अज्ञात किंतु ज्ञान सिंधु की तरफ
ले जाने वाली यात्रा को चल पड़े हैं
रास्ते में सोच रहे विद्याधर
रूपये मारुति ने एक सौ आठ दिये हैं,
मुझे संकेत कर रहे हैं
एक यानि आत्मा
शून्य अर्थात् वर्तुल रूप संसार में
भटक रहा है अष्ट कर्मों के कारण
अब मुझे पाकर एक सौ आठ गुण
भव भ्रमण मिटाना है
साधु पद को पाना है।
तभी आ गई अचानक
मुनिश्री के प्रवचन की बात स्मरण में
कि तुम यदि हो गये अधिक सुखी
तो आस पड़ोसी बनेंगे शत्रु तुम्हारे
पर तुम यदि हो गये अधिक धर्मी
तो परिवारजन ही
बनेंगे शत्रु तुम्हारे
रोकेंगे तुम्हें पथ से,
किंतु चिंता करना नहीं
कितनी ही हों विपरीतताएँ
आत्मचिंतन तजना नहीं!
सदलगा के परिन्दे भी
नहीं आ पाते जहाँ
इतनी दू......र आ चुके हैं
अकेले-अकेले शांत चित्त हो
भविष्य के सुनहरे सपने बुन रहे हैं,
विचारों की धारा निरंतर प्रवाहित है...
सोच रहे हैं कि
माना पिंजरे में पंछी को कोई खतरा नहीं है
और नभ में खतरों की कोई कमी नहीं है,
फिर भी आदर्श पखेरू
सुरक्षित जीवन जीने के बजाय
संकटों से भरे नभ में उड़कर जीना
ज्यादा पसंद करते हैं क्यों??
महापुरुष सुख-सुविधाओं को छोड
वन में एकाकी जीवन पसंद करते हैं क्यों??
मुझे दिखाया है जिन गुरुओं ने सत्पथ
उन्हें हृदय से करता हूँ वंदन
आभार क्या प्रदर्शित करूँ उनका
अणुमात्र भी परद्रव्य का
भार नहीं जिनके पास
अतः
भावपूर्वक यहीं से करता हूँ अभिनंदन।