दुनियाँ में वाहन बहुत मिलेंगे और देखे भी होंगे लेकिन निजी वाहन एक आत्मज्ञानी के पास ही पाया जाता है, जो तत्त्वज्ञान के माध्यम से नित्य चलता रहता है। कभी भी रुकता नहीं है, दिन-रात चलता ही रहता है, न कोई रुपया-पैसा खर्च होता है। वह तो तत्त्व-चिंतन की अनुभूति आत्म-आनंद की निमग्नता से सहज ही शरीर और भोगों से विरक्त बना रहता है। कभी मन के कोने में विषय पदार्थों की गन्ध भी पहुँच नहीं पाती। सात तत्त्वों के चिन्तन से देह और आत्मा दोनों कांतिमय बनी रहती है। जो साधक निरंतर तत्त्व के अन्वेषण में लगा रहता है। वह आने वाले प्रत्येक साधक को तत्त्व की प्रेरणा देकर विषय पदार्थों से विरक्ति पैदा कर आत्मशक्ति के भावों में समाहित करने वाले आचार्य गुरुदेव अपने शिष्यों के लिये यही मार्ग निर्देश देते रहते हैं। विकथाओं से बचो और तत्त्वाभ्यास से आत्मकथा में समाकर निज का उपकार कर निज का वाहन बनो, निज का वाहन ही निजता की ओर आता है तो परालम्बन छूट जाता है। स्वालम्बन ही मोक्ष का साधन है। एक चिन्तन अनेक चिंताओं को भस्म कर देता है। एक चिन्ता अनेक चिन्ताओं को जन्म देती है। इसीलिए गुरुदेव कहते हैं-चिंता छोड़ो चिन्तन करो। चिन्तन आत्मगत परिणति का नाम है। चिन्ता शरीर, विषय भोगों की परिणति की समाहिता का नाम है। जो आत्म समाहिता के परे ही ले जाने वाला साधन है। चिंतक कभी अपने चिन्तन को लेखन का रूप प्रदान कर शास्त्र और पोथी के रूप में जैन वाङ्मय को समाहित कर देता है। यही श्रुत-सेवा का मार्ग ही श्रुत की आराधना, उपासना की ओर इंगित करता है। जो श्रुत से अपनी आत्मा को सिंचित करते रहते हैं, वे ही समीचीन तत्त्वज्ञानी इन ५० वर्षों से अपने संघ, अपनी आत्मा और समाज को निरंतर आत्म-तत्त्व की दृष्टि प्रदान करते हुए नजर आते हैं।