स्वाध्याय को परम तप कहा है क्योंकि स्वाध्याय का परिणाम स्व की ओर आना है। सच्चे स्वाध्याय से स्व का अध्याय खुलता है। इसी स्वाध्याय की निष्ठा के साथ आत्मप्रतिष्ठा की ओर दृष्टि रखने वाले गुरुदेव आलस का त्यागकर, ज्ञान की आराधनारूपी स्वाध्याय के तप की धारणा के साथ कर्मों को काटने का आयाम स्व एवं पर हित में आगम के अध्ययन से प्रयोग में लाते हुए नजर आते हैं। यह स्वाध्याय ११ अंग, १४ पूर्व से परिपूरित है, जो जिनदेव के द्वारा कहा गया है और गणधरस्वामी के द्वारा गूंथा गया है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य-आगम की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, धर्मोपदेश ये सभी स्वाध्याय नाम के तप हैं। इन्हीं तपों में गुरुदेव मन को लगाकर आत्मध्यान, आत्महित, परहित की आराधना में अपने आपको विजी बनाये रखते हैं। जो पढ़ा है, उसे ही प्रयोग में लाकर, चारित्र के रूप में पालन करते हैं एवं शिष्यों को भी इसी अनुरूप परिवर्तित होने की प्रेरणा वाणी के माध्यम से प्रदान कर जिनवाणी के अनुशरण में अपने को लगाये रखते हैं। सच्चा तत्त्वज्ञान जानने के लिये द्रव्यानुयोग को स्वयं पढ़ना, औरों को पढ़ाना, फिर पुण्य-पाप के फल को जानने के लिए प्रथमानुयोग को पढ़ना, फिर शुद्धोपयोग की प्राप्ति के लिये अध्यात्म शास्त्र में लीन होते हुए साक्षात् आत्मसाक्षात्कार करते रहते हैं। गुणस्थान आदि जीवों का व्यवहार जानने के लिए करणानुयोग यह सब सम्यग्ज्ञान का अभ्यास है। इसी में मनवचन-काय की प्रवृत्ति को लगाकर निवृत्ति के अभ्यास में अपने को लगाकर स्वतत्त्व की और गमन करने की निजता में प्रतिपल खोये हुए नजर आते हैं। दुनियाँ को गौण कर मोक्ष के आयाम में लगे रहते हैं इसीलिए निर्दोष रीति से व्रतों का पालन करना और उन्हीं अनुभूत व्रतों का उपदेश देना यह कर्ममल को शोधन करने की विधि, शास्त्रों से जानकर, भक्तिपूर्वक, विनयपूर्वक श्रुत का सुखकारी लाभ आत्मा में समाहित कर तन की थकान को यों ही दूर कर देते हैं। एक-एक अर्थों को, शब्दों को शुद्धि के साथ शुद्ध उच्चारण के साथ ग्रहण कर प्रदान करते हुए देखा जा सकता है। इन ५० वर्षों में स्वाध्याय के अनुरूप ही चर्या का पालन यही इनकी स्वाध्यायनिष्ठता का प्रतिफल है।