बात उस दिन की है
जब सदलगा में आये
अनंतकीर्ति व सुबलसागर जी मुनिवर
स्वाध्याय होता था सुबह-शाम
सुबह संघ का ही होता स्वाध्याय,
पहुँच गये बड़े सवेरे
बैठते ही उठा दिया।
यह कहते हुए कि
संघ के सदस्य नहीं तुम!
इसीलिए बैठ नहीं सकते तुम!
निराश हो चले गये
पर बात कर गई थी घर।
अगले दिन विनम्र हो पूछा
मुझे स्वाध्याय में बैठने क्यों नहीं देते?
बोले मुनि सरलता से
सामान्य श्रावक को इसमें
बैठने नहीं देते।
जो मोक्षमार्गी हैं या भविष्य में
चलना है जिन्हें मुक्ति पथ पर
वे ही इसे सुन सकते।
भोले किंतु सच्चे मन से
बोल गये पीलू
मुझे भी आगे मुनि बनना है,
सुनकर अति प्रसन्न हुए मुनिवर
सिर पर हाथ रखते हुए बोले
अब आ सकते हो तुम कल से
स्वाध्याय के समय पर
सच ही कहा है
‘गुरवो विरलाः सन्ति भव्य संतापहारकाः’