ओ री मानवती
मृदुल मालती
क्यों न मानती,
मुड़-मुड़ कर....
मोहक-मादक
मदिरा भर कर
प्याला ले कर
मेरे सम्मुख
आती है,
अपना ही गीत
गाती है
तू रागिनी है....
स्वैर विहारिणी है
विरागिनी यह मति
बाध्य होकर
बाहर आती है
नाक फुलाती - सी
नासिका कहती यूँ
तभी मालती भी
गूढ़ तत्त्व का उद्घाटन
करती है
मौन रूप से
कि
ज्ञेय तत्त्व भिन्न है
ज्ञान तत्त्व भिन्न है
ज्ञेय का अपना रूप
......स्वरूप है,
क्रिया-कर्म है
ज्ञान का अपना भाव-स्वभाव है
गुण धर्म है
यद्यपि
ज्ञेय - ज्ञायक सम्बन्ध है हम दोनों में
ज्ञान जानता है
ज्ञेय जाना जाता है
किन्तु ज्ञान जब तक
निज को तज कर
पर को अपना विषय बनाता है
निश्चित ही वह
सराग है सदोष तब तक
पर का आदर करता है
अपना अनादर,
तब, ‘पर' पर आरोप आता है
कि
पर ने राग जमाया
ज्ञान में दाग लगाया
मैं तो अपने में थी
हूँ..... रहूँगी चिर काल .....!
किन्तु......तू
ओ री नासिका !
तू ज्ञान की उपासिका कहाँ है
ज्ञान की उपहासिका है
अपनी सुरभि भूल जाती है
पर सुगन्धि पर फूल आती है
यह कौन-सी विडम्बना है
स्वयं को धोखा देना |