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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. हताश हो खाली हाथ लौट आये सदलगा... देख महावीर को अकेला निश्चय हो गया... अब तोता उड़ गया सारे गाँव में पता चल गया… अनेकों विचार मल्लप्पाजी के मन को कर देते विचलित काश! कर देते विवाह तो यहीं रह जाते घर में निश्चित, किंतु उनकी इच्छा बिन कैसे था यह संभव विचार सरिता में डूबते-तैरते सोचते कि व्यापार में लगा देता तो मन रम जाता फिर विचारते कि मन ही यहाँ नहीं तो कैसे रम पाता? नौ वर्ष की उम्र में ही अकलंक-निकलंक की करते थे चर्चा गुफाओं में बैठकर करते थे आत्म-अर्चा गहरी वापी में बैठे रहते ध्यान लगाकर समकित रस पीते थे अदभुत सुधाकर, पूछता कोई दूर कितना है घर से मंदिर? तो अन्य जन कह देते फर्लांग भर पर इनका उत्तर था भिन्न कहते वह... पढ़ो सत्ताईस बार मंत्र णमोकार आ जाता मंदिर का द्वार… स्वाध्याय की रुचि हर कार्य में लगन और विवेक बुद्धि पिछले सुकृत् के फल से पायी इन्होंने पथ को कौन बदल सकता इनके? अब तो सिर्फ रह गई स्मृति उनकी जब से गये, रौनक चली गई घर की... उधर विद्याधर की रूचि संयम में गहराने लगी तप-त्याग की भावना अंतस में अंकुराने लगी अपने परिणामों को व्यवस्थित रखते हुए संघ की व्यवस्था देखना उत्साहपूर्वक धर्म की क्रिया करना तनिक भी प्रमाद नहीं करना। ‘‘सादा जीवन उच्च विचार” की उक्ति मानो विद्याधर के जीवन को देखकर ही विद्वानों ने गढ़ी, लक्ष्य उन्नत है भाग्य समुन्नत है तभी विद्वानों ने यह बात कही “उन्नतं मानसं यस्य भाग्यं तस्य समुन्नतं” एक दिन सवेरे मंदिर में छोटी-सी पुस्तक देख लगे पढ़ने मनोयोग से... जैन सिद्धांत प्रवेशिका' स्व-प्रेरणा से करते याद अक्षर-अक्षर कर लिया स्मरण उसका पण्डिताई करने के लिए नहीं पर लक्ष्य ही रहता उसमें, आत्माध्ययन की दृष्टि से स्व-लक्ष्य रहता इसमें प्रत्येक दृश्य में देखे जो दृष्टा को होता है सिद्धत्व का सम्यक् सृष्टा वो!!
  2. साथ में ले एक साथी को जिनकी हर बात मानते थे वो चल दिये जयपुर की ओर तरह-तरह के विचारों की तरंगें उठती और समाती स्वयं में... कुछ नहीं दिख रहा था विद्या के सिवा उन्हें राह ने भी हरा दिया आज बहुत लंबा लग रहा रास्ता उन्हें... जितना पार करते उतना ही लंबा लगता मन थका-थका सा कहता कब दिखेंगे वे? जाकर क्या कहूँगा? कैसे समझाऊँगा उन्हें? मन ही मन तैयारी करने लगे। हल्की-सी पलकें मूंदी ही थी कि सुनाई दिया ‘जयपुर... जयपुर... जयपुर... श्वासों की गति तेज हो गई पहुँचते ही संघ-समीप रागी आँखें विद्या को पहचान गई, शास्त्र खोले सोच रहे थे विद्याधर “कदाऽहं भविष्यामि पाणिपात्रो दिगम्बरः” महावीर के धैर्य का बाँध टूट गया मोह का जल उमड़ आया बोले तुमने यह क्या किया? माता-पिता की बुरी हालत है बहनों के आँसू थम नहीं रहे हैं अनंत, शांति के नयन दिन-रात ढूंढ़ रहे हैं। सारे सदलगा में छायी है उदासी बंद करो शास्त्र अब चलो घर की ओर... नहीं रोकेंगे तुम्हें कभी कर लेना धर्म वहीं समझाने लगे भाँति-भाँति से जैसे मनाया था कभी ‘भरत' ने 'राम' को लेकिन “मौनं सर्वत्र साधयेत्” यह सोच विद्याधर चुप थे भीतर ही भीतर विचार रहे थे... जीवन गतिशील है लुढ़कते पाषाण के समान, जीवन प्रवाहशील है बहती सरिता के समान और जीवन परिवर्तनशील है रंग बदलते गिरगिट के समान, आज जो धर्मपथ के लिए मना कर रहे हैं कल वे ही मुक्त कंठ से करेंगे सराहना इसकी मुझे नहीं करना परवाह किसी की... शरारत करने वाला शरीर ही जब मेरा नहीं तो मोह भाव से वार होता है आत्मा पर जिनसे “आ परि समन्तात् वारं करोति इति परिवारः” ऐसा वह परिवार कैसे हो सकता है मेरा? दोनों ओर से चुप्पी थी तभी... ज्ञानधारा की एक लहर बोली मंद स्वर में... तीन प्रकार की होती हैं आँखें पहली चर्म की आँख खुलती है जब तब उसे उठना कहते हैं दूसरी बुद्धि की आँख खुलती है जब तब उसे समझना कहते हैं और तीसरी ज्ञान की आँख खुलती है जब तब उसे जागना कहते हैं। विशुद्ध भावों से दृढ़ मनोबल से आगम चक्षु के प्रभाव से खुल चुकी है तीसरी आँख जिनकी वह मोह तमस से कैसे घिर सकता है! सही लक्ष्य ले संयमित चरणों वाला प्रलोभन के पथरीले पथ पर कैसे गिर सकता है!! साहस पूर्वक करुणाभरी आवाज़ में कहने लगे महावीर एक बार घर चल दो मुख खोलो और 'हाँ' कह दो। गंभीरता से शांत स्वर में बोले मेरे लक्ष्य में बाधक मत बनो मुझे अपना कार्य करने दो... माता-पिता भाई-बहन मिले अनंतों बार नहीं मिला अब तक सिद्धों-सा परिवार जग से मिला अनेकों बार... पर मिला कुछ नहीं एक बार मिलने दो निज से फिर मिलने योग्य शेष रहेगा कुछ नहीं… दूध से निकला नवनीत पुनः दूध में कैसे समा सकता है? तरकस से निकला तीर पुनः उसी में कैसे जा सकता है? एक बार निकल चुका हूँ मैं निज गृह की तलाश में अब उस जड़ गृह में आकर क्या मिल सकता है? अब मैं वयस्क हूँ बीस वर्ष का हो चुका हूँ यह मेरा सहज निर्णय है कहकर इतना हुए मौन… अनेकों प्रश्न पूछने पर भी मौन धरे कुछ न बोले तब पहुँचकर आचार्यश्री के निकट आँसू बहाते हुए महावीर कहने लगे... विद्या का शरीर कृश हो चुका है कितने उपवास कर चुका है इन्हें घर जाने की अनुमति दीजिये! विद्या को इशारा करते हुए कहने लगे आचार्यश्री अपने भाई की भावना रख लीजिये। सुनते ही मौन खोलकर बोले हे अशरणों के महाशरण! निराश्रयी के आश्रयधाम! निरालंबों के आलंबन! निवेदन है- “नहीं जा सकता मैं घर...। मुझे व्रत प्रदान कीजिये आया हूँ आपकी शरण अब शरण में रख लीजिये।” आखिर विवश हो चुप हुए महावीर तब प्रसन्न हो आचार्य श्री ने दिया आजीवन व्रत ब्रह्मचर्य। सच ही कहा है गुरु की कृपा का प्रमाण नहीं माँगना उनके मौन को उपेक्षा नहीं समझना इनकी कार्य प्रणाली होती जग से भिन्न न किसी से प्रसन्न होते न किसी से खिन्न, सदा सहज आत्मस्पर्शी उतने ही होते हैं वे दूरदर्शी। ऐसे गुरु को किया नमन अंतर्जगत् की यात्रा का हुआ यह महत्त्वपूर्ण चरण। पूर्व में किया जो धर्म बीज का वपन उग आये हैं अब यहाँ ज्ञान के अंकुर हुआ जो गुरु-कृपा जल का वर्षण व्रत ग्रहण कर मन में हर्षण। अमंद गतिवाली यतिपति वृत्ति वाली अखंड ज्ञानधारा प्रवाहित होते-होते विद्याधर की कथा को लिखती गई धरा पृष्ठ पर इसी विश्वास के साथ कि अमर रहेगी यह कहानी जब तक है ‘ज्ञानधारा' में पानी और आगे बढ़ती जा रही ज्ञा ऽ ऽ ऽ न धा ऽ ऽ ऽ रा ऽ ऽ ऽ
  3. मुश्किल से कटते क्षण व्यतीत हुए यों कई दिन, घर का कोई सदस्य अच्छे से भोजन नहीं कर रहा माता-पिता का तो क्या हाल हो रहा!! जीवन में कभी नहीं बीता ऐसा काल, हर पल खुशहाली थी जिस आँगन में वहीं सबके मुख से निकल रही आह!! सिर झुकाये बैठे थे कुर्सी पर मल्लप्पाजी घर के बाहर... तभी डाकिया ने थमाया एक पत्र आया था जयपुर से सर्वप्रथम आचार्य प्रवर का था आशीर्वाद ढाई दिन की लम्बी यात्रा कर पुत्र आपका आया है यहाँ पर... व्रत के लिए कर रहा अनुरोध दो दिन से अनशन पर है भावना इसकी उत्कृष्ट है, लेकिन उपवासी के अलावा रहे कोई संघ में भूखा यह संघ की मर्यादा के प्रतिकूल है अतः व्रत की स्वीकृति प्रदान करो या उन्हें घर लौटा ले जाओ...!! पढ़ते ही पत्र छूट गया हाथ से छा गया अंधेरा चारों ओर से मुँह से निकला शब्द श्री...नहीं बोल पाये ‘मंति' मोहाविष्ट थी जो मति, परिवार आ गया सारा कहिये ना... क्या आया समाचार विद्या का? उतावले हो पूछने लगे… तभी रूंधे कंठ से बोले भोला-सा विद्या हो जायेगा ऐसा कठोर सदलगा से निकल जायेगा इतनी दूर जयपुर सोचा नहीं था... कानों कान किसी को पता न चले कहीं माँ जाने न दें पिता टोक न दें इसीलिए कुछ बोला नहीं था हृदय का रहस्य खोला नहीं था, बेटा! तूने यह अच्छा नहीं किया महकती फुलवारी को क्यों उजाड़कर चला गया? कहकर घर के अंदर जा बैठ गये किंकर्तव्यविमूढ़ हो गंभीरता से बोले महावीर आप चिंता न करें पिताजी! लौटाकर लाऊँगा अवश्य उन्हें भूखी प्यासी माँ की वेदना अवश्य समझेंगे वे हम सबकी व्यथा कथा सुन हृदय से पिघलेंगे वे! किंतु भ्रातृ प्रेम में डूबे महावीर समझ नहीं पाये कि सागर तक सरकती सरिता को लौटाया नहीं जाता उदित होते सूरज को कभी रोका नहीं जाता।
  4. ‘जयपुर के समीप ‘खानिया' में विराजे थे 'आचार्य देशभूषणजी' प्रातः वहाँ पर पहुँचकर विनम्र भाव से नमोस्तु निवेदित कर संघ में रहने का अनुरोध कर चरणों में बैठ गये। यशस्वी तेजस्वी मुख को देख आचार्य श्री सोच में पड़ गये... माता-पिता के बिना दिये अनुमति कैसे बना दें इसे व्रती? विचारकर बोले रह सकते हो संघ में... पर व्रत दे नहीं सकता अभी मैं। संघ में रहकर साधुओं की सेवा से विद्याधर का हृदय प्रसन्न था, किंतु बिना व्रती बने मन खिन्न था | चरणों में जा मुनिवर को पुनः निवेदन किया था, किंतु ‘परिवार की अनुमति बिना ब्रह्मचर्य व्रत मिल नहीं सकता’ यह सुनकर शिवपथ की ओर मुड़कर प्रभु की ओर बढ़कर गुरु को समर्पित होकर स्वयं गुरू होने की क्षमता रखने वाले विद्याधर सप्तभय से रहित निर्भय हो और अधिक हो गये दृढ़ संकल्पित!! नहीं रही यह शंका कि इस जीवन में कैसे होगा मेरा गुजारा क्या कहेंगे लोग इसको भी नहीं विचारा, परिवारजन नहीं हटा सकते मुझे पीछे मेरी आत्मा स्वयं में है पूर्ण। इसमें प्रवेश नहीं किसी का मुझे भय नहीं ‘इहलोक' का आगे की गति की चिंता मैं भला क्यों करूं? पर पदार्थों से विरति हो सम्यक् जब मति हो तो 'परलोक' से मैं क्यों डरूँ?? मेरा लोक निज चैतन्य स्वरूप में ही है नहीं होता कभी मेरी सत्ता का विनाश मैं अमरण धर्मा हूँ, जबसे मिली मुझे जिनवाणी की शरण समझ गया मैं तब से नहीं होता मेरा कभी ‘मरण', असाता से हो जाते देह में रोग मैं आत्मा हूँ ज्ञायक स्वरूपी देह ही नहीं मेरी तो क्यों हो मुझे 'वेदना' का भय? मेरा नहीं यहाँ कोई रक्षक नहीं कोई समर्थक इस तरह का ‘अत्राणभय' नहीं मुझमें: क्योंकि स्वयं की विशुद्धि ही रक्षा कवच है मुझमें जिनधर्म की कृपा से नहीं जागती मुझमें कोई अशुभ कल्पना, जो होगा अच्छा ही होगा यही कहता मुझे मेरा दृढ़मना। मजबूत किले में ज्यों दुश्मन का प्रवेश हो नहीं सकता मेरे स्वरूप में त्यों पर का कभी प्रवेश हो नहीं सकता: फिर क्या छिपाऊँ क्यों छिपाऊँ? छिपाने योग्य कुछ नहीं मुझमें ‘अगुप्तिभय’ रहा नहीं मुझमें | ‘अकस्मात्’ कुछ होता नहीं कर्म सिद्धांत कहता है जैसा कर्म उदय हो होता वही पर का परिणमन मुझमें होता नहीं, निज का निज में परिणमन कभी रुकता नहीं। पर से सुधार-बिगाड़ की कल्पनाएँ व्यर्थ हैं, निर्भय होकर जीना यही जीवन का अर्थ है। इस तरह सदविचारों से स्वयं को करते रहते सबल, स्वयं आचार्य महाराज थे चकित कभी नहीं देखा ऐसा साधक जिसका संकल्प हो ऐसा प्रबल!!
  5. यूँ सफर में बीत गये दो दिन विद्याधर है यहीं कहीं आस-पास यह आभास माँ को करता बेचैन भोजन करते समय बार-बार भीग जाते नैन दुखी सारा परिवार, पूछते नगरवासी जब दिख नहीं रहा कहाँ गया विद्याधर? स्वयं को पता नहीं था क्या कहते मल्लप्पा... गीले नयन से कंधे कंठ से बोझिल मन से इतना ही कह पाते- करने गये हैं दर्शन, समझाना आसान औरों को लेकिन कैसे समझायें स्वयं को? दिन पर दिन निकलते जा रहे पल-पल सागर सम प्रतीत होने लगे विकल्पों के काले घने बादल छा गये... रह-रहकर शंकाकुल हो मन रोने लगा भूख खो गई नींद स्वयं सो गई, माँ को न सोये चैन है न बैठने में चैन है एक मौन रूदन का झरना आँखों से रह-रहकर झर रहा है कोई देख न सके ऐसा विरह का वृण दर्द दे रहा है। कभी देखती माँ विद्या के वस्त्रों को कभी उसके बैठने, तो कभी शयन के स्थान को सहस्रनाम, तत्त्वार्थसूत्र पढ़ाते अपने भाई-बहनों को जगह वह खाली दिख रही है श्वासें रूक गई हैं आँखें थक गई हैं, मानो देह पड़ी निष्प्राण दूर तक दिखता वीरान… मल्लप्पाजी जितना कठोर बनते आज हृदय उतना ही पिघलता जा रहा था बैठे अकेले कक्ष में बंद कर द्वार रोना ही रोना आ रहा था, कहाँ चले गये मेरे लाल! एक बार भी सोचा नहीं, क्या होगा हमारा हाल? जाते-जाते कुछ कह तो जाते मुझे नहीं तो अपनी प्यारी माँ को बता जाते, हर बार की भाँति एक बार आ जाओ मेरे प्राण! मुझमें आ समाओ!! लिपटकर माँ से पूछ रही 'शांता' कब आयेंगे घर भ्राता? रो-रोकर आँखें फूल गई हैं माँ की पीड़ा को देख आहत ‘सुवर्णा' लगता है बोलना ही भूल गई है, छा गया गहन सन्नाटा ‘शांति' रहने लगे हैं शांत मेरे भैया को भेज दो भगवान। मंदिर में जा प्रार्थना कर रहे ‘अनंत’ भैया तुम मत बन जाना संत। ‘श्रीमंति' के विचार थम नहीं रहे चलचित्र की भाँति… अचानक स्मृति पटल पर आ गई चादर जो मेले से ले आये थे वह लिखा था उस पर “सुखी जीवन” मुझे हाथ में लाकर दी थी कहीं संकेत तो नहीं था वह कि इस निशानी को देखकर कर लेना स्मृति सुखी जीवन की खोज में जा रहा हूँ बनने यति। इस तरह विद्या का खेलना-मचलना पल्लू पकड़ना ज्ञान की बातें कर सबको प्रसन्न रखना सर्वगुण-संपन्न हे मेरे जीवंत धन! तुम बिन सूना है जीवन एक बार कहो मैं आ गया हूँ माँ! सुनने को यह व्याकुल हैं कर्ण। इतने में रोती-रोती आई ‘सुवर्णा' माँ! भैया कब आयेगा? अब हमें तत्त्वार्थसूत्र कौन पढ़ायेगा? थकान के कारण एक रात मैं सो गई थी जब जल्दी तत्त्वार्थसूत्र का पाठ नहीं कर पाई थी मुझे सोते से जगाकर उठाया था सूत्रजी का पाठ पढ़वाया था, फिर बोले स्नेह से अब सो सकती हो तुम! संकल्प के पक्के मन के सच्चे कहाँ चले गये भैया! मैं अब उनसे नहीं लडूंगी माँ! घर हो गया सूना-सूना एक बार बुला लो माँ! भक्तामर के हर श्लोक के स्मरण में मिलता था पिताजी से हम सबको एक आना, किंतु वे नहीं लेते आना कहते थे लूँगा हरा पत्ता पाँच का नोट लेकर रहते थे, जाकर मेले में उन पैसों से तस्वीर व ग्रंथ ले आते थे। या करते गरीबों की सेवा!! मित्र मारुति को ले आते आये दिन घर पर विशेष त्यौहार के अवसर पर एक ही थाली में करते भोजन डाँटने पर माँ के लिपटकर कहते- ओ माँ! अजैन है तो क्या इंसान तो है ना, माँ! यह धन से गरीब है। लेकिन मन से गरीब नहीं है माँ! मैं सुखी तो कर नहीं सकता इसे पर दुखी क्यों करूँ भैया यह कहता था ना, माँ? आगे बात बढ़ाते हुए कहने लगी सुवर्णा माँ! याद है ना आपको वह बात... सुनार के गरीब लड़के के साथ मित्रता थी भैया की तब घर से अचानक लडडू पेड़ा नमकीन आदि नाश्ता हो जाता गायब कौन आता है भूत जो खा जाता है सब कुछ... सोचते ही रहते पर समझ नहीं पाये बाद में खुला वह राज़ घर में ही था दानवीर कर्णराज जो ले जाकर दे आता उन्हें भोला-सा चेहरा ले अनजान बनता था सबसे, दया करूणा का भाव बचपन से ही था स्वभाव ऐसा भैया किसी का नहीं होगा माँ! जो प्यासों के लिए रेवा भूखों के लिए अन्नपूर्णा था माँ! मुझे उनकी याद सता रही है माँ! कहते-कहते सुबक-सुबक कर रो पड़ी, अभी तक शांता थी शांत देख सुवर्णा को रोक न पायी आँसू बोली सिसकते हुए हमसे क्या भूल हो गई माँ! जो बताये बिना ही चले गये भैया हारमोनियम का शौक था उन्हें बजाते थे हर शाम... प्रकृति भी शांत होकर खो जाना चाहती थी तब उनमें; क्योंकि होता था दर्शन ईश्वर का उनके प्रत्येक उभरते स्वर में... लोगों की भीड़ हो जाती जमा मिश्री-सी मीठी आवाज़ सुन करके। कभी रोका नहीं मैंने उन्हें कभी टोका नहीं उन्हें फिर क्यों नाराज़ हो गये? शांतिनाथ तो रहते सदा शांत वाद्य की आवाज़ सुन जुलूस देखने दौड़ते सब, किंतु वे पढ़ा करते अपने ही काम में लगे रहते ज्यादातर मौन रहते, अनंतनाथ निभाते व्यवहार स्वभाव इनका मिलनसार सबके यहाँ आना-जाना साथ ही निर्देशन भी देना, किंतु विद्या भैया का हर कार्य होता था सहज नहीं करना पड़ता था विशेष परिश्रम। बड़े से बड़े सेठ साहुकार थे मित्र उनके तो छोटे से छोटे गरीब भी थे मीत उनके घर में डरते नहीं किसी से तनिक डरते भी तो पिताजी से, घुड़सवारी करने लगे थे पिताजी देखकर ठगे से रह जाते थे... सांगली में नेहरूजी का भाषण सुनने पहुँच गये थे सब जानते हुए भी कोई इनसे कुछ कह नहीं पाये थे। आखिर क्या हो गई हमसे गलती जो बिना बताये चल दिये छोड़कर अपनी मीठी यादें क्यों हमें रोता छोड़ गये? कहते-कहते सिसक-सिसक कर रोती-रोती शांता की आँखें न जाने कब मुंद गईं, श्रीमति अनसोयी रात में गिनी, तोता, पीलू और प्यारे विद्या की बचपन से अब तक की यादों में खो गई... रात के घने अंधेरे में दूर तक देख आती बाहर होता बार-बार आहट का आभास सुनाई देती दस्तक-सी आवाज़ द्वार खोलकर विद्या को न पाकर भारी मन से इधर-उधर देखकर आ जाती वापस लौटकर पल-पल करती रहती इंतजार… माँ का सबसे प्यारा हृदय का दुलारा नयनों का तारा न जाने कहाँ खो गया? इन दिनों आँखों को रोने के सिवा कुछ न रह गया शब्द गुम हो गये पीड़ा गहरा गयी अधर मौन हो गये आँखें पथरा गयीं। सहमे-सहमे से मल्लप्पा खेत की ओर चल दिये हर श्वास में सौ-सौ बार करते विद्या की पुकार... चलते-चलते आज पिता के कदम रुक गये। बेटे को छूने बाँहें मचलने लगीं यादें उभर-उभर कर कहने लगीं जितने तुम हो सहज सरल उतने ही विचारों में साहसी दृढ़ अविकल, झुकते हो मेरे सामने पर रूकते नहीं करना सो करते हो पर किसी से कहते नहीं, मैंने ऊपर से कभी प्यार जताया नहीं, पर जाते-जाते तुमने भी यह सोचा नहीं... कैसे तुम बिन जियेंगे हम?? जैसे कहानी में राजा के प्राण रहा करते थे तोते में। हमारे प्राण भी बेटा तोता! बसते हैं तुममें बस यूँ ही परोक्ष संवाद में दिन गुजर रहे थे विद्या की याद में, खेत में जा पानी सींचते बनाते क्यारियाँ पल भर रुककर नीले नभ में झाँककर सु... दूर... रो पड़ती अँखियाँ... खोज-खोज में बीता दिन रात देर स्वाध्याय करके। मंदिर से आ पूछते सबसे पहले मिली कोई खबर? कोई सूचना न पाकर बेबस होते गीले नयन। काल का कारवाँ अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा था एक पल थमने का नाम नहीं ले रहा था, सदलगा की सीमा से परे असीम सुख-पथ का पथिक अविरल चलता जा रहा था, सदलगा से स्तवनिधि बस में फिर अजमेर तक रेल में दो उपवास कर भोजन नहीं भजन का सहारा लेकर चले जा रहे हैं... पहली बार अकेले कर रहे रेल यात्रा हिन्दी न आने से आ रही बड़ी समस्या बमुश्किल पहुँचे अजमेर, रात के दस बज चुके थे। धर्मशाला में मिले दो ब्रह्मचारी कहने लगे सो जाओ पर गर्मी बहुत लग रही थी... सवेरे स्नान पूजन से निवृत्त हो सौंफ डाल जल पीकर भोजन सामायिक संपन्न कर सो गये, दिन ढल चुका था सच कहें तो जीवन का सुनहरा प्रभात हो चुका था।
  6. अज्ञात किंतु ज्ञान सिंधु की तरफ ले जाने वाली यात्रा को चल पड़े हैं रास्ते में सोच रहे विद्याधर रूपये मारुति ने एक सौ आठ दिये हैं, मुझे संकेत कर रहे हैं एक यानि आत्मा शून्य अर्थात् वर्तुल रूप संसार में भटक रहा है अष्ट कर्मों के कारण अब मुझे पाकर एक सौ आठ गुण भव भ्रमण मिटाना है साधु पद को पाना है। तभी आ गई अचानक मुनिश्री के प्रवचन की बात स्मरण में कि तुम यदि हो गये अधिक सुखी तो आस पड़ोसी बनेंगे शत्रु तुम्हारे पर तुम यदि हो गये अधिक धर्मी तो परिवारजन ही बनेंगे शत्रु तुम्हारे रोकेंगे तुम्हें पथ से, किंतु चिंता करना नहीं कितनी ही हों विपरीतताएँ आत्मचिंतन तजना नहीं! सदलगा के परिन्दे भी नहीं आ पाते जहाँ इतनी दू......र आ चुके हैं अकेले-अकेले शांत चित्त हो भविष्य के सुनहरे सपने बुन रहे हैं, विचारों की धारा निरंतर प्रवाहित है... सोच रहे हैं कि माना पिंजरे में पंछी को कोई खतरा नहीं है और नभ में खतरों की कोई कमी नहीं है, फिर भी आदर्श पखेरू सुरक्षित जीवन जीने के बजाय संकटों से भरे नभ में उड़कर जीना ज्यादा पसंद करते हैं क्यों?? महापुरुष सुख-सुविधाओं को छोड वन में एकाकी जीवन पसंद करते हैं क्यों?? मुझे दिखाया है जिन गुरुओं ने सत्पथ उन्हें हृदय से करता हूँ वंदन आभार क्या प्रदर्शित करूँ उनका अणुमात्र भी परद्रव्य का भार नहीं जिनके पास अतः भावपूर्वक यहीं से करता हूँ अभिनंदन।
  7. जीवन-यात्रा सानंद हो शुभारंभ निर्विघ्न हो इसके लिए मार्गदर्शन हेतु सदलगा में विराजित अनंतकीर्ति मुनिराज जो थे आचार्य शांतिसागरजी के महातपस्वी शिष्य कृपापात्र एकांत में जा चरण-वंदना कर पूछने लगे में करना चाहता हूँ आत्मकल्याण… नश्वर इन्द्रिय सुख के प्रति नहीं है मेरा आकर्षण गुरू चरणों में करना चाहता हूँ सर्वस्व समर्पण, कृपा कर मेरा मार्गदर्शन कीजिए गंतव्य की राह दिखा दीजिए। सुनते ही श्रमण ने शीश पर रख हाथ हर्ष भाव से दे आशीर्वाद कहा- वत्स! उत्तम है विचार, किंतु मार्ग है यह मानो तलवार की धार ज्यों ही बीज को पानी, प्रकाश, खाद और मिले माली तो वह तरुवर बन जाता है त्यों ही कल्याणेच्छु को मिले कल्याणकारक गुरु तो वह स्वयं मुनिवर बन जाता है। तुम्हारी इच्छा हो पूर्ण सर्व विघ्न हों चूर्ण यही आशीष देता हूँ… किंतु एक बात ध्यान रखना बिना लहरों का समंदर देखने को मिल सकता है, बिना शूलों का फूल दे खने को मिल सकता है, बिना पुरुषार्थ पुण्य से पैसा भी मिल सकता है, किंतु बिना संघर्ष के उन्नत जीवन देखने को नहीं मिलेगा इसीलिए साहस को खोना नहीं मंज़िल मिलने के पहले सोना नहीं। इन क्षणों में लगा इन्हें कि “जैसे मरीज को समय पर न मिले वैद्य तो वह बच नहीं पाता है, साधक को समय पर न मिले मार्गदर्शक तो वह भटक ही जाता है।'' उपकृत हूँ आपसे दिशाबोध पाकर यह कहकर चरणों में सर झुकाकर बिना पीठ दिखाये द्वार से बाहर आकर एक बार और निहारा कहा मन ही मन ‘गुरुस्तु दीपवत् मार्गदर्शकः’ “भूयात् पुनर्दर्शनम्” और चल पड़े घर की ओर... किसी को ज्ञात नहीं है एक दिन का मेहमान है विद्या रात भी अंतिम है आज इस घर में तोता उड़कर जाने वाला है गुरू-शरण में, फिर तो जीवन की नूतन संयम यात्रा का मंगलमय सुप्रभात होने वाला है तरस जायेंगे पाने विद्या को इस घर के देहरी-आँगन और करने को परस सदलगा की धरती का कण-कण... निज गृह को पाने की चाहत में रात भर बदलते रहे करवटें गेह के प्रति नेह न रहा देह से परे विदेह पद के लिए आत्मा व्याकुल हो गया। भावों से क्षमा माँगकर पूरे परिवार को त्याग कर गंतव्य की ओर मुख किये कहे बिना ही चल दिये जाना है बहुत दूर जहाँ नगरी है जयपुर… कि इधर एक घड़ी आ गई संकट की पास नहीं है एक रूपया भी तभी भाँप गये मारुति मन की बात को विद्याधर के मनो रहस्य को, प्यार से कंधे पर रख हाथ बोले अपनेपन से कैसे भुला सकता हूँ मैं तुम्हारा साथ। जब पहली बार नहीं थी कुछ पहचान फिर भी परीक्षा के समय खत्म होने पर स्याही जानकर चेहरे से परेशानी पूछा था तुमने क्यों बैठे हो? कहा था मैंने रूआँसे स्वर में स्याही नहीं है पेन में उठाकर अपना पेन दिया था तुमने लिखने को। मेरी निर्धनता का नहीं बनाया उपहास बल्कि मित्र बनाकर थामा था मेरा हाथ, परीक्षा कक्ष से निकलकर दिये थे दो पेन ले गये थे अपने घर कराया प्यार से भोजन तभी से मुझे लगने लगा था कृष्ण और सुदामा का प्रेम ऐसा ही होता होगा। मित्र! जीवन में दो इंसान भूले नहीं जाते जब कोई पराया परेशानी में साथ दे या अपना जब परेशानी में साथ छोड़ दे विद्या! तुम्हारे पास रूपयों की नहीं कमी पर तुम पिता से माँग नहीं सकते अभी माँगते ही उन्हें होगा संदेह इससे तुम्हारे मंगल कार्य में विघ्न आयेगा निःसंदेह अतः मेरे पास कुल रुपये हैं एक सौ आठ इन्हें रख लो अपने पास इस जड़ धन का इससे श्रेष्ठ क्या होगा सदुपयोग!! गले मिलकर अवरूद्ध कंठ से बोले मारुति तुम्हारे पास पैसा नहीं परमात्मा है। वस्तुएँ नहीं पर विवेक है। संपदा नहीं पर संतोष है सत्ता नहीं पर सदगुण हैं पद नहीं पर आनंद है इसीलिए अध्यात्म जगत के बेताज बादशाह हो तुम, जाओ मित्र! गंतव्य तुम्हें पुकार रहा है तुम्हारे पीछे तुम्हारा मित्र भी आ रहा है... कहकर बिठा दिया स्तवनिधि के लिए बस में एक दूसरे को देखते-देखते हुए विलग कोई देख न ले इस शंका से पोंछी मारूति ने अपनी आर्द्र आँखें और कुछ पल अतीत में खो गए… यदि मित्रता का बंधन हुआ है भावनाओं से तो छूटना मुश्किल है यदि हुआ है स्वार्थ से तो टिकना मुश्किल है मैं हूँ तुम्हारा सच्चा मीत निस्वार्थ है हमारी प्रीत।
  8. बचपन से ही गुरु का समागम जो हुआ था उन्हीं का उपदेश हृदयंगम जो किया था इसी से आज सवेरे से ही कर रहे अनुरोध राजस्थान की गुलाबी नगरी ‘जयपुर' जाने का, जहाँ विराजमान हैं ‘देशभूषणजी आचार्य सुनते ही डाँटते हुए बोले पिताजी कोई आवश्यकता नहीं जयपुर जाने की चुपचाप रहो यहीं! ऊपर से हो गए चुप किंतु भीतर से सोचने लगे उपाय कि मेरा यह जीवन है महाभारत और मोहीजन हैं कौरव सम, कर्मों के साथ करना है संघर्ष महाभयंकर युद्ध है यह, किंतु मेरे पास है “मोक्षपुर का पथ अहिंसा धर्म का रथ, निर्भयता का सुरक्षा कवच ज्ञानी गुरू का सारथ्य, हिम्मत है हथियार आत्मविश्वास की तलवार, श्रद्धा की ढाल है निष्ठा का भाला, तपो साधना का तीर है सम्यक् विचारों की सेना है तो विजय अवश्य होगी मंज़िल निश्चित मिलेगी। बीस वर्ष के युवा विद्याधर तय कर चुके अपनी दिशा परिवार में कोई भी न पढ़ सका उनके विचारों की विधा, मनःस्थिति उनकी ऊपर से सागर की भाँति शांत और भीतर में अंतर्द्वन्द्वों से भरी हुई थी, वे किधर जा रहे थे यह उनके संयमित पदचापों ने आहट तक नहीं होने दी, गंतव्य निर्धारित होने पर भी उस तक पहुँचने की पगडंडी ओझल थी गुरु तक पहुँचने के लिए मति बोझिल थी, इस अंतर रहस्य को जानता था सिर्फ मारुति।
  9. रात घनी होती जा रही है। नींद आँखों से दूर होती जा रही है, बोले धीरे से मल्लप्पा क्यों नींद नहीं आ रही है? द्वार खुले हैं स्वामिन्! आँखें प्रतीक्षित हैं। नींद भला कैसे आ सकती है। गये हैं पंच कल्याणक में विद्याधर अभी तक लौटे नहीं हैं। हृदय की धड़कनें बढ़ती जा रही हैं। कक्ष में था गहन सन्नाटा... किंतु विद्या की एक-एक प्रवृत्ति रह-रहकर याद आ रही है... गुरु-दर्शन को मीलों पैदल जाना ध्यान, स्वाध्याय करना माता-पिता के कार्यों में सहयोग करना दया, करुणा, परोपकार के भाव निरीहवृत्ति, निर्मल स्वभाव विचारों की कतार लगी हुई थीं... पलकें झपकने का नाम नहीं ले रही थीं इतने में ही कदमों की आहट सुन आयी द्वार तक, बोले चरण छू कर माँ! मैं आ गया। सुनते ही माँ की श्वासों का प्रवाह सहज हो गया। स्वास्थ्य-संपदा सौन्दर्य-संपन्नता परिवार-प्रतिष्ठा यह न मिले सबको समान संभव है, किंतु समय एक ऐसी निधि है। जो मिलती है सबको समान जानता है इसका जो मूल्य वह कर लेता है सदुपयोग, नहीं जानता जो समय का मोल वह करता है पल-पल दुरूपयोग... समय की गति को जानते थे वह जीवन की प्रगति चाहते थे वह धधकती आग की लपटों से भागने में किया विलंब तो निश्चित है मरण, गहरे समंदर में तैराक कर जाए कुछ पल आलस्य तो निश्चित है मरण, दो तरफा खंदकों के मध्य वाहन चलाने में आ जाए हल्की-सी झपकी तो आ सकती है मौत, इस दुर्लभ मानव जीवन में पलभर भी किया प्रमाद तो हो सकती है दुर्गत। इसीलिए नहीं करना है एक क्षण भी प्रमाद सतत गतिमान होते रहना है। जब तक न मिले ज्ञान-प्रासाद। पहले करना, फिर कहना स्वयं समझना फिर औरों को समझाना यही है स्वभाव इनका प्रात: चार बजे उठ जाते; क्योंकि जानते थे वह चार से पाँच बजे तक उठने वाला होता है दिव्य पुरुष, पाँच से छह बजे तक उठने वाला सामान्य पुरुष, छह से सात बजे तक उठने वाला होता है पशु सम, और सात बजे के बाद उठने वाला बनता है दैत्य सम। जल्दी उठने से स्वास्थ्य ग्रंथियाँ रहती संतुलित छह घंटे से अधिक शयन से पिनियल ग्रंथि से होता स्राव असंतुलित उससे होते क्रोधादिक मन होता असंतुलित अशांत। उठते ही सवेरे “प्रभाते कर दर्शनम्' कहती है भारतीय संस्कृति अतः करते नित पालन इसका समझाते सभी को राज़ इसका यों ही दिन, सप्ताह, माह और वर्ष गुजरते रहे… दीप राग गाने के बाद न गायें यदि राग मेघ मल्हार तो हो जाये हाहाकार पाप होने के बाद यदि न किया जाये पश्चाताप तो निश्चित पाता है वह जीवन भर संताप। आज चतुर्दशी को मन ही मन ले लिया संकल्प करूंगा नित्य दिनभर के पापों का प्रक्षालन, पाप रूपी दुर्जन का साथ मुझे छोड़ना है। सद्गुरू से अब नाता । मुझे जोड़ना है। क्योंकि शक्कर का एक कण दूध को मीठा बनाने में नहीं है सक्षम, किंतु ज़रा-सा दही दूध को खट्टा बना देने में । अवश्य है सक्षम, मुझे हर पल बचना है विकारों से सद्दगुण को लूटने वाले लुटेरों से। हाथों में ले श्रावकाचार कर रहे थे विचार... तभी भोली-सी सूरत वाले 'शांतिनाथ' मन के सच्चे वचन के पक्के ‘अनंतनाथ' बैठ गये समीप में आ... यथा नाम तथा काम है जिनका पूछने लगे वह ‘शांतिनाथ भैया! बताइये ना कारण क्या है अशांति का मार्ग क्या है शांति का? सुनते ही सवाल कुछ क्षण हो मौन कहने लगे फिर अपने को अपना नहीं जानना पर को अपना मानना यहीं से होती है। अशांति की शुरुआत फिर वह पाप से डरता नहीं, पाप करने पर जो पछताता नहीं उसका पाप कभी नष्ट होता नहीं। '' पाप के फल से नरक के दुख भोगता है । भयंकर यातनाएँ सहता है, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास सहता है असुरों की मार व्यसनों का यही है अंजाम। इसीलिए अशुभ प्रवृत्ति से उठकर शुभ को भी स्वभाव न मानकर शुद्ध दशा तक पहुँचना है। समझ रहे हो ना शांति? सुनो! अच्छी बात बताता हूँ कमलिनी कृत्रिम प्रकाश से कभी धोखा नहीं खाती और प्रभु भक्तात्मा पुण्य के प्रकाश से कभी आसक्त नहीं होती, तभी अपने स्वभाव को जानकर परिणाम को शांत कर शांत चित्त गुफा में एकाकी हो आनंद पाती। विद्या की विद्वत्ता को देख हो गये प्रसन्न देखते रहे एकटक वचन हो गये मौन, पर आँखें बोल रही थीं कुछ और सुनना चाह रही थीं... भावों की भाषा पढ़ते हुए कहने लगे- सुनो शांति! सारभूत सुनाता हूँ एक बात । बिना फिसले चल पाना कदाचित् सरल है पंक वाले पथ पर, किंतु ठीक से खड़े रहना भी कठिन है। पुण्य के लुभावने पथ पर इसीलिए जीवन में पर से कभी प्रभावित होना नहीं, क्षणभंगुर पदार्थों से कभी आकर्षित होना नहीं, समझे... बात गले तक ही नहीं सीधी हृदय तक उतर गई..." इतने में ही बोल पड़े अनंतनाथ अमिट अनंत सुख का मार्ग क्या है? शाश्वत आनंद का राज़ क्या है? समाधान की प्रतीक्षा में तकते रहे। अपलक निहारते रहे... तभी विद्याधर कहने लगे निजात्मा से उत्पन्न जो है परम स्वाधीन वो ऐसे अतीन्द्रिय सुख से रुचि हो इन्द्रिय सुख से अरूचि हो तब कहीं रुचि अनुसारि वीर्य आचार्य अमृतचंद्रस्वामी जी की इस युक्ति के अनुसार रुचि अनुसार कार्य करती है। आत्म शक्ति । करके सम्यक् पुरूषार्थ लौकिक नहीं परमार्थ आत्मिक अतीन्द्रिय अनंत सुख का पथ दिखता है। रत्नत्रय का रथ मिलता है। लेकिन सावधानी रखनी होगी मिथ्या मान्यता हटानी होगी, जब गणित में छोटी-सी त्रुटि ही । सारे समीकरण को कर देती है गलत तब इन्द्रिय सुख की थोड़ी -सी आसक्ति भी लोकैषणा की चाहत । ख्याति प्रसिद्धि की अनुरक्ति भी सिद्धि में निश्चित है बाधक। यहाँ तक कि मोक्ष की कामना भी मुक्ति में बनती रुकावट। यदि राग को बना दोगे सम्राट तो वह भाव तुम्हें आहत कर देगा और यदि तुम उसे कर दोगे आहत तो वह तुम्हें सम्राट बना देगा। इस बात को सूत्र रूप में स्मरण रखना होगा, बात नहीं है यह मेरे मन की बात है यह जैनागम की... गले से पूँट लेते हुए… बोले ‘अनंतनाथ'- भैया! सिर्फ गले या हृदय तक ही नहीं समग्र चेतना में उतर आयी है। आपकी यह बात… दोनों लघु भ्रात देख रहे उत्सुकता से कुछ और सुना दे हृदयस्पर्शी वार्ता इसी प्रतीक्षा में थे कि आ पहुँची शांता-सुवर्णा का हाथ थामें आते ही बोली भैया! तुम कितने बड़े दिख रहे हो! साथ ही इतने रूपवान सुंदर भी!! अब जल्दी से ले आओ भाभी लेकिन हो वह भी रूपवान तुम-सी शरमा गये तत्क्षण झुका सिर नीचे, किंतु दूसरे ही क्षण बोले अंतर मन से भावों की गंभीरता ले… रूपवती नहीं स्वरूपवती लाऊँगा, सुंदरी नहीं अमिट सौन्दर्यवती को लाऊँगा, होगी जो धैर्य की धनी, समता की खनी अनंत गुणों से गुणी, अतुल बल की जनी तन से परे होगी ज्ञानतन्वी कैसे देख पाओगी तुम उसे! चर्म चक्षु से दिखेगी नहीं वह तुम्हें भाषा व शब्दों से परे है जो पुकारोगी कैसे तुम उसे वही होगी मेरी प्राण-प्रिया जीवन संयोगिनी शाश्वत संयोगिनी! समझी भगिनी… स्वयं के माथ पर रख हाथ बोली शांता बात तुम्हारी समंदर से भी गहरी-गहरी मुझे कुछ समझ में आती, कुछ नहीं आती, मन ही मन बुदबुदाये वह अभी से कैसे समझ पाओगी स्वयं एक दिन जान जाओगी, मेरा स्वप्न होगा साकार चल पडूंगा जब मैं मोक्षमार्ग पर… बीच में बाधा डालते हुए पूछने लगी सुवर्णा क्या कुछ कह रहे हो? सिर हिलाकर बोले अब कहने योग्य नहीं कुछ। अनुभूति के योग्य है सब कुछ, बहनों की यह वार्ता मनोरंजन की बदल गई आत्मरंजन में।
  10. तेज बारिश के दिनों में । ग्रंथ ले आते मंदिर से घर जा नहीं सकते बाहर इसीलिए स्वाध्याय करते रहते घर के अंदर, स्वाध्याय उपरांत कोमल मयूर पंख ले आँखों से देख परिमार्जन कर विनय पूर्वक अहोभाव से करके विराजमान त्रियोग से करते नमन... मात्र वाचन नहीं पाचन की भी उच्चारण ही नहीं उच्च आचरण की भी चर्चा नहीं चर्या की भी प्यास जगी चेतन में... गृह-विरक्ति का भाव, किंतु गुरु सान्निध्य का अभाव खलता रहता मन में, प्रतिकूल क्षणों में चिंतन-धारा में डूबते अन्तस् में किसी के प्रति उद्वेग नहीं लाते वचन में।
  11. काल की कोमल पगतलियों की आहट सामान्य जन के श्रवण-पटलों तक सुनाई पड़ती है कहाँ? देखते ही देखते विद्याधर हो गये बड़े यहाँ। शाम ढलते ही । नित्य मंदिर में जा मित्रों के साथ देर रात्रि तक करते प्रथमानुयोग का स्वाध्याय, स्वात्म रुचि का प्रारंभ हो चुका था अध्याय... स्व के परिणामों का करते अध्ययन जागरूक रहते हर पल स्वयं का कार्य करते स्वयं शास्त्र-वाचन के समय बिछाने लगा माली चटाई ले उसके हाथ से देखा ध्यान से... छोटी-छोटी चींटियों से भरी सावधानी से रख उसे देखकर दूसरी चटाई बिछाई प्रेम से समझाकर दी हिदायत उसे देखकर करना कार्य आज से… सिर हिलाकर माली ने हाथ जोड़कर स्वीकारा सम्मान से। जब द्वार बंद कर रहा माली रात को तत्काल याद करता है। विद्याधर की बात को देखा ज्यों ही द्वार छिपकली थी वहाँ सोचने लगा माली... आज ही मिली शिक्षा और हो गई परीक्षा अगर न देखता ध्यान से तो हो जाती पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा। प्रात: जब सुनी विद्या ने यह बात मन ही मन हुए प्रसन्न शीश झुका जिनवाणी को किया नमन।
  12. इन दिनों चिंतन और चर्या में करने योग्य क्रिया में ज्ञान का पुट दिखने लगा धर्म में एकजुट हो मन रमने लगा। समझा दिया था श्रीमति ने शांता, सुवर्णा को तुम हो अभी छोटी एकाशन किया करो उपवास नहीं दाल-रोटी खाना दिन में एक बार दूसरी बार पूड़ी- पकौड़ी पकवान छोटे बच्चों को सब होता है माफ सुन यह क्रिया एकाशन की विद्या हँसने लगे समझाते हुए कहने लगे “कर सकता हूँ ऐसा एकाशन मैं नित्य, इसे नहीं कहते एकाशन एक ही बार ले भोजन ले न दुबारा अन्न-पान समझ गई बहनें । करने लगीं सही एकाशन। अल्प आयु में ज्ञान की सूक्ष्म बातें करना खेलते - खेलते साथियों के संग साधु-संतों की सेवा में लग जाना... देर से घर लौटने पर डाँटने पर पिताजी को कुछ न कहना, जोर-जोर से णमोकार का उच्चारण करना, मंत्र के प्रभाव से सब ठीक हो जाता पिता का क्रोध कपूर-सा विलीन हो जाता।
  13. सर्वोपरि धर्म है अहिंसा अहिंसात्मक भावना का तो कहना ही क्या? श्वासों की हर धुन पर प्रवाहित रहती करुणा-धार प्रत्यक्ष प्रमाण देती है यह जीवंत घटना रखवाली के लिए भेजा जाता इन्हें खेत में लग जाते कीड़े जब तम्बाकू के पेड़ की जड़ में । तब धीरे से निकाल कर कीड़ों को रख देते ज़मीन पर, ढक कर हल्की-सी मिट्टी से अहिंसा धर्म का पालन करते… देखकर पड़ोसी खेतवाले ने यह कर दी शिकायत मल्लप्पा जी से ‘‘फसल नष्ट कर रहा है यह कीड़ों को बचाकर किंतु पिता चुप रहे यह सुनकर; क्योंकि फसल भी अच्छी आ रही थी जीवों की रक्षा भी हो रही थी अतः मन ही मन दे साधुवाद सोचने लगे... यह बालक है पुण्यवान। एक दिन खेत में बैलों को पीटते देख नौकर द्वारा सहज द्रवित हो आये तैर आये अश्रु विद्या के नीले-नीले नयनों में यों जीवन की यात्रा का गतिमान था प्रवाह... कि एक दिन पिता-पुत्र में । छिड़ गया एक प्रसंग नौकरी को अच्छा मान रहे थे विद्या महावीर कपड़े की फैक्ट्री चाहते थे खोलना दोनों को अनुमति न देकर बोले मल्लप्पा जी नौकरी और व्यापार दोनों में है परतंत्रता खेती में ही है स्वतंत्रता नहीं रहता लोभ इसमें धर्मपालन भी होता रहता इसमें। पूर्वज कहते थे कि “उत्तम खेती मध्यम वान जघन्य चाकरी भीख निदान" श्रावक करे दो कार्य “कृषि करे या ऋषि हो आर्य" जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से होता है पौधा पल्लवित होकर वही फल देता है घना, वैसे ही उम्र का पंछी तोता कहो या गिनी प्राथमिक से माध्यमिक माध्यमिक से उच्चशाला में उड़ान भर रहे थे... मेले में भी मंदिर खोजने वाले प्रत्येक आत्मा में परमात्मा देखने वाले बड़े भ्राता के कान में कुछ कह रहे थे भैया! आप बनना अकलंक जैसा मैं बनूंगा निकलंक-सा दोनों मिलकर करेंगे धर्म का प्रचार। सुनकर भोले महावीर मानो सागर की लहरें गिनने में लग गये, विद्याधर थे चतुर अपनी प्यास बुझाने में लग गये, या यूँ कहें कि वे पेड़ के आम गिनने में लगे रहे। ये आम खाने में लग गये। धर्मनिष्ठ विद्या बाल्यकाल से ही हैं निर्भय भयभीत शरणागत को देते हैं अभय सदलगा से दूर पैंतीस मील गाँव था मांगूर आयोजित पंच कल्याणक में चल पड़े विद्याधर… पाँचों दिन बरसता रहा पानी लौटते समय राह में पड़ी नदी घर पहुँचने का साधन अन्य कुछ था नहीं । तभी किनारे पर बँधी थी नाव इष्ट मित्रों को ले साथ चलाते रहे छह घंटे बाढ़ पूरित नदी में भी थे निर्भय… लौटने पर घर रोष में पिता के डाँटने पर बोले आत्म विश्वास के साथ ‘‘मंगल कार्य करने से अनिष्ट हो कैसे सकता है? आप ही ने दिये हैं संस्कार मुझे धर्म करने से अमंगल हो कैसे सकता है? सुनते ही लाल की बात पिता के आँखों की अरूणाई बदल गई झट । प्यार की पुरवाई में गर्व हुआ मन ही मन धर्म के प्रति आस्था की देख पराकाष्ठा!!
  14. बात उस दिन की है जब सदलगा में आये अनंतकीर्ति व सुबलसागर जी मुनिवर स्वाध्याय होता था सुबह-शाम सुबह संघ का ही होता स्वाध्याय, पहुँच गये बड़े सवेरे बैठते ही उठा दिया। यह कहते हुए कि संघ के सदस्य नहीं तुम! इसीलिए बैठ नहीं सकते तुम! निराश हो चले गये पर बात कर गई थी घर। अगले दिन विनम्र हो पूछा मुझे स्वाध्याय में बैठने क्यों नहीं देते? बोले मुनि सरलता से सामान्य श्रावक को इसमें बैठने नहीं देते। जो मोक्षमार्गी हैं या भविष्य में चलना है जिन्हें मुक्ति पथ पर वे ही इसे सुन सकते। भोले किंतु सच्चे मन से बोल गये पीलू मुझे भी आगे मुनि बनना है, सुनकर अति प्रसन्न हुए मुनिवर सिर पर हाथ रखते हुए बोले अब आ सकते हो तुम कल से स्वाध्याय के समय पर सच ही कहा है ‘गुरवो विरलाः सन्ति भव्य संतापहारकाः’
  15. समाधि है ऐसा वाहन जिस पर साधक हो सवार पा लेता मुक्ति का द्वार... कायर कहता है कि समाधि आत्महत्या है। अरे! यह तो आत्म शुद्धि की प्रक्रिया है। इसमें शरीर का शोषण नहीं, होता है कषायों का शोधन मिलता है आत्मा को संबोधन सल्लेखना का अर्थ अंत नहीं जीवन का, यह तो बसंत है त्याग का। मरण तो सूर्यास्त, अमावस्या और पतझड़ का करता है प्रतिनिधित्व, समाधिमरण सुर्योदय पूर्णिमा और बसंत का करता है प्रतिनिधित्व, जुर्म नहीं यह धर्म है। प्राणों की विराधना नहीं जीवंत साधना है। वरदान है, इसी से आत्मोत्थान है। धर्म का सम्मान है। आत्मजागृति की पहचान है। संथारा भी कहते हैं इसे तारा है अनंतों को इसने अनासक्त योग है। परमात्मा से संयोग है, सत् स्वरूप स्व-तत्त्व को लखा नहीं तो संसार का अंत नहीं सल्लेखना नहीं तो जीवन का सम्यक् अंत नहीं, कहा है नीतिकारों ने "अंत भला तो सब भला'' इसीलिए श्रावक हो या श्रमण जैन हो या अजैन परमात्मा के स्मरणपूर्वक हो प्राणों का उत्सर्ग चाहता है हर इंसान, फिर भला समाधि को कैसे कह सकते हैं आत्महत्या? मूर्ख ही होगा वह । जो कहता है अमृत को ज़हर हीरे को काँच पुण्य को पाप...। विद्याधर थे समझदार तभी तो रात-दिन सेवा करने लगे। रूक सकती है कभी भी धड़कन यह जानकर हो मुनिवर का सम्यक् समाधिमरण इसीलिए। णमोकार मंत्र सुनाने लगे बीच-बीच में देकर संबोधन सावधान करने लगे। अज्ञ बालक को कर्म कैसे बाँधना यह सिखाना नहीं पड़ता और विशेष संस्कारित बालक को धर्म कैसे साधना यह समझाना नहीं पड़ता। कभी-कभी अन्तर्मन से सही बात निकल ही जाती है, अनायास ही सही पर वह सच हो ही जाती है
  16. सत्संग के शौकीन विद्याधर बचपन से ही संत आगमन सुनते ही व्यवस्था में जुट जाते, गुरूओं के प्रति सेवाभाव देख श्रावकगण प्रभावित हो जाते लेकर उनसे शिक्षा अपना आदर्श मानते। ज्येष्ठ मास की तपती धूप में भी पैदल चलकर पास के गाँव चले जाते, प्रथम पंक्ति के मुख्य श्रोता बन ध्यान से प्रवचन सुनते, विहार होने पर शास्त्र तथा चटाई आदि हर्षोल्लास से अन्य गाँव पहुँचाते, गुरूओं के प्रति विनयवान हो आज्ञा का पालन करते। अनंतकीर्ति मुनिवर और सिद्धसागर मुनिवर का भी संघ आया। महाबल यतिवर का चौमासा दो बार पाया। विद्या पर गुरूजन की कृपा कुछ विशेष ही बरसती अत्यल्प वय में ही गंभीर बात सोचने की सद्बुद्धि घूँटी में ही इन्होंने पाई थी तभी तो सोचते थे वे ‘‘बूंद तब तक सुरक्षित है। जब तक वह सरोवर से जुड़ी है शिला तब तक सुरक्षित है। जब तक वह खान से जुड़ी है। पतंग तब तक सुरक्षित है। जब तक डोर से जुड़ी है। और मेरी आत्मा तब तक सुरक्षित है। जब तक गुरूजनों से जुड़ी है। " एक दिन रात में देखा चलचित्र कि ‘‘गीत के द्वारा कमल खिल जाते हैं। संगीत के द्वारा दीप जल जाते हैं। देखकर कुछ और जोड़ लिया विद्या ने कि मिले सत्संग गुरुवर का तो । मुक्ति के द्वार भी खुल जाते हैं।' चल पड़े हैं आज बोरगाँव की ओर सुन नेमिसागर मुनि की सल्लेखना ग्रहण का समाचार… पाँच मील चलकर मुनि चरणों में बैठकर सेवा में जुट गये श्रद्धा से।
  17. आज अनायास निवृत्त हो गृह कार्य से देखी पीलू की पुस्तकें पुकारा मल्लप्पा जी को आश्चर्य से कहने लगी देखिये ना स्वामी! कैसे सुंदर-सुंदर चित्र... कुछ बनाये हैं नाखून बढ़ाकर कुछ तरह-तरह के रंग भरकर तो कुछ भिन्न-भिन्न कलाकृतियों से बनाये अपने विद्या ने... भगवान महावीर बाहुबली स्वामी नेहरूजी, महात्मा गाँधी इत्यादि अनेक चित्रों से परिलक्षित हो रही उसकी अभिरुचि आगे जाकर क्या करने वाला है! चित्र से ज्ञात हो रही चित्त की प्रवृत्ति। समयानुसार करना हर कार्य स्वभाव-सा है इसका खेल-खेल में भी धर्मदृष्टि रखना संस्कार है अतीत का। तभी तो सूरपाल अर्थात् आँख मिचौनी के खेल में वृक्ष या पर्वत की चोटी पर तो कभी अंधेरी गुफाओं में जा निर्भय हो बैठे रहते महामंत्र का जाप करते, एकांतवास ही रास आता इन्हें अकेले रहकर शांति अनुभवते, जब कोई नहीं पहुँचता वहाँ खिलाड़ी तो वह सहजता से जीत जाते। मित्रों को ज्ञात होते ही पहुँचे शिकायत करने श्रीमति के पास... तुम्हारा बेटा अंधेरी गुफा में बैठा रहता है। घंटों तक न जाने क्या करता है? देख गुफा डर गयी माँ... ज़रा भी भय क्यों नहीं लगता तुम्हें बेटा! अरे! अपनी माँ का थोड़ा तो ख्याल करो यदि जहरीले जीवों ने काट लिया तो... तनिक तो तन का विचार करो, कहते हुए नयन सजल हो गये। तभी नयनाश्रु को सोखने के बहाने हवाओं का अंबर ओढ़े कहती है प्रकृति - विषय-विकार का ज़हर जीवों के ज़हर से भी अधिक खतरनाक होता है। यह ज़हर तो कुछ देर ही दुख देता है, किंतु विषय तृष्णा की नागिन का ज़हर जन्मों-जन्मों तक दुख देता है...। भव-भव के भोगी को सदा भोग ही भोग नज़र आता है, और पूर्व जन्म का योगी निजावलोकन में ही सदा आनंद-लहर पाता है।
  18. निराश्रित के प्रति सहयोग-भाव छोटों के प्रति वात्सल्य भाव धर्म के प्रति लगाव धनवान के प्रति समभाव मुनियों के प्रति भक्ति विषयों के प्रति विरक्ति तीर्थों के प्रति वंदना भाव दुखियों के प्रति करुणा-भाव अपने से बड़ों के प्रति कैसे करना आदर-सम्मान आपस में वार्तालाप और वस्तु का आदान-प्रदान नागरिक शास्त्र के अध्ययन से सीखी एक-एक बात जीवन में उतारी थी। कक्षा में एक गरीब था छात्र ज्यादा गरीबी के कारण भूख से उसकी एक दिन हो गई मौत, सुनकर यह बात कि वह गरीबी से मर गया यह हादसा मन में घर कर गया वैराग्य का कारण बन गया, सोचने लगे विद्या… मुझे भी एक दिन यूँ ही चले जाना है, लेकिन मुझे कुछ करके जाना है या कुछ बनके जाना है, लोहे को जंग लगाकर खत्म करने से बेहतर है, इसे इस्तेमाल करें कर लिया यह निश्चय। रफ्तार से सही दिशा में चल रही थी यूँ जीवनयात्रा तभी शाम भोजन के समय पुकारा माँ ने- विद्या! पीलू! अरे गिनी! कहाँ चला गया? देखा द्वार खोलकर अकेला-अकेला खेल रहा था एक गोटी के बाद बारीक-सी धूल डालकर झट जमा देता दूसरी गोटी गोटी पर गोटी रख रहा था एक पर एक सात गोटी जमा चुका था यूं देख अचंभित हो गयी!! नहीं जानती थी वह कि सप्तम गुणस्थान को छूने वाला है यह, जैसे बालक भद्रबाहु ने जमायी थीं चौदह गोटी हुए थे चौदह पूर्वी के ज्ञाता अंतिम श्रुतकेवली, विद्या को यूँ अनोखा खेल खेलते हुए देखती रह गई एकटक...।
  19. प्रत्येक धर्मानुष्ठान में रहते थे विद्या संग तभी तो उनके मानस में शैशव से ही पुण्य तरंग हो रही थीं पल्लवित... आज सोमवार है दो मील दूर विद्यालय से घर लौटते वक्त साईकिल चलाते-चलाते संतुलित होकर दोनों हाथ छोड़कर बस्ता पीछे टाँगकर प्रसन्नचित्त हो तोते जैसे उड़े जा रहे थे। तभी बेड़कीहाल से लौटते सदलगा की ओर मल्लप्पाजी ने देखा ज्यों ही स्तब्ध रह गये त्यों ही छोटा बच्चा है। कभी भी चूक सकता है, गिरते ही न जाने क्या हाल हो सकता है आते ही घर... महावीर और उसकी माँ को बताया सारा हाल... कर रहे थे प्रतीक्षा कब आयेगा लाल? आते ही विद्या के देर तक बरसते रहे जी भरकर डाँटते रहे, करके वक्र दृष्टि श्रीमंती की ओर... समझाती क्यों नहीं अपने बेटे को? क्यों तोड़ना चाहता है अपने हाथ पैर को? होकर गंभीर निकट आ कहने लगे कल से तुम्हें साईकिल नहीं दी जायेगी सुन पिताश्री की बात बोले गंभीरता से आपका चिंतित होना सही है। पर आपका विद्या अब छोटा नहीं है, मैं बड़ा हो गया हूँ। माता-पिता के बीच खड़ा हो दिखाने लगा, देखो ना मैं कितना लंबा हो गया हूँ अब!!! सुन बचकानी बात उसकी हँस पड़े सब।
  20. वर्ष भर की प्रतीक्षा के बाद शरद पूनम का दिन आया है आज बहुत प्रसन्न है विद्या, साथ ही शांतिनाथ दोनों का जन्म दिवस है, बहुत दिन पूर्व ही सोच लिया था माँ ने... अष्ट प्रातिहार्य रखना है मंदिर में अनंतनाथ भी चल दिए साथ में पूजा का थाल लिये हाथ में चले माता-पिता आगे-आगे साथ ही तीनों भाई भी... कर प्रभु का दर्शन अष्ट द्रव्य से प्रभु का अर्चन अपने हाथों से लगाया माँ ने तीनों के उत्तमांग पर गंधोदक एक-एक प्रातिहार्य रजत के दे पीलू के हाथ में अनंतनाथ, शांतिनाथ भी लगा रहे हाथ भाव से माँ करने लगी प्रार्थना... हे प्रभो! जीवन रहे खुशहाल इनका अभ्यागत को दे शरण... शोक रहित हो जीवन सबका इसी भावना से है अर्पण अशोकवृक्ष प्रातिहार्य। हृदय की कोमलता भावों में सरलता बनी रहे सदा इसी भावना से है पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य। निज पद से च्युत न हो सिद्धासन शीघ्र प्राप्त हो कर्म नाश हेतु सिंह-सा पराक्रम बना रहे इसी भावना से सिंहासन प्रातिहार्य है। हर दिन लगे उत्सव-सा हृदय की धड़कनों में परमानंद का बजता रहे साज सदा इसीलिए दुंदुभि प्रातिहार्य है। ब्रह्माण्ड की समस्त वीतराग शक्तियों की दिव्य छत्र-छाया बनी रहे मस्तक पर सदा इन्हीं भावनाओं से अर्पण छत्रत्रय प्रतिहार्य है। अनुकूल हो या प्रतिकूल दिखता रहे भव का कूल, सुख-दुख के हिंडोले में झूलते हुए भी बनी रहे नित समता वृत्ति में हो नम्रता तभी उठ सके इतना ऊँचा लोकाग्र में सिद्धों तक पा जाए अमरता इसीलिए चँवर प्रातिहार्य है। अध्यात्म भावना से न हो मन दोलायमान कभी कांतिमान धुतिमान अनुपम आभावान आत्मा का मिटे भव भ्रमण सभी, शेष एक भव ही रहे चेतना को सदा मंगलज्ञान ही भाये इस भावना से भामण्डल ले आये। ज्ञान पर्वत से स्वानुभूति झरने-सी झरती रहे जिन-देशना से सही दिशा मिलती रहे विकारों का कल्मष धुलता रहे निजानुभूति का संगीत बजता रहे, इसी उद्देश्य से दिव्यध्वनि प्रातिहार्य है। हरण हो... अष्ट कर्म का, शरण हो... जिन धर्म का, वरण हो... शुद्धात्म का, इस कामना से समर्पित हैं अष्ट प्रातिहार्य...। प्रणम्य को करके प्रणाम लौकिक नहीं पारलौकिक सांसारिक नहीं पारमार्थिक दैहिक नहीं आत्मिक भावनाओं के साथ आ पहुँचे सभी घर।
  21. आज तो कमाल कर दिखाया है। श्रीमति के लाल ने घर के पास बनी बावड़ी में नहाया करते थे बाल गोपाल, किंतु नहाते नहीं थे वे लगा पद्मासन चित्त बैठकर ध्यान करते थे वे...! महिलाएँ मोहल्ले की आ गईं करने शिकायत... अरी श्रीमंति! तेरा बेटा, मचाकर आता है बावड़ी का पानी, कैसे पीये हम गंदा पानी? सुनकर श्रीमंत डाँटते हुए बोली “समझाया हज़ारों बार बावड़ी में मत नहाया कर, आँखें हो जाती हैं लाल बना रहता है जुकाम आ जाता है बुखार कब होगा तेरा सुधार!" डाँट सुनकर भी मौन रहे वापी के नीर की तरह शांत तब चिल्लाकर बोली सुनाई नहीं देती मेरी बात? आनंद की मुस्कान दीपित है। जिनके ओठों पर, ऐसे खोलकर अरुण अधर बोले मृदुल कंठ से “मैं पानी नहीं मचाता हूँ मैं तो ध्यान लगाता हूँ माँ!" सुन सरल मृदुवाणी हो गई माँ पानी-पानी। विद्या की इन वृत्तियों से सोचने लगी माँ कि - “जो व्यक्ति संघर्ष से परिचित नहीं होता, वह दुनिया में कभी चर्चित नहीं होता।” तभी यकायक रोने लगे ढाई साल के शांतिनाथ पल्लू पकड़ माँ का लाख समझाने पर भी चुप नहीं हो रहे, देख विद्या को बोली माँ यह काम नहीं करने दे रहा मुझे पीलू! ले जाओ शांत करो इसे... तभी द्वार पर लाकर सिर पर हाथ रख प्यार से सहलाने लगे बड़ों की भाँति समझाने लगे… “रोना अच्छी बात नहीं इससे पाप लगता है” क्यों माँ को परेशान करता है? तुम्हारे हृदय में तीन रत्न हैं सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इसे कहते हैं रत्नत्रय। बोलो शांति! आप भी बोलो रोना बंद कर तत्काल, तुतलाती भाषा में दुहराने लगे रोते-रोते हँसने लगे ताली बजाकर खेलने लगे। वाह! विद्या तेरे ज्ञान का कमाल रोते हुए को कर दिया तूने शांत यदि कोई होता तो कहता कौआ आया, कुत्ता आया चिड़िया आयी, गाय आयी, किंतु तुमने रत्नत्रय की बात कही यह कोई सामान्य बात नहीं।
  22. सुनकर आज पिताजी की माँ से बात जाना है पंच कल्याणक देखने उमड़ पड़ा है वहाँ जन समुदाय मन ही मन हो रहे खुश, देख प्रसन्न... बोली शांता, सुवर्णा “आज मिल गया है क्या कुछ?” “हाँ, कल जाना है उत्सव में।" सुनते ही उछल पड़े खुशी से सब। मेले में खरीदा कुछ न कुछ सभी ने गिनी पहुँचे सीधे प्रभु की मूर्ति लेने देख आकर्षक मूर्ति खरीद कर लगे माँ को दिखाने, देखते ही बोल पड़ी तू सबसे अलग क्यों है? विद्या तो मौन रहा, किंतु ज्ञानधारा की लहर यह चुप न रह पायी, बोली परिणाम के अनुसार ही होती है प्रवृत्ति तभी तो... मेला देखने के बहाने जा पहुँचते हैं मुनि के दर्शन करने, प्रवचन सुन दे आहार घर लौट आते हैं। क्या लाये हो मेले से? यह पूछने पर कहते 'मैं' अर्थात् आत्मा को ज्ञान से ढूंढ लाया हूँ ‘मैं ला’ मेला नाम सार्थक कर आया हूँ।
  23. ज्ञात हुआ ज्ञानधारा को कि सभी भाई-बहनों का नाम किसी घटना विशेष या पौराणिक पुरुषों के नाम पर ही रखा गया जैसे प्रभु महावीर की स्मृति में ‘महावीर’ ‘भट्टारक विद्यासागर की स्मृति में ‘विद्याधर’ शांत भाव से पलने में खेलती रहती सो ‘शांता’ जन्म लेते ही स्वर्ण खरीदा सो ‘सुवर्णा’ अनंत चतुर्दशी के पूर्व जन्मे अनंतनाथ बचपन से ही शांत और सुकुमार झूले से गिरने पर भी हँसता रहता वह लाल इसीलिए नाम रखा था ‘शांतिनाथ’। चाहे बड़ा भाई महावीर हो या छोटी बहन शांता, सुवर्णा हो अनंतनाथ हो या शांतिनाथ हो व्यवहार ही ऐसा करते विद्याधर कि हो गये सबके चहेते। आत्मशक्ति और जड़ पूँजी का नहीं करते अपव्यय, एक साथ पढ़ते दो-तीन विद्यार्थी बीच में रख लेते एक 'दीया' लौ के उद्विग्न होने पर लगा देते शीतल नारियल का तेल उद्विग्न लौ शांत होती यूँ... ऐसे थे मितव्ययी! विद्यालय से अवकाश मिलते ही मुनि अनंतकीर्तिजी के संघ में पीछे बैठकर पाठ मिलाते साथ-साथ उच्चारण करते, तत्त्वार्थसूत्र, सहस्रनाम कर लिया स्मरण साईकिल से घूमने में भी पीछे न रहते गिल्ली डंडा, आँख मिचौनी खेलते तो कभी पेड़ पर चढ़ते टीन की ढाल से सरपट सरकते, कैरम और शतरंज के तो माने जाते बादशाह चित्रकला की रुचि का कहना ही क्या! देखते ही देखते चित्र बना लेते। आज तो हठ कर बैठे कलर पेन्सिल ही चाहिए, बोले मल्लप्पाजी पहले कोई बनाकर दिखा दो चित्र? कागज पर चंद पलों में शिवाजी का उतार दिया चित्र मल्लप्पाजी चुपचाप चल दिये बाजार लाकर थमा दी हाथ में पेन्सिल खुशी से उछले तो… गिर गये नीचे, तीक्ष्ण लोहे का टुकड़ा घुस गया भाले की भाँति पैर में, निकालते ही बह गई खून की धारा देख वेदना स्वयं रो पड़ी श्रीमंति लिटाया, दे निज हाथ का सहारा रात भर थपथपाती रही कभी देखती पैर की ओर तो कभी चेहरा पैर ठीक होते ही… एक दिन सुन शहनाई की धुन देखा पड़ोस में हो रहा विवाह गौर से सुना पण्डितजी दिला रहे थे सात वचन विचारने लगे... एक दूजे से जोड़ने नाता वचन देना पड़ता है, मन से कौन इसे निभाता संसार का झूठा नाता है ! अचानक क्या सूझा पहुँचे मंदिर प्रभु के पास हाथ जोड़ कहने लगे मैं आपसे ही नाता जोड़ना चाहता हूँ इसके लिए सात वर माँगना चाहता हूँ निजात्मा को जान अजीव से कर भेद ज्ञान आस्रव को दूर कर बंध से संबंध तोड़कर कर सकूँ कर्मों का संवर बद्ध कर्मों को धीरे-धीरे निकाल कर सत्ता से कर सकूँ कर्मों का क्षय। यों भावों की भाषा में कहते गये... श्रद्धा की आँखों से तकते रहे... प्रभो! माँ ने समझाया है कि पर के ग्रहण से पामरता परम की शरण से पावनता और स्वयं के वरण से आती है अमरता इसीलिए आया हूँ आज आपकी शरण पूरे हों ये सात वचन। ज्यों ही दर्शन कर मुड़े देखी मित्रों की टोली पकड़ हाथ यूं बोली चलो सर्कस आया है, आयेगा बड़ा मज़ा... तुम्हारा मन किसमें खोया है? अनुत्तर ही चल दिये साथियों के साथ सर्कस में... तार पर चलना बहुत पसंद आया मन विचारों से भर आया इस पर दौड़ा भी तो जा सकता है, गर हो सावधानी संतुलित हो मन करे नहीं मनमानी तो तार के बिना भी चला जा सकता है ज्यों चलते हैं ऋद्धिधर, यों सोचते-सोचते विद्याधर आ गये घर।
  24. लो! जिनमंदिर में आज हर मुख से शुभ समाचार सुनाया जा रहा है, आचार्यवर्य देशभूषण जी मुनि का संघ सदलगा में आ रहा है… आज तो गिनी रसोईघर में पहले ही जाकर बैठ गये, हाथ में थाली ले बार-बार कह रहे... तुम सबसे अच्छी हो माँ! भोजन जल्दी परोसो ना, माँ! आज शाम छह बजे मुनिराज आने वाले हैं कई लोग उन्हें लेने जाने वाले हैं, मैं भी धर्मध्वज ले आगे-आगे चलूंगा। उच्च ध्वनि से, जय-जयकार करूंगा। देख गुरु के प्रति उत्साह... माँ की आँखों में खुशी से छलक आया नीर कहने लगी- कितने हो रहे हो अधीर! शीघ्र ही परोसे दाल-चावल बिना रोटी खाये ही दौड़ते-दौड़ते ले मित्रों को साथ पहुँचे तीन किलोमीटर दूर... गुरु-चरणों में सर्वप्रथम झुका माथ, पिच्छी से मिला आशीर्वाद कर अपने भाग्य की सराहना एकटक तकते रहे मुनिश्री को बारंबार.. चलते जा रहे आगे-आगे धर्मपताका ले जो बताती है धर्म का पता वही है पताका इतने में ही देखा। कुछ मित्र चले जा रहे अपनी धुन में, हरी-हरी घास को कुचलते देख आह भर आई, नयनों में जलबिंदु तैर आई... बोले- समझ में नहीं आता? अपने जैसे यह भी जीव हैं क्या तुम्हारा हृदय नहीं पसीजता? यदि चले तुम्हारे ऊपर हाथी तो कैसा लगेगा तुम्हें? वैसे ही तुम्हारे पैरों के भार से कुचली जा रही है नाजुक-सी घास, जन्म लिया है तुमने जैन कुल में जीवों का मत करो घात। सुन पीलू की बात बोले- छोटे पण्डित! समझ गये हम अब ऐसी गलती नहीं करेंगे हम... विद्याधर आगे-आगे चल रहे थे जय-जयकार के नारे गूंज रहे थे, आचार्य देशभूषण महाराज की जय हो! ज्ञान दर्पण धर्म सम्राट की जय हो! करपात्री, पदयात्री की मुक्तिपथ के सारथी की दयासिंधु गुणसागर की सच्चे धर्म-दिवाकर की जय हो! जय हो! जय हो! निज शुद्धातम दर्शक की भविजन के उपदेशक की संयम-पथ के राही की त्रियोग से मुनिरायी की जय हो! जय हो! जय हो! सुरीली आवाज़ में किंतु पूरी बुलंदी से नारे लगा रहे थे। सुनकर मुनिराज सोच रहे थे... यह बालक है बड़ा यशस्वी सुंदर रूप है, आवाज़ भी है ओजस्वी चलते-चलते यूँ सदलगा में हो गया आगमन जहाँ देखो वहाँ श्रावकगण कर रहे धर्म की ही चर्चा, श्रीमति ने भी लगाया घर में चौका उठते ही सवेरे ज्ञात हुआ पीलू को पकड़ माँ का हाथ कहने लगा मैं भी दूँगा आहार जो कहेंगे मुनिराज वह सब करूंगा त्याग। सहज धर्मवृत्ति देख मन ही मन सोचने लगी वह तुम्हें मैं क्या दूँ संस्कार पूर्व से ही आये हो होकर तैयार। दक्षिण भारत की परम्परानुसार आज किया जाना है ‘मँजीबंधन संस्कार’ बारह वर्ष से हो अधिक उम्र वाला बालक करे उस दिन उपवास बाल मुंड़ाकर रखे चोटी... सात गृहों से भिक्षा माँगे पहने सफेद धोती... तब कहीं धारण होगा गणधर सूत्र जिसे कहते हैं यज्ञोपवीत... ‘गिनी' ने मना लिया बड़े भाई महावीर को, किंतु पिता ने नहीं दी स्वीकृति ज़रा बड़े हो जाओ यूँ डाँट लगाई दोनों को। बोले तोता बड़े तो हो गये जाने दो ना, अन्नाजी!! कहकर लिपट गये पिता से रोने के अंदाज़ में सुबकने लगे किसी तरह यूँ मनाने लगे, बड़ों को मनाना तो कोई तुमसे सीखे पिताजी समझ गये इनकी चाल बोले तीव्र स्वर में फटकारते हुए “कोई ज़रूरत नहीं है जाने की मैं स्वयं करा दूंगा बाद में यह संस्कार…” आखिर धर्म-भावना को रोक नहीं पाये दबे पैर अकेले घर से निकल आये बालकों की भीड़ में सबसे अग्रिम पंक्ति में बैठ गये। आचार्यश्री के खोज रहे थे नयन किसी विशेष भव्यात्मा को तभी...सुंदर गौरवर्ण कमल से नयन अरूण अधर, सुगठित बदन देख विद्याधर को पण्डितजी ने तीन लड़ वाला चमकता स्वर्ण का पहनाया जनेऊ विधिवत्, दूर से देख यह दृश्य मल्लप्पाजी मन ही मन मुस्काये “सागर को गागर में समेटा नहीं जाता आकाश को आँचल में बाँधा नहीं जाता बड़ा जिद्दी हठी है यह विद्या! यह किसी के रोके रोका नहीं जा सकता… साधना पथ का एक और पायदान मिल गया गुरु-कृपा से संयम पथ का एक और सोपान चढ़ गया दिनभर प्रसन्नता से गुजर गया घिर आयी थी रात। तनिक नैनों में ललाई छिड़ककर बोली माँ “दिनभर करते हो धर्म की चर्चा कल है परीक्षा! किया है याद अपना पाठ? नम्र भावों से देखते रहे एकटक माँ को जैसे कह रहे हों... विश्वास नहीं मुझ पर तुमको? सारा पाठ बिना देखे सुना दिया सुनकर माँ का मन प्रसन्न हो गया।" शाम को प्रभु-दर्शन कर हर रात अपने भाई-बहनों को सुनाते धर्म की बात सुरीले कंठ से गाते स्तुति छोटों को भी बड़ों की तरह करते संबोधित, कुछ नहीं करते अनुचित |
  25. सरिता ज्यों सरपट भागती है। सागर से मिलने विद्याधर के कदम भी हो चले हैं उतावले अब महात्मा से मिलने...। षट् आवश्यकों में निरत दंपत्ति नित्य करते प्रभु-पूजन आस-पास गुरू-आगमन सुन जाते थे करने दर्शन, नगर में आते ही आहारादि दे करते गुरु-उपासना हर शाम जिनालय में करते जिनवाणी की वाचना। श्रावकोचित नियमों का पालन कर जीवन था नियमित संयमित व्यसनों से बहुत दूर सात्विकता से था भरपूर शक्ति अनुसार करके तप दान कार्य में पीछे न रहते यूँ श्रावक के षट् आवश्यक आचरते तो भला... संतान पर संस्कार क्यों न पड़ते! आ रही है इस प्रसंग पर ज्ञानधारा को स्मृति चले गये थे मल्लप्पाजी बिना बताये ही बैंगलोर दीक्षा की भावना ले, तभी उनके पिता पारसप्पा पुत्र को समझाकर ले आये वापस घर, कुछ ही दिनों में करा दिया पाणिग्रहण तभी आचार्य शांतिसागरजी के निकट एक पत्नी व्रत कर लिया ग्रहण, यही पूर्व के संस्कार दे रहे भावी संकेत होने वाले हैं जो मल्लप्पा से ‘मल्लिसागर’
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