Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    894

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. हन्त आज हो चली जीविका-साधन विद्यायें सारी। इसीलिए परमार्थ भावना दूर गई वह बेचारी॥ बिना वृत्ति के अध्यापक-जन नहीं पढ़ाना ही जाने। वहाँ छात्रगण उन्हें क्यों नहीं अपना ही नौकर मानें॥१३१॥ विप्र क्षत्रिय वैश्य सभी की दृष्टि नौकरी पर आई। फिर हम किसको दास कहें यों कौन रहे भू पर साई॥ नूतन शिक्षे परिहृतदी' तू क्यों भारत में आई। पढ़ो बालको करो नौकरी यह फैशन है अपनाई॥१३२॥ और नहीं कुछ काम एक सी ए टी कैट पढ़ा देना। अपना घण्टा पर पूरा यों झट पट फीस झाप लेना॥ कोई उपन्यास की पुस्तक लिखो रसीली जो होवे। बिके धड़ाधड़आय बनें यों जो कि गरीबी को खोवे॥१३३॥ अथवा कोई पत्र निकालों उसमें लेख लिखो भाई। इधर उधर की गप्प भरो दिखलावों अपनी चतुराई॥ या आपस में लड़ा भिड़ा कर दावा दायर करा दिया। दोनों में से किसी शुल्क देने वाले का पक्ष लिया॥१३४॥ झूठी सच्ची बात बना कर उसको अतिशय तूल दिया। बने जहाँ तक विपक्ष वाले से भी यों कुछ ऐंठ लिया॥ अगर नहीं कोई भी चारा चला रासलीला खेलो। उसमें भी सीधे से सीधा पाट विदूषक का लेलो॥१३५॥ आप पतन की ओर चले औरों को भी ले चलने को। बने अग्रसर हाय भूमि पर निश्शर्मता उढलने को॥ क्योंकि रास में सिवा धर पकड़ के न और कुछ भी होता। जहाँ कि जाकर भला न कोई शान आपकी को खोता॥१३६॥ फिर भी भोले जीव इन अखाड़ों में खुश हो जाते हैं। खाने को भी न हो किन्तु नाटक का टिकट मंगाते हैं॥ इसी तरह बाजार गर्म हो रहा लफंगेबाजी का। जो करता है सदाचार में कार्य दूध में साजी का॥१३७॥ हे धूर्ते दुःशिक्षे तूने कैसा रंग जमाया है। बहुत शीघ्र इस दीन देश का रूप अहो पलटाया है॥ हन्त पिशाचिनि इस भारत का तूने शोणित खूब पिया। पापिनि पीछा छोड़ जरा इस पर अब तो करदे सुदया॥१३८॥ प्रायः सारे भारत ही को तूने आड़े हाथ लिया। पराराधना में व्यस्त बना यों इसको बेजार किया॥ था भारत यह हुआ अभारत सम्प्रति अपनी करनी से। ऊँचा उठने के बदले वह गया मूल में धरनी से॥१३९॥ क्योंकि इतर देशों की सी बातें करने में ही राजी। होता है अपनाई इसने सर्वांश में नकल बाजी॥ करते थे सब देश जहाँ अनुकरण इसी सुशयाने का। आज यही कर रहा यल औरों की रुख में जाने का॥१४०॥ हन्त-हन्त बगला बनने को राज हंस ज्यों ललचाया। दूध और मुक्ता तज करके मछली खाने को धाया॥ किन्तु फूल खाने वाले के शूल पेट में कहाँ पचे। मन मसोस के खा लेवे तो बड़ी उदर में व्यथा मचे॥१४१॥ यही हाल है इस भारत का करता अनहोनी चाहें। अपनी सुन्दर सड़क छोड़ अपनाता औरों की राहें॥ चलो मिलो हरिजन लोगों से परिजन एक बनाने को। इस भारत पर सारतत्त्व यह एक पना फैलाने को॥१४२॥ जैसा वे करते हों वैसा तुम भी करने लग जाओ। तभी संगठन होगा भाई पाक साफ बनने आओ॥ हमें आज के नेताओं ने क्या ऐसा बतलाया है। नहीं किन्तु उनके कहने को समझ न हमने पाया है॥१४३॥ वे कहते हैं तो तुम मानव मानव उनको बतलाओ। वे यदि भूल समझना चाहें तो उनको भी समझाओ॥ घृणा करो न नाम से उनके देख न उन्हें तमक जाओ। उनको उनकी बुराइयाँ सीधे वचनों में दिखलाओ॥१४४॥ मद्यपान आदिक की आदत उनकी उनसे छुटवाओ। आप रहो मानव के मानव उनमें मानवता लाओ॥ नेताओं की बातों से तो सबको मिलती है शान्ति। किन्तु हमारे ढंगों में दोनों तरफा है उत्क्रांति॥१४५॥ एक निरामिष भोज्यालय में जूता पहने जाने को। है तैयार दूसरा तो फिर उसे डाट बतलाने को॥ नहीं एक दल एक गाँव यों किन्तु एक घर वालों में। मचता है संघर्ष सदा भारत-माता के लालों में॥१४६॥ हम हैं बड़े हमारा कहना तुम्हें मानना होगा ही। कहता है यों एक वहाँ दूजा करता लापरवाही॥ अहो कहो ये बड़े बने तो क्या हम हैं दाल भी नहीं। आप थम्भ' घर में अवश्य हैं किन्तु यहाँ हम लाल सही॥१४७॥ बात बात में एक दूसरे के शिर यों हम आते हैं। कुछ न दूसरे को गिन करके अपनी शान बताते हैं॥ वो हमने अपने हृदयों में दानवता को अपनाया। मानवता को अपनाना तो दूर उसे न जान पाया॥१४८॥ भारतीय लोगों के अब भी अहंकार है नस नस में। दलबन्दियाँ बनाकर देखो कलह मचाते आपस में॥ है यह घर की फूट लूट का बीज देश में बनी हुई। इसी हवा से उड़ी जा रही देखो तो सम्पत्ति रुई ॥१४९॥ मैं भी कोई तो हूँ यों तो सभी लोग सोचा करते। नहीं अन्य के बिना किन्तु कुछ भी यों याद नहीं करते॥ देखो तो कि सहाय बिना क्या चुट की भी बजने वाली। हल्दी में नींबू के रस से ही तो आती है लाली ॥१५०॥ सब कुटुम्ब के लोग एक दिल होकर यों हम कार्य करें। गुदड़ी के धागों की ज्यों मिल कर समता का भाव धरें॥ पाँचों अंगुली एक बराबर हलकी भारी होकर भी। किसी चीज को जहाँ उठने चलती हो मिल जाय सभी ॥१५१॥ अपना अपना कार्य किया करती हैं अपने नम्बर में। फिर भी देखो तो मिल जुल ये कैसे रहती हैं कर में॥ हमको भी यह याद सदा रखना होगा अपने मन में। अपने को उत्तीर्ण बनाने चले अगर कर्मठपन में ॥१५२॥ भिन्न देह हो किन्तु एक के अनुशासन में चले सदा। प्रत्येक में शक्ति सबकी हो फिर कैसी होवे विपदा॥ स्वार्थपरायण न हो किसी का भी यह दिल चंचल पाजी। किन्तु परोपकार तत्पर हो तब फिर रहे प्रभु राजी ॥१५३॥ मानवपन मण्डप समान यह महापुरुष बतलाते हैं। जिसमें आकर तनुधारी विश्राम सुखप्रद पाते हैं॥ जिसकी चारों ओर चार दरवाजे स्पष्ट दिखाते हैं। वर्णि गृहस्थ-त्यागि-तपोधनपन यों नाम सुहाते हैं ॥१५४॥ वर्णिपना एकाकिरूप से रहने को बतलाता है। जनता की सेवा करने को सैनिकता सिखलाता है॥ शस्त्र शास्त्र दोनों विद्याओं में प्रवीण बनाता है। जिससे इसका सुजनों का निर्भय करने का नाता है॥१५५॥ भीष्मपितामह जैसों ने इस आश्रम को अपनाया था। कला कौशल द्वारा यश अपने को खूब बढ़ाया था॥ गुरु सुश्रूषा ध्यानाध्यापन आत्म संयमन का कोका। वर्णिपने में होता है जिससे न मिले अघ को मौका ॥१५६॥ समताधारी उचिताचारी सत्पथ का अधिकारी हो। वह गुरु कहलाता है जग में कथमपि नहीं विकारी हो॥ उसकी आज्ञा को शिर धरना करना पगचम्पी आदि। करना हो यदि अपने चिर के पाप मैल की बरबादी ॥१५७॥ आम्नायाविच्छेदरूप से पढ़ना व्यर्थ नहीं बढ़ना। सर्वज्ञोदित आगम में निजमति की सड़क नहीं चढ़ना॥ हाँ दृष्टेष्ट विरोध जहाँ हो, वह आगम की बात नहीं। नव नव तो ठारह होते हैं, ऐसे समझो सही सही ॥१५८॥ बार बार विज्ञों के मुँह से जैसा भी सुन पाया हो। जिसको समझ सोच कर फिर निज मानस में बिठलाया हो॥ पक्षपात के बिना सरलता से जनता के समक्ष में। मार्ग प्रभावना करने को रख देना चाहिये हमें ॥१५९॥ निद्रा के बस कभी न होना श्वान की तरह से सोना। निर्विकार वस्त्रादि सहित सन्तोषितया दिल मल धोना॥ सात्विक भोजन एक बार दिन में गृहस्थ से ले लेना। करना निज पर का हित ऐसे कष्ट न किसको भी देना॥१६०॥ अब आगे हम बतलाते हैं गृहस्थ लोगों की बातें। पर सहायता से ही जिनकी बीता करती हैं रातें॥ आजीवन, सम्पोषण, योग, क्षेम चार बातें ये ही। होती है गृहस्थपन में जिन से सकुशल रहता देही॥१६१॥ निज कुल निज कौशल को लेकर आजीवन को अपनाना। बने जहाँ तक उसमें अपनी खूब दक्षता दिखलाना॥ नहीं किसी सम-धन्धेवाले से मन में ईर्षा लाना। और न शोषणभाव चित्त में रखना सौजन्य दिखाना॥१६२॥ घर आये प्राघूर्णिक का स्वागत करना तनु मन, धन से। कम से कम आश्वासन देना अन्न-जल तथा सुवचन से॥ अन्ध पंगु आदिक अपाहिजों की यथेष्ट सेवा करना। अपनी कठिन कमाई का फल पाने को मानस धरना॥१६३॥ जो कोई भी मिला उसी से हो जिसका भाईचारा। प्रेम पियासा बनकर जो करता है अपना निस्तारा॥ पिता पुत्र माता भगिनी आदिक सम्बन्ध सुधा धारा। बहती रहती जहाँ वही गेही होता जग का प्यारा॥१६४॥ नहीं किसी से भी मेरी अनबन होने पावे कब ही। ऐसा करूँ कि जिससे हों मानव मानव मेरे सब ही॥ ऐसी विचारधारा जिसके मन में पनपा करती हो। ऐसे गृहस्थ से समलंकृत धन्य सदा यह धरती हो॥१६५॥ यों प्रेमामृत के बल पर जिसका आंगन सुखदायक हो। अन्न और धन जन से निश दिन पूर्ण उसे ही स्वर्ग कहो॥ जहाँ तनुज तो देव तुल्य पापाशय से परिहीण रहें। देवी सी मानवी मनोज्ञा वह ही तो गेहाश्रम है॥१६६॥ मद्यपान मांसाशन चोरी जारी वचन दगाकारी। इन्द्रिय लम्पटता में पड़कर जहाँ लोभ लालच भारी॥ हो विनोद वश पर-प्राणिवध महारम्भ कहलाते हैं। जिनके करने वाले नाना दण्ड यहाँ भी पाते हैं॥१६७॥ फिर इन अपने दुष्कृत्यों से नरक भूमि में जाते हैं। मारण ताड़न शूलारोपण आदिक दुःख उठाते हैं॥ रौद्र भाव से मरते हैं। वे घोर रूद्र बन जाते हैं। हाय हाय करते वर्षों तक कष्ट सतत ही पाते हैं॥१६८॥ इन्हीं हमारे दुष्कृत्यों को कोई नहीं जान पावे। यों कपटाई रखने वाला हो वह पशुगति में जावे॥ बन्धन ताड़न अति भारारोपण इत्यादिक कष्ट घने। भुगता करता जीव वहाँ भी देख रहे हैं सभी जने॥१६९॥ मानवता जो रखता है यद्यपि इन से हट रहता है। फिर भी गृहस्था के चक्कर में जो सन्तत बहता है॥ शान्ति नहीं मिल पाती इसको परिग्रहान्वित होने से। अहो समुज्ज्वलता आती मैले कपड़े को धोने से॥१७०॥ देखो भूतल पर चेतन ने जब मानव तनु पाया था। क्या कोई भी चीज आपके साथ यहाँ पर लाया था॥ अहो व्यर्थ ही मेरा मेरा करके रुपया पैसादि। संग्रह किये और उस पर से की है ममता से शादी॥१७१॥ श्वान मांस के टुकड़े को जब मुँह में ले करके आया। और अनेकों कुत्ते झपटे उसे जहाँ कि देख पाया॥ मांस पिण्ड को डाल जमीं पर वह तो दूर दौड़ पाया। शेष सारमेयों ने उसके पीछे तूफान मचाया॥१७२॥ मतलब यह कि परिग्रह ही है भूरि झंझटों का अड्डा। कटा डालता हाथ समय पर पहने हुए जो कि टड्डा॥ यों विचार जिनके मन में आया निष्कञ्चन बनने का। किन्तु न एक एक जहाँ साहस हो सभी विभजने का॥ १७३॥ त्यागिपना अपना करके धीरे-धीरे वे बढ़ते हैं। मानों पैण्ड-पैण्ड चल कर नैराश्य शिखर पर चढ़ते हैं॥ आवश्यकताओं को कम कम करना काम जिन्हों का है। तृष्णा नदी पार करने को ली निष्पृहता नौका है॥१७४॥ त्याग मञ्च के भी देखों ये चार मनोहर पाये हैं। दान-शील उपवास भावना जिनके नाम बताये हैं॥
  2. सच्ची श्रद्धा विवेक पूर्वक सदाचार के धारक हों। उन महानुभावों की सेवा, भक्ति-सहित सो दान कहो॥१७५॥
  3. सम्यक्त्वादिक आठ गुणों की स्मृति में आठे पूर्व कहा। गुणस्थान मार्गणा स्मरण को, लेकर चतुर्दशी च महा॥ सभी तरह का धन्धा तजकर अतः वहाँ अनशन करना। परमात्म स्मृति पूर्वक अपनी मनोमालिनता को हरना॥१७६॥
  4. तीनों संध्याओं में निश्चल चित्ततया भगवान भजे। सब जीवों में समता धरकर आर्त रौद्र परिणाम तजे। पहले बन पड़ जाने वाले दुष्कृत्यों पर पछताना॥ आगे को न कभी करने की मनोभावना को माना ॥१७७॥
  5. पाँचों अणुव्रतों को दूषित कभी नहीं होने देना। पाँच तरह के अनर्थ दण्डों की न कभी जागे सेना॥ पंचेन्द्रिय के वश में होकर कभी न दुर्यश को लेना। ऐसा शील भवोदधि में संवरमय दृढ़ नौका खेना ॥१७८॥
  6. गेही से त्यागी का जीवन भिन्न जाति का होता है। वह होता आराम तलब वह तो विवेक को ढोता है॥ गेही मखमल के गद्दे युत पलंग ऊपर सोता है। त्यागी गुरु के चरणों में भूपर रजनी को खोता है॥१७९॥ गेही तेल फुलेल लगा कर खुशबू से खुश होता है। त्यागी रुग्ण मुनिजनों के मल-मूत्र यथोचित धोता है॥ गेही नाटक और सिनेमा देखा करता खड़े-खड़े। त्यागी की तो नजर धूसरित गुरु चरणों पर सहज पड़े॥१८०॥ मृगनयनी के मुँह से ठुमरी दादरादि को सुनता है। तो मस्त हुआ गेही मस्ती से मस्तक को धुनता है॥ गुरु के अनुशासनमय कठोर, वचनों को सुन पाता है। त्यागी तो अपने जीवन को तब ही सफल मनाता है॥१८१॥ सरस और सुस्वादु चीज का भोजन फिर फिर करता है। गेही, त्यागी तो स्वाद रहित खाद्य से उदर भरता है॥ गेही खश आदि से सुगन्धित शीतल जल को पीता है। त्यागी तो उष्ण किये लघु नीर के सहारे जीता है ॥१८२॥ जिस सब्जी बाणच को गेही कच्चा ही खा जाता है। क्योंकि उसे तो ऐसा खाने में ही स्वाद दिखाता है॥ त्यागी पेट पालने वाला नहीं स्वाद पर जाता है। अग्निपक्व होने पर उसकी शाकरूप में आता है॥१८३॥ गेही सोचा करता है मैं अभी नहीं मरने पाऊँ। मेरा एक काम बाकी है उसको भी मैं कर जाऊँ॥ हाय हाय क्या करूँ देह में हुई घोर बीमारी है। जो भी इसे मिटा दे उसका यह बन्दा आभारी है ॥१८४॥ कम से कम दो घण्टे तो जीवित रखदे लाचारी है। मुँह मांगा देऊँ उसको मुझ पास अहो धन भारी है॥ त्यागी भी मरता न चलाकर क्योंकि कहा नर देह भला। जिसको पाकर चेतन अपनी कर सकता है प्रकट कला ॥१८५॥ किन्तु वहाँ इस तनु के रहने का कोई सदुपाय नहीं। नश्वरता इसका स्वभाव यह रोग शोक की स्पष्ट मही॥ नाशोन्मुख पाता है इसको तो अपने आचारादि। गुण रतनों को नहीं बिगड़ने देता वह है स्याद्वादी ॥१८६॥ प्रसन्नता पूर्वक इसको तजता समता को चखता है। इस मरने को अमर रूप देने की क्षमता रखता है॥ तब संन्यास भाव लेकर है वही तपोधन बन जाता। जिसके यह कवि तथा भी सारा ही है गुणगाता ॥१८७॥ क्षमा और निष्किंचनता ध्यान स्वाध्याय नाम वाले। चार धर्म उसके प्रधान जो निज को निज में सम्भाले॥
  7. *फीचर फिल्म ★ विद्योदय ★* का शानदार प्रदर्शन ■ *आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के* 51 वे मुनिदीक्षा दिवस के उपलक्ष्य में उनके *जीवन-व्यक्तित्व* पर आधारित *फीचर फिल्म* *विद्योदय* का प्रदर्शन *गुना शहर* में दिनांक *३० जून शनिवार को रात्रि 8 बजे* से ■ *मानस भवन, शास्त्री पार्क, गुना* ■ नोट: समय का विशेष ध्यान रखें। ? *अनिल जैन बड़कुल, ए बी जैन न्यूज़*
  8. View this quiz संयम स्वर्ण महोत्सव प्रश्नोत्तरी दिनांक 26 जून 2018 भाग ले प्रतियोगिता में और दावेदार बने आकर्षक उपहार के | प्रतियोगिता कल सुबह 7 बजे तक खुली रहेगी Submitter संयम स्वर्ण महोत्सव Type Graded Mode Time 5 minutes Total Questions 5 Category संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता Submitted 06/21/2018
  9. Ⓜ चलो चलो "विद्योदय" देखने चले Ⓜ ना कोई कारण ना कोई बहाना विद्योदय देखने जरूर जरूर आना संत शिरोमणि आचार्यश्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज के संयम स्वर्ण महोत्सव के अवसर पर, उनकी "संयम यात्रा" पर आधारित एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म "विद्योदय" बनाई गयी है यह फ़िल्म 1 घंटे 48 मिनट लंबी है जिसमे बॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता एवं संगीतकारों ने काम किया है फ़िल्म अभी सेंसर बोर्ड के पास रिव्यु के लिए पेंडिंग है, 30 जून 2018 को आचार्य श्री की दीक्षा के 50 साल (दीक्षा दिवस : 30 जून 1968) पूरे होने के उपलक्ष्य में सम्पूर्ण भारत में 50 स्थानो पर यह फिल्म offline रिलीज की जा रही हैं सागर शहर को भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ हे । यह फ़िल्म 30 जून 2018 को भाग्योदय स्थित नवीन धर्मशाला शाम 7-30 बजे से 9.30 बजे तक दिखाई जाएगी आप सभी इस फ़िल्म को जरूर देखें और इस मैसेज को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुचाये। हम आचार्य श्री के प्रति अपनी भक्ति प्रकट कर सकते है। निवेदक:- सकल दिगम्बर जैन समाज सागर एमडी न्यूज सागर मुकेश जैन ढाना
  10. २३ जून २०१८, कैलिफ़ोर्निया, अमेरिका. लगभग ४५० लोगों ने कार्यक्रम में आकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराईऔर सभी का उत्साह देखते बना आचार्यश्री के जीवन पर आधारित वृत्तचित्र(डॉक्यूमेंटरी फिल्म) ने सबका मन मोह लिया! बच्चों का नाटक "विद्याधार से विद्यासागर" हिंदी भाषा में किया गया, उन बच्चों द्वारा जो सिर्फ अंग्रेजी ही जानते हैं और हिंदी पढ़ भी नहीं पाते! आचार्य श्री के चित्र और विभिन्न प्रकल्प की झांकी लगायी गई | महिलाओं का नृत्य और गरबा भी हुआ शुद्ध भोजन, चाय और शाम के भोजन की पूरी व्यवस्था स्वयंसेवकों ने ही की, बाजार से कुछ भी नहीं मंगाया गया| कार्यक्रम विवरण पूजन और अभिषक - ८ से १० बजे तक नाश्ता - १० से १०:३० भोजन - १२ से १:३० सांस्कृतिक कार्यक्रम - १:३० से ५:३० रास गरबा - ५:३० से ६:३० सूर्यास्त के पहले शाम का भोजन - ६:३०- से ७:३० कार्यक्रम झलकियाँ
  11. पुरस्कार ? From @Ghar ghar dharmik likhawat हथकरघा की चादर(1) हथकरघा का योगा मैट(1) हथकरघा का हैण्ङ बैग(3) @Dr. Aayushi Jain @Shravak Jain@ajain9103@gmail.com @PRAYAG JAIN @Jyoti Kolhapure आप सभी अपना पता मेसेज करें, मोबाइल नंबर प्रोफाइल में अपडेट करें
  12. नहीं शत्रु से भर जरा भी नहीं मित्र भी स्नेह मही। जीना मरना एक सरीखा यतिपन में समदाम सही ॥१८८॥ अपनी निन्दा में न मलिनता और न खुशी बड़ाई में। ऐसी क्षमता भेद न कुछ भी सेवक में या सांई में॥
  13. इस दुनियाँ में जड़ चेतन चीजों का जो कुछ डेरा है। मैं हूँ ज्ञाता दृष्टा केवल और न कुछ भी मेरा है ॥१८९॥ यह शरीर भी भिन्न चीज है जिसमें लिया बसेरा है। सदा अरूपी चेतन मैं यह रूपादिक का डेरा है।। और सभी तो भिन्न धरा धन-धाम पुत्र सोदार दारा। आदिक दीख रहे हैं देखो इनमें क्या मेरा न्यारा ॥१९०॥
  14. रहे अकिञ्चनपन को यों अपना कर यह चेतन प्यारा। दूर हटे इसके दिल पर से दुःखद राग रोष सारा॥ यों अपने में आप आपको पाकर आत्मा राम बने। पराधीनता रूप दीनता को पलभर में क्यों न हने ॥१९१॥
  15. इसके लिए प्रथम तो जिनवर-वाणी गंगा में गोता। इस भोले शरीरधारी को बार-बार लेना होता॥ ऐसा करने से इसका मानस हो जाता है गीला। चिरकालीन कर्म-बंधन भी जिससे हो रहता ढीला ॥१९२॥ दूर हटाई जा सकती आसानी से अघमाया है। फिर तो इसको विज्ञवरों ने यों स्वाध्याय बताया है॥ स्वाध्याय प्रसाद से यदि जो मन में अडोलता आई। वहीं ज्ञानभूषणताकर सद्ध्यान कहा जाता भाई ॥१९३॥ ॥ इति शुभम्॥
  16. ?सभावित पावन बर्षायोग 2018 ? अध्यात्म सरोवर के राजहंस ,बुंदेलखंड के छोटे बाबा परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य भगवन श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य ,श्रावक संस्कार प्रणेता आर्यिका माँ १०५ पूर्णमति माताजी ससंघ का मंगल विहार आज सूर्य की पहेली किरण के साथ खनियाधान से अभूतपूर्ण धर्म प्रभावना के बाद विहार हुआ ? गुरुदेव के न की गुरुदेव जाने? ? - आज की आहारचर्या - ओडी के स्कूल (8 km) ? दिशा - झाँसी ,उत्तरप्रदेश
  17. आचार्य विद्यासागर जी महाराज को मेरा शत शत नमन | आप इसमें तस्वीर न डाले - सिर्फ अपने भाव व्यक्त करें - नमोस्तु लिखे , कविता लिखे
  18. View this quiz संयम स्वर्ण महोत्सव प्रश्नोत्तरी दिनांक 25 जून 2018 भाग ले प्रतियोगिता में और दावेदार बने आकर्षक उपहार के | प्रतियोगिता कल सुबह 7 बजे तक खुली रहेगी Submitter संयम स्वर्ण महोत्सव Type Graded Mode Time 5 minutes Total Questions 5 Category संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता Submitted 06/21/2018
  19. आज हुआ आचार्य श्री के मंच पर भारत बने भारत अभियान के अंग वस्त्रों का विमोचन।
×
×
  • Create New...