तृतीय काल का अवसान होने वाला था। उसी समय स्वर्गों का वैभव छोड़ के आदिनाथ प्रभु का अयोध्यापुरी में जन्म हुआ, यहाँ से तीर्थ का प्रवर्तन प्रारंभ हुआ। तृतीयकाल (जघन्य भोगभूमि) के अवसान होने पर चतुर्थकाल (कर्मभूमि) का प्रारंभ से तीर्थ का प्रवर्तन चलता रहा और यह धारा काल की अवधि को लेकर चौबीसों तीर्थंकरों तक ज्यों की त्यों चलती रही। पंचमकाल का प्रारंभ होने के पहले भगवान् महावीर का जन्म हुआ। यह धारा केवली, श्रुतकेवली, अनुबद्धकेवली आदि के रूप में प्रवाहमान रही। पंचमकाल आते-आते बहुत समय बाद जब पंडितों का युग था। उस समय मुनिराजों का दर्शन दुर्लभ हो गया था। तब उनकी कविताओं में या रचनाओं में ये पंक्तियाँ अंकित होने लगी “ते गुरु मेरे उर बसो'' फिर आचार्य श्री शांतिसागरजी ने इस मुनि परम्परा को पुनः जीवित किया। यह परम्परा लगातार चलती रही। इसके बाद में अब बूढ़े साधुओं के रूप में देखने मिलने लगी। ऐसा समझ में आने लगा। धर्म का कार्य बूढ़े लोगों का ही है। आज वर्तमान में शांतिसागर महाराज की परम्परा को पुनः जीवित करने वाले आचार्य विद्यासागरजी बाल ब्रह्मचारी युवा के रूप में २१ वर्ष की अल्प वय में दीक्षित हुए। तब से यह मोक्ष का द्वार खुलता हुआ सा नजर आने लगा। बाल ब्रह्मचारी युवकों को भरी जवानी में दीक्षा प्रदान कर मुनि धारा को प्रवाहमान कर दिगम्बरत्व, वीतराग मार्ग के साक्षात् दर्शन करा कर बाल ब्रह्मचारिणी बहनों को ब्राह्मी-सुंदरी, सीता, अंजना आदि की आर्यिका प्रव्रज्या की धारा को प्रवाहमान बनाया। ५० वर्षों से गुरुदेव ने बुंदेलखण्ड के गाँव-गाँव से पाँव-पाँव चलकर रत्नत्रय की योग्यता रखने वालों को धर्म के भाव से भरकर मोक्ष के द्वार में प्रवेश के काबिल बना दिया।