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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. साधु जीवन में नीर-क्षीर विवेक की धारा बहती रहती है। जीवन के प्रत्येक कार्य को इसी आधार से सम्पन्न करते हैं। जैसे हंस होता है दूध में से पानी को अलग कर देता है और अपने मतलब की वस्तु दूध को ग्रहण कर लेता है। यह उसकी चौंच की विशेषता है। इसी तरह किसान धान्य को अनाज को ग्रहण कर लेता है। भूसा चारा को छोड़ देता है। ठीक साधु परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी गुरुदेव इसी तरह की जीवन पद्धति के लिये प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। वे जितना आवश्यक है, उसे ही ग्रहण करते हैं, अनावश्यक कार्यों से प्रयोजन नहीं रखते हैं। न अनावश्यक बातों को सुनना पसंद करते हैं। समय ही उनके लिये धन है। या यूँ कहो (जद्वद्वद् द्वह्य द्वशठ्ठद्ग४) वे समय धन को धीरे-धीरे खर्च करते हुए एक व्यापारी की भाँति कार्य करते हैं। जैसे व्यापारी सोच समझकर धन को खर्च करता है। ऐसे ही विवेकी प्राणी समय के मूल्य को पहचानते हुए अपने आवश्यकों में समय को खुले दिल से खर्च करता है। आचार्य परमेष्ठी का दर्जा प्राप्त होने से श्रावकजन उन्हें बहुमूल्य वस्तुएँ प्रदान करते हैं। एक बार एक श्रावक ने अंग्रेजी भाषा में साहित्य भेट किया और कहा यह बहुत कीमती है। बाद में पूछा आपने पढ़ा क्या? वह तो बहुमूल्य था तो गुरुदेव ने कहा कि मेरा समय भी बहुमूल्य है। ऐसे ही उसे खर्च नहीं करते। एक बार एक श्रावक ने पेन दिया जो लिखते ही प्रकाश प्रदान करने लगता था। जब गुरुदेव ने कहा-आरम्भ और परिग्रह को उत्पन्न करने वाले साधन की आवश्यकता नहीं है। यही विवेक उनकी समायोजना में है। बुद्धि के ज्ञान के चातुर्य के साथ अपनी चर्या को सम्पन्न कर शरीर और आत्मा के भेद को जानकर भेदविज्ञान की ओर दृष्टि रखना। यही ५० वर्षों से आमदनी प्राप्त कर धीरे-धीरे खर्च करते हुए दिखाई देते हुए नीर-क्षीर विवेक का संदेश प्रसारित करते हैं।
  2. साधु का जीवन अशुभ को छोड़कर हमेशा शुभ की ओर प्रवृत्तमान होता रहता है। इसी को चारित्र संज्ञा प्राप्त होती है, जो व्रत, समिति, गुप्तिरूप होता है। व्रतों की रक्षा के लिए समिति एवं गुप्ति हैं। जो मन, वचन, काय की धारा के साथ प्रवाहमान होती रहती है। गमनागमन की क्रिया में जैसे प्रवृत्ति आगम में कही गई है, वैसी ही प्रवृत्ति करना समिति है। इसी समिति के परिपालन और साथ में गुप्ति और व्रत का पालन करते हुए गुरुदेव अपने दैनिक आवश्यकों का पालन करते हैं। ये सब संयम की शुद्धिकरण के उपाय हैं। मन, वचन, काय के द्वारा सावद्य क्रियाओं को रोककर गुरुदेव अपनी गुप्ति में समाहित नजर आते हैं। वचन का प्रयोग भी वचन गुप्ति के आधार पर किया जाता है। इसी तरह राग-द्वेष से रहित होकर समस्त विकल्पों को छोड़कर अपने मन को अपनी आत्मा के वश में करके समता के भाव में स्थिर होते हुए नजर आते हैं तथा सिद्धान्त के सूत्र की रचना में या उसके मनन में पठनपाठन में लगकर ही मनोगुप्ति को प्राप्त होते हैं। मौन की प्रवृत्ति में बने रहना ही वचन गुप्ति है। काया की चंचलता को रोककर निश्चलपने को प्राप्त होना ही काय गुप्ति है। आचार्यश्री के प्रत्येक कार्य मूलाचार, भगवती आराधना, आचारसार के अनुसार ही व्यवहार और निश्चय में प्रवृत्तमान होते हैं। इसी के अनुसार ही व्यवहार और निश्चय में प्रवृत्तमान होते हैं। चलते समय, बोलते समय, आहार ग्रहण करते समय, उपकरण उठाते-रखते समय जो सावधानी रखी जाती है, इसे सम्यक् प्रवृत्ति कहा जाता है। वे हमेशा जीवों की रक्षा के लिये व्रतों के परिपालन के लिये कटिबद्ध रहते हैं। इसी तरह वे अन्य मुनि आर्यिकाओं से ऐसी ही चर्या की अपेक्षा रखते हैं। इसमें उन्हें ढील पसन्द नहीं है। लगातार ५० वर्षों से अपने गुरु के अभाव में भी गुरु के सद्भाव में उपस्थित होकर जिस चर्या का पालन करते थे। वैसी ही चर्या बिना प्रमाद के चल रही है। क्योंकि मोक्षमार्ग में प्रमाद ही पथिक का शत्रु है।
  3. महापुरुषों के जीवन वृत्तान्त को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उन्हें बुद्धि की अलौकिक शक्ति प्राप्त थी। यही बुद्धि का बल चारित्र की शक्ति से परिपूरित होकर पुष्टि को प्राप्त हो लोगों में संतुष्टि का वितरण करता चला करता है। वैसे दक्षिण भारत में शतरंज के खेल को बुद्धिवर्धक खेल की संज्ञा प्राप्त है। वर्तमान के विद्यासागरजी बचपन के विद्याधर की अवस्था में शतरंज के खेल में, कैरम खेलने में, गिल्ली-डंडा में और भी अन्य खेलों में बुद्धिबल के माध्यम से सामने वाले प्रतिद्वंद्वियों को पराजित करते हुए दश्यमान होते थे। कला के क्षेत्र में हस्तकला, चित्रकला आदि उन्हें में ही हासिल हो जाती थीं और सफलता के शिखर पर चढ़ा देती थीं। विद्याधर ब्रह्मचारी की अवस्था में भी जो शास्त्रीय ज्ञान कन्नड़भाषी होते हुए भी राजस्थान की मारवाड़ी, हिन्दी आदि भाषा आचार्य ज्ञानसागरजी से प्राप्त कर बुद्धि के बल से बढ़ोत्तरी को प्राप्त किया। वह ज्ञान आज भी ज्यों का त्यों उपस्थित है।ठीक आज आचार्य विद्यासागर की अवस्था में भी वही अलौकिक बुद्धिसम्पन्नता, चारित्र की निष्ठा, श्रुतज्ञान की श्रद्धा से परिपूरित होकर विकसित होता हुआ चल रहा है। विद्वानों के प्रश्नों का समाधान शास्त्रीय आधार पर मौखिक ही प्रदान कर देते हैं। कहीं भी वह उत्तर आगम से बाधित नहीं होता। आगम के आधार से ही अपने चिन्तन की धारा को गतिशील, प्रगतिशील बनाकर विद्वानों के सामने रखते हैं, जिससे सभी की जिज्ञासा शांत हो जाती है। श्रुत आराधना शिविर कुण्डलपुर एवं सिलवानी में आगम के सैद्धान्तिक विषय षट्खण्डागम, जयधवल, महाधवल, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि के उद्धरण के माध्यम से अपने मुखारविंद से धारावाही वाचना घंटों-घंटों तक प्रवाहमान करके वह बुद्धि का बल और पुष्टकारी बनता चला जाता है। वे बुद्धि में युक्ति को भी मिला देते हैं, जो काम बुद्धि से नहीं हो पाता वह युक्ति से सम्पन्न हो जाता है। उन्हें आयुर्वेदिक चिकित्सा की कई सटीक युक्तियों का सहज रीति से ज्ञान होने से कभीकभी अवसर आने पर संघ के रुग्ण साधु-साध्वियों पर प्रयोग करते हैं तो सफल हो जाते हैं और उनके सामने डिग्रीधारी चिकित्सक बौने पड़ जाते हैं। ५० वर्षों से अलौकिक बुद्धि की धारा लगातार चली आ रही है।
  4. सोने पे सुहागा वाली कहावत के अनुसार चलने वाले शील सम्पन्न आचार्य ज्ञान की धरोहर से सम्पन्न होते हुए इस सूक्ति को चरितार्थ करते हुए नजर आ रहते हैं। शील और ज्ञान का जोड़ा सदियों से प्राचीन ऋषियों मुनियों की परम्परा से चला आ रहा है। उसी परम्परा को प्रवाहमान करने वाले आचार्य विद्यासागरजी महाराज हमेशा शील के लिए मनवचन-काय तीनों की एकता के बल से पालन करते हुए, पालन करवाते हुए ये ही ध्यान रखते हैं। शील के शिथिल होने पर ज्ञान की कोई कीमत नहीं होती है। सम्यग्ज्ञान जब भी फलेगा-फूलेगा सम्यक्चारित्र शीलव्रत से समाहित होकर ही फलेगा। वही ज्ञान सुगन्धी का भण्डार बन जाता है। गुरुदेव के ज्ञान की ध्वनि ने शील की दृढ़ता ने ही युवाओं में शील की ओर झुकने के लिए रुझान पैदा किया और सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने के लिए वैराग्य के भावों से भरकर वासना से भरे युग में अतिशय उत्पन्न कर ज्ञानमय जिनवाणी का अपनी वाणी के द्वारा रसपान कराकर अश्लील वृत्तियों पर रोक लगाकर शीलमय वाणी की ओर अग्रसर किया। मुख से विनयाचार की भाषा का प्रचलन बढ़ाकर विनयशील प्रवृत्ति का अंकुरारोपण कर जैन संस्कृति को ज्ञान और शील, सत्य और अहिंसा की परिपाटी से बाँधकर उस ध्वंस होने वाली परम्परा को ध्वजा के समान फहराकर जैनध्वज की रक्षा का बीड़ा उठाकर आत्महित का सम्पादन करते हुए, करवाते हुए समाज में लुप्त हो रही स्वदारसंतोष व्रत की धारा को पुनः जीवित कर गृहस्थ श्रावकों को स्वदारसंतोष व्रत से अलंकृत किया। १८ हजार शील के दोषों पर दृष्टि रखना ही ज्ञान की बलिहारी हुआ करती है। आज भले ही ११ अंग, १४ पूर्व का ज्ञान न हो पर अंशमात्र के ज्ञान से चारित्र की दृढ़ पालना में सहयोग की भाँति सहायक होता हुआ नजर आता है। ज्ञान ही आत्मध्यान के लिये सहयोगी कारण बनता है। भले बाद में सब अपने आप छूट जाता है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने शील और ज्ञान की सुगन्धी से जैन समाज, जैनेतर समाज को आकर्षित किया है।
  5. मेरा कुछ नहीं था, ना मेरा कुछ है। यदि कुछ है तो मेरा आत्म स्वभाव, आत्मधर्म, आत्म उन्नति का सोपान ही मेरा है। इसके लिए बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से रहित, आत्म सम्पन्नता से सहित निज चैतन्य स्वभाव में लीन परम ज्ञानानन्द रसमय हूँ। आत्म महिमा से मंडित विचारधारा में जीन वाले, आकिंचन्य धर्म का पालन करने वाले गुरुदेव विद्यासागरजी दुनियाँ में आकिंचन्य की महिमा से मंडित मूर्ति के रूप में पूजे जाते हैं, जाने जाते हैं, माने जाते हैं। किंचित् मात्र भी बाह्य जगत् से बाह्य वस्तुओं से कभी प्रभावित नहीं होते। जब भी उनकी आत्मा के ऊपर प्रभाव डालने वाली कोई क्रिया देखने सुनने में आ जाती है तो वह आत्म साधना की क्रिया ही उन आकिंचन्य साधक को पसन्द आती है। वे अपने चैतन्य धन साधु-साध्वियों, ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियों के प्रति भी आकिंचन्य भाव की मुद्रा में नजर आते हैं। कभी इन चैतन्य धन में इतने आसक्त नहीं होते, जिससे आत्म साधना व्यवधान को प्राप्त हो। वे सावधान की मुद्रा में रहकर साधना को साधकर ही आकिंचन्य भाव से आदेश, निर्देश, आचार्य पद की गरिमा की परिपालना का ध्येय, ध्यान, धर्मध्यान का ध्यान रखते हुए ही संघ के पालन की क्रिया को सम्पन्न करते हुए नजर आते हैं। जब भी बोलेंगे तो आकिंचन्य भाव से लिप्त होकर ही धीर-गम्भीर, समता समरसी भाषा का प्रयोग करते हुए मन्द-मन्द मुस्कान के साथ आवाज निकलती हुई, सामने वाले का भय दूर करती हुई, मुख की प्रसन्नता का प्रसाद बाँटते हुए आकिंचन्य वाणी बिखरती हुई नजर हल्कीसी उठाकर होठों से स्पन्दन से सहित होकर चला करती है। फिर उसी आत्मा के आकिंचन्य भाव में बहुत जल्दी समाहित हो जाती है। बाहर प्रवृत्ति में प्रवृत्तमान दिखते हुए भी इन ५० वर्षों से आकिंचन्य महिमा से मंडित ही नजर आते हुए दृश्यमान होते हैं।
  6. माँग-माँगकर जीवन चलाना याचना वृत्ति की अवधारणा को जन्म देने वाली परम्परा का प्रवाहमान, दीन-हीन करने वाली धारा को जन्म देता है। बिना माँगे जीवन का निर्वाह करना, आत्मा का उद्धार करना, पाप कर्मों का खण्डन करना, पुण्य कर्म का संग्रह करना, पुनः पाप-पुण्य का खण्डन करना, यह अयाचकपने की साधुवृत्ति की अवधारणा को जन्म देने वाली चर्या का पालन करने वाले गुरुदेव बिना माँगे ही, बिना संकेत के, बिना मन में क्लेश के याचना परीषह का पालन करते हुए नजर आते हैं। इसी कारण से आहार करते समय नजर नहीं उठाते क्योंकि नजरों से किसी को ऐसा प्रतीत न हो कि ये कुछ माँग रहे हैं। वह तो अपने कर पात्र को ही देखते हैं। दाता उसमें जो आहार सामग्री को रखते हैं, उसे शोधन करके बड़े ही उत्साह के साथ समताभाव से ग्रहण करते हैं। कभी भी वे साधुजनों को याचनावृत्ति के लिए अनुमति नहीं देते, हमेशा निषेध करते आये हैं, क्योंकि २२ परीषहों में याचना परीषह को रखा है। लिखते-लिखते पेनपेंसिल भी अवरुद्ध हो जाये तो लिखने का काम छोड़कर पठनपाठन में लग जाते हैं। यदि ग्रन्थ पढ़ने के लिये उपलब्ध नहीं हो तो मौखिक वाचना में लग जाते हैं या आम्नाय स्वाध्याय में लग जाते हैं। चाहना ही याचना की ओर ले जाने वाली क्रिया है। जिससे दीनता-हीनता ही उत्पन्न होती है। साधु परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी कभी दीन-हीन होकर अपना भोजन प्राप्त नहीं करता, ठीक इसी तरह इन ५० वर्षों में गुरुदेव याचना वृत्ति से रहित जीवनयापन के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं।
  7. समय की परिस्थितियों के अनुसार व्याख्यान दिया करते हैं। कभी-कभी क्रान्तिकारी व्याख्यान भी हुआ करते हैं, कभी सुधारवादी, कभी सर्वधर्म समुदाय वाली व्याख्यान की परम्परा के धनी आचार्यश्री। बड़े बाबा मंदिर के समय ऐसे क्रांतिकारी प्रवचन देकर समाज के युवकों में उत्साह एवं जोश भर दिया, जो समाज के युवा कार्यकर्ताओं के द्वारा कारसेवा प्रदान कर मंदिर निर्माण में एक मिशाल स्थापित कर अपनी अहिंसा पद्धति की सधी हुई भाषा का यह एक नमूना था। इसी तरह आगम के शब्दों की परिभाषा व्याख्या को बदलने वालों पर भी व्याख्यान की बातों से चातुर्यपूर्ण तरीके से परिपूरित शब्दों की सहयोजना से पथभ्रष्टों को समीचीन पथ पर लगाते हुए देखा जा सकता है। उनकी वाणी में ओज है, तेज है, होशपूर्वक समायोजना की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए जन सामान्य की समझ में जो भाषा आ जाए उसी भाषा में धर्म को व्याख्यायित करते हैं। छोटा हो या बड़ा, बूढ़ा हो या जैन-अजैन कोई भी हो, सभी इनकी उस बुंदेली ओजस्वी वाणी से परिचित हैं। वाणी में क्षोभ नहीं होता। ओज जरूर होता है। क्षोभ से समाज का विध्वंस होने का खतरा बना रहता है और ओजपूर्ण वाणी के व्याख्यान से समाज में सुधार की संभावनायें बन जाती हैं। वाणी में ओज हो, चेहरे पर तनाव हो तो वह क्रोध कषाय को उत्पन्न करने में कारण बन सकता है। इससे रहित होकर ही ५० वर्षों से ऐसे ही ओज और तेज से सहित व्यक्तित्व के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं, हो रहे है|
  8. जो व्यक्ति अपनी प्रसिद्धि को नहीं चाहता है, प्रसिद्धि उसके पीछे लग जाती है। नहीं चाहते हुए भी वह सहज उपलब्ध हो जाती है। बिना प्रयास के नाम की कीर्ति, काम की कीर्ति, गुणों की कीर्ति यह सब पूर्व पुण्य की परिणति के परिणाम का लेखा-जोखा ही जानो। आचार्यश्री ने कभी भी कोई कार्य ख्यातिलाभ-पूजा से रहित होकर ही किया है। उनके पूर्व के कार्य सब बिना पूर्व सूचना के ही सम्पन्न होते हैं और भीड़ का बढ़ना, जगह का कम होना, यही उनके यश का भण्डार है। सहज रीति से कभी भी व्रत प्रदान नहीं करते। जाँच-परख कर प्रदान करते हैं। बूढ़ों को नहीं, गृहस्थों को नहीं, जवान एवं नौजवान युवक एवं युवतियाँ व्रत के लिए लाइन लगाये रहते हैं। दीक्षा के लिए श्रीफलों का ढेर अर्पित कर हमेशा उत्सव जैसा वातावरण आचार्यश्री के परिकर के चारों ओर बना रहता है। बिना मीडिया के प्रचार के विहार होते ही प्रचार हो जाता है। जहाँ चातुर्मास हो जाता है, शासकीय सुविधायें बिना माँगे अपने आप मिल जाती हैं। इसका अभी का उदाहरण भोपाल का चातुर्मास जहाँ मुख्यमंत्री स्वयं सारी सुविधायें जुटाकर गुरु भक्ति में लगे रहते थे। यही यशस्वी गुण उन्हें यशवान तपस्वी संज्ञा से विभूषित करते हुए नजर आ रहा है। यश की अभिलाषा से दूर आत्म यश में समाकर जनहित कार्यक्रमों को भी बढ़ावा प्रदान करते हैं। बड़े बाबा का बड़ा मंदिर भी उनकी यशकीर्ति का प्रतिफल दिग्दर्शित कर रहा है। इन ५० वर्षों में यह सब देखने में आता रहा है।
  9. शरीर से, परिवार से अनुराग करने वालों की संख्या बहुत मिल जायेगी पर आत्मा से अनुराग करने वालों की संख्या अंगुली में गिनने लायक होती है। सम्यक् मार्ग का अनुसरण करने वाला, सम्यग्दृष्टि भव्य आत्मा हुआ करती है। जिसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध और शुद्ध होता है वह आत्मा के गुणों के चिन्तन-मनन, उसी के गुणगान में अपना समय व्यतीत कर कर्म की श्रृंखला को विच्छिन्न करने में लगे रहते हैं। संसार दशा में आत्मा के ऊपर कर्मों की परत पर परत चढ़ी हुई अनंतकाल से चली आ रही है। जब भी इन परतों का खण्डन होगा, छिन्न-भिन्न होना होगा, चूर्ण रूप में परिवर्तित होने की क्रिया सम्पन्न होगी तो आत्मा के द्वारा, आत्मा के गुणों के अनुराग से उत्पन्न होगी। आत्मा अखण्ड है, अविनश्वर है, निजस्वभावी है, सड़न-गलन से रहित है, रूप-रंग से दूर है, राग-द्वेष से दूर है, गुणों से परिपूरित है, ऐसी विश्वास की धारा आत्मानुराग की धारा को प्रवाहमान करती है। अनु अर्थात् अपने पास अपने में राग उत्पन्न करना अपितु राग संसार का कारण है, पर आत्मा से राग-अनुराग प्रशस्त अनुराग की कोटि में समाहित होकर निज गुणों की माला का जाप ही वास्तव में आत्मजप का अनुष्ठान ही गुणों की प्राप्ति करने के साधन, जिनागम की प्रवेश पत्रिका में पाये जाते हैं। ५० वर्षों से गुरुदेव ने संघ के लिए, समाज के लिए, देश के लिए, इतिहास के लिए यही संदेश प्रसारित किया है। अपने ही अनुराग में अपना समय लगाते हुए देखा जाता है।
  10. अपने में रहना, अपने से बात करना, चिन्ताओं के घेरे से दूरी बनाने की यह कला ही आनन्द देने वाली होती है। जो अपने आनन्द में रहते हैं उनके चेहरे पर हमेशा प्रसन्नता की लकीरें छायी रहती हैं। उस प्रसन्नता को देखने के लिए भक्तों का ताँता लगा रहता है। जिससे भक्तों की चिन्ताओं का समाधान दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है। प्रदर्शन को रोकने के लिए एक क्षण के लिए मन में रुझान उत्पन्न हो जाता है। अपना आनन्द छह आवश्यकों में लगे रहने से सहज ही आता रहता है। इसी को कहते हैं, सहज आनन्द में गोते लगाते हुए एकान्त में भी भीड़ भरे वातावरण में भी शिष्यों के घेरे के अन्दर ही वही आनन्द बना रहता है। जो दिन-रात का भेद को छोड़कर सदा एक-सा बना रहता है। यही निज का आनन्द निज को प्राप्त होकर पर को भी आनन्द देकर आँखों को तृप्त कर देता है और मन में उस आनन्द की वीतराग छवि को उत्कीर्ण कर देता है। जैसे एक शिल्पकार दीवाल पर चित्र को निर्मित कर देता है या पत्थर पर उत्कीर्ण करता है, जो बहुत समय तक ज्यों का त्यों बना रहता है। निज की परिणति पर की संगति को छोड़ने से ही प्राप्त होती है। आचार्य गुरुदेव शिष्यों से भी मोह नहीं निर्मोहपने के साथ संबंध बनाये रखते हैं। दसदस, बीस-बीस सालों में एकाध बार दर्शन देकर, कुछ दिन ठहरकर जाने की अनुमति दे देते हैं। निजता में व्यवधान अपनापन ना बने इसलिए निज के प्रयोग के साथ ५० वर्षों से जीवनयापन की साधना का अभ्यास करते हुए इस जगती पर नित्य दृश्यमान हो रहे हैं।
  11. साधु का जीवन अपने में रहने का, अकेलेपन का अनुभव करने का, देह में रहकर देह से दूर रहने का, एकत्व-विभक्त तत्त्व की अनुभूति के अभ्यास का, अपने में रहना किसी से कुछ लेना न देना और मग्न रहना यह नीति आत्मा की प्रीति के साथ शरीर से निर्ममत्वपने से रहने का सफल अभ्यास प्रतिक्षण एकत्व भावना भाते रहने से निज को निजता की प्राप्ति होने में देर नहीं होती। गृहस्थ जीवन में एकत्व-विभक्तपना नहीं बनता है, क्योंकि चारित्र की प्राप्ति होने पर अभ्यास में लगे रहने से एकत्वविभक्तपना प्राप्त होने में देर नहीं लगती। शरीर अलग है आत्मा अलग है यह तत्त्वज्ञान चारित्रनिष्ठ पुरुषों के पास सहज उपलब्ध हो जाता है। गुरुदेव एकत्वविभक्तपने के जीते जागते उदाहरण हैं। वे कभी शरीर के लिए साधनों की अपेक्षा नहीं रखते, वे आत्मा में एकत्व परिणति के लिए अकेले रहकर आत्मा से संवाद कर आत्मा को पहचानने में समयसार को प्राप्त करने में ही समय को लगाते हुए निरीह वृत्ति से आत्म चिन्तन की धारा में समाहित रहते हैं। चेतना के विकास के स्तर की सोच के साथ ही जीवनशैली चला करती है। हमेशा तन और मन की खुराक से दूर रहकर आत्मा के भजन में उसी के गुणगान में आत्मस्वरूप की आकृति के दर्शन बन्द आँखों से कर शरीर का भान तक भूल जाते हैं। उपसर्ग के समय, रोग के समय, विपरीतताओं के समय, एकत्वविभक्तपने की धारा चलती रहती है। ५० वर्षों से गुरुदेव ने प्रतिक्षण असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा कर शिष्य और शिष्याओं को यही उपदेश दिया है। एकत्वविभक्तपने का अभ्यास बनाकर असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा करते हुए देखा जा सकता है।
  12. दुनियाँ में मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन का बोलबोला अनादिकालीन परम्परा की परिपाटी रही है। सम्यक् साधना ही मिथ्या साधना पर प्रहार करने में सक्षम साबित होती रही है। आज साक्षात सम्यग्ज्ञान के प्रसाद को मख से वितरण करने की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने वाले गुरुदेव तीर्थंकरों के समान संसार से भयभीत प्राणियों के लिए सम्यक् निर्देश देकर समीचीन रास्ते पर अग्रसर करते हुए देखे जाते हैं। ज्ञान का अध्ययन ध्यान में चिन्तन में लाकर ज्ञान की गुंथियों को सुलझाने में सक्षम क्षमता के ज्ञानोपयोगी साधकों के परम्परा के आचार्य जैसा नाम वैसा काम, विद्या के धनी, ज्ञान के भण्डार, जिनवाणी की कृपा के पात्र, शब्दों के जादूगर, शब्दों के खिलाड़ी जैसे समुद्र के अन्दर विभिन्न प्रकार के रत्न उसके गर्भ में छुपे हुए रहते हैं, वे भाग्यवानों को ही प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार आचार्य गुरुदेव साक्षात् सम्यग्ज्ञान के समुद्र की उपाधि से विभूषित होते हुए भी भाग्यवानों को ही उनसे वह ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान मिलने पर उसको धारण करने के लिए भी क्षमता चाहिए और वह क्षमता भाग्यवानों के पास ही हुआ करती है। सम्यग्दर्शन भी मुनि महाराज के दर्शन से प्राप्त होता है सो सम्यग्ज्ञान भी मुनि महाराज से ही प्राप्त होता है। ज्ञान का सही समीचीन उपयोग मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति कर मोहमार्ग के टुकड़े कर मोक्ष के भेष को प्राप्त कर मोक्ष को भी प्राप्त किया जा सकता है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर संघ के लिए एवं समाज के लिए सम्यग्ज्ञान का ईमानदारी के साथ वितरण किया हुआ है।
  13. आत्मा आत्मध्यान की परिणति में लगकर आत्मशुद्धि में लीन होने की योग्यता प्राप्त करता है। यही योग्यता परम ध्यान की भूमिका में अहं को जलाकर अर्हम् की ओर गमन कराने में सहायक बनती है। मोक्षमार्ग का साधन ही आत्म साधन हुआ करता है, जहाँ पर राग-द्वेष से छूटकर अर्थात् प्रवृत्ति से छूटकर निवृत्ति में जाना ही आत्मा के द्वारा आत्मा की शुद्धि जो संसारी आत्माएँ राग-द्वेष में पड़ जाती हैं तो अशुद्धि की प्रवृत्ति में लग जाती हैं। इसलिए ध्यान सूत्रों के माध्यम से आत्मध्यान की भावना को भाया जाता है। पंचेन्द्रिय विषय के व्यापार को शून्य की ओर ले जाकर खड़ा कर लिया जाता है। ना मन का व्यापार होता है, ना वचन का व्यापार होता है, ना काय का व्यापार होता है। इन तीनों से रहित होने की क्रिया का व्यापार होता है, इन तीनों से रहित होने की क्रिया आत्मशुद्धि की क्रिया गुरुदेव प्रतिपल वह सिद्धस्वरूप को प्राप्त करने के लिए 'अष्टकर्म रहितोऽहम्' सूत्र की प्रवृत्ति में लगे रहते हैं या शरीर रहितोऽहम्' की भाव प्रणाली में अपने मनोयोग को प्रवृत्तमान बनाये रखते हैं। शरीर की शुद्धि के लिए केवल इतना ही प्रयास प्रवृत्ति के समय किया करते हैं। क्योंकि आहारचर्या के निमित्त काया की शुद्धि पंच अंगों के माध्यम से सम्पन्न होती है। जिसे हम पंचस्नानी के नाम से जानते हैं। आत्म साधना में प्रवृत्त होने पर केवल आत्मा के स्नान की ओर ध्यान देते हैं। शल्यत्रय रहितोऽहम्' ‘गारव रहितोऽहम्' दण्डत्रयरहितोऽहम्' ये सब आत्म शुद्धि के सूत्र उनकी आत्म साधना में ५० वर्षों से नित्यमय चर्या में समाहित होते हुए दृष्टिमान होते हैं।
  14. पूर्वाचार्यों द्वारा आगम ग्रन्थों को सूत्रों का रूप प्रदान कर और अर्थों से परिपूर्ण कर बहुत बड़ा उपकार किया है। जैसे जलेबी छोटी-सी गोल-गोल दिखती है लेकिन रस से परिपूर्ण होती है। कहीं से भी चख लो वह स्वादिष्ट और मीठी ही लगती है वैसे ही सूत्रवचन हुआ करते हैं। वे सूत्र अर्थ से परिपूर्ण होते हैं। परमार्थ का रास्ता बताने वाले होते हैं। पाप से बचा पुण्य में लगाने वाले और पुण्य व पाप को छुड़ाकर मोक्ष पहुँचाने वाले कर्म निर्जरा करने वाले सूत्र बहु उपयोगी माने जाते हैं। आचार्य गुरुदेव अपने पूरे जीवन भर सूत्र की भावना से परिपूरित नजर आते हैं। जब भी कोई आदेश देते हैं तो वह सूत्र वचनात्मक ही होते हैं। श्रावकों के निवेदन पर हमेशा यही कहते हैं देखो! ना इसमें हाँ है न ही ना है। सूत्र वचन के पीछे यही ख्याल हुआ करता है, शब्द, अर्थ पूर्ण हो और अनर्थ से बचाकर निर्दोष चर्या की परिपालना की ओर ही गमन कराये कम बोलना, गम खाना और ज्यादा अर्थ को प्रदान करना या चिन्तन के लिए विचार के लिए आयाम करने के लिए लोगों के दिमाग के परिश्रम की उपज की फसल को लहलहाती देखकर सूत्रकार के लिए मन में आह्लाद प्रसन्नता होती है कि सूत्र के अर्थ को समझकर जीवन शैली में सुधार का रास्ता तय हो जाता है। सूत्र ही जीवन के कठिन मार्गों का सूत्रपात माना जाता है। सूत्र के अर्थों से शास्त्र का ज्ञान ही अपनी बिगड़ी हुई परिणति को सुधारने का एक साधन हुआ करता। है। आचार्यश्री के प्रत्येक शब्द में ऐसा ही अर्थ भरा पड़ा हुआ है।‘राख सो खरा' जब अग्नि जलती है तो चाँदी जैसी राख देती है। वही अग्नि की परीक्षा पर खरी उतरकर राख का विलोम शब्द खरा होता है। उनके साहित्य में दोहा शतकों में ऐसे ही अर्थपूर्ण दोहा लिखे हुए मिल जायेंगे जो पढ़ने के बाद गुनगुनाने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। इसी को कहते हैं अर्थपूर्ण दोहा पद्धति। ५० वर्षों से ऐसे ही कार्य के लिए गुरुदेव ने अपनी छवि को संघ एवं समाज के सामने रखकर ५० वर्षों से सफल सूत्र वाक्य कीर्तिमान स्थापित किया है।
  15. कार्य की प्रसन्नता साहस के कदम के साथ सराहनीय, प्रशंसनीय मानी जाती है। सही योद्धा कभी भी पराक्रम से डरता नहीं है और साहस के साथ डेंटकर सामना करता है। जैसे सिंह पराक्रमी माना जाता है। इसी तरह गुरुदेव ने साधना के क्षेत्र में उपसर्ग परीषह को सहन करते हुए पराक्रमी योद्धा की तरह चलते हुए कार्य करते हुए, करवाते हुए प्रतिक्षण नजर आते हैं। वे कभी भी कैसी भी परिस्थितियों में अपने साहस को कभी नहीं छोड़ते हैं। जैसे बड़े बाबा के नये मंदिर में स्थापना के समय गुरुदेव का पराक्रम देखते ही बनता था। कितनी सामाजिक, प्रशासनिक, राजनैतिक परिस्थितियाँ उस समय विपरीत थीं, फिर भी उनका मन साहस से भरा हुआ था। वह कहते थे कि बड़े बाबा फूल की भाँति उठ जायेंगे। उनका साहस और विश्वास एक पराक्रम के रूप में परिवर्तित हुआ और वे विजेय योद्धा के समान बड़े बाबा के सामने भक्ति करते हुए चरणों में नतमस्तक हो गये। तभी से बड़े बाबा-छोटे बाबा की जोड़ी लोक में विख्यात हुई। आचार्य विद्यासागर अपर नाम छोटे बाबा। आचार्यश्री यह लोगों के जहन में समाहित होकर एक सूक्ति का रूप धारण कर जैन इतिहास में अंकित हो गया। कभी रोग परीषह के, रोग के आने पर भी साहस बटोर कर रोग का सामना कर निरोगता को हासिल कर परीषहजय प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे ही समता, साहस वो अपने संघ में भरते रहते हैं। मुनि वही होता है, जिसमें तात्कालिक निर्णय लेने की क्षमता हो और साहस से भरा कदम उठाने की योग्यता का हकदार हो। वही आचार्य गुरुदेव के पदचिह्नों पर चलने वाला शिष्य सफल योद्धा की श्रेणी हासिल कर लेता है। इन्द्रियों से युद्ध करने वाले योद्धा बहुत कम ही होते हैं पर शत्रु से युद्ध करने वाले दुनियाँ में भरे पड़े हैं। हम ५० वर्षों से देख रहे हैं आचार्यश्री सिंह के समान पराक्रम को धारण करने वाले इन्द्रिय विजेता आचार्य हैं।
  16. इस दुनियाँ में तीर्थंकर प्रभु के समान कोई भी दूसरा पुरुष तेजस्वी नहीं हुआ है, लेकिन उनके बताये हुए मार्ग पर चलने वाले साधु परमेष्ठी, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी तेजस्वी पुरुषों की श्रेणी में आने वाले हैं। इनके तप के तेज से सूर्य का तेज भी फीका पड़ जाता है क्योंकि तप के माध्यम से आत्मा में चिपके हुए कर्म यूँ ही जल जाते हैं। सूर्य के द्वारा बाहर ही प्रकाश होता है। तप के द्वारा अंदर-बाहर प्रकाश ही प्रकाश होता है। इसलिए वह चारित्र के मार्ग पर चलकर अपने अंदर तप की धारणा कर अपने संपर्क में आने वाले संयमी जनों के अंदर भी वही तेज प्रकाश भर देते हैं। चारित्र की साधना, ज्ञान का अभ्यास, तपों की परिपालना ही तेजस्वी, तपस्वी बनाकर चलती आयी है। सूर्य के प्रकाश से तपन भी होती है, जो गर्मी के दिनों में वदन को जलन प्रदान करती है लेकिन तपों की तपन भी तपन के दिनों में भी शीतलता प्रदान करती है। सूर्य एक सीमा तक प्रकाश प्रदान करता है लेकिन तेजस्वी तप के द्वारा अनंतकालीन कर्मों को नष्ट कर अनंत जीवों में भी वही भाव भरकर अपनी ही राह पर लगाकर लगाते हुए नजर आते हुए देखा जा सकता है। सूर्य सुबह आता है दिनभर रहकर चला जाता है लेकिन तेजस्वी तपस्वी लगातार तप की आराधना में लगे रहते हैं। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने संघ के लिए, समाज के लिए, देश के लिए, इस सारे जहाँ के लिए यही संदेश प्रसारित किया हैं-अपने में लगो और तेजस्वी धीर-वीर कर्म विजेता बनो।
  17. अभिमान नहीं स्वाभिमान की रक्षा के लिए व्रतों का निर्दोष रीति से पालन करना। स्वाभिमान का मतलब है मान नहीं करना। अभिमान नहीं करना। मौनपूर्वक भोजन करना, यह हुआ स्वाभिमान की रक्षा के लिए याचनावृत्ति से बचने के लिए रूखा, सूखा, रसदार, स्वादिष्ट कैसा भी हो, अभिमान से रहित होकर स्वाभिमान के साथ ग्रहण करते हैं। कभी भी वे ऐसी प्रवृत्ति को धारण नहीं करते, जो उनके स्वाभिमान के दायरे से परे हों, दूर हों। वे अपनी सीमा में रहकर ही निर्दोष रीति से आगम की नीति से, प्रीति के भावों से भरकर ही चर्या का पालन करते हुए हमेशा नजर आते हैं। कभी उन्हें अपने व्रतों का या अपने पद का अभिमान नहीं होता। नवधाभक्ति के साथ आहार ग्रहण करना ही वास्तविक स्वाभिमान की विधि चर्या है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव ने अपने शिष्य-शिष्याओं के लिए यही उपदेश दिया है। अपनी चर्या को स्वाभिमान सहित सम्पन्न करते हुए देखने को मिलते हैं।
  18. भद्रता ही आत्मा का भद्र परिणाम स्वभाव होता है। भद्रता ही सम्यग्दर्शन के लिए कारण/साधन बन जाती है। भद्रता, सहजता, सरलता आदमी के अंदर एक गुणों की समाहिता का क्रम पैदा करती है जो भद्र होता है। उसके जीवन की कार्य शैली भी भद्र ही होती है। सहज आकस्मिक हुआ करती है। आडम्बरों से रहित सीधी-सादी, सादा जीवन उच्च विचार की शैली का निर्वाह करते हुए चलती है। मोटा खाना, मोटा पहनना, यही उत्तम पुरुषों की पहचान होती है। बैल कितना भद्र होता है मालिक जो डाल जाता है, उसे खा लेता है। उस खाने की सामग्री को देखता है, सामग्री डालने वाले को नहीं। यही भद्रता मुनि महाराज के जीवन चरित्र में समाहित है। वे दाता को नहीं दान की सामग्री को देखते हैं, जो लेने योग्य है उसे ग्रहण कर लेते हैं बाकी को अंगुली के इशारे से हटा देते हैं। यही सहजता, सरलता उदर पोषण के लिए नित्य प्रति चला करती है, इसमें कोई बदलाव या हेरा-फेरी नहीं होती है। गुरुदेव बैठने-उठने रहने के स्थानों में ऐसी ही भद्र वृत्ति को धारण कर ग्रहण करते हैं। कभी भी बैठने उठने के रहने के स्थान शोभायमान, साजसज्जा से युक्त नहीं होते। जैसे वे हैं वैसे ही उनका बैठने-उठने के स्थान आसन हुआ करते हैं। उनकी पुस्तक ग्रन्थ भी साज-सज्जा से रहित होती है। इसी भद्रता का भद्र भावों से समायोजन करते हुए अपने संघ में शिष्यशिष्याओं को भी सहज-सरल पद्धति से रहने उठने का, बैठने का, खाने का, पीने का तरीका बताकर उन्हें भी अपने जैसा सहज, सरल बनाते हुए समाज में ५० वर्ष व्यतीत हुए गुरुदेव सदाबहार, भद्र परिणामी, सहज स्वभावी, सरल स्वभावी, सादा जीवन जीने वाले जीवित परमात्मा के नाम से विख्यात हैं।
  19. चन्दन को जितना भी घिसते चले जाओगे उतनी ही अधिक सुगंधी के साथ शीतलता को प्रदान करता है। यह उसका निजी स्वभाव है, इसी प्रकार मुनि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शीतलता धारण करते हैं। उनके मुख से जब भी वचन निकलते हैं चन्द्रमा के समान शीतलता प्रदान करने वाले होते हैं। जब भी चलते हैं तब उनकी चाल सुहानी लगती है। उनके चरणों में आकर सारी परेशानियाँ दूर हो जाती हैं। जैसे थके हुए राही को वृक्ष के नीचे बैठने से शीतलता वह सुकून मिलता है वैसे ही गुरुदेव के चरणों में आने के बाद शांति और सुकून मिलता है। उनके आचरण को प्राप्त कर कर्मों का खात्मा होने में देर नहीं लगती। यही शीतलता सामने वाले व्यक्ति की फ्रेशनेस, प्रसन्नता का कारण बन समाधान को प्राप्त कर स्वभाव की ओर दृष्टिपात करने का अवसर प्राप्त होता है अपितु आत्मा में क्रोध, मान, माया, लोभ के इन भावों का समावेश होते हुए भी कभी उखड़ते हुए नजर नहीं आते क्योंकि मुनिव्रत शीतलता की समायोजना से ही प्रारम्भ होता है। मुनि मन निर्मल जैसे गंगा को जल। काटत करम मल......... शिष्यों के लिये, शिष्याओं के लिये, समाजजनों के लिये, विद्वतजनों के लिये, राजनेताओं के लिये, युवक-युवतियों के लिये बालक-बालिकाओं के लिये हमेशा शब्दों से शीतोपचार करते हुए शीतल स्वभावी गुरुदेव ५० वर्षों से एक ही धारा में बहते हुए चलते हुए, बैठे हुए नजर आ रहे हैं।
  20. साधुता का आभूषण क्षमा है, क्षमा ही समता की उपज है। क्षमा के बिना समस्त व्रतों की शून्यता, हीनता ही जान पड़ती है। क्षमा मजबूरी नहीं है, क्षमा व्रत है, शील है, त्याग है। व्रतों की निष्ठा, प्रतिष्ठा क्षमा के ऊपर आधारित है। धरती के लिए कितने ही प्रहार किये जाते हैं बदले में अमूल्य वस्तु प्रदान करती है। कभी सोना देती है तो कभी चाँदी देती है। कभी-कभी रत्नों का भण्डार दे देती है। मिट्टी, पत्थर तो देती ही है साथ में स्वादिष्ट जल, पानी पेय पदार्थ जो प्यासों की प्यास सहज ही बुझा देता है। और बदले में रास्ता बनाकर राहगीरों को राह बताता रहता है। ठीक गुरुदेव भी इसी तरह की जीवन शैली के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। वे क्षोभ के बदले क्षमा प्रदान करते हैं, ज्ञान की चैतन्य धारा में समाहित होकर क्षमा की परम छैनी से क्षमा की मूर्तियाँ ही तराशते हुए नजर आ जाते हैं। आँखों में प्रसन्नता चेहरे पर प्रसन्नता सदा बहती नजर आती है, गलती करो, अपराध करो। प्रायश्चित्त देने के बाद यही कहते हुए नजर आते हैं। पुनर्वृत्ति नहीं होना चाहिए। क्षमा किये हुए अपराध को कभी दोहराते नहीं, किसी से कहते नहीं अपने में रहते हैं। यही निज में रहने की कला क्षमाशीलता समता की धरोहर गुरुदेव ५० वर्षों से संघ में, समाज में, देश-विदेश में क्षमा के दायरे में बँधे हुए नजर आते रहे। कभी उन्होंने क्षमा की पाबंदी को तोड़ा-मरोड़ा नहीं। क्षमा का सिद्धान्त ही जैन आगम, जैन मुनिचर्या का सिद्धान्त रहा। मुनि है तो क्षमा निश्चित ही उनके रगों में समाहित होगी।
  21. जैन दर्शन में मेरुपर्वत का नाम विख्यात है। जो अपने स्थान पर स्थित है और सदा स्थित रहेगा, इसी प्रकार जैन श्रमण अपने सिद्धान्तों पर मेरु के समान आदि से लेकर अंत तक स्थित रहते हैं उन्हें उनके सिद्धान्त नियम से, आचरण से, त्याग से, तपस्या से, साधना से कोई विचलित नहीं कर सकता, वे निष्कम्प हैं। उपसर्गों की बहार आने पर भी आत्मा के ध्यान में, साधना में सदा बाहर बने रहते हैं। इस तरह परम वीतरागी, सहज स्वभावी, सरल स्वभावी गुरुदेव अपने व्रत पालन में, कर्तव्य पालन में, संघ के संचालन में, तीर्थों की रक्षा के कार्य में स्वआश्रित कार्य पद्धति के लिए मेरु के समान है। उनकी विशुद्धि बढ़ी हुई है। किसी से सलाह नहीं आत्मा से ही पूछकर, सलाह कर कार्य को गति प्रदान करने वाले हैं। चर्या के संबंध में समझौता नहीं वह तो समय पर ही सम्पादित होती है। कार्यक्रम कितना ही बड़ा हो उसकी महत्ता उसी समय तक है जब तक अपने दैनिक कार्यक्रम का समय बचा हुआ है। सामायिक के समय भी आँधी आये, तूफान आये, अपने आसन को मेरु के समान निष्कम्प बनाये रखते हैं। ऐसे ही वचनों को भी निष्कम्प बनाकर चलते हैं। जो कह दिया सो वह कार्य होकर ही रहेगा नहीं तो ‘देखो' शब्द ही अटल और प्रचलित वाक्य जिसे उपयोग करते हुए देखे जाते हैं। ठण्डी हो या गर्मी हो, बारिश हो, प्रतिकूल वातावरण हो, यदि विहार करने का मन बन गया है तो तपती दोपहरी में भी गमन के लिए कटिबद्ध रहते हैं। इतनी बढ़ती हुई उम्र में भी वह ५० वर्ष पुराना बल आज भी बरकरार है। इन ५० वर्षों में गुरुदेव के कार्य मेरुवत् निष्कम्प बने रहे हैं।
  22. क्रोध का भाव, आत्म अहित का भाव, क्षमा का भाव, आत्म उत्थान का भाव, क्रोध की अग्नि, आत्मा में अनंतानुबंधी कषाय को चिपकाने में परहेज नहीं करती, जो अनंतकालीन संसार परिभ्रमण का कारण बनती है। क्रोध को वैर का अचार या मुरब्बा है। जैसे अचार जितना पुराना होता चला जाता है, उतनी ज्यादा खटास को उत्पन्न करता है, इसी तरह क्षोभ की क्रोध की तासीर हुआ करती है। जितना अधिक समय क्रोध में बीतेगा तो वैर उत्पन्न होगा। वह अनंतानुबंधी कषाय को लेकर उत्पन्न होगा। इस प्रकार की सैद्धांतिक जानकारी के जानकार गुरुदेव अपने बचपन के जीवन से लेकर इस पचपन के ऊपर के जीवन में क्षोभ रहित परिणति को बनाये रहते हैं। क्रोध के निमित्त मिलने पर भी कभी क्रोध को उखड़ने नहीं देते। समता के साम्यभाव से दबा देते हैं और प्रसन्न बने रहते हैं क्योंकि एक कषाय अन्य कषायों को बहुत जल्दी जन्म दे देती है इसलिए वे क्षोभ की क्या कषाय की परिणति से ही रिक्त है। न कभी मान की बात है न माया की, न लोभ की बात है। आसन नहीं मिलने पर भी जमीन में मान रहित होकर बैठ जाते हैं, उसे प्राप्त करने के लिए माया को नहीं आने देते, फिर लोभ को तो यूँ ही भगा देते हैं। क्योंकि वस्तुओं के संग्रह से सदा से दूर है, सदा दूर रहने का संकल्प है। शिष्य में क्षोभ का भाव देखकर या क्षोभ को देखकर दण्ड संहिता का कानून लागू करते हुए देखा जा सकता है। इन ५० वर्षों में समुद्र के समान क्षोभ रहित जीवन शैली जीने के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त है।
  23. पार होने वाला ही दूसरों को पार लगाने की योग्यता का योग पुरुष होता है, इसीलिए उन्हें तरण तारण कहा जाता है। संसार से तरने का भाव बचपन से विद्याधर के जीवन में समाहित था। तिर्यंचों के दुखों को देखकर तिर्यंच गति के दुखों से बचने का उपाय शास्त्रों में खोजकर मुनियों की वाणी से जानकर अपने आपको बचाने का प्रयास जारी रखा। इसी तरह मनुष्य गति के दुखों को जानकर एक मित्र के भूख के कारण मरण हो जाने से वैराग्य मार्ग को स्वीकारा। जिसके अंदर संसार की असारता का भाव समाहित हो जाता है, वही संसार के दुखों से बच मोक्ष सुखों की चाहना का अभिलाषी बन संसार के रागीद्वेषियों को संसार के राग अलापने की नीति से बचाकर मोक्ष में प्रीति कराने का संकल्प उनके मानस पटल में छाया हुआ है। वे एक कुशल नाविक हैं। यात्री को कब नौका पर बिठाना है, कब वातावरण अनुकूल है, प्रतिकूलताओं से दूर है, यह सारा ज्ञान उन्हें अपने गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी के द्वारा बहुत अल्प समय में मिला। इसी गुरु मंत्र के द्वारा संसार से पार होने वाले साधनों का प्रयोग कर रहे हैं। बारह व्रतों की तप साधना उत्तर गुणों की परिपालना, २८ मूलगुणों की आराधना, समता का भाव आत्मा के रग-रग में समाहित है। इसलिए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होते हैं। ऐसे ये अणुव्रतों-महाव्रतों की, अष्ट मूलगुणों की, ब्रह्मचर्य की, परिग्रह त्याग आदि की साधना कराकर संसार से पार कराने का धर्ममय भाव संसारी आत्माओं के अन्दर ५० वर्षों से गुरुदेव लगातार समाहित कराते हुए नजर आ रहे हैं।
  24. दीपक के तल में अँधेरे की बात दुनियाँ के अन्दर प्रचलित है, लेकिन एक ऐसा भी दीपक होता है, जिसके तल में अंधकार की बात नहीं, प्रकाश ही प्रकाश होता है, उसे रत्नदीपक के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार गुरुजी रत्नदीपक के समान हैं। चहुँ दिशाओं से प्रकाश प्रदान करते हैं। जो भी शिष्य जब कभी भी आ जाता है, रात-दिन का भेद छोड़कर उसे समीचीन दिशा प्रदान कर दशा की/परिवर्तन की भूमिका में प्रवेश कराकर सबसे पहले सम्यग्ज्ञान से उसकी आत्मा को आच्छादित करते हैं। इससे आत्मा में बैठे मिथ्यात्व के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। फिर सम्यग्दर्शन की ही शिक्षा भरकर मिथ्यादर्शन के टुकड़े कर सच्चे देव-शास्त्र-गुरु में आत्मा की परिणति को लगाकर चारित्र के पथ की ओर अग्रसर करने वाले तब समझ में आता है रत्नदीपक का मूल्य। वह तो मूल्य से रहित है, अमूल्य है। यह चेतना का प्रकाश ही चेतना को प्रकाशित कर अनंत संसार की परिधि से पार करा देती है। यह पुद्गलों का पिण्ड युक्त रत्नदीपक नहीं, यह चैतन्य भावों से सुसज्जित आगमभाषित चारित्रनिष्ठा का दीपक एक बार जलना प्रारम्भ होता है तो सम्पूर्ण जीवन तक जलता ही रहता है। न आँधी तूफान, भूचाल से प्रभावित नहीं होता क्योंकि आत्मा के उपकार में लगे हुए हैं। साथ में पर आत्माओं का भी उपकार करते रहते हैं। चाहे स्त्री हो या पुरुष हो, बच्चा हो, बच्ची हो, जैन हो, अजैन हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, सिक्ख हो, हिन्दू हो, सिन्धी हो सबके लिए उनकी भूमिका के अनुसार प्रकाश के प्रसाद का विवरण निरन्तर चला करता है। कभी विश्राम की बात नहीं, क्योंकि मोक्षमार्ग में आराम हराम है। खुश रहकर ५० वर्षों से रत्नदीपक का कार्य सुचारू रूप से आत्महित, जनहित, समाजहित, मानवहित, दीन-हीन समस्त प्राणियों के हित में लगातार गुरुदेव के द्वारा प्राप्त हो रहा है या दिख रहा है।
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