आगम में गारव शब्द का वर्णन आता है, उन्हें तीन प्रकार से व्याख्यायित किया गया है-१. रस गारव, २. ऋद्धि गारव, ३. सात गारव। यह गारव आत्मा के अन्दर एक ऐसी परिणति को उत्पन्न करता है, जो मान कषाय की सूक्ष्म परिणति जिसे अहंकार के नाम से भी जाना जाता है। पुण्य से साधन सम्पन्नता प्राप्त होने पर भी कभी जिन का मन फूलता नहीं है, ऐसे गारव से रहित जीवन जीने वाले गुरुदेव जब आहारचर्या के लिये श्रावक के चौके में जाते हैं, उस समय श्रावक थाली में ५० प्रकार के व्यंजनों को दिखाता है, फिर भी अंगुली के इशारे से सभी को हटा देते हैं और नीरस आहार जिसमें नमक-मीठा नहीं ग्रहण करते हैं। ये दोनों रस भोजन के राजा कहे जाते हैं। हरी सब्जी, फल रहित आहार को ग्रहण करते हैं। जब वही आहार कोई भक्त श्रावक ग्रहण करते हैं तो वह आहार स्वादिष्ट लगता है। यह आगम में ऋद्धियों का वर्णन है, उन्हीं का प्रभाव जानो। भले ही ऋद्धि आज नहीं हैं। आचार्यश्री जिस भी तीर्थक्षेत्र पर पहुँच जाते हैं, वहाँ उनके तप के प्रभाव से धन की वर्षा होने लगती है। भीड़ उमड़ने लगती है, क्षेत्र का विकास होने लगता है फिर भी कभी मन में ये भाव नहीं आता कि मैं इसका कर्ता हूँ या ये मेरे द्वारा हो रहा है, मैं नहीं आता तो ये क्षेत्र वीरान पड़े होते। इस प्रकार मानसिक प्रसन्नता के भाव से दूर रहते हैं। गुरुदेव लौकिक शिक्षा में कक्षा नौवीं तक पढ़े हैं और पढ़े-लिखे लोग उनके चरणों में पड़े रहते हैं। लौकिक पढ़ाई की हीनता के बावजूद ४-५ वर्षों में आचार्य ज्ञानसागरजी से आगम का अथाह ज्ञान आत्मसात किया फिर भी ज्ञानऋद्धि से प्रभावित नहीं हुए। इसी क्रम में आगे कहना चाहूँगा, सातावेदनीय की तीव्र उदीरणा होते हुए भी जंगल में जाते हैं, मंगल हो जाता है। चौकों की लाइन लग जाती है, कभी मन के कोने में विचारों की गूंज नहीं आ पाती कि ऐसे भी साधु हैं, जिनके लिये चौकों की पंक्ति नहीं मिलती। ऐसे भाव से रहित होना सात गारव से निरपेक्ष है।५० वर्षों से रस, ऋद्धि, सात गारव से निरपेक्ष एवं निर्लिप्त दृष्टि बनाकर आत्म साधना में लीन रहकर अपने शिष्यों को इसी प्रकार की दूरी बनाकर रहने का संदेश देते हैं।