सरिता ज्यों सरपट भागती है।
सागर से मिलने
विद्याधर के कदम भी हो चले हैं उतावले
अब महात्मा से मिलने...।
षट् आवश्यकों में निरत दंपत्ति
नित्य करते प्रभु-पूजन
आस-पास गुरू-आगमन सुन
जाते थे करने दर्शन,
नगर में आते ही
आहारादि दे करते
गुरु-उपासना
हर शाम जिनालय में करते
जिनवाणी की वाचना।
श्रावकोचित नियमों का पालन कर
जीवन था नियमित संयमित
व्यसनों से बहुत दूर
सात्विकता से था भरपूर
शक्ति अनुसार करके तप
दान कार्य में पीछे न रहते
यूँ
श्रावक के षट् आवश्यक आचरते
तो भला...
संतान पर संस्कार क्यों न पड़ते!
आ रही है इस प्रसंग पर
ज्ञानधारा को स्मृति
चले गये थे मल्लप्पाजी
बिना बताये ही बैंगलोर
दीक्षा की भावना ले,
तभी उनके पिता पारसप्पा
पुत्र को समझाकर
ले आये वापस घर,
कुछ ही दिनों में करा दिया पाणिग्रहण
तभी आचार्य शांतिसागरजी के निकट
एक पत्नी व्रत कर लिया ग्रहण,
यही पूर्व के संस्कार
दे रहे भावी संकेत
होने वाले हैं जो
मल्लप्पा से ‘मल्लिसागर’