पजालों संकल्पों से, सो ऊपर उठते उठते। जाओ जाओ अन्त अन्त तक, अनन्त सुख हो दुख मिटते ॥२०॥ सुनो मोक्ष की अभिलाषा भी, ना होती जिसके मन में। मोक्ष उसी को नियम रूप से, मिलता है इस जीवन में। इसविध सन्तों का कहना है, पालन उसका करना है। कहीं किसी की आकांक्षा से, नहीं भूलकर करना है ॥२१॥ चूंकि सुलभ है आतम में वह, अभिलाषा का उदय रहा। इसीलिए बस उसके चिंतन, में जुटता यह हृदय रहा॥ सुख भी तो फिर निज आतम, के सुनो तात! आधीन रहा। वहाँ यतन क्यों नहीं करोगे, मन क्यों होता दीन रहा ॥२२॥ पर को जानो मना नहीं है, किन्तु किसी से मोह नहीं। सही सही पहचानों निज को, सोना है सो लोह नहीं॥ अपने संवेदन में आता, स्वरूप अपना अपना है। सदा निराकुल केवल निज में, रहना बाहर सपना है ॥२३॥ अपने से अपने को अपने, द्वारा अपने लिए तथा। अपने में अपना अपना सो, लखना अपने आप यथा॥ इसी ज्ञान से इसी ध्यान से आनंदामृत का झरना। झर झर झर झरता झरता, मिटता फलतः चिर मरना ॥२४॥ आत्मतत्त्व का चिंतन इस विध, करता अन्तर बाहर से। इसको सुनता और सुनाता, औरों को जो आदर से॥ यथाशीघ्र परमार्थ संपदा, इस पर वह बरसाती है। ‘स्वरूप संबोधन पच्चीसी', उसकी बनती साथी है ॥२५॥
  5. स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी आचार्य अकलंकस्वामी ने संस्कृत में २५ श्लोक प्रमाण ‘स्वरूप सम्बोधन' की रचना की। यह आध्यात्मिक रचना है। आचार्यश्री ने इसका हिन्दी पद्यानुवाद ३० मात्रा वाले छंद में ‘स्वरूप सम्बोधन पच्चीसी' नाम से किया, इसमें आत्मिक स्वभाव का वर्णन है। कवि ने रचनाकाल व स्थान का उल्लेख नहीं किया है। सम्भवतः इसकी रचना श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र तारंगाजी प्रवास के समय हुई है।
  6. पञ्चमहागुरुभक्ति (चौपाई) सुरपति शिर पर किरीट धारा जिसमें मणियाँ कई हजारा। मणि की द्युति-जल से धुलते हैं प्रभु पद-नमता सुख फलते हैं ॥१॥ सम्यक्त्वादिक वसु-गुण धारे वसु-विध विधि-रिपु नाशन-हारे। अनेक-सिद्धों को नमता हूँ इष्ट-सिद्धि पाता समता हूँ ॥२॥ श्रुत-सागर को पार किया है शुचि संयम का सार लिया है। सूरीश्वर के पदकमलों को शिर पर रख लूँ दुख-दलनों को ॥३॥ उन्मार्गी के मद-तम हरते जिनके मुख से प्रवचन झरते। उपाध्याय ये सुमरण कर लूँ पाप नष्ट हो सु-मरण कर लूँ ॥४॥ समदर्शन के दीपक द्वारा सदा प्रकाशित बोध सुधारा ॥ साधु चरित के ध्वजा कहाते दे-दे मुझको छाया तातैं ॥५॥ विमल गुणालय-सिद्धजिनों को उपदेशक मुनि-गणी गणों को ॥ नमस्कार पद पञ्च इन्हीं से त्रिधा नमूँ शिव मिले इसी से ॥६॥ नमस्कार वर मन्त्र यही है पाप नसाता देर नहीं है। मंगल-मंगल बात सुनी है आदिम मंगल-मात्र यही है॥७॥ सिद्ध शुद्ध हैं जय अरहन्ता गणी पाठका जय ऋषि संता। करे धरा पर मंगल साता हमें बना दें शिव सुख धाता ॥८॥ सिद्धों को जिनवर चन्द्रों को गणनायक पाठक वृन्दों को। रत्नत्रय को साधु जनों को वन्दूँ पाने उन्हीं गुणों को ॥९॥ सुरपति चूड़ामणि-किरणों से लालित सेवित शतों दलों से। पाँचों परमेष्ठी के प्यारे पादपद्म ये हमें सहारे ॥१०॥ महाप्रातिहार्यों से जिनकी शुद्ध गुणों से सुसिद्ध गण की। अष्ट-मातृकाओं से गणि की शिष्यों से उपदेशक गण की ॥ वसु विध योगांगों से मुनि की करूँ सदा थुति शुचि से मन की॥११॥ अञ्चलिका पञ्चमहागुरु भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ले प्रभु तव संसर्ग ॥१२॥ (ज्ञानोदय छन्द) लोक शिखर पर सिद्ध विराजे अगणित गुणगण मण्डित हैं। प्रातिहार्य आठों से मण्डित जिनवर पण्डित-पण्डित हैं॥ आठों प्रवचन-माताओं से शोभित हों आचार्य महा। शिव पथ चलते और चलाते औरों को भी आर्य यहाँ ॥१३॥ उपाध्याय उपदेश सदा दे चरित बोध का शिव पथ का। रत्नत्रय पालन में रत हो साधु सहारा जिनमत का ॥ भाव भक्ति से चाव शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को। वंन्दूँ पूजूँ अर्चन कर लूँ नमन करूँ मैं गुरुगण को ॥१४॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥ समय व स्थान परिचय गगन चूमता शिखर है भव्य जिनालय भ्रात। विघन-हरण मंगलकरण महुवा में विख्यात ॥१॥ बहती कहती है नदी ‘पूर्णा' जिसके तीर। पार्श्वनाथ के दर्श से दिखता भव का तीर ॥२॥ गन्ध गन्ध गति गन्ध की सुगन्ध दशमी योग। अनुवादित ये भक्तियाँ पढ़ो मिटे सब रोग ॥३॥ पूर्णा नदी के तट पर अवस्थित श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ की मनोहारी प्रतिमा के लिए सुप्रसिद्ध श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र महुवा (सूरत) गुजरात में वर्षायोग के दौरान भाद्रपद शुक्ल सुगन्ध दशमी वीर निर्वाण संवत् २५२२, वि. सं. २०५३ तदनुसार २२ सितम्बर १९९६ को भक्तियों का यह पद्यानुवाद सम्पन्न हुआ। यहाँ ज्ञातव्य है कि नन्दीश्वर भक्ति का पद्यानुवाद आचार्य श्री जी द्वारा बहुत पहले किया जा चुका था।
  7. शान्तिभक्ति नहीं स्नेह वश तव पद शरणा गहते भविजन पामर हैं। यहाँ हेतु है बहु दुःखों से भरा हुआ भवसागर है ॥ धरा उठी जल ज्येष्ठ काल है भानु उगलता आग कहीं। करा रहा क्या छाँव शशी के जल के प्रति अनुराग नहीं? ॥१॥ कुपित कृष्ण अहि जिसको हँसता फैला हो वह विष तन में। विद्या औषध हवन मन्त्र जल से मिट सकता है क्षण में ॥ उसी भाँति जिन तुम पद-कमलों की थुति में जो उद्यत है। पाप शमन हो रोग नष्ट हो चेतन तन के संगत है ॥२॥ कनक मेरु आभा वाले या तप्त कनक की छवि वाले। हे जिन! तुम पद नमते मिटते दुस्सह दुख हैं शनि वाले ॥ उचित रहा रवि उषाकाल में उदार उर ले उगता है। बहुत जनों के नेत्रज्योति-हर सघन तिमिर भी भगता है ॥३॥ सब पर विजयी बना तना है नाक-मरोड़ा दम तोड़ा। देवों देवेन्द्रों को मारा नरपति को भी ना छोड़ा। दावा बन कर काल घिरा है उग्र रूप को धार घना। कौन बचावे? हमें कहो जिन! तव पद थुति नद-धार बिना ॥४॥ लोकालोकालोकित करते ज्ञानमूर्ति हो जिनवर हे!। बहुविध मणियाँ जड़ी दण्ड में तीन छत्र सित तुम सर पे ॥ हे जिन! तव पद-गीत धुनी सुन रोग मिटे सब तन-मन के। दाड-उघाड़े सिंह दहाड़े गज-मद गलते वन-वन के ॥५॥ तुम्हें देवियाँ अथक देखतीं विभव मेरु पर तव गाथा। बाल भानु की आभा हरता मण्डल तव जन-जन भाता ॥ हे जिन! तव पद थुति से ही सुख मिलता निश्चय अटल रहा। निराबाध नित विपुल सार है अचिंत्य अनुपम अटल रहा ॥६॥ प्रकाश करता प्रभा पुञ्ज वह भास्कर जब तक ना उगता। सरोवरों में सरोज दल भी तब तक खिलता ना जगता ॥ जिसके मानस-सर में जब तक जिनपद पंकज ना खिलता। पाप-भार का वहन करे वह भ्रमण भवों में ना टलता ॥७॥ प्यास शान्ति की लगी जिन्हें है तव पद का गुण गान किया। शान्तिनाथ जिन शान्त भाव से परम शान्ति का पान किया। करुणाकर! करुणा कर मुझको प्रसन्नता में निहित करो। भक्तिमग्न है भक्त आपका दृष्टि-दोष से रहित करो ॥८॥ शरद शशी सम शीतल जिनका नयन मनोहर आनन है। पूर्ण शील के व्रत संयम के अमित गुणों के भाजन हैं॥ शत वसु लक्षण से मण्डित है जिनका औदारिक तन है। नयन कमल हैं जिनवर जिनके शान्तिनाथ को वन्दन है ॥९॥ चक्रधरों में आप चक्रधर पञ्चम हैं गुण मंडित हैं। तीर्थकरों में सोलहवें जिन सुर-नरपति से वंदित हैं। शान्तिनाथ हो विश्वशान्ति हो भाँति-भाँति की भ्रान्ति हरो। प्रणाम ये स्वीकार करो लो किसी भाँति मुझ कान्ति भरो ॥१०॥ (चौपाई) दुंदुभि बजते जन मन हरते आतप हरते चामर ढुरते। भामण्डल की आभा भारी सिंहासन की छटा निराली ॥ अशोक तरु सो शोक मिटाता भविक जनों से ढोक दिलाता। योजन तक जिन घोष फैलता समवसरण में तोष तैरता ॥११॥ झुका-झुका कर मस्तक से मैं शान्तिनाथ को नमन करूँ। देव जगत भूदेव जगत् से वन्दित पद में रमण करूँ॥ चराचरों को शान्तिनाथ वे परम शान्ति का दान करें। थुति करने वाले मुझमें भी परम तत्त्व का ज्ञान भरें ॥१२॥ पहने कुण्डल मुकुट हार हैं सुर हैं सुरगण पालक हैं। जिनसे निशि-दिन पूजित अर्चित जिनपद भवदधि तारक हैं॥ विश्व विभासक-दीपक हैं जिन विमलवंश के दर्पण हैं। तीर्थंकर हो शान्ति विधायक यही भावना अर्पण है ॥१३॥ भक्तों को भक्तों के पालन-हारों को औ यक्षों को। यतियों-मुनियों-मुनीश्वरों को तपोधनों को दक्षों को ॥ विदेश-देशों उपदेशों को पुरों गोपुरों नगरों को। प्रदान कर दें शान्ति जिनेश्वर विनाश कर दें विघ्नों को ॥१४॥ क्षेम प्रजा का सदा बली हो धार्मिक हो भूपाल फले। समय-समय पर इन्द्र बरस ले व्याधि मिटे भूचाल टले ॥ अकाल दुर्दिन चोरी आदिक कभी रोग ना हो जग में। धर्मचक्र जिनका हम सबको सुखद रहे सुर शिव मग में ॥१५॥ ध्यान शुक्ल के शुद्ध अनल से घातिकर्म को ध्वस्त किया। पूर्णबोध-रवि उदित हुआ सो भविजन को आश्वस्त किया ॥ वृषभदेव से वर्धमान तक चार-बीस तीर्थंकर हैं। परम शान्ति की वर्षा जग में यहाँ करें क्षेमंकर हैं ॥१६॥ अञ्चलिका (दोहा) पूर्ण शान्ति वर भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ले प्रभु! तव संसर्ग ॥१७॥ पञ्चमहाकल्याणक जिनके जीवन में हैं घटित हुये। समवसरण में महा-दिव्य वसु प्रातिहार्य से सहित हुये ॥ नारायण से रामचन्द्र से छहखण्डों के अधिपति से। यति अनगारों ऋषि मुनियों से पूजित जो हैं गणपति से ॥१८॥ वृषभदेव से महावीर तक महापुरुष मंगलकारी। लाखों स्तुतियों के भाजन हैं तीस-चार अतिशयधारी ॥ भक्तिभाव से चाव शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को । पूजें वन्दूँ अर्चन कर लूँ नमन करूँ जिनगण को ॥१९॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥
  8. चैत्यभक्ति अजेय अघहर अद्भुत-अद्भुत पुण्य बन्ध के कारक हैं। करें उजाला पूर्ण जगत् में सत्य तथ्य भव तारक हैं॥ गौतम-पद को सन्मति-पद को प्रणाम करके कहता हूँ। चैत्य-वन्दना' जग का हित हो जग के हित में रहता हूँ ॥१॥ अमर मुकुटगत मणि आभा जिन को सहलाती सन्त कहे। कनक कमल पर चरण कमल को रखते जो जयवन्त रहे ॥ जिनकी छाया में आकर के उदार उर वाले बनते। अदय क्रूर उर धारे आरे मान दम्भ से जो तनते ॥१/१॥ जैनधर्म जयशील रहे नित सुर-सुख शिव-सुख का दाता। दुर्गति दुष्पथ दुःखों से जो हमें बचाता है त्राता ॥ प्रमाणपण औ विविध नयों से दोषों के जो वारक हों। अंग-बाह्य औ अंग-पूर्वमय जिनवच जग उद्धारक हों ॥२॥ अनेकान्तमय वस्तु तत्त्व का सप्तभंग से कथन करे। तथा दिखाता सदा द्रव्य को ध्रौव्य-आय-व्यय वतन अरे!॥ पूर्णबोध की इस विध थुति से निरुपम सुख का द्वार खुले। दोष रहित औ नित्य निरापद संपद का भण्डार मिले ॥३॥ जन्म-दुःख से मुक्त हुए हैं अरहन्तों को वन्दन हो। सिद्धों को भी नमन करूं मैं जहाँ कर्म की गन्ध न हो ॥ सदा वन्द्य हैं सर्ववन्द्य हैं साधुजनों को नमन करूँ। गणी पाठकों को वन्दूँ मैं मोक्ष-धाम को गमन करूं ॥४॥ मोह-शत्रु को नष्ट किये हैं दोष-कोष से रहित हुये। तदावरण से दूर हुये हैं प्रबोध-दर्शन सहित हुये ॥ अनन्त बल के धनी हुये हैं अन्तराय का नाम नहीं। पूज्य योग्य अरहन्त बने हैं तुम्हें नमूं वसु याम सही ॥५॥ वीतरागमय धर्म कहा है जिनवर ने शिवपथ नेता। साधक को जो सदा संभाले मोक्षधाम में धर देता ॥ नमूं उसे मैं तीन लोक के हित सम्पादक और नहीं। आर्जव आदिक गुणगण जिससे बढ़ते उन्नति ओर सही ॥६॥ सजे चतुर्दश पूर्वो से हैं औ द्वादश विध अंगों से। तथा वस्तुओं और उपांगों से गुंथित बहु भंगों से ॥ अजेय जिनके वचन रहे ये अनन्त अवगम वाले हैं। इन्हें नमन अज्ञान-तिमिर को हरते परम उजाले हैं ॥७॥ भवनवासियों के भवनों में स्वर्गिक कल्प विमानों में। व्यन्तर देवावासों में औ ज्योतिष देव विमानों में ॥ विश्ववन्द्य औ मर्त्यलोक में जितने जिनवर चैत्य रहें। मन-वच-तन से उन्हें नमूं वे मम मन के नैवेद्य रहे ॥८॥ सुरपति नरपति धरणेन्द्रों से तीन लोक में अर्चित हैं। अनन्य दुर्लभ सभी सम्पदा जिनचरणों में अर्पित हैं॥ तीर्थकरों के जिनालयों को तन-वच-मन-परिणामों से। नमूं बनूं बस शान्त बनूं मैं भव-भवगत दुख-अनलों से ॥९॥ इस विध जिनको नमन किया है पावनपण को हैं धारे। पञ्चपदों से पूजे जाते परम पुरुष हैं जग प्यारे॥ जिनवर जिनके वचन धर्म औ बिम्ब जिनालय ये सारे। बुधजन तरसे विमल-बोधि को हमें दिलावे शिव-द्वारे॥१०॥ नहीं किसी से गये बनाये स्वयं बने हैं शाश्वत हैं। चम-चम चमके दम-दम दमके बाल-भानुसम भास्वत हैं॥ और बनाये जिनालयों में नरों सुरों से पूजित हैं। जिनबिम्बों को नमन करूँ मैं परम पुण्य से पूरित हैं ॥११॥ आभामय भामण्डल वाली सुडौल हैं बेजोड़ रहीं। जिनोत्तमों में उत्तम जिन की प्रतिमायें युग मोड़ रहीं ॥ विपदा हरती वैभव लाती सुभिक्ष करती त्रिभुवन में। कर युग जोडूं विनम्र तन से नमूं उन्हें हरखू मन में ॥१२॥ आभरणों से आवरणों से आभूषण से रहित रही। हस्त निरायुध उपांग जिनके विराग छवि से सहित सही ॥ प्रतिमायें अ-प्रमित रही हैं कान्ति अनूठी है जिनकी। क्लान्ति मिटे चिर शान्ति मिले बस भक्ति करूँ निशिदिन उनकी ॥१३॥ बाहर का यह रूप जिनों का स्वरूप क्या? है बता रहा। कषाय कालिख निकल गई है परम शान्ति को जता रहा ॥ स्वभाव-दर्शक भव-भवनाशक जिनबिम्बों को नमन करूँ। साधन से सो साध्य सिद्ध हो कषाय-मल का शमन करूँ॥१४॥ लगा भक्ति में जिन, बिम्बों की हुआ पुण्य का अर्जन है। सहजरूप से अनायास ही हुआ पाप का तर्जन है॥ किये पुण्य के फल ना चाहूँ विषय नहीं सुरगात्र नहीं। जन्म-जन्म में जैनधर्म में लगा रहे मन मात्र यही ॥१५॥ सब कुछ देखें सब कुछ जानें दर्शनधारी ज्ञानधनी। गुणियों में अरहन्त कहाते चेतन के द्युतिमान मणी ॥ मिली बुद्धि से उन चैत्यों का भाग्यमान गुणगान करूं। अशुद्धियों को शीघ्र मिटाकर विशुद्धियों का पान करूं ॥१६॥ भवनवासियों के भवनों में फैली वैभव की महिमा। नहीं बनाई बनी आप हैं आभावाली हैं प्रतिमा ॥ प्रणाम उनको भी मैं करता सादर सविनय सारों से। पहुँचा देवें पञ्चमगति को तारें मुझको क्षारों से ॥१७॥ यहाँ लोक में विद्यमान हैं जितने अपने आप बने। और बनाये चैत्य अनेकों भविक जनों के पाप हरें॥ उन सब चैत्यों को वन्दूँ मैं बार-बार संयत मन से। बार-बार ना एक बार बस आप भरूँ अक्षय धन से ॥१८॥ व्यन्तरदेवों के यानों में प्रतिमा - गृह हैं भास्वर हैं। संख्या की सीमा से बाहर चिर से हैं अविनश्वर हैं॥ सदा हमारे दोषों के तो वारण के वे कारण हों। ताकि दिनों दिन उच्च-उच्चतर चारित का अवधारण हो ॥१९॥ ज्योतिषदेव विमानों में भी रहे जिनालय हैं प्यारे। कितनी संख्या कही न जाती अनगिन माने हैं सारे॥ विस्मयकारी वैभव से जो भरे हुये हैं अघहारी। उनको भी हो वन्दन, अपना वन्दन हो शिव सुखकारी ॥२०॥ वैमानिक देवों के यानों में भी जिन की प्रतिमा हैं। जिन की महिमा कही न जाती चम-चम-चमकी द्युतिमा हैं॥ सुरमुकुटों की मणि छवियाँ वे जिनके पद में बिम्बित हैं। उन्हें नमूं मैं सिद्धि लाभ हो गुणगण से जो गुम्फित हैं ॥२१॥ उभय सम्पदा वाले जिनका वर्णो से ना वर्णन हो। अरि-विरहित अरहंत कहाते जिनबिम्बों का अर्चन हो ॥ यशःकीर्ति की नहीं कामना कीर्तन जिन का किया करूँ। कर्मास्रव का रोकनहारा कीर्तन करता जिया करूँ ॥२२॥ महानदी अरहन्त देव हैं अनेकान्त भागीरथ है। भविकजनों का अघ धुलता है यहाँ यही वर तीरथ है॥ और तीर्थ में लौकिक जो है तन की गरमी है मिटती। वही तीर्थ परमार्थ जहाँ पर मन की भी गरमी मिटती ॥२३॥ लोकालोकालोकित करता दिव्यबोध आलोक रहा। प्रवाह बहता अहो रात यह कहीं रोक ना टोक रहा ॥ जिसके दोनों ओर बड़े दो विशाल निर्मल कूल रहे। एक शील का दूजा व्रत का आपस में अनुकूल रहे ॥२४॥ धर्म - शुक्ल के ध्यान धरे हैं राजहंस ऋषि चेत रहे। पञ्च समितियाँ तीन गुप्तियाँ नाना गुणमय रेत रहे ॥ श्रुताभ्यास की अनन्य दुर्लभ मधुर-मधुर धुनि गहर रही। महातीर्थ की मुझ बालक पर रहा रहे नित महर सही ॥२५॥ क्षमा भंवर है जहाँ हजारों यति-ऋषि-मुनि मन सहलाते। दया कमल हैं खुले खिले हैं सब जीवों को महकाते ॥ तरह-तरह के दुस्सह परिषह लहर-लहर कर लहराते। ज्ञानोदय के छन्द हमें यों ठहर-ठहर कर कह पाते ॥२६॥ भविक व्रती जन नहीं फिसलते राग-रोष शैवाल नहीं। सार-रहित हैं कषाय तन्मय फेनों का फैलाव नहीं ॥ तथा यहाँ पर मोहमयी उस कर्दम का तो नाम नहीं। महा भयावह दुस्सह दुख का मरण-मगर का काम नहीं ॥२७॥ ऋषि-पति मृदुधुनि से थुति करते श्रुत की भी दे सबक रहे। जहाँ लग रहा श्रवण मनोहर विविध विहंगम चहक रहे ॥ घोर-घोरतर तप तपते हैं बने तपस्वी घाट रहे। आस्रव रोधक संवर बनता बँधा झर रहा पाट रहे ॥२८॥ गणधर गणधर के चरणों में ऋषि-यति-मुनि अनगार रहे। सुरपति नरपति और-और जो निकट भव्यपन धार रहे ॥ ये सब आकर परम-भक्ति से परम तीर्थ में स्नान किये। पञ्चम युग के कलुषित मन को धो-धोकर छविमान किये॥२९॥ नहीं किसी से जीता जाता अजेय है गम्भीर रहा। पतितों को जो पूत बनाता परमपूत है क्षीर रहा ॥ अवगाहन करने आया हूँ महातीर्थ में स्नान करूं। मेरा भी सब पाप धुले बस यही प्रार्थना दान करूं ॥३०॥ नयन युगल क्यों लाल नहीं हैं? कोप अनल को जीत लिया। हाव-भाव से नहीं देखते! राग आपमें रीत गया ॥ विषाद-मद से दूर हुये हैं प्रसन्नता का उदय रहा। यूँ तव मुख कहता-सा लगता दर्पण-सम है हृदय रहा ॥३१॥ निराभरण होकर भासुर हैं राग-रहित हैं अघहर हैं। कामजयी बन यथाजात बन बने दिगम्बर मनहर हैं॥ निर्भय हैं सो बने निरायुध मार-काट से मुक्त हुये। क्षुधा-रोग का नाश हुआ है निराहार में तृप्त हुये ॥३२॥ अभी खिले हैं नीरज चन्दन-सम घम-घम-घम-वासित हैं। दिनकर शशिकर हीरक आदिक शतवसु लक्षण भासित हैं ॥ दश-शत रवि-सम भासुर फिर भी आँखें लखती ना थकती। दिव्यबोध जब जिन में उगता देह दिव्यता यूँ जगती। बाल बढ़े नाखून बढ़े ना मलिन धूलि आ ना लगती ॥३३॥ शिवपथ में हैं बाधक होते मोह-भाव हैं राग घने। जिनसे कलुषित जन भी तुम को लखते वे बेदाग बने ॥ किसी दिशा से जो भी देखे उसके सम्मुख तुम दिखते। शरदचन्द्र-से शान्त धवलतम संत सुधी जन यूँ लिखते ॥३४॥ सुरपति मुकुटों की मणिकिरणें झर-झुर झर-झुर करती हैं। पूज्यपाद के पदपद्मों को चूम रही मन हरती हैं॥ वीतराग जिन! दिव्य रूप तव सकल लोक को शुद्ध करे। अन्ध बना है कुमततीर्थ में शीघ्र इसे प्रतिबुद्ध करे ॥३५॥ मानथंभ सर पुष्पवाटिका भरी खातिका शुचि जल से। स्तूप महल बहु कोट नाट्यगृह सजी वेदियाँ ध्वज-दल से ॥ सुरतरु घेरे वन उपवन है और स्फटिक का कोट लसे। नर सुर मुनि की सभा पीठिका-पर जिनवर हैं और बसे। समवसरण की ओर देखते पाप ताप का घोर नसे ॥३६॥ क्षेत्र-पर्वतों के अन्तर में क्षेत्रों मन्दरगिरियों में। द्वीप आठवाँ नन्दीश्वर में और अन्य शुभ पुरियों में ॥ सकल-लोक में जितने जिन के चैत्यालय हैं यहाँ लसे। उन सबको मैं प्रणाम करता मम मन में वे सदा बसे ॥३७॥ बने बनाये बिना बनाये यहाँ धरा पर गिरियों में। देवों राजाओं से अर्चित मानव-निर्मित पुरियों में ॥ वन में उपवन में भवनों में दिव्य विमानों यानों में। जिनवर बिम्बों को मैं सुमरूँ अशुभ दिनों में सुदिनों में ॥३८॥ जम्बू-धातकि-पुष्करार्ध में लाल कमल-सम तन वाले। कृष्ण मेघ-सम शशी कनक-सम नील कण्ठ आभा वाले ॥ साम्य-बोध चारितधारक हो अष्टकर्म को नष्ट किया। विगत-अनागत-आगत जिन को नर्मू नष्ट हो कष्ट जिया॥३९॥ रतिकर रुचके चैत्य वृक्ष पर औ दधिमुख अञ्जन भूधर रजत कुलाचल कनकाचल पर वृक्ष शाल्मली-जम्बू पर॥ इष्वाकारों वक्षारों पर व्यन्तर-ज्योतिष सुर जग में। कुण्डल मानुषगिरि वर-प्रतिमा नमूं उन्हें अन्तर जग में ॥४०॥ सुरासुरों से नर नागों से पूजित वंदित अर्चित हैं। घंटा तोरण ध्वजादिकों से शोभित बुधजन चर्चित हैं ॥ भविक जनों को मोहित करते पाप-ताप के नाशक हैं। वन्दें जग के जिनालयों को दयाधर्म के शासक हैं ॥४१॥ अञ्चलिका (दोहा) पूज्य चैत्य सद्भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ले प्रभु! तव संसर्ग ॥४२॥ अधोलोक में ऊर्ध्वलोक में मध्यलोक में उजियारे। बने बनाये हैं बनवाये चैत्य रहे अनगिन प्यारे॥ देव चतुर्विध अपने-अपने उत्साहित परिवार लिये। पर्वो विशेष तिथियों में औ प्रतिदिन शुभ श्रृंगार किये ॥४३॥ दिव्यगन्ध ले दिव्य दीप ले दिव्य दिव्य ले सुमनलता। दिव्य चूर्ण ले दिव्य न्हवन ले दिव्य दिव्य ले वसन तथा ॥ अर्चन पूजन वन्दन करते सविनय करते नमन सभी। भाग्य मानते पुण्य लूटते बने पापका शमन तभी ॥४४॥ मैं भी उन सब जिन चैत्यों को भरतखण्ड में रहकर भी। पूजूँ वन्दूँ अर्चन कर लूं नमन करूँ सर झुककर ही ॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति हो ॥४५॥
  9. नंदीश्वरभक्ति जय-जय-जय जयवन्त जिनालय नाश रहित हैं शाश्वत हैं। जिनमें जिनमहिमा से मण्डित जैन बिम्ब हैं भास्वत हैं॥ सुरपति के मुकुटों की मणियाँ झिलमिल झिलमिल करती हैं। जिनबिम्बों के चरण-कमल को धोती हैं, मन हरती हैं ॥१॥ सदा-सदा से सहज रूप से शुचितम प्राकृत छवि वाले। रहें जिनालय धरती पर ये श्रमणों की संस्कृति धारे॥ तीनों संध्याओं में इनको तन से मन से वचनों से। नमन करूं धोऊँ अघ-रज को छूटू भव-वन भ्रमणों से ॥२॥ भवनवासियों के भवनों में तथा जिनालय बने हुये। तेज कान्ति से दमक रहे हैं और तेज सब हने हुये ॥ जिनकी संख्या जिन आगम में सात कोटि की मानी है। साठ-लाख दस लाख और दो लाख बताते ज्ञानी हैं ॥३॥ अगणित द्वीपों में अगणित हैं अगणित गुण गण मण्डित हैं। व्यन्तर देवों से नियमित जो पूजित संस्तुत वन्दित हैं॥ त्रिभुवन के सब भविकजनों के नयन मनोहर सुन प्यारे। तीन लोक के नाथ जिनेश्वर मन्दिर हैं शिवपुर द्वारे ॥४॥ सूर्य चन्द्र ग्रह नक्षत्रादिक तारक दल गगनांगन में। कौन गिने वह अनगिन हैं ये अनगिन जिनगृह हैं जिनमें ॥ जिन के वन्दन प्रतिदिन करते शिव सुख के वे अभिलाषी। दिव्य देह ले देव-देवियाँ ज्योतिर्मण्डल अधिवासी ॥५॥ नभ-नभ स्वर-रस केशव-सेना मद हो सोलह कल्पों में। आगे पीछे तीन बीच दो शुभतर कल्पातीतों में ॥ इस विधि शाश्वत ऊर्ध्वलोक में सुखकर ये जिनधाम रहें। अहो भाग्य हो नित्य निरन्तर होठों पर जिन नाम रहे ॥६॥ अलोक का फैलाव कहाँ तक लोक कहाँ तक फैला है? जाने जो जिन हैं जय-भाजन मिटा उन्हीं का फेरा है॥ कही उन्हीं ने मनुज लोक के चैत्यालय की गिनती है। चार शतक अट्ठावन ऊपर जिन में मन रम विनती है ॥७॥ आतम-मद-सेना-स्वर-केशव-अंग-रंग फिर याम कहे। ऊर्ध्वमध्य औ अधोलोक में यूँ सब मिल जिन-धाम रहे ॥८॥ किसी ईश से निर्मित ना हैं शाश्वत हैं स्वयमेव सदा। दिव्य भव्य जिन मन्दिर देखो छोड़ो मन अहमेव मुधा ॥ जिनमें आर्हत प्रतिभा-मण्डित प्रतिमा न्यारी प्यारी हैं। सुरासुरों से सुरपतियों से पूजी जाती सारी हैं ॥९॥ रुचक-कुण्डलों-कुलाचलों पर क्रमशः चउ चउ तीस रहें। वक्षारों-गिरि विजयाद्घ पर शत शत-सत्तर ईश कहें ॥ गिरि इषुकारों उत्तरगिरियों कुरुओं में चउ चउ दश हैं। तीन शतक छह बीस जिनालय गाते इनके हम यश हैं ॥१०॥ द्वीप रहा हो अष्टम जिसने ‘नन्दीश्वर' वर नाम धरा। नन्दीश्वर सागर से पूरण आप घिरा अभिराम खरा ॥ शशि-समशीतल जिसके अतिशय यश से बस! दशदिशा खिली। भूमण्डल भी हुआ प्रभावित इस ऋषि को भी दिशा मिली ॥११॥ किस किस को ना दिशा मिली! इसी द्वीप में चउ दिशियों में चउ गुरु अञ्जन गिरिवर हैं। इक-इक अञ्जनगिरि सम्बन्धित चउ-चउ दधिमुख गिरिवर हैं॥ फिर प्रति दधिमुख कोनों में दो-दो रतिकर-गिरि चर्चित हैं। पावन बावन गिरि पर बावन जिनगृह हैं सुर अर्चित हैं ॥१२॥ एक वर्ष में तीन बार शुभ अष्टाह्निक उत्सव आते। एक प्रथम आषाढ़ मास में कार्तिक फाल्गुन फिर आते ॥ इन मासों के शुक्ल पक्ष में अष्ट दिवस अष्टम तिथि से। प्रमुख बना सौधर्म इन्द्र को भूपर उतरे सुर गति से ॥१३॥ पूज्य द्वीप नन्दीश्वर जाकर प्रथम जिनालय वन्दन ले। प्रचुर पुष्प मणिदीप धूप ले दिव्याक्षत ले चन्दन ले ॥ अनुपम अद्भुत जिन प्रतिमा की जग-कल्याणी गुरुपूजा। भक्ति-भाव से करते हे मन! पूजा में खो-जा तू जा ॥१४॥ बिम्बों के अभिषेक कार्यरत हुआ इन्द्र सौधर्म महा। ‘दृश्य बना उसका क्या वर्णन भाव-भक्ति सो धर्म रहा ॥ सहयोगी बन उसी कार्य में शेष इन्द्र जयगान करें। पूर्णचन्द्र-सम निर्मल यश ले प्रसाद गुण का पान करें ॥१५॥ इन्द्रों की इन्द्राणी मंगल कलशादिक लेकर सर पै। समुचित शोभा और बढ़ातीं गुणवन्ती इस अवसर पै ॥ छां-छुम छां-छुम नाच नाचतीं सुर-नटियाँ हैं सस्मित हो। सुनो! शेष अनिमेष सुरासुर दृश्य देखते विस्मित हो ॥१६॥ वैभवशाली सुरपतियों के भावों का परिणाम रहा। पूजन का यह सुखद महोत्सव दृश्य बना अभिराम रहा ॥ इसके वर्णन करने में जब सुनो! बृहस्पति विफल रहा। मानव में फिर शक्ति कहाँ वह? वर्णन करने मचल रहा ॥१७॥ जिन-पूजन अभिषेक पूर्णकर अक्षत केसर चन्दन से। बाहर आये देव दिख रहे रंगे-रंगे से तन-मन से ॥ तथा दे रहे प्रदक्षिणा हैं नन्दीश्वर जिनभवनों की। पूज्य पर्व को पूर्ण मनाते स्तुति करते जिन-श्रमणों की ॥१८॥ सुनो! वहाँ से मनुज-लोक में सब मिलकर सुर आते हैं। जहाँ पाँच शुभ मन्दरगिरि हैं शाश्वत चिर से भाते हैं। भद्रशाल नन्दन सुमनस औ पाण्डुक वन ये चार जहाँ। प्रति-मन्दर पर रहे तथा प्रतिवन में जिनगृह चार महा ॥१९॥ मन्दर पर भी प्रदक्षिणा दे करें जिनालय वन्दन हैं। जिन-पूजन अभिषेक तथा कर करें शुभाशय नन्दन हैं॥ सुखद पुण्य का वेतन लेकर जो इस उत्सव का फल है। जाते निज-निज स्वर्गों को सुर यहाँ धर्म ही सम्बल है ॥२०॥ तरह-तरह के तोरण-द्वारे दिव्य वेदिका और रहें। मानस्तम्भों यागवृक्ष औ उपवन चारों ओर रहें ॥ तीन-तीन प्राकार बने हैं विशाल मण्डप ताने हैं। ध्वजा पंक्ति का दशक लसे चउ-गोपुर गाते गाने हैं ॥२१॥ देख सकें अभिषेक बैठकर धाम बने नाटक गृह हैं। जहाँ सदन संगीत साध के क्रीड़ागृह कौतुकगृह हैं॥ सहज बनीं इन कृतियों को लख शिल्पी होते अविकल्पी। समझदार भी नहीं समझते सूझ-बूझ सब हो चुप्पी ॥२२॥ थाली-सी है गोल वापिका पुष्कर हैं चउ-कोन रहे। भरे लबालब जल से इतने कितने गहरे कौन कहे? पूर्ण खिले हैं महक रहे हैं जिन में बहुविध कमल लसे। शरद काल में जिसविध नभ में शशि ग्रह तारक विपुल लसें ॥२३॥ झारी लोटे घट कलशादिक उपकरणों की कमी नहीं। प्रति जिनगृह में शत-वसुशत-वसु शाश्वत मिटते कभी नहीं ॥ वर्णाकृति भी निरी-निरी है जिन की छवि प्रतिछवि भाती। जहाँ घंटियाँ झन-झन-झन-झन बजती रहती ध्वनि आती॥२४॥ स्वर्णमयी ये जिन मन्दिर यूँ युगों-युगों से शोभित हैं। गन्धकुटी में सिंहासन भी सुन्दर-सुन्दर द्योतित हैं॥ नाना दुर्लभ वैभव से ये परिपूरित हैं रचित हुये। सुनो! यहीं त्रिभुवन के वैभव जिनपद में आ प्रणत हुये ॥२५॥ इन जिनभवनों में जिनप्रतिमा ये हैं पद्मासन वाली। धनुष पञ्चशत प्रमाणवाली प्रति-प्रतिमा शुभ छवि वाली ॥ कोटि-कोटि दिनकर आभा तक मन्द-मन्द पड़ जाती है। कनक रजत मणि निर्मित सारी झग-झगझग-झग भाती हैं॥२६॥ दिशा-दिशा में अतिशय शोभा महातेज यश धार रहें। पाप मात्र के भंजक हैं ये भवसागर के पार रहें ॥ और और फिर भानुतुल्य इन जिनभवनों को नमन करूं। स्वरूप इनका कहा न जाता मात्र मौन हो नमन करूं ॥२७॥ धर्मक्षेत्र ये एक शतक औ सत्तर हैं षट् कर्म जहाँ। धर्मचक्रधर तीर्थकरों से दर्शित है जिनधर्म यहाँ ॥ हुये हो रहे होंगे उन सब तीर्थकरों को नमन करूं। भाव यही है 'ज्ञानोदय' में रमण करूँ भव-भ्रमण हरूँ ॥२८॥ इस अवसर्पिण में इस भूपर वृषभनाथ अवतार लिया। भर्ता बन युग का पालन कर धर्म-तीर्थ का भार लिया ॥ अन्त-अन्त में अष्टापद पर तप का उपसंहार किया। पापमुक्त हो मुक्ति सम्पदा प्राप्त किया उपहार जिया ॥२९॥ बारहवें जिन 'वासुपूज्य' हैं परम पुण्य के पुञ्ज हुये। पाँचों कल्याणों में जिनको सुरपति पूजक पूज गये ॥ ‘चम्पापुर' में पूर्ण रूप से कर्मों पर बहु मार किये। परमोत्तम पद प्राप्त किये औ विपदाओं के पार गये ॥३०॥ प्रमुदित मति के राम-श्याम से ‘नेमिनाथ' जिन पूजित हैं। कषाय-रिपु को जीत लिए हैं प्रशमभाव से पूरित हैं। ‘ऊर्जयन्त गिरनार शिखर' पर जाकर योगातीत हुये। त्रिभुवन के फिर चूड़ामणि हो मुक्तिवधू के प्रीत हुये ॥३१॥ ‘वीर' दिगम्बर श्रमण गुणों को पाल बने पूरण ज्ञानी। मेघनाद-सम दिव्य नाद से जगा दिया जग सद्ध्यानी ॥ ‘पावापुर' वर सरोवरों के मध्य तपों में लीन हुये। विधिगुण विगलित करअगणित गुण शिवपद पास्वाधीनहुये ॥३२॥ जिसके चारों ओर वनों में मद वाले गज बहु रहते। ‘सम्मेदाचल' पूज्य वही है पूजो इसको गुरु कहते ॥ शेष रहे ‘जिन बीस तीर्थकर' इसी अचल पर अचल हुये। अतिशय यश को शाश्वत सुख को पाने में वे सफल हुये ॥३३॥ मूक तथा उपसर्ग अन्तकृत अनेक विध केवलज्ञानी। हुये विगत में यति मुनि गणधर कु-सुमत ज्ञानी विज्ञानी ॥ गिरि वन तरुओं गुफा कंदरों सरिता सागर तीरों में। तप साधन कर मोक्ष पधारे अनल शिखा मरु टीलों में ॥३४॥ मोक्ष साध्य के हेतुभूत ये स्थान रहें पावन सारे। सुरपतियों से पूजित हैं सो इनकी रज शिर पर धारें ॥ तपोभूमि ये पुण्य-क्षेत्र ये तीर्थ-क्षेत्र ये अघहारी। धर्मकार्य में लगे हुये हम सबके हों मंगलकारी ॥३५॥ दोष रहित हैं विजितमना हैं जग में जितने जिनवर हैं। जितनी जिनवर की प्रतिमाएँ तथा जिनालय मनहर हैं॥ समाधि साधित भूमि जहाँ मुनि-साधक के हो चरण पड़े। हेतु बने ये भविकजनों के भव-लय में हम चरण पड़े ॥३६॥ उत्तम यशधर जिनपतियों का स्तोत्र पढ़े निजभावों में। तन से मन से और वचन से तीनों संध्या कालों में ॥ श्रुतसागर के पार गए उन मुनियों से जो संस्तुत है। यथाशीघ्र वह अमित पूर्ण पद पाता सम्मुख प्रस्तुत है ॥३७॥ मलमूत्रों का कभी न होना रुधिर क्षीर-सम श्वेत रहे। सर्वांगों में सामुद्रिकता सदा - सदा ना स्वेद रहे। रूप सलोना सुरभित होना तन-मन में शुभ लक्षणता। हित-मित-मिश्री मिश्रितवाणी सुन लो! और विलक्षणता॥३८॥ अतुल-वीर्य का सम्बल होना प्राप्त आद्य संहननपना। ज्ञात तुम्हें हो ख्यात रहे हैं स्वतिशय दश ये गुणनपना ॥ जन्म-काल से मरण-काल तक ये दश अतिशय ‘सुनते हैं। तीर्थकरों के तन में मिलते अमितगुणों को गुनते हैं ॥३९॥ कोश चार शत सुभिक्षता हो अधर गगन में गमन सही। चउ विध कवलाहार नहीं हो किसी जीव का हनन नहीं ॥ केवलता या श्रुतकारकता उपसर्गों का नाम नहीं। चतुर्मुखी का होना तन की छाया का भी काम नहीं ॥४०॥ बिना बढ़े वह सुचारुता से नख केशों का रह जाना। दोनों नयनों के पलकों का स्पन्दन ही चिर मिट जाना ॥ घातिकर्म के क्षय के कारण अर्हन्तों में होते हैं। ये दश अतिशय इन्हें देख बुध पल भर सुध-बुध खोते हैं ॥४१॥ अर्धमागधी भाषा सुख की सहज समझ में आती है। समवसरण में सब जीवों में मैत्री घुल-मिल जाती है॥ एक साथ सब ऋतुएँ फलती ‘क्रम' के सब पथ रुक जाते। लघुतर गुरुतर बहुतर तरुवर फूल फलों से झुक जाते ॥४२॥ दर्पण-सम शुचि रत्नमयी हो झग-झग करती धरती है। सुरपति नरपति यतिपतियों के जन-जन के मन हरती है ॥ जिनवर का जब विहार होता पवन सदा अनुकूल बहे। जन-जन परमानन्द गन्ध में डूबे दुख-सुख भूल रहे ॥४३॥ संकटदा विषकंटक कीटों कंकर तिनकों शूलों से। रहित बनाता पथ को गुरुतर उपलों से अतिधूलों से ॥ योजन तक भूतल को समतल करता बहता वह साता। मन्द-मन्द मकरन्द गन्ध से पवन मही को महकाता ॥४४॥ तुरत इन्द्र की आज्ञा से बस नभ मण्डल में छा जाते। सघन मेघ के कुमार गर्जन करते बिजली चमकाते ॥ रिम-झिम रिम-झिम गन्धोदक की वर्षा होती हर्षाती। जिस सौरभ से सब की नासा सुर-सुर करती दर्शाती ॥४५॥ आगे पीछे सात-सात इक पदतल में तीर्थंकर के। पंक्तिबद्ध यों अष्टदिशाओं और उन्हीं के अन्तर में ॥ पद्म बिछाते सुर माणिक-सम केशर से जो भरे हुये। अतुल परस है सुखकर जिनका स्वर्ण दलों से खिले हुये ॥४६॥ पकी फसल ले शाली आदिक धरती पर सर धरती है। सुन लो फलतः रोम-रोम से रोमाञ्चित सी धरती है॥ ऐसी लगती त्रिभुवनपति के वैभव को ही निरख रही। और स्वयं को भाग्यशालिनी कहती-कहती हरख रही ॥४७॥ शरदकाल में विमल सलिल से सरवर जिस विध लसता है। बादल-दल से रहित हुआ नभमण्डल उस विध हँसता है॥ दशों दिशायें धूम्र-धूलियाँ शामभाव को तजती हैं। सहज रूप से निरावरणता उज्ज्वलता को भजती हैं ॥४८॥ इन्द्राज्ञा में चलने वाले देव चतुर्विध वे सारे। भविक जनों को सदा बुलाते समवसरण में उजियारे॥ उच्चस्वरों में दे दे करके आमन्त्रण की ध्वनि 'ओ जी! “देवों के भी देव यहाँ हैं'' शीघ्र पधारो आओ जी! ॥४९॥ जिसने धारे हजार आरे स्फुरणशील मन हरता है। उज्ज्वल मौलिक मणि-किरणों से झर-झुर झर-झुर करता है। जिसके आगे तेज भानु भी अपनी आभा खोता है। आगे-आगे सबसे आगे धर्मचक्र वह होता है ॥५०॥ वैभवशाली होकर भी ये इन्द्र लोग सब सीधे हैं। धर्म राग से रंगे हुये हैं भाव भक्ति में भीगे हैं॥ इन्हीं जनों से इस विध अनुपम अतिशय चौदह किये गये। वसुविध मंगल पात्रादिक भी समवसरण में लिये गये ॥५१॥ नील-नील वैडूर्य दीप्ति से जिसकी शाखायें भाती। लाल-लाल मृदु प्रवाल आभा जिनमें शोभा औ लाती ॥ मरकत मणि के पत्र बने हैं जिसकी छाया शाम घनी। अशोक तरु यह अहो शोभता यहाँ शोक की शाम नहीं ॥५२॥ पुष्पवृष्टि हो नभ से जिसमें पुष्प अलौकिक विपुल मिले। नील-कमल हैं लाल-धवल हैं कुन्द बहुल हैं बकुल खुले ॥ गन्धदार मन्दार मालती पारिजात मकरन्द झरे। जिन पर अलिगण गुन-गुन गाते निशिगन्धा अरविन्द खिले॥५३॥ जिनकी कटि में कनक करधनी कलाइयों में कनक कड़े। हीरक के केयूर हार हैं पुष्ट कण्ठ में दमक पड़े। सालंकृत दो यक्ष खड़े जिन-कर्मों में कुण्डल डोलें। चमर दुराते हौले-हौले प्रभु की जो जय-जय बोलें ॥५४॥ यहाँ यकायक घटित हुआ जो कोई सकता बता नहीं। दिवस रात का भला भेद वह कहाँ गया कुछ पता नहीं ॥ दूर हुये व्यवधान हजारों रवियों के वह आप कहीं। भामण्डल की यह सब महिमा आँखों को कुछ ताप नहीं ॥५५॥ प्रबल पवन का घात हुआ जो विचलित होकर तुरत मथा। हर-हर-हर-हर सागर करता हर मन हरता मुदित यथा ॥ वीणा मुरली दुम-दुम दुंदुभि ताल-ताल करताल तथा। कोटि कोटियों वाद्य बज रहे समवसरण में सार कथा ॥५६॥ महादीर्घ वैडूर्य रत्न का बना दण्ड है जिस पर हैं। तीन चन्द्र-सम तीन छत्र ये गुरु-लघु-लघुतम ऊपर हैं॥ तीन भुवन के स्वामीपन की स्थिति जिससे अति प्रकट रही। सुन्दरतम हैं मुक्ताफल की लड़ियाँ जिस पर लटक रहीं ॥५७॥ जिनवर की गम्भीर भारती श्रोताओं के दिल हरती। योजन तक जो सुनी जा रही अनुगुंजित हो नभ धरती ॥ जैसे जल से भरे मेघदल नभ-मण्डल में डोल रहे। ध्वनि में डूबे दिगन्तरों में घुमड़-घुमड़ कर बोल रहे ॥५८॥ रंग-विरंगी मणि-किरणों से इन्द्रधनुष की सुषमा ले। शोभित होता अनुपम जिस पर ईश विराजे गरिमा ले ॥ सिंहों में वर बहु सिंहों ने निजी पीठ पर लिया जिसे। स्फटिक शिला का बना हुआ है सिंहासन है जिया!लसे ॥५९॥ अतिशय गुण चउतीस रहें ये जिस जीवन में प्राप्त हुये। प्रातिहार्य का वसुविध वैभव जिन्हें प्राप्त हैं आप्त हुये ॥ त्रिभुवन के वे परमेश्वर हैं महागुणी भगवन्त रहे। नमूं उन्हें अरहन्त सन्त हैं सदा-सदा जयवन्त रहें ॥६०॥ अञ्चलिका (दोहा) नन्दीश्वर वर भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ले प्रभु! तव संसर्ग ॥६१॥ नन्दीश्वर के चउ दिशियों में चउ गुरु अंजन गिरिवर हैं। इक-इक अंजनगिरि सम्बन्धित चउ-चउ दधिमुख गिरिवर हैं॥ फिर प्रति दधिमुख कोनों में दो-दो रतिकर गिरि चर्चित हैं। पावन बावनगिरि पर बावन जिनगृह हैं सुर अर्चित हैं ॥६२॥ देव चतुर्विध कुटुम्ब ले सब इसी द्वीप में हैं आते। कार्तिक फागुन आषाढ़ों के अन्तिम वसु-दिन जब आते ॥ शाश्वत जिनगृह जिनबिम्बों से मोहित होते बस तातें। तीनों अष्टाह्निक पर्यों में यहीं आठ दिन बस जाते ॥६३॥ दिव्य गन्ध ले दिव्य दीप ले दिव्य-दिव्य ले सुमन तथा। दिव्य चूर्ण ले दिव्य न्हवन ले दिव्य-दिव्य ले वसन तथा ॥ अर्चन पूजन वन्दन करते नियमित करते नमन सभी। नन्दीश्वर का पर्व मनाकर करते निजघर गमन सभी ॥६४॥ मैं भी उन सब जिनालयों का भरतखण्ड में रहकर भी। अर्चन पूजन वन्दन करता प्रणाम करता झुककर ही ॥ कष्ट दूर हो कर्मचूर हो बोधिलाभ हो सद्गति हो। वीर मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ! ॥६५॥
  10. निर्वाणभक्ति अतुल रहा है अचल रहा है विपुल रहा है विमल रहा। निरा निरामय निरुपम शिवसुख मिला वीर को सबल रहा ॥ नर-नागेन्द्रों खगपतियों से अमरेन्द्रों से वन्दित हैं। भूतेन्द्रों से यक्षेन्द्रों से कुबेर से अभिनन्दित हैं ॥१॥ औरों का वह भाग्य कहाँ है पाँच-पाँच कल्याण गहे। भविक जनों को तुष्टि दिलाते वर्धमान वरदान रहे ॥ तीन लोक के आप परमगुरु पाप मात्र से दूर रहे। स्तवन करूँ तव भाव-भक्ति से पुण्य भाव का पूर रहे ॥२॥ दीर्घ दिव्य सुख-भोग भोगते पुष्पोत्तर के स्वामी हो। आयु पूर्णकर अच्युत से च्युत हो शिवसुख परिणामी हो ॥ आषाढ़ी के शुक्लपक्ष की छटी छठी तिथि में उतरे। हस्तोत्तर के मध्य शशी है नभ में तारकगण बिखरे ॥३॥ विदेहनामा कुण्डपुरी है प्रतिभा-रत इस भारत में। प्रियंकारिणी देवी त्रिशला सेवारत सिद्धारथ में ॥ शुभफल देने वाले सोलह स्वप्नों को तो दिया दिखा। वैभवशाली यहाँ गर्भ में बालक आया ‘दिया' दिखा ॥४॥ चैत्र मास है शुक्लपक्ष है तेरस का शुभ दिवस रहा। महावीर का धीर वीर का जनम हुआ यश बरस रहा ॥ तभी उत्तरा फाल्गुनि पर था शशांक का भी संग रहा। शेष सौम्य ग्रह निज उत्तम पद गहे लग्न भी चंग रहा ॥५॥ अगला दिन वह चतुर्दशी का हस्ताश्रित है सोम रहा। उषाकाल से प्रथम याम में शान्त-शान्त भू-व्योम रहा ॥ पाण्डुक की शुचि मणी शिला पर बिठा वीर को इन्द्रों ने। न्हवन कराया रत्नघटों से देखा उसको देवों ने ॥६॥ तीन दशक तक कुमार रहकर अनन्त गुण से खिले हुये। भोगों उपभोगों को भोगा देवों से जो मिले हुये ॥ तभी यकायक उदासीन से अनासक्त हो विषयों से। और वीर ये सम्बोधित हो ब्रह्मलोक के ऋषियों से ॥७॥ झालर झूमर मणियाँ लटकी झरझुर-झरझुर रूपवती। ‘चन्द्रप्रभा' यह दिव्य पालिका रची हुई बहुकूटवती ॥ वीर हुये आरूढ़ इसी पर कुण्डपुरी से निकल गये। वीतराग को राग देखता जन-जन परिजन विकल हुये ॥८॥ मगसिर का यह मास रहा है और कृष्ण का पक्ष रहा। यथा जन्म में हस्तोत्तर के मध्य शशी अध्यक्ष रहा ॥ दशमी का मध्याह्न काल है बेला का संकल्प किया। वीर आप जिन बने दिगम्बर मन को चिर अविकल्प किया ॥९॥ ग्राम नगर में प्रतिपट्टण में पुर-गोपुर में गोकुल में। अनियत विहार करते प्रतिदिन निर्जन जन-जन संकुल में ॥ द्वादश वर्षों द्वादश विध तप उग्र-उग्रतर तपते हैं। अमर समर सब जिन्हें पूजते कष्टों में ना कॅपते हैं ॥१०॥ ऋजुकूला सरिता के तट पर बसा जूभिका गाँव रहा। शिला बिछी है सहज सदी से शाल वृक्ष की छाँव जहाँ ॥ खड़े हुये मध्याह्न काल में दो दिन के उपवास लिए। आत्मध्यान में लीन हुये हैं तन का ना अहसास किए ॥११॥ तिथि दशमी वैशाख मास है शुक्लपक्ष का स्वागत है। हस्तोत्तर के मध्य शशी है शान्त कान्ति से भास्वत है ॥ क्षपक श्रेणी पर वीर चढ़ गये निर्भय हो भव-भीत हुये। घाति-घात कर दिव्य बोध को पाये, मृदु नवनीत हुये ॥१२॥ नयन मनोहर हर दिल हरते हर्षित हो प्रति अंग यहाँ। महावीर वैभारगिरी पर लाये चउविध संघ महा ॥ श्रमण-श्रमणियाँ तथा श्राविका-श्रावकगण सागारों में। गौतम गणधर प्रमुख रहे हैं ऋषि यति मुनि अनगारों में ॥१३॥ दुम-दुम-दुम-दुम दुंदुभि बजना दिव्य धुनी का वह खिरना। सुरभित सुमनावलि का गिरना चउसठ चामर का ढुरना ॥ तीन छत्र का सर पर फिरना औ भामण्डल का घिरना। स्फटिक मणी का सिंहासन सो अशोक तरु का भी तनना। समवसरण में प्रातिहार्य का हुआ वीर को यूं मिलना ॥१४॥ सागारों को ग्यारह प्रतिमाओं का है उपदेश दिया। अनगारों को क्षमादि दशविध धर्मों का निर्देश दिया ॥ इस विध धर्मामृत की वर्षा करते विहार करते हैं। तीस वर्ष तक वीर निरन्तर जग का सुधार करते हैं ॥१५॥ कई सरोवर परिसर जिनमें भाँति-भाँति के कमल खिले। तरह-तरह के लघु-गुरु तरुवर फूले महके सफल फले ॥ अमर रमे रमणीय मनोहर पावानगरी उपवन में। बाह्य खड़े जिन तनूत्सर्ग में भीतर में तो चेतन में ॥१६॥ कार्तिक का यह मास रहा है तथा कृष्ण का पक्ष रहा। कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि है स्वाती का तो ऋक्ष रहा ॥ शेष रहे थे चउकर्मों को वर्द्धमान ने नष्ट किया। अजरअमर बन अक्षयसुख से आतम को परिपुष्ट किया ॥१७॥ प्राप्त किया निर्वाण दशा को वीर चले शिव-धाम गये। ज्ञात किया बस इन्द्र उतरते धरती पर जिन नाम लिये ॥ धरती दुर्लभ देवदारु है स्वर्ग सुलभ लहु-चन्दन है। कालागुरु गोशीर्ष साथ है लाये सुरभित नन्दन है ॥१८॥ धूप फलों से जिनवर तन का गणधर का अर्चन करके। अनलेन्द्रों के मुकुट अनल से जला वीर तन पल भर में ॥ वैमानिक सुर तो स्वर्गों में ज्योतिष नभ में यानों में। व्यन्तर बिखरे निज-निज वन में शेष गये बस भवनों में ॥१९॥ इस विध दोनों संध्याओं में तन से मन से भाषा से। वर्द्धमान का स्तोत्र - पाठ जो करते हैं बिन आशा से ॥ देव लोक में मनुज लोक में अनन्य दुर्लभ सुख पाते। और अन्त में शिवपद पाते किन्तु लौटकर ना आते ॥२०॥ गणधर देवों श्रुतपारों के तीर्थकरों के अन्त' जहाँ। वहीं बनी निर्वाणभूमियाँ भारत सो यशवन्त रहा ॥ शुद्ध वचन से मन से तन से नमन उन्हें शत बार करूँ। स्तवन उन्हीं का करूँ आज मैं बार-बार जयकार करूं ॥२१॥ प्रथम तीर्थकर महामना वे पूर्ण-शील से युक्त हुये। शैल-शिखर कैलाश जहाँ पर कर्म-काय से मुक्त हुये ॥ चम्पापुर में वासुपूज्य ये परम पूज्य पद पाये हैं। राग-रहित हो बन्ध-रहित हो अपनी धी में आये हैं ॥ शुद्ध चेतना लाये हैं ॥२२॥ जिसको पाने स्वर्गों में भी देवलोक भी तरस रहे। साधु गवेषक बने उसी के उसीलिए कट दिवस रहे ॥ ऊर्जयन्त गिरनारगिरी पर निज में निज को साध लिया। अरिष्टनेमी कर्म नष्टकर सिद्धि सुधा का स्वाद लिया ॥२३॥ पावापुर के बाहर आते विशाल उन्नत थान रहा। जिसको घेरे कमल-सरोवर नन्दन-सा छविमान रहा ॥ ‘यहीं' पाप धो धवलिम होकर वर्धमान निर्वाण गहे। पूजूँ वन्दूँ अर्चन कर लूं ज्ञानोदय' गुणखान रहे ॥२४॥ मोह मल्ल को जीत लिया जो बीस तीर्थकर शेष रहे। ज्ञान-भानु से किया प्रकाशित त्रिभुवन को अनिमेष रहे ॥ तीर्थराज सम्मेदाचल पर योगों का प्रतिकार किया। असीम सुख में डूब गये फिर भवसागर का पार लिया ॥२५॥ विहार रोके चउदह दिन तक वृषभदेव फिर मुक्त हुये। वर्धमान को लगे दिवस दो अयोग बनकर गुप्त हुये ॥ शेष तीर्थकर तनूत्सर्ग में एक मास तक शान्त रहे। सयोगपन तज अयोगगुण पा लोकशिखर का प्रान्त गहे ॥२६॥ वचनमयी थुदि कुसुमों से शुभ मालाओं को बना-बना। मानस-कर से दिशा-दिशा में बिखरायें हम सुहावना ॥ इन तीर्थों की परिक्रमा भी सादर सविनय सदा करें। यही प्रार्थना किन्तु करें हम सिद्धि मिले आपदा टरे ॥२७॥ पक्षपात तज कर्मपक्ष पर पाण्डव तीनों टूट पड़े। शत्रुञ्जयगिरि पर शत्रुञ्जय बने बन्ध से छूट पड़े॥ तुंगीगिरि पर अंग-रहित हो राम सदा अभिराम बने। नदी तीर पर स्वर्णभद्र मुनि बने सिद्ध विधिकाम हने ॥२८॥ सिद्धकूट वैभार तुंग पर श्रमणाचल विपुलाचल में। पावन कुण्डलगिरि पर मुक्तागिरि पर श्रीविंध्याचल में ॥ तप के साधन द्रोणागिरि पर पौदनपुर के अञ्चल में। सिंह दहाड़े सह्याचल में दुर्गम बलाहकाचल में ॥२९॥ गजदल टहले गजपंथा में हिम गिरता हिमगिरिवर में। दंडात्मक पृथुसार यष्टि में पूज्य प्रतिष्ठक भूधर में ॥ साधु-साधना करते बनते निर्मल पञ्चमगति पाते। स्थान हुये ये प्रसिद्ध जग में करलूँ इनकी थुदि तातें ॥३०॥ पुण्य पुरुष ये जहाँ विचरते पुजती धरती माटी है। आटे में गुड़ मिलता जैसे और मधुरता आती है ॥३१॥ गणधर देवों अरहन्तों की मौनमना मुनिराजों की। कही गईं निर्वाणभूमियाँ मुझसे कुछ गिरिराजों की ॥ विजितमना जिन शान्तमना मुनि जो हैं भय से दूर सदा। यही प्रार्थना मेरी उनसे सद्गति दें सुख पूर सुधा ॥३२॥ ‘वृषभ' वृषभ का चिह्न अजित कागज' शंभव का ‘घोट' रहा। अभिनन्दन का ‘वानर' माना और सुमति का ‘कोक' रहा ॥ छटे सातवें अष्टम जिन का ‘सरोज' ‘स्वस्तिक' ‘चन्दा' है। नवम दशम ग्यारहवें जिन का ‘मकर' ‘कल्पतरु' ‘गेंडा' है ॥३३॥ वासुपूज्य का ‘भैसा' ‘सूकर' विमलनाथ का औ ‘सेही'। अनन्त का है 'वज्र' धर्म का शान्तिनाथ का ‘मृगदेही'॥ कुन्थु अरह का 'अज' मीना' है ‘कलश' मल्लि का ‘कूर्म' रहा मुनिसुव्रत का, नमी नेमि का नीलकमल' है 'शंख' रहा। पार्श्वनाथ का 'नाग' रहा है वर्धमान का 'सिंह' रहा ॥३४॥ उग्रवंश के पार्श्वनाथ हैं नाथवंश के वीर रहे। मुनिसुव्रत औ नेमिनाथ हैं यदुवंशी हैं धीर रहे ॥ कुरुवंशी हैं शान्तिनाथ हैं कुन्थुनाथ अरनाथ रहे। रहे शेष इक्ष्वाकुवंश के इन पद में मम माथ रहे ॥३५॥ अञ्चलिका (दोहा) निर्वाणों की भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ले प्रभु! तव संसर्ग ॥३६॥ काल बीतता चतुर्थ में जब पक्ष नवासी शेष रहे। कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के सौ-सौ श्वाँसे शेष रहे ॥ भोर स्वाति की पावा में है वर्धमान शिव-धाम गये। देव चतुर्विध साथ स्वजन ले लो आते जिन नाम लिये ॥३७॥ दिव्य गन्ध ले दिव्य दीप ले दिव्य-दिव्य ले सुमनलता। दिव्य चूर्ण ले दिव्य न्हवन ले दिव्य-दिव्य ले वसन तथा ॥ अर्चन पूजन वन्दन करते करते नियमित नमन सभी। निर्वाणक कल्याण मनाकर करते निज घर गमन तभी ॥३८॥ सिद्धभूमियों को नित मैं भी यही भाव निर्मल करके। अर्चन पूजन वन्दन करता प्रणाम करता झुक करके ॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति हो! ॥३९॥
  11. आचार्यभक्ति सिद्ध बने शिव-शुद्ध बने जो जिन की थुति में निरत रहे। दावा-सम अति-कोप अनल को शान्त किये अति-विरत रहे। मनो-गुप्ति के वचन-गुप्ति के काय-गुप्ति के धारक हैं। जब जब बोलें सत्य बोलते भाव शुद्ध-शिव साधक हैं ॥१॥ दिन दुगुणी औ रात चउगुणी मुनि पद महिमा बढ़ा रहे। जिन शासन के दीप्त दीप हो और उजाला दिला रहे ॥ बद्ध-कर्म के गूढ़ मूल पर घात लगाते कुशल रहे। ऋद्धि सिद्धि परसिद्धि छोड़कर शिवसुख पाने मचल रहे ॥२॥ मूलगुणों की मणियों से है जिनकी शोभित देह रही। षड् द्रव्यों का निश्चय जिनको जिनमें कुछ संदेह नहीं ॥ समयोचित आचरण करे हैं प्रमाद के जो शोषक हैं। सम दर्शन से शुद्ध बने हैं निज गण तोषक, पोषक हैं ॥३॥ पर-दुख-कातर सदय हृदय जो मोह-विनाशक तप धारे। पञ्च-पाप से पूर्ण परे हैं पले पुण्य में जग प्यारे॥ जीव जन्तु से रहित थान में वास करें निज कथा करें। जिनके मन में आशा ना है दूर कुपथ से तथा चरें ॥४॥ बड़े-बड़े उपवासादिक से दण्डित ना बहुदण्डों से। सुडौल सुन्दर तन मन से हैं मुख मण्डल-कर-डण्डों से ॥ जीत रहे दो-बीस परीषह किरिया-करने योग्य करें। सावधान संधान ध्यान से प्रमाद हरने योग्य, हरें ॥५॥ नियमों में हैं अचल मेरुगिरि कन्दर में असहाय रहे। विजितमना हैं जित-इन्द्रिय हैं जितनिद्रक जितकाय रहे ॥ दुस्सह दुखदा दुर्गति-कारण लेश्याओं से दूर रहे। यथाजात हैं जिनके तन हैं जल्ल-मल्ल से पूर रहे ॥६॥ उत्तम-उत्तम भावों से जो भावित करते आतम को। राग लोभ मात्सर्य शाठ्य मद को तजते हैं अघतम को ॥ नहीं किसी से तुलना जिनकी जिनका जीवन अतुल रहा। सिद्धासन मन जिनके, चलता आगम मन्थन विपुल रहा ॥७॥ आर्तध्यान से रौद्रध्यान से पूर्णयत्न से विमुख रहे। धर्मध्यान में शुक्लध्यान में यथायोग्य जो प्रमुख रहे ॥ कुगति मार्ग से दूर हुए हैं ‘सुगति' ओर गतिमान हुये। सात ऋद्धि रस गारव छोड़े पुण्यवान गणमान्य हुए ॥८॥ ग्रीष्म काल में गिरि पर तपते वर्षा में तरुतल रहते। शीतकाल आकाश तले रह व्यतीत करते अघ दहते ॥ बहुजन हितकर चरित धारते पुण्य पुञ्ज हैं अभय रहे। प्रभावना के हेतुभूत उन महाभाव के निलय रहे ॥९॥ इस विध अगणित गुणगण से जो सहित रहे हितसाधक हैं। हे जिनवर! तव भक्तिभाव में लीन रहे गणधारक हैं॥ अपने दोनों कर-कमलों को अपने मस्तक पर धरके। उनके पद कमलों में नमता बार-बार झुक झुक करके ॥१०॥ कषायवश कटु-कर्म किये थे जन्म-मरण से युक्त हुये। वीतरागमय आत्म-ध्यान से कर्म नष्ट कर मुक्त हुये ॥ प्रणाम उनको भी करता हूँ अखण्ड अक्षय-धाम मिले। मात्र प्रयोजन यही रहा है सुचिर काल विश्राम मिले ॥११॥ अञ्चलिका (दोहा) मुनिगण-नायक भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ले प्रभु! तव संसर्ग ॥१२॥ पञ्चाचारों रत्नत्रय से शोभित हो आचार्य महा। शिवपथ चलते और चलाते औरों को भी आर्य यहाँ ॥ उपाध्याय उपदेश सदा दे चरित बोध का शिवपथ का। रत्नत्रय पालन में रत हो साधु सहारा जिनमत का ॥१३॥ भावभक्ति से चाव शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को। वन्दूँ पूजूँ अर्चन करलें नमन करूँ मैं गुरुगण को ॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधिलाभ हो सद्गति हो। वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ! ॥१४॥
  12. योगिभक्ति नरक-पतन से भीत हुये हैं जाग्रत-मति हैं मथित हुये। जनन-मरण-मय शत-शत रोगों से पीड़ित हैं व्यथित हुये ॥ बिजली बादल-सम वैभव है जल-बुद्-बुद्-सम जीवन है। यूँ चिन्तन कर प्रशम हेतु मुनि वन में काटें जीवन है ॥१॥ गुप्ति-समिति-व्रत से संयुत जो मन शिव-सुख की ओर रहा। मोहभाव के प्रबल-पवन से जिनका मन ना डोल रहा ॥ कभी ध्यान में लगे हुये तो श्रुत-मन्थन में लीन कभी। कर्म-मलों को धोना है सो तप करते स्वाधीन सुधी ॥२॥ रवि-किरणों से तपी शिला पर सहज विराजे मुनिजन हैं। विधि-बन्धन को ढीले करते जिनका मटमैला तन है॥ गिरि पर चढ़ दिनकर के अभिमुख मुख करके हैं तप तपते। ममत्व मत्सर मान रहित हो बने दिगम्बर-पथ नपते ॥३॥ दिवस रहा हो रात रही हो बोधामृत का पान करें। क्षमा-नीर से सिंचित जिनका पुण्यकाय छविमान अरे! धरे छत्र संतोष-भाव के सहज छाँव का दान करें। यूँ सहते मुनि तीव्र-ताप को ‘ज्ञानोदय' गुणगान करें ॥४॥ मोर कण्ठ या अलि-सम काले इन्द्रधनुष युत बादल हैं। गरजे बरसे बिजली तड़की झंझा चलती शीतल है ॥ गगन दशा को देख निशा में और तपोधन तरुतल में। रहते सहते कहते कुछ ना भीति नहीं मानस-तल में ॥५॥ वर्षा ऋतु में जल की धारा मानो बाणों की वर्षा। चलित चरित से फिर भी कब हो करते जाते संघर्षा ॥ वीर रहे नर-सिंह रहे मुनि परिषह रिपु को घात रहे। किन्तु सदा भव-भीत रहे हैं इनके पद में माथ रहे ॥६॥ अविरल हिमकण जल से जिनकी काय-कान्ति ही चली गई। साँय-साँय कर चली हवायें हरियाली सब जली गई ॥ शिशिर तुषारी घनी निशा को व्यतीत करते श्रमण यहाँ। और ओढ़ते धृति-कम्बल हैं गगन तले भूशयन अहा! ॥७॥ एक वर्ष में तीन योग ले बने पुण्य के वर्धक हैं। बाह्याभ्यन्तर द्वादश-विध तप तपते हैं मद-मर्दक हैं॥ परमोत्तम आनन्द मात्र के प्यासे भदन्त ये प्यारे। आधि-व्याधि औ उपाधि-विरहित समाधि हममें बस डारें ॥८॥ ग्रीष्मकाल में आग बरसती गिरि-शिखरों पर रहते हैं। वर्षा-ऋतु में कठिन परीषह तरुतल रहकर सहते हैं। तथा शिशिर हेमन्त काल में बाहर भू-पर सोते हैं। वन्द्य साधु ये वन्दन करता दुर्लभ-दर्शन होते हैं ॥९॥ अञ्चलिका (दोहा) योगीश्वर सद्भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ले प्रभु! तव संसर्ग ॥१०॥ अर्ध सहित दो द्वीप तथा दो सागर का विस्तार जहाँ। कर्म-भूमियाँ पन्द्रह जिनमें संतों का संचार रहा ॥ वृक्षमूल-अभ्रावकाश औ आतापन का योग धरें। मौन धरें वीरासन आदिक का भी जो उपयोग करें ॥११॥ बेला तेला चोला छह-ला पक्ष मास छह मास तथा। मौन रहें उपवास करें हैं करें न तन की दास कथा ॥ भाव-भक्ति से चाव-शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को। वन्दें पूजूँ अर्चन कर लूँ मन करूँ इन मुनिजन को ॥१२॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ! ॥
  13. चारित्रभक्ति त्रिभुवन के जो इन्द्र बने हैं सजे-धजे आभरणों से। हीरक-हारों कनक कुण्डलों किरीट-मणिमय किरणों से ॥ जिससे मुनियों ने निज-पद में झुका लिए इन इन्द्रों को। पूज्य पञ्च-आचार उसे मैं वन्दें, कह दें भविकों को ॥१॥ शब्द अर्थ औ उभय विकल ना यथाकाल उपधान तथा। गुरु निह्नव ना बहुमति होना यथायोग्य सम्मान कथा ॥ महाजाति कुल रजनीपति से तीर्थकरों ने समझाया। वसुविध ज्ञानाचार नमूं मैं कर्म नष्ट हो मन भाया ॥२॥ जिनमत-शंका परमत-शंसा विषयों की भी चाह नहीं। सहधर्मी में वत्सलता हो साधु संत से डाह नहीं॥ जिनशासन को करो उजागर पथ च्युत को पथ पर लाना। नमूँ दर्शनाचार नम्र हो उपगूहन में रस आना ॥३॥ नियमों से चर्या को बाँधे अनशन ऊनोदर करना। इन्द्रिय गज-मदमत्त बने ना रसवर्जन बहुतर करना ॥ शयनासन एकान्त जहाँ हो और तपाना निज तन को। बाह्य हेतु शिव के छह तप इन,की थुति में रखता मन को ॥४॥ करे ध्यान स्वाध्याय विनय भी तनूत्सर्ग भी सदा करे। वृद्ध रुग्ण लघु गुरु यतियों के नित तन-मन की व्यथा हरे॥ दोष लगे तो तुरत दण्ड ले बने शुद्ध तप हैं प्यारे। कषायरिपु के हनक भीतरी इन्हें नमूं बुध उर धारे॥५॥ जिसके लोचन सत्य बोध हैं आस्था जिसकी जिनमत में। बिना छुपाये निज बल यति का तपना चलना शिव-पथ में ॥ अछिद्र नौका-सम भव-दधि से शीघ्र कराता पार यहाँ। नमूँ वीर्य-आचार इसे मैं बुध अर्चित गुण सार महा ॥६॥ तीन गुप्तियाँ मन-वच-तन की तथा महाव्रत पाँच सही। ईर्या भाषा क्षेपण एषण आदि समितियाँ पाँच रहीं ॥ अपूर्व तेरह विध चारित है मात्र वीर के शासन में। भाव भक्ति से पूर्ण शक्ति से इसे नमन हो क्षण-क्षण में ॥७॥ शाश्वत स्वाश्रित सुषमा लक्ष्मी अनुपम सुख की आली है। केवल दर्शन-बोध ज्योति है मनोरमा उजयाली है। उसको पाने दिगम्बरों को सब यतियों को नमन करूँ। परम तीर्थ आचार यही है मंगल से अघ शमन करूं ॥८॥ पाप पुराना मिटता नूतन रुकता आना हो जिससे। ऋद्धि सिद्धि परसिद्धि ऋषी में बढ़े चरित से औ किससे? प्रमाद वश यदि इस यतिपन में यतिपन से प्रतिकूल किया। करता निज की निन्दा निन्दित मिथ्या हो अघ मूल किया ॥९॥ निकट भव्य हो एकलव्य हो दूर पाप से आप रहे। केवल शिव सुख के यदि इच्छुक भव-दुःखों से काँप रहे ॥ जैन-चरित सोपान मोक्ष का विशालतम है अतुल रहा। आरोहण तुम इस पर कर लो आत्म तेज जब विपुल रहा ॥१०॥ अञ्चलिका (दोहा) महाचरित वर भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ले प्रभु! तव संसर्ग ॥१॥ सब में जिसको प्रधान माना कोई जिसके समा नहीं। कर्म निर्जरा जिसका फल है जिसका भोजन क्षमा रही ॥ समकित पर जो टिका हुआ है सत्य बोध को साथ लिया। ज्ञान-ध्यान का साधनतम है रहा मोक्ष का पाथ जिया! ॥२॥ गुप्ति तीन से रहा सुरक्षित महाव्रतों का धारक है। पाँच समितियों का पालक है पातक का संहारक है ॥ जिससे संयत साधु सहज ही समता में है रम जाता। सुनो! महा चारित्र यही है 'ज्ञानोदय' निशि-दिन गाता ॥३॥ अहो भाग्य है महाचरित को तन से मन से वचनों से। पूजूँ वन्दूँ अर्चन कर लूँ नमन करूं दो नयनों से ॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति हो! ॥४॥
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