आज सम्यक दर्शन के वात्सल्य अंग के बारे में विचार करना है। जब संसारी प्राणी एक दूसरे से परस्पर प्रेम भाव रखता है, अर्थात् जीव जीव को पहचानता है वास्तविक दृष्टि से जान लेता है वह सम्यक दृष्टि हो जाता है। यह पहचान मात्र शब्दों से नहीं, अन्दर से हो। जब सम्यक दृष्टि तत्व चिंतन में लगता है, तब उसकी दृष्टि में कोई भी जीव किसी भी रूप में आ जाये तो भी वह विरोध भाव नहीं रखता। चाहे वह अनिष्ट करने वाला हो तब भी वह सब जीवों में मैत्री भाव रखेगा। जिस प्रकार सूर्योदय को देखकर कमल खिल जाता है उसी प्रकार वह गुणवान को देखकर उल्लास, आनन्द मनाएगा। ईष्र्या भाव कदापि नहीं रखेगा, क्योंकि ईष्र्या की तरफ दृष्टि होने पर गुण छूट जाते हैं। और दुखी, संत्रस्त, अनाथ, भयभीत को देखकर करुणा भाव धारण करेगा। वह सोचेगा कि यह भी जीव है, अपने स्वभाव से विमुख है, अत: इसे भी सुखी बना दूँ, दुख दूर कर दूँ। इसके लिए वह खुद न दुखी होता न खुश होता है, वह ऐसी प्रक्रिया करेगा कि दुखी का दुख दूर कर देगा। रोने वाले के साथ रोने के बजाये उसे धीरता बंधावेगा, अभय देगा।
जो प्रतीक है उसके बीच में हाथ दिखाया है। हाथ भय का प्रतीक भी है तो अभय का प्रतीक भी है। हमें दुखीजनों को देखकर वास्तविक दुख को मिटाना चाहिए। मानसिक और शारीरिक दुख तो है ही, पर एक आध्यात्मिक दुख भी है। इस आध्यात्मिक दुख के कारण ही संसारी प्राणी अनादि से दुखी है। जहाँ तक बन सके, तन मन धन से यथा योग्य सामने वाले के दुख को दूर करें, यही वात्सल्य अंग है। इस अंग को अपनाने वाले की दृष्टि ऐश आराम, तन-धन की ओर नहीं होगी पर दूसरे के दुख को दूर करने की ओर जायेगी। वह रुदन करने वाले का रुदन बन्द करेगा, अभय दान देगा, उसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त करायेगा। आत्मा की ओर दृष्टि जाएगी।
जीव दूसरे जीव को तब देखता है, जब वात्सल्य को अपनाता है। ‘उपयोगो लक्षणम्' कहने से दुख दूर नहीं होगा। उपयोग खराब भी तो हो जाता है। आप पुत्रों, रिश्तेदारों से वात्सल्य करते हैं, वह वात्सल्य नहीं है, क्योंकि वहाँ पाने की अपेक्षा लगी है। जहाँ अपेक्षा है, वहाँ वात्सल्य नहीं, मोह है, स्वार्थ है, मोह की परिणति है। कसाई बकरे को खिलाता है, पिलाता है, वह वात्सल्य नहीं, क्योंकि एक महीने बाद उसे काट देगा। मोह के साथ अपेक्षा के साथ कोई कार्य न होकर वात्सल्य, करुणा के साथ हो। करुणा शारीरिक या वाचनिक नहीं है, यह जीव का एक भाव है। करुणा के अभाव में मोह पैदा होता है और मोह के अभाव में करुणा जागृत होती है। कहा भी है कि :-
रग रग से करुणा झरे, दुखी जनों को देख।
चिर रिपु लख ना नैन में, चिता रुधिर की रेख ॥
आज तक वास्तविक रूप में हमारे अन्दर करुणा बही ही नहीं दुखी जनों को देखकर के। वह करुणा ऊपर से नहीं अन्दर से होनी चाहिए। मोह के साथ सम्बन्ध नहीं होना चाहिए, बल्कि करुणा वात्सल्य के साथ हो। दुनियाँ मर जाये, मेरी पूर्ति हो यह स्वार्थ परायणता है। सीता के वियोग में राम रोने लगे, क्योंकि पाणिग्रहण करते समय प्रतिज्ञा की थी, एक दूसरे की रक्षा करेंगे, एक को दुखी देखकर, दूसरा भी दुखी होगा। यह एक सम्बन्ध है, किन्तु आज तो धन से सम्बन्ध होता है, आत्मा के साथ नहीं। सम्बन्ध होना चाहिए विकास के लिए, विषय तो कुछ समय के लिए आपेक्षित हो सकते हैं।
राम ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक शरीर में प्राण होंगे, तब तक सीता की सुरक्षा करूंगा, इसीलिए राम दुखी हुए। आज भी वैसी प्रतिज्ञा तो होती है, पर वैसा भाव नहीं होता। विषयों में रच पच जाते हैं, विषय ध्येय बन जाते हैं, ऐसा होने पर वात्सल्य भाव नहीं होता। माँ (गाय) चाहती है कि बछड़ा ज्यादा दूध पीले ताकि जल्दी जल्दी बड़ा हो जाये, पर आप चाहते हैं कि दूध ज्यादा न पी ले। चेष्टा दोनों की अलग है। वात्सल्य वास्तव में गाय के पास है। जब विषयों को ध्येय नहीं बनाते हैं, तब जीव के विकास की ओर दृष्टि जाती है, दूसरे की सुरक्षा करते हैं, जब ऐसा नहीं है तो कसाई के समान है। दूसरा भले ही मर जाये, पर अपनी सुरक्षा हो। दूसरे को दुखी देखकर करुणा भाव अवश्य जागृत होना चाहिए। आप भोजन जरूर करें, पर आपके भोजन से दूसरा भूखा न मरे। आप सोचें कि मुझे खाना भी है, पर दूसरे को भी खाना है, यह सम्यक दृष्टि का लक्षण है। ऐसा नहीं कि सारा खाना मैं ही खा लें। कितना भी खा लोगे तो भी शाम को भूख लगेगी ही।
रावण सीता को, उसके अन्दर की पीड़ा को नहीं देखता था, वह उसके शरीर को, रूप को देख रहा था। जब वात्सल्य हो जाता है तो जीव शरीर को नहीं, उसके अन्दर के भाव देखता है। धन तो जड़ की पर्याय है। धर्म वात्सल्य, चेतन की पर्याय है। राम के मन वचन काय से जो भाव जागृत हो रहे थे, वे भाव रावण के नहीं थे। जब अन्दर दुख होगा तो दुख बाहर आएगा। आत्मा दुखी होगी तो शरीर सूखने लगेगा। अन्दर आमोद-प्रमोद है तो दुखी नहीं होता। शारीरिक चेष्टा को देखकर ही करुणा नहीं, भावों में करुणा हो। जहाँ करुणा है, वहाँ कुछ न कुछ अंश में मोह का अभाव है। गृहस्थ में भी मोह का अभाव जरूरी है, तभी जीव का परित्राण होगा। तत्वों में मुख्य तत्व जीव है, जब उसको जान लेंगे तो वास्तविक करुणा होगी, यही तत्वार्थ श्रद्धान है। सम्यक दर्शन की प्रादुभूति तो सातवें नरक में भी होती है। सम्यक दर्शन से नरक, तिर्यञ्च, देवों में क्या हो रहा है ? यह नहीं देखना है। गृहस्थ को अपने को देखना है।
कोई भी जीव चाहे वह राजा हो या महाराज हो, मिथ्यादर्शन के साथ ही मनुष्य गति में जन्म लेगा, बाद में सम्यक दर्शन को अपनाता है। धन से शरीर से वात्सल्य नहीं होता है। शरीर के साथ तो बहुत वात्सल्य सेवा की, पर शरीर करुणा वात्सल्य को नहीं जानता। करुणा का अनुभव करने वाला आत्मा है। अत: आत्मा पर, जीव पर करुणा करो। हरेक जीव वास्तविक तत्व को जान सकता है, केवलज्ञान को प्राप्त कर सकता है। सभी परिवार, देश व संसार के लोग क्षेम का अनुभव करें। उपदेश जीव के लिए है, पुद्गल के लिए नहीं। आचार्यों ने जीव को पहचानने की कला इतनी मजबूती से दिखाई, जो प्रयास किया, वह श्लाघनीय है। जो ज्ञान धारा पुद्गल की ओर थी उसे अपने नियंत्रण में किया। अन्धे बहरे को भी सुनाकर, अनुभव कराकर सम्यक दर्शन को प्राप्त कराया। किसी को समझाना तब कठिन हो जाता है, जब उसके समझने योग्य इन्द्रियाँ न हों। मोह से जो पागल है, उनको भी आचार्यों ने सीख दी।
लेकिन हम अपने आपको डेढ़ अक्कल वाला समझते हैं। हम सब कुछ इन्द्रियाँ व शाब्दिक ज्ञान को प्राप्त करके भी मोह नींद में सोये हुए हैं। जागते हुए भी नहीं चेतते। एक बार झलक पा लोगे तो बेड़ा पार हो जाएगा। इस जीव ने अनादि से उल्टी परिणति को अपना रखा है, यह अध्यात्म रस से दूर रहना चाहता है। आचार्य महोदय येन केन प्रकारेण उसे अध्यात्म रस पिलाना चाहते हैं। एक अंग को भी आप अपना लेंगे तो धीरे-धीरे सब अंग आ जाएँगे और सम्यक दर्शन प्राप्त हो जायेगा। यह विषय कषाय को गौण करने पर प्रादुभूत होगा। अनन्तानुबन्धी का अभाव होने पर होगा। इसे प्राप्त कर लेंगे तो कल्याण हो जायेगा।