गुरु वह आध्यात्मिक शिल्पकार हैं, जो शिष्य को दीक्षा के साँचे में ढालकर न केवल एक मूर्ति का रूप देते हैं, बल्कि निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक संस्कारों के रंग-रोगन से भरकर उसके जीवन को श्रेष्ठ बनाते हुए उस पर अनुग्रह करते हैं। गुरु के द्वारा शिष्य में पोषित किए जाने वाले ऐसे ही अनमोल संस्कारों एवं शिक्षाओं से जुड़े कुछ प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है।
आचार्यश्रीजी उच्चकोटी के साधक होने के साथ-साथ श्रमण परंपरा को संप्रवाहित करने के लिए शिष्यों को संग्रहित एवं अनुग्रहित करने वाले संघ संचालन कला विशेषज्ञ कहे जाते हैं। वर्तमान में उन्होंने जिनधर्म का सूर्य बनकर हजारों भव्य कमलों को विकसित कर दिया है।अल्पवय, अल्पसमय में श्रमणों के महाश्रमण, नायकों के महानायक बनकर एक विस्तृत बाल ब्रह्मचारी संघ का अकर्तृत्त्वभाव से संचालन करना उनकी कुशल संचालक गुण की असाधारण क्षमता का परिचायक है। आचार्यश्रीजी की आज्ञा एवं निर्देशन से जगह-जगह उनकी शिष्य मंडली साधना, तप, ध्यान, नियम, संयम, त्याग आदि के माध्यम से जिनशासन की ध्वजा फहरा रही है। साधु-साध्वियों के अलावा उच्चस्तरीय शिक्षा प्राप्त विद्वान्, राजनेता, धर्मनेता, समाजनेता भी आपके बुद्धिकौशल के सामने नतमस्तक होकर आपसे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए प्रतिसमय लालायित रहते हैं। आचार्य श्रीजी के वचनों से पोषित हुए शिष्य अपने पथ पर स्थिर हो निष्ठा पूर्वक अपने लक्ष्य आत्मपोषण से शुद्धात्म प्राप्ति तक की यात्रा में अग्रसर हैं।
मुक्ति का सोपान दीक्षा
'दीक्षा आत्मा से परमात्मा बनने का सोपान है। राग से वैराग्य और संसार से उदासीनता का नाम दीक्षा है। दीक्षा कहो या प्रव्रज्या कहो एक ही बात है। आचार्य श्री कुंदकुंद महाराज कहते हैं, 'पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता' अर्थात् प्रव्रज्या वह है, जिसमें सर्व परिग्रहों का त्याग है। दीक्षा लेने वाला मुनि बाह्य एवं अभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्यागी होता है। बोधपाहुड' गाथा ४५ में कहा गया है कि जो निवास स्थान और परिग्रह के मोह से रहित है, बाईस परिषहों को जीतने वाला है, कषाय से रहित है तथा पाप के आरंभ से मुक्त है, ऐसी प्रव्रज्या कही गई है। परवस्तु के ममत्व भाव के त्याग बिना दीक्षा नहीं हो सकती और बिना दीक्षा के मोक्षमार्ग पर चलना संभव नहीं होता है।'
दीक्षा दीनता का क्षय कराती, वीरता जगाती, भिक्षा का संकल्प कराती, समता को साधती और मोक्ष तक पहुँचा देती, उसका नाम है दीक्षा। दीक्षा ग्रहण के बाद ही रत्नत्रय की पूर्णता, चारित्र का ग्रहण, केवलज्ञान की उत्पत्ति, संसार का नाश और स्वरूप की सिद्धि संभव है। जिसमें शत्रु-मित्र में, प्रशंसा-निंदा में,लाभ-अलाभ में और तृण-कंचन में समभाव होता है वही प्रव्रज्या कही गई है।
हमेशा रहे यादअपना दीक्षा काल
सन् १९९३, रामटेक (नागपुर) महाराष्ट्र वर्षायोग में 'अष्टपाहुड' ग्रंथ की वाचना चल रही थी। तब ‘भावपाहुड' की १०८वीं गाथा- “दिक्खाकालाईयं भावहि अवियारदसणविसुद्धो। उत्तमबोहिणिमित्तं असारसंसार मुणिऊण।' की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा- 'इस गाथा में दीक्षित को दीक्षा काल के बारे में स्मरण करने के लिए कहा जा रहा है। बहुत दिन की प्रतीक्षा के बाद ये गाथा आई है। बार-बार इसका उदाहरण दे देते थे हम, स्मरण में था।आप लोग भी अब स्मरण में रखेंगे और मुनि महाराजों को तो पहले याद रखना चाहिए । १०८ की उपाधि लिखते हैं अपने आपको, वह सार्थक हो जाए। यह सबसे उत्तम गाथा मानी जाती है तपस्वियों के लिए और जिन्होंने घर-वार छोड़ दिया उनके लिए भी। आचार्य भगवन् कह रहे हैं कि दीक्षा काल को हमेशा याद करो, घर से जब बाहर निकले थे उस समय को याद करो। हमें उन दिनों को हमेशा याद रखना चाहिए, जिन दिनों के द्वारा हमारा वैराग्य दृढ़ हुआ था। उस परिणाम के बारे में कम से कम स्मृति तो लाओ, जिस समय तुमने पंचेन्द्रिय के विषयों के बारे में संकल्प किए थे कि हम आज से जीवनपर्यंत पंचेन्द्रिय के विषय की ओर देखेंगे नहीं, हम आरंभ-परिग्रह की ओर किसी प्रकार से देखेंगे नहीं, हम हिंसा इत्यादिक कार्य करेंगे नहीं, और रात-दिन सुख चाहते हुए भी उसको चाहूँगा नहीं। पाक्षिकादि मुनि (आर्यिका) प्रतिक्रमण में ये आता है- 'अरहंत-सक्खियं सिद्ध-सक्खियं...' ये इस प्रकार की सक्खिय का अर्थ क्या है? साक्षी। इन-इन को साक्षी बनाकर के हमने ये संकल्प किए हैं, इसलिए उसमें यदि गड़बड़ी होती है, तो उस साक्षी के दिन को कम से कम स्मरण में तो लाओ।
दीक्षा तिथि को याद करने का अर्थ है कि हम किस वैराग्य से आए थे। घर छोड़ने के इरादे को याद करो ताकि अपने आप ही वैराग्य भाव दृढ़ होता चला जाता है। तुम उस वैराग्य को दृढ़ बनाए रखो, तुम्हारा कल्याण इसी में निहित है। जिन भावों को लेकर आए थे, यदि उन भावों को बनाए रखोगे, तो मोक्षमार्ग मजबूत होगा। सभी से आप भय खाते आए हो, लेकिन वैराग्य अभय है। यह गुरु के वचन हैं। तीन लोक की सम्पदा भी दी जाए, लेकिन वैराग्य भाव में जो आनंद आता है, उसकी सम्पदा को हम खरीद नहीं सकते हैं। दीक्षा दिवस मनाने के लिए नहीं कहा जा रहा है। याद करो का अर्थ ये है कि किस भाव के साथ तुमने इतना बड़ा काम किया था और अपने आपको धन्य माना था या नहीं, और उसका उद्देश्य क्या था ? दीक्षा के वर्ष गिनने से क्या होगा? मैं चिर दीक्षित हूँ,ज्येष्ठ हूँ- यह अहंकार व्यर्थ है। आत्मशोधन ही दीक्षा की उपलब्धि है। उसे निरंतर बनाए रखना ही सच्चा पुरुषार्थ है,सच्ची साधना है।
ऐसे मनाएँ दीक्षा दिवस
२१ अप्रैल, २००१, बहोरीबंद (कटनी) मध्यप्रदेश, ग्रीष्मकाल में मध्याह्न का समय था। आचार्य संघ की ईर्यापथ भक्ति संपन्न हो चुकी थी। आचार्यश्रीजी एवं सभी साधुजन कुछ ही समय में सामायिक आवश्यक में लीन होने वाले थे। ईर्यापथ भक्ति के बाद और सामायिक के पूर्व के बीच में कुछ मिनट ऐसे रहते हैं, जब संघ के साधुजन गुरुजी से अथवा आपस में भी कुछ प्रशस्त वार्तालाप कर लेते हैं। आज के दिन गुरु और शिष्य के मध्य जो वार्तालाप चल रहा था, उसे देखकर ऐसा लग रहा था मानो बच्चे अपने पिता से बात कर रहे हों। ऐसे क्षण अलग ही होते हैं, जिसकी अनुभूति चिरस्थायी सुख देती हैं । एक मुनिश्रीजी ने आचार्यश्रीजी से कहा- 'आचार्यश्रीजी! कल २२ तारीख है। कल के दिन २३ मुनि दीक्षाएँ हुई थीं। थोड़ा रुककर बोले- यूँ तो संघ में किसी का दीक्षा दिवस नहीं मनाया जाता, फिर धीरे से कहा, लेकिन दीक्षा दिवस तो मनाना चाहिए न।' आचार्यश्रीजी बोले- 'मैंने कब मना किया?' तभी एक मुनिश्रीजी हँसते हुए, विनम्र भाव से, बच्चों के जैसे बनकर बोले- 'पर, आचार्यश्रीजी! आपने हाँ भी कब कहा?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘अच्छा ठीक है, मेरी ओर से आशीर्वाद है।' कुछ पल ठहर कर गुरुवर आगे बोले, परंतु यह ध्यान रखना, जिस दिन दीक्षा हुई थी उस दिन मौन रहकर विचार करना चाहिए कि दीक्षा क्यों ली थी? साल भर में क्या अनुभूति हुई? कितना तप किया? कितनी कर्म निर्जरा हुई? इन सब बातों का ध्यान करना ही सही मायने में दीक्षा दिवस मनाना है, बोलना आदि तो औपचारिक है।' इतना सुनते ही एक अन्य मुनिश्रीजी बोल उठे- 'आचार्यश्रीजी! आप अपना दीक्षा दिवस नहीं मनाते?' आचार्यश्रीजी बड़ी ही आत्मीयता से बोले 'हमारा तो बहुत मनाया गया, तुम लोगों का नहीं मनाया गया। इसलिए अब तुम लोग अपना दीक्षा दिवस मनाओ, और पूज्यवर आचार्य कुंदकुंद महाराजजी की बात हमेशा याद रखना। उन्होंने दीक्षा तिथि याद रखने के लिए कहा है।
सन् २००६, शीतकाल, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में बड़े बाबा को नए मंदिर में उच्चासनासीन किए जाने के अवसर पर प्रायः सभी आर्यिका संघ गुरुचरणों में उपस्थित थे।९ फरवरी, गुरुवार, माघ शुक्ल द्वादशी के दिन प्रथम दीक्षित आर्यिका श्री गुरुमतिजी आदि ११ आर्यिकाओं का दीक्षा दिवस पड़ा। इस दिन सभी ने आचार्यश्रीजी से आर्यिका दीक्षा दिवस मनाने का निवेदन किया। तब आचार्यश्रीजी उस दिन के दृश्य का स्मरण करते हुए बोले 'नैनागिरि में गजरथ हो रहा था। उसमे दीक्षा कल्याणक था। वह दृश्य सामने आ रहा है। काफी जनता थी।सबको वैराग्य हो रहा था। आर्यिका दीक्षा पहली बार हो रही थी। आज १९ वर्ष का कालखंड व्यतीत हुआ। देखो, हमें विचार करना चाहिए कि दीक्षा से हमने क्या जाना? क्या माना? दीक्षा के बाद शिक्षा यानि आत्मपोषण का काल आना चाहिए। आत्मा में क्या कमियाँ थीं, कितनी निकल गईं आदि-आदि।जैसे बच्चा जब स्कूल में १२वीं कक्षा पास कर लेता है फिर पिताजी उससे कहते हैं कि जाओ स्कूल में बैठ जाओ। बेटा कहता है स्कूल भेजना चाहते हो तो दुकान पर मत भेजो। इसी प्रकार हमें अब दूसरे कार्य याद न आएँ। जहाँ हम चल पड़े उसी ओर का कार्य हमें करना चाहिए। दूसरे कार्य बताने वाला भी कोई नहीं है। हमारी जागृति कितनी है? वह जगा दे। शब्द के साथ भावानुभूति होनी चाहिए, इसमें कमी नहीं आनी चाहिए। यही दीक्षा दिवस मनाने की सार्थकता है। इस तरह आचार्य भगवन् जो बातों ही बातों में अपने शिष्यों का ध्यान प्रत्येक क्रिया के उद्देश्य, लक्ष्य, कर्त्तव्य आदि की ओर केन्द्रित कराते रहते हैं। ऐसी कोई भी चर्चा शेष नहीं जाती जब वह किन्हीं न किन्हीं सूत्रों को प्रदान कर उन्हें मोक्षमार्ग पर अडिग-अटल रहने हेतु पोषित न करते हों।
वर्षायोगकाअर्थ
अहिंसा की पृष्ठभूमि पर विकसित साधना क्रम में वर्षायोग का विशेष महत्त्व है। वर्षायोग अर्थात् चौमासा। इसका प्रारंभ आषाढ़ सुदी चतुर्दशी से होता है। इस काल को सूक्ष्म जीव-जंतुओं की उत्पत्ति का काल माना जाता है। मार्ग हरित (स्वजीवी-परजीवी) वनस्पति से पूरित हो जाता है। अतः श्रमण संस्कृति का साधक दिगंबर श्रमण एक ही स्थान पर रहकर हिंसा से बचने का प्रयास करता है। साथ ही अपनी चर्या पापशून्य, कषायशून्य बनाने हेतु सतत साधना करता है। परिग्रह वृत्ति से परहेज रखने वाले निस्पृही साधक वर्षायोग की बहुप्रतीक्षा के बाद प्राप्ति होने पर सहज वैराग्य में डूब जाते हैं । वे आत्मा में जागृत रहते हुए लोक व्यवहार में सो जाते हैं।
उनका समय स्वाध्याय, ध्यान, तप में ही व्यतीत होता है। वे अपने एक पल को भी व्यर्थ नहीं खोना चाहते हैं। सचमुच में अध्यात्म योगी का वर्षायोग आत्मानुभूति-शुद्धोपयोग का आनंद मिलने पर ही सार्थक होता है। पंचम काल के सच्चे श्रमण, साधक, साधु अपने आत्मा के स्वरूप में रमण कर भावलिंग को प्राप्त होते हैं। वर्षायोग संक्लेशों को समाप्त करने के लिए सबसे अच्छा अवसर है।
जब चलता हूँ, तब चला पाता हूँ
सन् २००९, ग्रीष्मकाल, सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह) म.प्र. में आचार्यश्रीजी विराजमान थे। ११ जून को सायं 0४ बजे उन्होंने वहाँ से अचानक विहार कर दिया। आचार्यश्रीजी के साथ ज्येष्ठ मुनि श्री समयसागरजी एवं मुनि श्री महासागरजी गए।ज्येष्ठ मुनि श्री योगसागरजी आदि शेष मुनिराजों ने सोचा कि अभी धूप तेज है एवं जमीन भी गर्म होगी,अतः ३०-३५ मिनट बाद भी विहार करेंगे तो भी विश्राम स्थान पर पहुँच जाएँगे।कुछ देर से विहार करने पर शेष सभी मुनिजन आचार्यश्रीजी जहाँ ठहरे थे वहाँ तक नहीं पहुँच पाए। रात्रि होने को थी, अतः उन्हें रात्रि विश्राम आचार्यश्रीजी से चार किलोमीटर दूर हिनौती, म. प्र. के समीप में करना पड़ा। उन्होंने सोचा कि कोई बात नहीं चार किलोमीटर ही तो है। सुबह शीघ्र चलकर आचार्यश्रीजी तक पहुँच जाएँगे। पर आचार्यश्रीजी ने कुलआ-कुम्हारी गाँव में न रुक कर सीधे सगौनी गाँव के लिए विहार कर दिया। अब इन शेष महाराजों में मुनि श्री योगसागरजी के साथ १८ महाराज आचार्यश्रीजी के पास न पहुँच सके, इसलिए उन्हें अपनी आहार चर्या कुम्हारी में ही करनी पड़ी। इनमें कुछ महाराज थोड़ा-सा ज़्यादा चलकर गुरुजी के पास सगौनी गाँव तक पहुंच गए। और आचार्यश्रीजी को नमोऽस्तु कर उन्हीं के पास बैठ गए। आचार्यश्रीजी वात्सल्य भाव से मुस्कराए और बोले- 'आ गए आप लोग।' पास में मुनि श्री महासागरजी बैठे थे, जो गुरुजी के साथ ही आ गए थे, वे बोले- 'आचार्यश्रीजी! कुण्डलपुर से जब विहार किया तो बड़े बाबा तक आने में ऐसा लग रहा था कि दस किलोमीटर का विहार हो गया हो। आप कैसे चले होंगे?' यह सुनकर गुरुजी ने बड़े ही सहज भाव से उत्तर दिया, यह मोक्षमार्ग है।जब चलते हैं, तभी चला पाते हैं।"
सचमुच गुरुजी जिन आदर्शों को अपने जीवन में उतार लेते हैं, उन्हीं की शिक्षा अपने शिष्यों को देते हैं।
दोषों से बचते,और बचाते
२५ दिसंबर, २००९, सतना, म.प्र. का प्रसंग है। एक दिन सायंकालीन आचार्य भक्ति के बाद कुछ मुनिराज आचार्यश्रीजी से वैयावृत्ति करवाने के लिए निवेदन करने लगे।आचार्यश्रीजी ने उन्हें मना करते हुए कहा- 'आप लोगों को यहाँ से जाने में अँधेरा होने के कारण पिच्छी से परिमार्जन करते हुए जाना पड़ेगा। अतः अभी समय है, जाओ अपने-अपने स्थान पर बैठो।वैयावृत्ति करोगे तो इसका दोष मुझे लगेगा।' उनमें से दो मुनिराजों ने कहा कि हम लोग तो यहीं सोते हैं। मुनि श्री अनंतसागरजी ने कहा कि हम भी बाजू के ही कमरे में सोते हैं। आचार्यश्रीजी बोले- 'जाना तो पड़ेगा, कुछ कम दोष लगेगा, पर दोष तो लगेगा।' मुनिश्रीजी ने कहा- 'अभी तो कुछ प्रकाश है, जब तक थोड़ी-सी वैयावृत्ति करने का मौका मिल जाएगा।' आचार्यश्रीजी बोले- 'यदि अँधेरा हो गया तो दोष किसे लगेगा?' मुनिश्रीजी ने कहा- 'मुझे लगेगा।' आचार्यश्रीजी बोले- 'पर निमित्त तो मैं बनूँगा, तो दोष मुझे ही जाएगा।' यह सुनकर सभी मुनिराज अपने अपने स्थान पर चले गए।
अँगुली पकड़ चलना सिखाते
सन् १९८३, ईसरी (गिरिडीह) बिहार (वर्तमान झारखण्ड) में आचार्यश्री ससंघ वर्षायोग -रत थे। २५ सितंबर, आश्विन कृष्ण तृतीया, विक्रम संवत् २०३४, रविवार के दिन आचार्यश्रीजी ने यहाँ पर एलक श्री परमसागरजी, एलक श्री समतासागर जी,एलक श्री स्वभावसागरजी, एलक श्री समाधिसागरजी एवं एलक श्री भावसागरजी इन पाँच एलक महाराजों को मुनि दीक्षा प्रदान की। एलक श्री परमसागरजी का नाम मुनि श्री सुधासागरजी एवं एलक श्री भावसागरजी का नाम मुनि श्री सरलसागरजी रखा, शेष एलक महाराजों के नाम परिवर्तित नहीं किए। और दीक्षा देकर कहा- 'केवल एक चटाई लेना। वही बिछाना और वही ओढ़ना।' इस समय तक शिष्यगण जमीन पर ही विश्राम किया करते थे। नव दीक्षित मुनिराजों को रात्रि में जल्दी सोने की आदत नहीं थी और आगम का अध्ययन करने की मन में तीव्र अभिलाषा थी। सारा दिन कक्षा एवं आवश्यकों के पालन में कब निकल जाता, पता नहीं चलता था। सो एक दिन उन्होंने आचार्यश्रीजी से कहा- 'हम लोगों को रात में पढ़ने की छूट दे दीजिए।' आचार्यश्रीजी ने उन्हें लाइट में पढ़ने से मना कर दिया। उन्होंने पुनः कहा- 'लाइट नहीं जलवाएँगे, लेम्प से पढ़ लेंगे, दिन में याद नहीं होता।' आचार्यश्रीजी बोले- "चिंता मत करो मैं परीक्षा नहीं लूंगा।' शिष्य तो शिष्य ठहरे, पाँचों ही शिष्यों ने सोचा कैसे भी गुरुवर को मना लेते हैं, सो पुनः निवेदन चरणों में रख दिया- 'आचार्यश्रीजी! अभी मुनि प्रतिक्रमण याद नहीं है, अतः रात में तीन-चार बजे कर लिया करेंगे, वहाँ गलियारे में कर्मचारी रोज लालटेन जला कर रखते हैं, उसी में पढ़ लेंगे।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘सुबह रोशनी होने पर कर लिया करो।' उन्होंने कहा 'सुबह तो सामायिक, स्वयंभू स्तोत्र पाठ के बाद शौच क्रिया, फिर कक्षा लग जाती है। तदुपरांत आहार चर्या और १०-१५ मिनट का समय बस मिलता है तो उतने में नहीं हो पाता है। गुरु तो गुरु होते हैं, शिष्यों की येन-केन-प्रकारेण स्वीकृति प्राप्ति की कोशिश नाकामयाब रही। और निर्दोष चारित्र परिपालन के दृढ़ संस्कार प्रत्यारोपित करने में उन्हें सफलता हासिल हो गई। गुरुवर की चारित्र-निष्ठा देख उन शिष्यों में गुरुवर के प्रति अगाध समर्पण भाव जाग्रत हो गया। वह सोचने लगे कि हमारे गुरुवर तो बहुत ऊँची क्वालिटी के हैं, इसलिए हमें ऐसे गुरु को पाकर अपने आप को धन्य समझना चाहिए।
आचार्यश्रीजी की दायित्व रूप परिणति ग्राह्य है। वह स्वयं आत्मकल्याण के साथ-साथ शिष्यों के कल्याण के प्रति भी प्रतिपल सजग रहते हैं। वह कहा करते हैं कि दो समानांतर रेखाओं में से एक रेखा में यदि एक अंश के अंतर के साथ बढ़ना प्रारंभ करें, तो जो अंतर अभी समान था, वह आगे बढ़कर किलोमीटर में हो जाएगा। इसी प्रकार से यदि छोटे-छोटे दोषों की ओर अभी ध्यान न दिया जाए, तो ये दोष आगे चलकर महादोष का रूप धारण कर लेंगे।अतः समय रहते छोटे-छोटे दोषों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें गौण नहीं करना चाहिए।
जगह चरणों में नहीं,आचरणों में है
एक दिन सायंकालीन आचार्य भक्ति के बाद दो मुनिराज आचार्यश्रीजी की वैयावृत्ति कर रहे थे। तभी एक और मुनिराज आ गए।आचार्य महाराज ने पूछा- 'कौन?' और आगंतुक महाराज की ओर देखने लगे। वे महाराज आचार्य महाराज को नमोऽस्तु करके मुस्कुराने लगे। तो आचार्य महाराज ने उन महाराज का नाम लेकर कहा- 'अच्छा! इस समय यहाँ क्यों आए? अपनी जगह पर रहो।' मुनिश्रीजी ने कहा 'हमारी जगह तो आपके चरणों में है।' आचार्यश्रीजी बोले- 'चरणों में नहीं, बल्कि आचरणों में है।
भीड़में नीड का अहसास करो
सुबह का समय था। ठंड ज़्यादा होने के कारण भक्ति के तुरंत बाद ही सुबह का स्वाध्याय शुरू हो गया। स्वाध्याय में विषय रोचक होने के कारण कक्षा में कुछ ज़्यादा समय लग गया। आठ बजने वाले थे। मुनि श्री प्रसादसागरजी को जंगल जाना था। कक्षा समाप्ति की ओर थी। मुनिश्रीजी ने शीघ्रतापूर्वक जिनवाणी स्तुति करके कहा- 'मुझे जंगल जाना है।' यह सुनकर आचार्यश्रीजी बोले- 'आपको जंगल जाना है और हम जंगल में रहते हैं।' यह सुनकर सभी महाराज हँसने लगे।
आचार्यश्रीजी सबके बीच में रहते हुए भी एकत्व भावना को भाते हुए हमेशा अपने आपको ऐसा रखते हैं, जैसे कि जल में कमल हमेशा निर्लिप्त रहता है। और सभी साधकों को शिक्षा देते हैं कि भीड़ में रहकर भी नीड़ का अहसास करो अर्थात् महसूस करो कि हम जंगल में हैं।
जब-जब वचन खिरे,सीख मिले
५ नवंबर, २००९ में आचार्यश्रीजी का छत्तीसगढ़ में विहार चल रहा था। आचार्यश्रीजी के पैर में चोट होने से वह विहार धीरे-धीरे कर पा रहे थे। यह देख साथ में चल रहे एक भक्त यादवजी ने आचार्यश्रीजी से अपना कमण्डलु देने का बार-बार निवेदन किया, पर कमण्डलु नहीं मिला। आचार्यश्रीजी जब विश्राम हेतु सड़क के एक ओर बैठ गए, तब यादव जी विनम्र भाव से बोले- 'आचार्यश्रीजी! यदि आप कमण्डलु दे देते तो आप का विहार आराम से हो जाता।' आचार्य भगवन् बोले- 'सामायिक के समय, चर्या के समय आप कमण्डलु ले सकते हैं, पर विहार के समय नहीं।' आगे बोले- 'हमारे उपकरण हमारे पास, तुम्हारे उपकरण तुम्हारे पास। हमारे उपकरण आपके पास, तो आपको परेशानी और आपके उपकरण (परिग्रह, मोबाइल आदि) हमारे पास, तो हमें परेशानी।
कषाय से बचने का उपाय
किसी साधक ने आचार्यश्रीजी से जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा- 'वैसे तो धर्मात्मा लोग कषाय से बचे रहते हैं, किन्तु आपसी कषाय से नहीं बच पाते। आपसी कषाय से बच सकें, ऐसा उपाय बताने की कृपा करें।' आचार्यश्रीजी ने समाधान करते हुए कहा- 'कषाय से बचना चाहते हो तो एक सूत्र है दूसरे के बारे में मत सोचो। सहपाठी से बचोगे तो कषायें उद्वेलित नहीं होंगी। उन्हें ध्यान का विषय मत बनाओ, अपने बारे में चिंतन करो। दूसरे के बारे में सोचना है तो उसकी अच्छाई के बारे में सोचो। भूलकर भी दूसरों के बारे में बुरा नहीं सोचना चाहिए। दूसरों की बुराइयों को याद करते रहने से वह बुराइयाँ अपने मन पर हावी होने लगती हैं। हमारी कषाय नोकर्म (शरीरादि) को देखकर उद्वेलित हो जाती हैं।' आचार्यश्रीजी ने उदाहरण देते हुए कहा- 'हमारे अंदर कषायों का बारूद भरा है। आग का सम्पर्क मिलते ही वह फूट पड़ता है। करंट स्विच के अनुसार कार्य करता रहता है। करंट वही है, स्विच पंखे वाला दबाओ, पंखा चलने लगेगा। हीटर, बल्ब जिसका चाहो उसका स्विच दबाकर उसे काम में ले सकते हो। वैसे ही परिणामों के अनुसार कषायों के उत्पन्न होने एवं फल देने के कार्य चलते रहते हैं। इसलिए दूसरे की गलती, बुराई, दोष आदि के बारे में न सोचें, क्योंकि यही निमित्त है जो हमारी कषायों को भड़का देते हैं। गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज को स्मरण करते हुए आचार्यश्रीजी बोले- 'आचार्य महाराज ने बताया कि हम कषाय की परिभाषा में उलझकर भी कषाय कर जाते हैं, लेकिन कषायों का उपशमन नहीं कर पाते। एक बार उन्होंने किसी पंडितजी से पूछा कि कषाय किसे कहते हैं? दो-तीन बार पूछा। फिर थोड़ा ज़ोर से बोले, अरे! परिभाषा भी नहीं आती आपको। महाराजजी भी मुस्कुराते हुए बोले- अपनी बात ज़बरन मनबाना, ज़ोर से बोलना, यह भी कषाय की सूक्ष्म परिणति है।
शिष्य, मुझसे भी पहले भगवान बनें
आचार्यश्रीजी द्वारा दीक्षाएँ प्रदान की जा रहीं थीं, जिसे देखकर, दीक्षा के बाद एक श्रावक ने आचार्यश्रीजी से पूछा- 'आचार्यश्रीजी आप दीक्षा देते - समय क्या सोचते हैं, ये शिष्य विद्वान बनें ?' आचार्यश्रीजी बोले- 'नहीं।' पुनः' वह श्रावक बोले- 'तो क्या यह सोचते हैं कि ये शिष्य महान् बनें?' आचार्यश्रीजी बोले- 'नहीं, मैं तो यह सोचता हूँ कि यह शिष्य मुझसे भी पहले भगवान बनें।
पर-कल्याण की इतनी चाह, संसारी जीवों के प्रति करुणा के यह भाव शीघ्र ही उनकी गणना तीर्थंकर प्रकृति के बंधक जीवों में करवाने वाले होंगे।अहो! परम धन्य हैं।
नोकर्मों से बचो
एक बार विहार के दौरान रास्ते में तेज बारिश आ गयी। आचार्यश्रीजी उपस्थित शिष्य समूह के साथ एक आम्र वृक्ष के नीचे खड़े हो गए। पानी जब पश्चिम दिशा से आ रहा था, तो आचार्यश्रीजी पूर्व दिशा में खड़े हो गए, और जब पानी उत्तर दिशा से आने लगा तो आचार्यश्रीजी इसके दूसरी तरफ घूम गए। जैसे जैसे पानी घूम रहा था, वैसे-वैसे आचार्यश्रीजी भी घूमते जा रहे थे। एक मुनि शिष्य ने कहा- 'आपका अभिषेक करने बादल आए हैं।'
आचार्यश्रीजी मनोविनोद करते हुए बोले- 'वह जितना घूमेगा हम भी घूमते जाएँगें।' फिर गंभीर होकर बोले- 'देखो महाराज! जिस प्रकार हम निमित्त (वृक्ष) की सहायता से अपने आपको बचा रहे हैं, उसी प्रकार निमित्तों से, नोकर्मों से बचने पर कर्मों का प्रभाव कम हो जाता है।
बाँटते निर्ममत्व भाव
सन् २००३, अमरकंटक (अनूपपुर) मध्यप्रदेश में संघस्थ मुनि श्री प्रवचनसागरजी को कुत्ते ने काट लिया था। उन्होंने सदोष उपचार ग्रहण नहीं किया। अपितु सल्लेखना व्रत ग्रहण कर कटनी, म. प्र. में समाधिपूर्वक देह विसर्जन किया। उनकी असमय में समाधि होने पर किसी ने आचार्यश्रीजी से पूछा 'आचार्यश्रीजी! असमय में एक अल्पवयी शिष्य मुनि के समाधि के विषय में सुनकर आपको कैसा लगा?' आचार्य भगवन् बोले- 'मुझे अच्छा लगा कि एक साधक की साधना सफलता पर पहुँची। वे आगे बोले 'मेरे पास सभी आकर के बैठ गए। मैंने कहा कोई रोना नहीं। सभी की सल्लेखना हो, किसी की जल्दी, किसी की देर से। इसलिए तो कहता हूँ, कर्म करते समय हमेशा अपने परिणामों को शुद्ध रखना चाहिए। इस तरह आचार्य भगवन् स्वयं निर्ममत्वी रहकर सभी साधकों को निर्ममत्वी भाव की प्रायोगिक शिक्षा देते रहते हैं।
अद्भुत प्रेरक
सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी का वर्षायोग चल रहा था। आचार्यश्रीजी को आहार दान देने की तीव्र भावना मन में लिए एक व्यक्ति आए और बोले- 'आचार्य महाराज! मैं आपको आहार देना चाहता हूँ। आहार दान की मेरी भावना तो तीव्र है, पर सुना है नियम काफ़ी कठिन होते हैं, और मैं त्याग कुछ भी नहीं कर सकता।' आहार दान देने की पात्रता समझकर आचार्यश्रीजी ने उनसे आहार ले लिया, और कुछ त्याग भी नहीं कराया। इसलिए वे श्रावक बहुत खुश हो गए। आहार पूर्ण हो जाने पर वे आचार्य भगवन् को छोड़ने के लिए मंदिरजी तक आए। आचार्यश्रीजी ने उनसे पूछा- 'वैसे, आप करते क्या हैं?' उन्होंने कहा- 'आचार्यश्रीजी! मैं वकील हूँ, वकालत करता हूँ।' आचार्यश्रीजी बोले- 'आप विशेष त्याग मत करिएगा, लेकिन विटामिन आर लेने का तो त्याग कर ही सकते हैं?' उन्होंने कहा- 'विटामिन आर?' आचार्यश्रीजी बोले- “विटामिन आर यानी रिश्वत लेना। इसका त्याग कर दो।' उन्होंने कहा- 'हाँ, यह तो मैं कर सकता हूँ।' और उन्होंने रिश्वत लेने का त्याग कर दिया। आचार्यश्रीजी बोले 'आपके इस छोटे से त्याग में मानो पाँच अणुव्रतों का ग्रहण हो गया।' उन्होंने पूछा- 'भगवन्! कैसे?' आचार्यश्रीजी ने कहा 'देखो! आप जिस किसी से रिश्वत लेते हो तो उसको दुःख अवश्य होता होगा। दुःख होने से हिंसा हो गई।' आपने रिश्वत लेने का त्याग किया तो आप इस हिंसा से बच गए, आपका 'अहिंसा अणुव्रत' हो गया। रिश्वत लेने के लिए आपको झूठ बोलना पड़ता है। रिश्वत लेने का त्याग होने से झूठ बोलने का त्याग हो गया। यह ‘सत्य अणुव्रत' हो गया। रिश्वत लेना शासकीय कानून के विरुद्ध है। शासकीय कानून के विरुद्ध कार्य करना चोरी है।आप इससे भी बच गए, अतः यह अचौर्य अणुव्रत' हो गया। रिश्वत लेंगे, पैसा अधिक होगा तो इंद्रिय विषयों में यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति होगी। विटामिन आर नहीं मिलेगा तो इससे भी बच गए। इसका नाम ही 'ब्रह्मचर्य अणुव्रत' हो गया। रिश्वत नहीं लेंगे तब पैसा सीमित होगा, तो अपव्यय भी नहीं करेंगे। इस प्रकार परिग्रहपरिमाण अणुव्रत' हो गया। पैसा सीमित होगा तो यहाँ-वहाँ जाना भी कम होगा। इसलिए समय बच जाएगा।आप घर पर समय से आएँगे तो रात्रिभोजन करने से बच जाएँगे। आपका रात्रिभोजन त्याग' भी हो जाएगा। यह सुनकर उस व्यक्ति ने आचार्य भगवन् के चरण पकड़ लिए, और वह बोल उठा- 'भगवन्! आज हम धन्य हो गए। त्याग के नाम मात्र से डरने वाले मुझे आपने त्यागी बना दिया।
अनुशासन, पाप नाशक
२० जनवरी, २००६, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी शिष्यों को जीवन में अनुशासन की अनिवार्यता को समझाते हुए कहते हैं- 'कार्य अनुशासन से होना चाहिए। रेखा खींचनी पड़ेगी, लेकिन रेखा भी लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए। तभी सीता की रक्षा होगी। हमें अनुशासन प्रिय है और हम अनुशासन ही चाहते हैं। लाड़-प्यार अलग वस्तु है और अनुशासन अलग वस्तु है। इसलिए अनुशासन के स्थान पर अनुशासन करना और लाड़-प्यार के स्थान पर लाड़ प्यार। बच्चों को हमेशा लाड़-प्यार देते हैं तो वो बिगड़ जाते हैं। अनुशासनहीनता होगी तो कभी भी पाप का अंत नहीं होगा। जिस जीवन में अनुशासन का अभाव है, वह सर्वथा निर्बल है। अनुशासनविहीन व्यक्ति सबसे गया बीता व्यक्ति है। जिस प्रकार फूल की सुरक्षा काँटों से होती है, वैसे ही व्रतों की रक्षा अनुशासन से होती है।
अनुशासन कठोर नहीं, पालना कठिन
१४ फरवरी, २००७, भाग्योदय तीर्थ, सागर, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी शिक्षा देते हुए कहते हैं 'हमेशा मुझसे लोग कहते हैं, अनुशासन कठोर है। अनुशासन कभी कठोर नहीं होता। उसकी गरिमा और फलश्रुति क्या है, यह तो वही जानता है, जो पालन करता है। आप लोगों को अनुशासन भले ही कठोर लगता है, क्योंकि कठिनाई से पाला जाता है। कहने में, सुनने में कोई कठिनाई नहीं होती, किन्तु पालन करने में कठिनाई है। अनुशासन पालन करने पर दिन में भी तारे दिखते हैं। मुझे ही अनुशासन में कठोर न मानों,सबको ऐसा बनना है।
शीत सहन करो
दिसंबर-जनवरी माह की कड़कड़ाती ठंड में आचार्य संघ का विहार नरसिंहपुर, मध्यप्रदेश की ओर चल रहा था। एक दिन रात्रि विश्राम की व्यवस्था एक स्कूल में कर दी गई।वह स्कूल क्या था मानो पूरा हवामहल ही था। उसकी छत खप्पर की थी। बड़े-बड़े कमरों में बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ एवं दरवाजे थे। वहाँ जाकर जब संघ विराजमान हुआ, तब श्रावकों की दृष्टि उस हवामहल की ओर गई। तत्काल ही आस पास के पक्के मकानों में संघ के ठहरने की व्यवस्था की गई। चूँकि रात होने से पूर्व व्यवस्था हो गई थी, सो अधिकांश मुनिजन वहाँ चले गए, पर आचार्य भगवन् वहाँ से हिले भी नहीं। और शिष्यों से कहा- 'ध्यान लगाओ, जिससे अग्नि/ताप पैदा होगा एवं उस ताप से आपकी ठण्ड की रात आसानी से गुज़र जाएगी।' भयंकर कड़ाकेदार ठंड वाली यह रात उन्होंने ध्यान करते-करते निकाल दी।
आचार्यश्रीजी जो उपदेश साधुओं को या फिर श्रावकों को देते हैं, उसका स्वयं भी पालन करते हैं, चाहे वे अनुकूलता में हों या फिर कितनी ही कठिन विपरीतता में ही क्यों न हों।
अनुशासन का पालन पापभीरु बन करो
आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'श्रावक को मर्यादा एवं अनुशासन का पालन किसी के भय से नहीं, बल्कि पाप के भय से करना चाहिए। जो पाप के भय से त्याग किया जाता है या अनुशासन में रहा जाता है, वही सच्चा त्याग एवं अनुशासन माना जाता है। गुरु से व कानून से मत डरो। डरना ही है तो पाप से डरो। अनुशासन में रहना ही पापभीरुता का प्रतीक है, और पाप से भयभीत होने से सम्यग्दर्शन का संवेग भाव नाम का गुण प्रकट होता है। हम सभी को किसी दूसरे के नियंत्रण में नहीं, बल्कि अपने नियंत्रण में रहना चाहिए।और यदि संघ में भी रहते हैं तो अपने नियंत्रण में रहना चाहिए। वैसे भी मोक्षमार्ग बाहर नहीं, अंदर है। एकता अनुशासन का अपना एक अलग प्रभाव पड़ता है। अनुशासित करने के लिए पहले स्वयं को अनुशासित होना जरूरी है।
त्यागी-व्रती मर्यादा कायम रखें
सन् १९९९, गोम्मटगिरि, इंदौर, मध्यप्रदेश में मूल दीपावली के दिन आचार्यश्रीजी ने कहा- ‘सादा जीवन उच्च विचार वाली बात आना चाहिए। ब्रह्मचारी लोग अपनी सादगी को भूलें नहीं। वैराग्य को भूलें नहीं। अपने पहनावे में परिवर्तन न लाएँ। जैसे गाँधीजी सादगी से घुटने तक पहनकर रहते थे उसी प्रकार पहना करें, सादगी इसी में है। मर्यादा कायम रखें। त्यागी मर्यादा भंग करता है, तो गृहस्थ उससे भी ज़्यादा करता है, क्योंकि उसकी तो कोई मर्यादा ही नहीं होती है। संयम की रेखा तो हमारी रहती है। त्यागी किसी भी प्रकार से अपना आत्मगौरव, मूल्य व मर्यादा नहीं खोएँ। समाज को कुछ देना चाहते हैं तो यही मार्ग सही है।
गुरुवर ज्ञानसागरजी ने कहा था- 'देखो, ऐसे वस्त्र पहनना चाहिए जिनमें से भीतरी अंग नहीं दिखें।' हाँ, बिल्कुल इसी प्रकार के वस्त्र ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों को पहनना चाहिए। उनमें नील, टिनोपॉल वगैरह नहीं लगाना चाहिए। साड़ी ऐसी होना चाहिए जिससे अंगोपांग ढक सकें, लज्जा सुरक्षित रहे।गृहस्थों से थोड़ी भिन्न होना चाहिए।
मर्यादा से दी मर्यादा की शिक्षा
सन् १९७७, कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी का ससंघ वर्षायोग चल रहा था। उस समय तत्कालीन ब्रह्मचारिणी पुष्पा दीदी, पटेरा (वर्तमान में आर्यिका प्रशांतमतिजी) ने ब्रह्मचर्य व्रत लेते ही साथ साड़ी पहनना तो शुरू कर दिया था, पर उन्हें सिर ढकने में संकोच होता था। वह अल्पवयस्क थीं। अतः वह आचार्यश्रीजी के दर्शन करने भी प्रतिदिन खुले सिर ही चली जाती थीं। आचार्यश्रीजी के लिए व्रतियों को खुले सिर रहना कतई पसंद नहीं था। वह उन्हें आशीर्वाद तो दे देते, पर मर्यादा के कारण कुछ कह नहीं पाते थे। एक दिन आचार्यश्रीजी ने सेठ कजौड़ीमलजी, अजमेर, राजस्थान वालों से कहा- 'उससे कह देना वह सिर भी ढका करे।' कजौड़ीमलजी बोले- 'आचार्यश्रीजी! ब्रह्मचारिणी बहन आपके दर्शन करने आती है, आप ही उनसे कह दीजिए कि सिर ढका करो।' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'अगर मैं कहूँगा तो वह शरमा जाएगी, तुम्हीं कह देना।' कजौड़ीमलजी ने ब्रह्मचारिणी बहन से कहा- 'बेटी! कल तुम जब गुरुजी के दर्शन करने जाओगी, तो सिर ढक कर जाना।' वह बोली- “सिर ढकने में मुझे शरम आती है।' कजौड़ीमलजी बोले- 'क्यों, तुम गुरुजी का कहना नहीं मानोगी?' उन्होंने पूछा- 'क्या! ऐसा गुरुजी ने कहा है कि सिर ढकना है।' कजौड़ीमलजी बोले- 'हाँ।' उन्होंने फिर पूछा- 'कब-कब ढकना है- पूरे दिन या मात्र आचार्यश्रीजी के सामने?' कजौड़ीमलजी बोले 'अभी तो आचार्यश्रीजी के सामने ढकना, चल इतना तो कर सही।' दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी बहन सिर ढककर आचार्यश्रीजी के दर्शनार्थ गई। आचार्य भगवन् ने मुस्कराते हुए आशीर्वाद दे दिया। बाद में, आचार्यश्रीजी कजौड़ीमलजी से बोले- 'आज वह सिर ढककर तो आई थी, लेकिन बाल नहीं दिखना चाहिए, इस प्रकार सिर ढकना चाहिए।' कजौड़ीमलजी ने ब्रह्मचारिणी दीदी से कहा- 'गुरुदेव ने ऐसा ऐसा कहा है, और आचार्य भगवन् के पास ही नहीं, बल्कि कहीं भी, कभी भी सिर खुला नहीं रखना है।' तब से फिर वे उसी प्रकार से सिर ढकने लगीं। इसके बाद से उनका सिर आज तक कभी भी खुला नहीं रहा। शिष्यों को मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाले गुरुवर स्तुत्य हैं।
हस्तांतरित हों मर्यादा-संस्कार
आचार्यश्रीजी को अनुशासनहीनता, मर्यादाविहीनता कतई पसंद नहीं है। वे चाहते हैं कि हमने जो सिखाया, वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता चला जाए। इसके लिए वह ज्येष्ठ साधु, आर्यिका या ब्रह्मचारिणी बहनों से प्रायःकर कहा करते हैं कि मैं कब तक एक-एक को सिखाता रहूँगा, अब आप लोग भी इन्हें सिखाओ, इनमें संस्कार डालो।' सन् २००७, भाग्योदय तीर्थ, सागर, मध्यप्रदेश, शीतकाल में आचार्य भगवन् के सान्निध्य में १९ से २५ फरवरी तक पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव संपन्न हुआ। ज्येष्ठ आर्यिका श्री गुरुमतिजी के साथ-साथ आचार्यश्रीजी से ही दीक्षित अन्य आर्यिका संघ की कुल ८४ आर्यिकाओं को भी इस महामहोत्सव एवं गुरुचरण सान्निध्य का लाभ मिला। एक दिन आर्यिकाएँ आचार्यश्रीजी से चर्चा कर रही थीं। तभी एक ब्रह्मचारिणी बहन आचार्यश्रीजी के दर्शन करने आई, उनका सिर आधा-सा ढका था। वह दर्शन हेतु झुकी कि पूरा सिर खुल गया। आचार्यश्रीजी आर्यिकाओं की तरफ देखकर बोले- 'क्यों, तुम लोगों ने यह नहीं सिखाया कि सिर कितना ढकना चाहिए, चार आना (२५ प्रतिशत) या बारा आना (७५ प्रतिशत)?' फिर आर्यिकाओं की ओर इशारा करते हुए बोले- 'मैंने इतना सिखाया, तब कहीं ये लोग मर्यादित रहना सीख पाए।' वह बहन बोली – 'जी गुरुवर! क्षमा करें, आगे से सावधानी रखूगी।
शरीर को वेतन दो, कामचेतन कालो
आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'धर्मध्यान के लिए, वैयावृत्ति, स्वाध्याय, तप, ध्यान, संयम के लिए स्वस्थ शरीर होना चाहिए। आप लोग अच्छी तरह से अपनी गाड़ी को सुरक्षित रखो। ड्राइविंग अच्छे ढंग से करो। आप लोगों को गाड़ी अच्छी दी गई है। उसमें तैल वगैरह अच्छा डालो, छानकर डालो। आप इस शरीर को वेतन देते जाओ और चेतना का काम लेते जाओ। इस शरीर का उपयोग दया धर्म के पालन में करो, तभी इस शरीर की सार्थकता होगी। शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है, लेकिन रत्नत्रय रूपी धर्म से पवित्र हो जाता है। जो इस शरीर की अपवित्रता को समझ लेता है, फिर वह कभी भी इस शरीर को साफ़-सुथरा बनाने का प्रयास नहीं करता है।
देते आहार संबंधी चिंतन
१० फरवरी, २००६, कुंडलपुर (दमोह) म. प्र. में आचार्यश्रीजी अपने शिष्यों को आहार संबंधी चिंतन देते हुए कहते हैं- 'आहार देना और आहार करना दोनों दुर्लभ हैं। भोजन (आहार) करना, एक बार भोजन करना, एषणा-समिति के साथ भोजन करना, यह एक मूलगुण है। भोजन करते रहते हैं तो भी निर्जरा होती रहती है। यदि अविरति भोजन करता है तो कर्म बंध करता रहता है। इसलिए हे साधो! अच्छे ढंग से आहार करो। उपवास करने वाला ही निर्जरा करता है, ऐसा नियम नहीं। क्योंकि एषणा-समिति के साथ जो भोजन किया जाता है, वह भोजन नहीं अपितु गाड़ी में पेट्रोल डालना है। इसलिए एक-आधा-डेढ़ घंटे तक किया जाने वाला वह भोजन भी कर्म निर्जरा का कारण है। जो रोज़-रोज़ आहार करते हैं, उन्हें दीनता भी नहीं आना चाहिए। क्योंकि कुछ गाड़ियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें रोज़ पेट्रोल चाहिए। और कुछ गाड़ियाँ ऐसी होती हैं, जो कम पेट्रोल खाती हैं और काम ज़्यादा करती हैं। मैं आहार ले रहा हूँ या आहार छोड़ रहा हूँ ऐसा भाव न आना ही सबसे बड़ा अध्यात्म है। तीर्थंकर भी आहार के लिए उठे थे।'
ऐसे करें आहार
साधक की साधना व्यवस्थित सधती रहे, इसके लिए उसे अपने पेट में आहार संबंधी ओंगन कब, कितना, कैसे डालना चाहिए? इसको बताते हुए १३ जनवरी, २००३, चौक मंदिर, भोपाल, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी ने कहा- 'जैसे दोहा या छंद में मात्राएँ ठीक रहती हैं, तो लय ठीक बनती है। लय ठीक होने से वन्स मोर होता है, अन्यथा सब बोर हो जाते हैं। ऐसे ही भोजन में पानी मात्रानुसार सेवन करने से प्रतिकूल भोजन भी नुकसान नहीं करता। इससे साधना का मार्ग ठीक बनता है। प्रारंभ में आठ अंजुली पानी गिन करके पी ही लेना चाहिए, आहार के बीच में और अंत में तो लेते ही हैं। लेकिन प्रारंभ के पानी का असर (प्रभाव) अलग होता है। किडनी, पेट आदि संबंधी रोगों में यह प्रक्रिया फ़ायदेमंद है। उदाहरण में प्रारंभ का पानी पुराने मल को निकालने में समर्थ होता है। पानी की मात्रा कम होने पर ही सारे रोग होते हैं। अजीर्ण आदि होने पर मुँह से बास आती है, खट्टी डकारें आने लगती हैं। जैसे खिचड़ी में पानी की मात्रा कम होने पर वह जल जाती है, उसमें बास आने लगती है, वैसी ही पेट की स्थिति है। जैसे- चावल (भात) जब बनता है तो पहले पानी डालते हैं, फिर उसमें चावल धोकर डालते हैं। फिर चार अंगुल नाप कर, दुगुना पानी डालते हैं, तब सही भात (चावल) बनता है। वैसे ही भोजन में पानी की मात्रा पर्याप्त होना चाहिए। आधा भोजन व दुगुना पानी होना चाहिए। तिगुना श्रम एवं चौगुनी हँसी। हाँऽऽ तभी वर्ष सवासौ (१२५ वर्ष) जी सकता है। शुरू में पानी आदिनाथ से चन्द्रप्रभ बोलकर गिनकर आठ अंजुली, फिर बीच में पुष्पदंत से शांतिनाथ तक गिनकर आठ अंजुली और अन्त में कुंथुनाथ से महावीर तक गिनकर आठ अंजुली। इस प्रकार इतना पानी तो आहार के साथ होना ही चाहिए। शुरू में पानी इतना (आठ अंजुली) लेने पर धीरे-धीरे उल्टी आदि सभी शमन को प्राप्त हो सकती हैं। जैसे- क्रेन को बैलेंस से उठाते हैं, वैसे ही अंजुली को धीरे-धीरे उठाना चाहिए।
ऐसे करेंअनुग्रह
सन् १९८०, सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर) मध्यप्रदेश में एक दिन आहार के पूर्व एक श्रावक आचार्यश्रीजी की शरण में आया, और अपनी गरीबी की व्यथा सुनाकर खूब रोया। आचार्यश्रीजी करुणा से भरकर बोले- 'अच्छा! इतने परेशान हो , ऐसा करो थोड़ा-थोड़ा दान देना शुरू कर दो।' वह भी पूर्ण समर्पित भाव से ‘जी महाराज' कहकर चला गया। गुरु वचनों पर उसकी इतनी श्रद्धा कि उसने इतना भी मुख से नहीं निकाला कि गुरुवर! जब पेट में खाने को नहीं तो दान कहाँ से करूँगा? वहीं पास में कुछ नवदीक्षित साधुगण बैठे थे, उन्हें यह देखकर बड़ा दुःख हुआ कि आचार्यश्रीजी यदि चाहते तो किसी सेठ से कुछ रुपये दिलवा सकते थे, पर उन्होंने तो और दान का ही बोल दिया। दोपहर को जब कक्षा शुरू हुई, तो महाराजों ने प्रश्नों की झड़ी-सी लगा दी, जैसे दया किस पर करनी चाहिए आदि-आदि। आचार्यश्रीजी बोले- 'आज आप लोगों को क्या हो गया?' एक महाराजजी ने कहा- आचार्यश्रीजी! आहार के पहले एक गरीब व्यक्ति आया था। आचार्यश्रीजी को बात समझ में आ गई, वह बोले- 'अच्छा-अच्छा, आप सब तो गरीबों के मसीहा हो, और हम क्या दुश्मन हैं?' वे आगे बोले- 'तो क्या दूसरे की जेब से पैसा निकलवाकर दे देता? पिच्छी या मंत्र से गरीबी हटती होती तो सभी गरीबों को कर दो अमीर। नहीं, पर ऐसा होता नहीं। ध्यान रखना, अमीर होने का बीज बोये बिना अमीरी आ नहीं सकती। अतः पुण्य बढ़ाओ।' छह माह बाद वह व्यक्ति अपने परिवार के साथ आया और बोला- 'महाराज! मेरा सब कुछ बहुत अच्छे से चल रहा है। आपने बहुत बड़ा उपकार किया। प्रतिदिन जो आता है, मैं उसमें से अवश्य कुछ दान करता हूँ। दो रोटी भी होती तो मैं एक टुकड़ा पक्षियों को डाल देता हूँ।आचार्यश्रीजी आपका नियम ठीक से चल रहा है।
मूलगुणपालन में रहें स्वाश्रित
आचार्यश्रीजी का कहना रहता है कि साधकों को केशलुंचन, प्रतिक्रमण आदि मूलगुणों के परिपालन में स्वाश्रित होना चाहिए। इसके लिए वह अपने शिष्यों को तदनुकूल प्रेरित एवं प्रोत्साहित भी करते रहते हैं। एक बार नवदीक्षित दो मुनिराजों ने मध्य रात्रि से केशलुंचन करना प्रारंभ किया, लगभग छह घंटे हो गए करते-करते, पर लुंचन १० प्रतिशत ही हो पाए। प्रातः आचार्य भगवन् उनके कमरे में आए। संघस्थ ज्येष्ठ साधु ने बताया कि छह घंटे में मात्र इतने ही हो पाए हैं। आपका आशीर्वाद हो तो हम कर दें। गुरुजी ने केशलुंचन कर रहे मुनिराजों से पूछा कि ठीक लग रहा है, आप कर लेंगे? उन्होंने स्वीकृति में विनत भाव हो, हाथ जोड़ लिए। हमारा आशीर्वाद है, लगे रहो सैनिको!' ऐसा कहकर आचार्यश्रीजी अपने स्थान पर चले गए। जिस तरह सैनिक शत्रु सेना को मात करने के लिए बॉर्डर पर सजग होकर तैनात रहते हैं, इसी तरह साधक को भी कर्म शत्रु की सेना को परास्त करने के लिए प्रतिसमय सतर्क रहना चाहिए। इस दृष्टि से आचार्यश्रीजी मोक्षमार्ग के साधकों को कभी-कभी सैनिक भी कह देते हैं। ऐसा कहकर गए हुए उन्हें आधा-पौन घंटा ही हुआ था कि दोनों मुनिराज केशलुंचन करके गुरु चरणों में आशीर्वाद लेने पहुँच गए। जहाँ गुरु आशीष है, वहाँ कोई भी कार्य असंभव नहीं है। उस समय यदि करुणा करके आचार्यश्रीजी अन्य मुनिराज द्वारा केशलुंचन करवा देते, तो ये नवदीक्षित मुनिराज स्वाश्रित न बन पाते।
इसी तरह सन् १९८९, सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर (दमोह) म.प्र. में आर्यिका श्री अनंतमतिजी ने दीक्षा के बाद प्रथमबार केशलोंच किया। वह अपने हाथ से पूरा नहीं कर पाईं, अतः उन्हें सहयोग लेना पड़ा। जब उन्होंने प्रातः जाकर गुरुचरणों में नमोऽस्तु पूर्वक निवेदन किया- 'आचार्यश्रीजी! आप की छत्रच्छाया में बहुत अच्छा लग रहा है, आज दूसरा उपवास करने की भावना है।' आचार्यश्रीजी मुस्कुराकर बोले- 'पहले गाड़ी पटरी पर लाओ, फिर स्पीड बढ़ाओ। यानी पहले केशलोंच रूपी मूलगुण स्वाश्रित करो, फिर उत्तरगुण (बेला - दो उपवास आदि) का पालन करो'
जब-जबझरे,अमृत झरे
ग्रीष्मकाल में सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर (दमोह) म.प्र. में आचार्यश्री ससंघ विराजमान थे। कुंडलपुर के चारों ओर कुंडलाकार पहाड़ी होने से यहाँ गर्मी अपेक्षाकृत ज़्यादा पड़ती है। साधुजन शौच क्रिया हेतु पहाड़ पर ही जाते थे। एक दिन शौच क्रिया के उपरांत आचार्यश्रीजी सहित कुछ महाराज पेड़ के नीचे बैठे हुए थे। चर्चा चलने लगी थी। चर्चा के दौरान, आचार्य महाराज ने शिक्षा देते हुए कहा- 'पहले मुनिराज ऐसे ही जंगलों में, पहाड़ों पर, गिरि-गुफाओं में रहा करते थे। आज हीन संहनन की वजह से नगरों में रहने लगे। आज हम उतनी साधना नहीं कर सकते, कोई बात नहीं, लेकिन मौन की साधना, नासादृष्टि रखे रहने की साधना अवश्य कर सकते हैं। नेत्र इन्द्रिय के व्यापार से, इधर-उधर देखने से, पर पदार्थ की ओर दृष्टि ले जाने से राग-द्वेष अधिक होता है। बोलने के माध्यम से पर से परिचय होता, मन में चंचलता आती है यदि हमने नेत्र इन्द्रिय एवं जिह्वा इन्द्रिय को संयत बना लिया तो समझना आज भी बहुत बड़ी साधना कर ली।
वचनबल का सिखाते प्रयोग
आचार्यश्रीजी अल्पभाषी एवं निवृत्तिपरक साधु हैं। वे कहते हैं- “जिस प्रकार अर्थ (धन) की प्राप्ति होने के उपरांत खर्च कितना-कैसा-क्या करना है, यह सोचा जाता है। उसी प्रकार लाभ-हानि समझकर बनती कोशिश प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए। बातों-बातों में पैसा खर्च नहीं किया जाता, तो बातों बातों में वचन बल भी खर्च नहीं करना चाहिए। बोलते हैं तो शारीरिक श्रम लगता है, खून ज़्यादा खर्च होता है। खून तो कम बन रहा है और बोलते ज़्यादा हो, तो क्या होगा? खर्चा ज़्यादा होगा कि नहीं? फिर रात में भी बड़बड़ाने लग जाओगे।
"आमद कम खर्चा ज़्यादा लक्षण है मिट जाने का।
कूबत कम गुस्सा ज़्यादा लक्षण है पिट जाने का ॥
तो पिटते भी हैं और मिटते भी हैं, लेकिन टिकते तो हैं नहीं। इसलिए कम बोला करो। कम बोलने से गंभीरता बनी रहती है, सोचने की क्षमता बढ़ जाती है। यह इन पंक्तियों का तात्पर्य है।
ज़्यादा नहीं बोलना सभ्यता का प्रतीक माना जाता है। अधिक बोलना अनेक व्रतों में दोष का कारण है। जैसे- संक्लेशता का भी वह कारण हो सकता है, आचार्य कुंदकुंद महाराज की आज्ञा का उल्लंघन हो सकता है, विकथाओं से नहीं बच सकता है, अमूल्य समय का अपव्यय होता है, शारीरिक शक्ति का ह्रास होता है, भगवान की आज्ञा भंग होती है, विवाद भी बन सकता है,प्रेम- वात्सल्य भी भंग हो सकता है, उसका व्रत तो खण्डित हो ही जाता है तथा वह कभी भी अनुभय वचन का पालन नहीं कर सकता। एक पाव दूध पीने से जितनी शक्ति आती है, उतनी शक्ति एक अक्षर के उच्चारण करने में नष्ट हो जाती है।
आचार्यश्रीजी अल्पभाषी तो हैं ही। उनके अल्पभाषित्व को प्रकट करने वाला एक रोचक प्रसंग श्री सुरेश जैन सरल, जबलपुर ने 'विश्व वंद्य' नामक पुस्तक में पृष्ठ ४३ पर लिखते हैं- 'उस समय का प्रसंग है, जब आचार्यश्रीजी की उम्र ३८ वर्ष रही होगी।वे सन् १९८४ में पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर,मध्यप्रदेश में विराजमान थे। आचार्यश्रीजी से जब कोई वरिष्ठ विद्वान् पंडित वार्ता करने आते तब मैं अनुभव करता था कि पंडित जी तो कड़क भाषा में शिक्षक की तरह बोल रहे हैं, परंतु आचार्यश्रीजी छात्र की तरह झिझकते हुए सीमित शब्दों में उत्तर दे रहे हैं। कोई आधा घंटा वार्तालाप करता, तो कोई पौन घंटा, मगर आचार्यश्रीजी उन्हें समय देने में कतराते नहीं थे। मैं उस समय युवकही था। मेरा वार्ता श्रवण और निरीक्षण का ज्ञान परिपक्व नहीं था, यह बात मैं लगभग बीस वर्ष बाद जान पाया। जब तक नहीं जान पाया था, तब तक यही समझता रहा कि आचार्यश्रीजी झिझकते हैं। एक बार मैंने वार्ता करने वाले विद्वान् को बीच में ही टोक दिया था कि आप विनयपूर्वक वार्ता क्यों नहीं करते। मेरा वाक्य सुनकर वह विद्वान् क्षण भर को चुप रह गए, किंतु आचार्यश्रीजी मुझे देखकर मुस्कुरा उठे और हाथ से संकेत किया जैसे कह रहे हों- वार्ता में यह चलता है। यह बात मुझे अब समझ में आई कि वे न तब, न अब कभी नहीं झिझके।एक महान् पुरुष की तरह वाणी का शिष्टाचार बनाए रहते थे, जो जन-जन के लिए श्लाघनीय हैं।
कदम-कदम पर शिक्षा
२१ मई, २००१, अतिशयक्षेत्र बहोरीबंद (कटनी) मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी का ससंघ शौच क्रिया हेतु एक खेत पर जाना हुआ।वहाँ पर एक किसान तालाब की मिट्टी खोद-खोद कर अपने खेत में डाल रहा था। उसे देखकर संघ सहित आचार्यश्रीजी वहाँ खड़े हो गए। आचार्यश्रीजी की दृष्टि इस संसार में कोई भी क्रिया देखे, पर वह उसे आत्महित (अध्यात्म) में ही घटा लेती है। यह क्रिया देखकर आचार्यश्रीजी बोले- 'देखो! किसान जमीन खरीद कर उसे उपजाऊ बनाए , रखने के लिए अलग से खाद और उपजाऊ मिट्टी डालता है। उसी प्रकार मुनि बनने के बाद तुम लोगों को भी नियम और उपनियम लेते रहना चाहिए, जिससे विशुद्धि बढ़ती रहे और। आत्मा की अच्छी लहलहाती हुई फसल आ सके। यह मत समझना चाहिए कि मुनि बन गए और बस हो गया काम।खेत । के समान मुनि पद है और उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए खाद के समान नियम हैं।
इसी तरह एक दिन कुछ महाराज छत पर खड़े। सूर्यास्त देख रहे थे, तभी आचार्यश्रीजी आ गए और पूछने । लगे- 'क्या देख रहे हो?' वे बोले- 'आचार्यश्रीजी! देखिए, सूर्य आधा अस्त हो गया और आधा होने वाला है। आचार्यश्रीजी बोले- ‘ऐसे ही हमारा जीवन कब अस्त हो जाए पता नहीं। इसलिए दृष्टि में वैराग्य व तत्त्वदृष्टि होना चाहिए।
समय-समय पर शिष्यों को प्रोत्साहित करते
आगम में आचार्य को अल्पकौतूहली' गुण से भी नवाज़ा गया है। और आचार्य भगवन् तो आगम की छाया ही हैं, अतः यह गुण उनमें खाली कैसे रह सकता हैं ।
२१ फरवरी से २७ फरवरी, २००१ में सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर (दमोह) मध्यप्रदेश में बड़े बाबा का महामस्तकाभिषेक एवं समवसरण मंदिर का पंचकल्याणक एवं त्रय गजरथ महोत्सव आचार्यश्रीजी के विशाल चतुर्विध संघ के सान्निध्य में सानंद संपन्न होने के बाद समिति के कुछ लोगों ने अपनी प्रसन्नता एवं गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा 'महाराज! कुंडलपुर में पानी की बहुत समस्या थी, किंतु आपके आशीर्वाद व इतने सारे सागरों के होने से पानी की कमी नहीं आई और कार्यक्रम सानंद संपन्न हुआ।' तब आचार्यश्रीजी संघस्थ मुनि श्री प्रशांतसागरजी की ओर देखकर हँसते हुए बोले- 'सागर ही नहीं, बल्कि प्रशांत महासागर कहो।
इसी प्रकार मुनि श्री प्रवचनसागरजी महाराज ने कहा- 'आचार्यश्रीजी आपके आगे के दाँत टूट गए तो आहार लेने में परेशानी होती होगी?' आचार्यश्रीजी मनोविनोद करते हुए बोले- 'हमारा शोरूम भले ही खराब है, पर गोदाम अच्छा है। क्योंकि उनके आगे के दाँत निकल गए थे, लेकिन दाँदें अच्छी थीं।
सन् १९९७, सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट (खण्डवा) मध्यप्रदेश में आर्यिका श्री दृढ़मतिजी के लिए ४ वर्ष के अंतराल के बाद आचार्यश्रीजी के दर्शन हुए।अतः वे बहुत रोईं। उन्हें देखकर आचार्यश्रीजी बोले- 'वृक्ष जब बड़ा हो जाता है, तब माली को उसकी हर समय देखरेख की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसको हरा भरा देखकर माली दूर से ही खुश हो जाता है। उसी प्रकार अब आप लोग बड़े हो गए हो।
अपने सभी शिष्यों को समय-समय पर आचार्यश्रीजी प्रोत्साहन देते रहते हैं। यही तो इनकी महानता है। शिष्यों को प्रोत्साहित करने की उनकी कला ही निराली है।
तनसे चलो,मन को कसो
९ जनवरी, १९९७, गुरुवार के दिन गुजरात यात्रा से लौटते समय आचार्यश्रीजी का नडियाद (खेड़ा) गुजरात नगर में प्रातःकाल प्रवेश हुआ। जनवरी माह की ठंड उसमें भी बारिश होने लगी। आहारचर्या के बाद क्षुल्लक श्री प्रज्ञासागरजी (सम्प्रति मुनि श्री अजितसागरजी) सहित कुछ शिष्यगण आचार्यश्रीजी के कक्ष में ही बैठे थे। क्षुल्लकजी का शरीर एकदम काँप रहा था, जिसे देख आचार्यश्रीजी बोले- ‘क्यों प्रज्ञा! क्या हो रहा है?' वह बोले- 'आचार्यश्रीजी, बहुत ठण्डी लग रही है, वैसे ही ठंडी अधिक है और उस पर बारिश भी हो रही है। आचार्यश्रीजी बोले- 'अच्छा, ठंडी अधिक लग रही है। तो, अब क्या करना चाहिए?' क्षुल्लकजी थोड़ा हँसते हुए बोले- 'आज ठंडी में विहार नहीं होना चाहिए।' आचार्यश्रीजी बोले- 'कौन कहता है तुमसे विहार करने को? अरे! विहार तो तन से होता है, मन से स्थिर रहना चाहिए। क्षुल्लकजी बोले- 'बहुत कठिन काम है।' आचार्यश्रीजी बोले- 'श्रमण जो होता है, वह तन से विहार करता है, मन से सदा स्थिर रहता है। जो गृहस्थ लोग होते हैं, वे तन से स्थिर रहते हैं, मन से सदा विहार करते रहते हैं। तुम गृहस्थ नहीं हो, साधक हो। ठंडी से डरने से साधना नहीं होती, कदमों को आगे बढ़ाने से साधना होती है।
पुण्य में प्रमाद नहीं
एक आर्यिकाश्रीजी को असाध्य रोग हो गया। पत्र के माध्यम से उन्होंने प्रत्यक्ष गुरु दर्शन की भावना रखी। पुण्योदय से आचार्यश्रीजी की कृपा दृष्टि हो गई और उन्हें आने का आशीर्वाद मिल गया। उन्होंने दलपतपुर से विहार कर रहली में विराजमान आचार्य भगवन् के प्रत्यक्ष दर्शन का सौभाग्य पाया। गुरुदर्श पा वह अत्यंत खुश हुईं। आचार्यश्रीजी शब्दशः आशीर्वाद देते हुए बोले- 'अब दर्शन हो गया न, सब ठीक हो जाएगा।' दूसरे दिन आर्यिकाश्रीजी किन्हीं कारणवश समय पर दर्शनार्थ नहीं पहुँच सकीं। तो समयपर्यायी आचार्यश्रीजी बोले- 'पुण्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए।'
आर्यिकाश्रीजी ने क्षमा निवेदित की। वह बोलीं- 'आपके अपूर्व दर्शन को पाकर मुझे अपने स्वास्थ्य की बिल्कुल चिंता नहीं है?' आचार्यश्रीजी बोले- 'हाँ, अपनी चिंता करनी भी नहीं चाहिए। जो अपनी चिंता करते हैं, गुरु उसकी चिंता नहीं करते। देखो, मैं भी अपनी चिंता नहीं करता, मेरी चिंता तो आचार्य ज्ञानसागर महाराज करते हैं।' जब शिष्य, गुरु चरणों में अपने को समर्पित कर देता है, तो उसके सुख-दुःख की जिम्मेदारी गुरु अपने ऊपर ले लेते हैं।
उपसंहार
इस तरह आचार्यश्रीजी अपने शिष्यों को मोक्षपथ पर अग्रसर बने रहने हेतु हर पल पोषित करते रहते हैं, उनकी मुद्रा, वाणी, चर्या से ही शिक्षा सूत्र नहीं निकलते, अपितु उनकी दृष्टि मात्र ही चरित्र निर्माण का संदेश देती है। इससे केवल शिष्यगण ही नहीं, उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक भव्यजीव लाभान्वित होता रहता है । सन् १९८१ में प्रकाशित ‘सागर में विद्यासागर' नामक स्मारिका में 'युग-प्रवर्तक संत' इस शीर्षक में पृष्ठ १२३-१२४ पर श्री मूलचंदजी लुहाड़िया, मदनगंज-किशनगढ़ (अजमेर) राजस्थान लिखते हैं- 'आज विद्यासागर के रूप में सचमुच विद्या का सागर पाकर आश्चर्य मिश्रित प्रमोद होता है। उनके प्रवचनों में अनुभवसिक्त तत्त्वदेशना हृदय को छूती है। किशनगढ़, राजस्थान पंचकल्याणक महोत्सव के अवसर पर एक बार पंडित श्री कैलाशचंद्रजी सिद्धांतशास्त्री ने कहा था कि आचार्यश्रीजी की वाणी सुनकर हम जैसे विद्वान् भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं।
भगवान कुंदकुंद के अध्यात्म ग्रंथों के स्वाध्याय का इन दिनों इतना अधिक प्रचार है कि इस युग को अध्यात्म युग कहा जाने लगा है। किन्तु आगम ग्रंथों के पर्याप्त स्वाध्याय एवं नय व्यवस्था के समुचित बोध से शून्य अनेक व्यक्ति भ्रांत धारणाओं से ग्रसित रहते हैं। ऐसे कठिन समय में युग प्रवर्तक पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज का समीचीन दिशाबोध मध्यस्थ जिज्ञासुओं के लिए ज्योति-स्तम्भ का काम कर रहा है। अध्यात्म की बातें तो बहुत की जाती हैं, किंतु विषय-कषायों की निवृत्ति से होने वाली आत्मस्थता रूप अध्यात्म क्या बातों से या भाषाओं से जीवन में उतर सकता है? अध्यात्म की साक्षात् मूर्ति सातिशय प्रभावक आचार्यश्रीजी अपनी वृत्ति से एवं वाणी से अध्यात्म प्राप्ति का समीचीन मार्ग दिग्दर्शित कर रहे हैं। आचार्यश्रीजी के प्रवचनों में सराग-वीतराग सम्यग्दर्शन, व्यवहार-निश्चय रत्नत्रय, शुभोपयोग-शुद्धोपयोग के परस्पर कार्य-कारणता एवं पूर्वोत्तर अवस्थिति का अध्यात्म ग्रंथों के आधार पर युक्तियुक्त विवेचन सुनकर जिज्ञासुओं के ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं। कुंदकुंद साहित्य के टीकाकार आचार्य श्री अमृतचंद्रजी एवं श्री जयसेन स्वामी के साहित्य के सूक्ष्म अध्ययन के फलस्वरूप आचार्यश्रीजी ने अनेक तत्त्व उद्घाटित किए हैं, जिनसे प्राप्त दिशा दृष्टियों के लिए निराग्रही मध्यस्थ वृत्ति स्वाध्यायशील जिज्ञासु आचार्यश्रीजी का सदैव अनंत उपकार मानते रहेंगे। और भी विशिष्टता की बात है कि आचार्यश्रीजी के दिव्य आध्यात्मिक व्यक्तित्व ने अनेक बाल ब्रह्मचारी युवा वर्ग को आकर्षित कर वैराग्य के पथ पर ला खड़ा कर दिया हैं। आचार्यश्रीजी का निर्दोष उज्ज्वल चरित्र, निरीह वृत्ति, सौम्य मुद्रा, हृदय को झनझना देने वाली अमृत वाणी दर्शक के हृदय में प्रथम दर्शन में ही अमिट छाप अंकित कर देती है। सभी प्रकार की विकथाओं से दूर निरत, ध्यानाध्ययन में रत इस संत में श्री समंतभदाचार्य एवं श्री अकलंक देव की छवि के दर्शन होते हैं। हम लोग धन्य भाग्य हैं कि ऐसे तपस्वी वीतराग गुरु के दर्शनों का एवं वाणी सुनने का हमें सौभाग्य प्राप्त हो रहा है।' 'पुरुषार्थ करो और अंतरंग सुधारो' जैसे सूत्र वाक्यों का शंखनाद करने वाले आचार्यश्रीजी धन्य हैं।
गुरु के समागम से देव-शास्त्र-गुरु तीनों मिल जाते हैं। उनकी वाणी जिनवाणी होती है। उनकी मुद्रा देखते हैं तो वह भगवान के समान होती है। और चर्या देखते हैं तो मोक्षमार्ग के पथिक की अनुभूति हो जाती है। इस तरह गुरु में तीनों का समावेश हो जाता है।