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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानधारा क्रमांक - 40

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    रात घनी होती जा रही है।

    नींद आँखों से दूर होती जा रही है,

    बोले धीरे से मल्लप्पा

    क्यों नींद नहीं आ रही है?

    द्वार खुले हैं स्वामिन्!

    आँखें प्रतीक्षित हैं।

    नींद भला कैसे आ सकती है।

    गये हैं पंच कल्याणक में विद्याधर

    अभी तक लौटे नहीं हैं।

    हृदय की धड़कनें बढ़ती जा रही हैं।

     

    कक्ष में था गहन सन्नाटा...

    किंतु

    विद्या की एक-एक प्रवृत्ति

    रह-रहकर याद आ रही है...

     

    गुरु-दर्शन को मीलों पैदल जाना

    ध्यान, स्वाध्याय करना

    माता-पिता के कार्यों में

    सहयोग करना

    दया, करुणा, परोपकार के भाव

    निरीहवृत्ति, निर्मल स्वभाव

    विचारों की कतार लगी हुई थीं...

    पलकें झपकने का नाम नहीं ले रही थीं

    इतने में ही

    कदमों की आहट सुन

    आयी द्वार तक,

    बोले चरण छू कर

    माँ! मैं आ गया।

    सुनते ही

    माँ की श्वासों का प्रवाह

    सहज हो गया।

     

    स्वास्थ्य-संपदा

    सौन्दर्य-संपन्नता

    परिवार-प्रतिष्ठा

    यह न मिले सबको समान

    संभव है, किंतु

    समय एक ऐसी निधि है।

    जो मिलती है सबको समान

     

    जानता है इसका जो मूल्य

    वह कर लेता है सदुपयोग,

    नहीं जानता जो समय का मोल

    वह करता है पल-पल दुरूपयोग...

     

    समय की गति को जानते थे वह

    जीवन की प्रगति चाहते थे वह

    धधकती आग की लपटों से

    भागने में किया विलंब तो

    निश्चित है मरण,

    गहरे समंदर में

    तैराक कर जाए कुछ पल आलस्य तो

    निश्चित है मरण,

    दो तरफा खंदकों के मध्य

    वाहन चलाने में

    आ जाए हल्की-सी झपकी तो

    आ सकती है मौत,

    इस दुर्लभ मानव जीवन में

    पलभर भी किया प्रमाद तो

    हो सकती है दुर्गत।

     

    इसीलिए

    नहीं करना है एक क्षण भी प्रमाद

    सतत गतिमान होते रहना है।

    जब तक न मिले ज्ञान-प्रासाद।

     

    पहले करना, फिर कहना

    स्वयं समझना फिर औरों को समझाना

    यही है स्वभाव इनका

    प्रात: चार बजे उठ जाते;

     

    क्योंकि जानते थे वह

    चार से पाँच बजे तक उठने वाला

    होता है दिव्य पुरुष,

    पाँच से छह बजे तक उठने वाला

    सामान्य पुरुष,

    छह से सात बजे तक उठने वाला

    होता है पशु सम,

    और सात बजे के बाद उठने वाला

    बनता है दैत्य सम।

     

    जल्दी उठने से

    स्वास्थ्य ग्रंथियाँ रहती संतुलित

    छह घंटे से अधिक शयन से

    पिनियल ग्रंथि से होता स्राव असंतुलित

    उससे होते क्रोधादिक

    मन होता असंतुलित अशांत।

     

    उठते ही सवेरे

    “प्रभाते कर दर्शनम्'

    कहती है भारतीय संस्कृति

    अतः

    करते नित पालन इसका

    समझाते सभी को राज़ इसका

    यों ही

    दिन, सप्ताह, माह और वर्ष

    गुजरते रहे…

     

    दीप राग गाने के बाद

    न गायें यदि राग मेघ मल्हार

    तो हो जाये हाहाकार

     

    पाप होने के बाद यदि

    न किया जाये पश्चाताप

    तो निश्चित पाता है वह

    जीवन भर संताप।

    आज चतुर्दशी को मन ही मन

    ले लिया संकल्प

    करूंगा नित्य दिनभर के

    पापों का प्रक्षालन,

    पाप रूपी दुर्जन का साथ

    मुझे छोड़ना है।

    सद्गुरू से अब नाता ।

    मुझे जोड़ना है।

     

    क्योंकि

    शक्कर का एक कण

    दूध को मीठा बनाने में

    नहीं है सक्षम,

    किंतु

    ज़रा-सा दही

    दूध को खट्टा बना देने में ।

    अवश्य है सक्षम,

    मुझे हर पल बचना है विकारों से

    सद्दगुण को लूटने वाले लुटेरों से।

     

    हाथों में ले श्रावकाचार

    कर रहे थे विचार...

    तभी भोली-सी सूरत वाले 'शांतिनाथ'

    मन के सच्चे वचन के पक्के ‘अनंतनाथ'

    बैठ गये समीप में आ...

     

    यथा नाम तथा काम है जिनका

    पूछने लगे वह ‘शांतिनाथ

    भैया!

    बताइये ना

    कारण क्या है अशांति का

    मार्ग क्या है शांति का?

    सुनते ही सवाल

    कुछ क्षण हो मौन

    कहने लगे फिर

     

    अपने को अपना नहीं जानना

    पर को अपना मानना

    यहीं से होती है।

    अशांति की शुरुआत

    फिर वह पाप से डरता नहीं,

    पाप करने पर जो पछताता नहीं

    उसका पाप कभी नष्ट होता नहीं।

    '' पाप के फल से

    नरक के दुख भोगता है ।

    भयंकर यातनाएँ सहता है,

    सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास

    सहता है असुरों की मार

    व्यसनों का यही है अंजाम।

     

    इसीलिए

    अशुभ प्रवृत्ति से उठकर

    शुभ को भी स्वभाव न मानकर

    शुद्ध दशा तक पहुँचना है।

    समझ रहे हो ना शांति?

     

    सुनो! अच्छी बात बताता हूँ

    कमलिनी कृत्रिम प्रकाश से

    कभी धोखा नहीं खाती

    और प्रभु भक्तात्मा पुण्य के प्रकाश से

    कभी आसक्त नहीं होती,

    तभी अपने स्वभाव को जानकर

    परिणाम को शांत कर

    शांत चित्त गुफा में

    एकाकी हो आनंद पाती।

     

    विद्या की विद्वत्ता को देख हो गये प्रसन्न

    देखते रहे एकटक

    वचन हो गये मौन,

    पर आँखें बोल रही थीं

    कुछ और सुनना चाह रही थीं...

     

    भावों की भाषा पढ़ते हुए

    कहने लगे- सुनो शांति!

    सारभूत सुनाता हूँ एक बात ।

    बिना फिसले चल पाना

    कदाचित् सरल है

    पंक वाले पथ पर,

    किंतु

    ठीक से खड़े रहना भी कठिन है।

    पुण्य के लुभावने पथ पर

    इसीलिए जीवन में पर से कभी

    प्रभावित होना नहीं,

    क्षणभंगुर पदार्थों से कभी

    आकर्षित होना नहीं,

     

    समझे...

    बात गले तक ही नहीं

    सीधी हृदय तक उतर गई..."

     

    इतने में ही

    बोल पड़े अनंतनाथ

    अमिट अनंत सुख का मार्ग क्या है?

    शाश्वत आनंद का राज़ क्या है?

    समाधान की प्रतीक्षा में तकते रहे।

    अपलक निहारते रहे...

     

    तभी

    विद्याधर कहने लगे

    निजात्मा से उत्पन्न जो

    है परम स्वाधीन वो

    ऐसे अतीन्द्रिय सुख से रुचि हो

    इन्द्रिय सुख से अरूचि हो

    तब कहीं

    रुचि अनुसारि वीर्य

    आचार्य अमृतचंद्रस्वामी जी की

    इस युक्ति के अनुसार

    रुचि अनुसार कार्य करती है।

    आत्म शक्ति ।

    करके सम्यक् पुरूषार्थ

    लौकिक नहीं परमार्थ

    आत्मिक अतीन्द्रिय

    अनंत सुख का पथ दिखता है।

    रत्नत्रय का रथ मिलता है।

     

    लेकिन

    सावधानी रखनी होगी

     

    मिथ्या मान्यता हटानी होगी,

    जब गणित में छोटी-सी त्रुटि ही ।

    सारे समीकरण को कर देती है गलत

    तब इन्द्रिय सुख की

    थोड़ी -सी आसक्ति भी

    लोकैषणा की चाहत ।

    ख्याति प्रसिद्धि की अनुरक्ति भी

    सिद्धि में निश्चित है बाधक।

    यहाँ तक कि

    मोक्ष की कामना भी

    मुक्ति में बनती रुकावट।

     

    यदि राग को बना दोगे सम्राट

    तो वह भाव तुम्हें आहत कर देगा

    और यदि तुम उसे कर दोगे आहत

    तो वह तुम्हें सम्राट बना देगा।

    इस बात को सूत्र रूप में

    स्मरण रखना होगा,

    बात नहीं है यह मेरे मन की

    बात है यह जैनागम की...

    गले से पूँट लेते हुए…

    बोले ‘अनंतनाथ'-

    भैया!

    सिर्फ गले या हृदय तक ही नहीं

    समग्र चेतना में उतर आयी है।

    आपकी यह बात…

     

    दोनों लघु भ्रात

    देख रहे उत्सुकता से

     

    कुछ और सुना दे

    हृदयस्पर्शी वार्ता

    इसी प्रतीक्षा में थे कि

    आ पहुँची शांता-सुवर्णा का हाथ थामें

    आते ही बोली

    भैया!

    तुम कितने बड़े दिख रहे हो!

    साथ ही इतने रूपवान सुंदर भी!!

    अब जल्दी से ले आओ भाभी

    लेकिन हो वह भी रूपवान तुम-सी

     

    शरमा गये तत्क्षण

    झुका सिर नीचे,

    किंतु दूसरे ही क्षण

    बोले अंतर मन से

    भावों की गंभीरता ले…

     

    रूपवती नहीं

    स्वरूपवती लाऊँगा,

    सुंदरी नहीं

    अमिट सौन्दर्यवती को लाऊँगा,

    होगी जो

    धैर्य की धनी, समता की खनी

    अनंत गुणों से गुणी, अतुल बल की जनी

    तन से परे होगी ज्ञानतन्वी

    कैसे देख पाओगी तुम उसे!

    चर्म चक्षु से दिखेगी नहीं वह तुम्हें

    भाषा व शब्दों से परे है जो

    पुकारोगी कैसे तुम उसे

     

    वही होगी मेरी प्राण-प्रिया

    जीवन संयोगिनी शाश्वत संयोगिनी!

    समझी भगिनी…

     

    स्वयं के माथ पर रख हाथ बोली शांता

    बात तुम्हारी

    समंदर से भी गहरी-गहरी

    मुझे कुछ समझ में आती,

    कुछ नहीं आती,

    मन ही मन बुदबुदाये वह

    अभी से कैसे समझ पाओगी

    स्वयं एक दिन जान जाओगी,

    मेरा स्वप्न होगा साकार 

    चल पडूंगा जब मैं मोक्षमार्ग पर…

     

    बीच में बाधा डालते हुए

    पूछने लगी सुवर्णा

    क्या कुछ कह रहे हो?

    सिर हिलाकर बोले

    अब कहने योग्य नहीं कुछ।

    अनुभूति के योग्य है सब कुछ,

    बहनों की यह वार्ता

    मनोरंजन की

    बदल गई आत्मरंजन में।


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