भोजन से संतुष्ट पुत्र माँ की स्तुति किये बिना रहता नहीं है। ऐसे ही गुणीजन मुनियों की स्तुति किये बिना संतुष्ट नहीं रह सकते। गुरुदेव अपने गुरु पूर्वाचार्यों की स्तुति करके ही संतुष्टि को प्राप्त कर आत्म-संतुष्टि में समा जाते हैं। इस विशेष गुण के कारण ही मुनि जगत् के चहेते आपश्री आचार्य विद्यासागर नाम से विख्यात होने से सारे लोग आपको आचार्यश्री के नाम से जानते हैं। आपके दर्शन के बिना, आपके प्रवचन के बिना आपको आहार दान दिये बिना श्रावकों का मन संतुष्ट नहीं होता है। तो वे आपके संघ आकर चौका लगाकर आहार दान की परम्परा का निर्वाह करते हुए नजर आते हैं तो कभी प्रवचन सुनते हुए नजर आते हैं। कभी आकर चरणों की सेवा करते हुए नजर आते हैं, कभी आपकी स्वाध्याय की कक्षा के श्रोता के रूप में नजर आते हैं। ये सब कार्य श्रावकों की संतुष्टि के कारण हो सकते हैं इसलिए आप भी कृपा कर उन्हें आहार दान का अवसर प्रदान कर श्रावकधर्म के निर्वाह में सहयोग प्रदान करने वाले हैं। इसी क्रम में प्रवचन कर जिनवाणी का दान करने वाले श्रुतदानी के रूप में भी जाने जाते हैं। कभी वैय्यावृत्ति का अवसर प्रदान कर कर्म की निर्जरा में साधक कारण बन संतुष्टि प्रदाता बन जाते हैं। जैन समाज के लोग किसी अन्य मुनि, आचार्य को भले न मानें लेकिन विद्यासागर नाम संतुष्टि का समाधान वाचक शब्द बन लोगों के मानस पटल पर छा गया है। जैसे आकाश में पूर्णिमा का चन्द्रमा प्रकाश प्रदान कर संतुष्टिदायक माना जाता है। इसी तरह गुरुदेव अपने शिष्य-शिष्याओं को समय-समय पर दर्शन प्रदान कर आत्म-संतुष्टि देकर उनकी साधना में सहयोग के वाची मुनियों के नायक संतुष्टि के प्रदाता ५० वर्षों से देश के कोने-कोने से आने वाले भक्तों को, समाजजनों को दर्शन, प्रवचन, आहार-दान, वैय्यावृत्ति, शास्त्रदान, औषधिदान, अभयदान चारों प्रकार के दानों से संतुष्टि प्रदान करते नजर आते हैं।