ज्ञात हुआ ज्ञानधारा को
कि
सभी भाई-बहनों का नाम
किसी घटना विशेष या
पौराणिक पुरुषों के नाम पर ही रखा गया
जैसे
प्रभु महावीर की स्मृति में ‘महावीर’
‘भट्टारक विद्यासागर की स्मृति में ‘विद्याधर’
शांत भाव से पलने में खेलती रहती सो ‘शांता’
जन्म लेते ही स्वर्ण खरीदा सो ‘सुवर्णा’
अनंत चतुर्दशी के पूर्व जन्मे अनंतनाथ
बचपन से ही शांत और सुकुमार
झूले से गिरने पर भी हँसता रहता वह लाल
इसीलिए
नाम रखा था ‘शांतिनाथ’।
चाहे
बड़ा भाई महावीर हो या
छोटी बहन शांता, सुवर्णा हो
अनंतनाथ हो या शांतिनाथ हो
व्यवहार ही ऐसा करते विद्याधर
कि
हो गये सबके चहेते।
आत्मशक्ति और जड़ पूँजी का
नहीं करते अपव्यय,
एक साथ पढ़ते दो-तीन विद्यार्थी
बीच में रख लेते एक 'दीया'
लौ के उद्विग्न होने पर
लगा देते शीतल नारियल का तेल
उद्विग्न लौ शांत होती यूँ...
ऐसे थे मितव्ययी!
विद्यालय से अवकाश मिलते ही
मुनि अनंतकीर्तिजी के संघ में
पीछे बैठकर पाठ मिलाते
साथ-साथ उच्चारण करते,
तत्त्वार्थसूत्र, सहस्रनाम कर लिया स्मरण
साईकिल से घूमने में भी
पीछे न रहते
गिल्ली डंडा, आँख मिचौनी खेलते
तो कभी पेड़ पर चढ़ते
टीन की ढाल से सरपट सरकते,
कैरम और शतरंज के तो माने जाते बादशाह
चित्रकला की रुचि का कहना ही क्या!
देखते ही देखते चित्र बना लेते।
आज तो हठ कर बैठे
कलर पेन्सिल ही चाहिए,
बोले मल्लप्पाजी
पहले कोई बनाकर दिखा दो चित्र?
कागज पर चंद पलों में
शिवाजी का उतार दिया चित्र
मल्लप्पाजी चुपचाप चल दिये बाजार
लाकर थमा दी हाथ में पेन्सिल
खुशी से उछले तो…
गिर गये नीचे,
तीक्ष्ण लोहे का टुकड़ा
घुस गया भाले की भाँति पैर में,
निकालते ही बह गई खून की धारा
देख वेदना स्वयं रो पड़ी श्रीमंति
लिटाया, दे निज हाथ का सहारा
रात भर थपथपाती रही
कभी देखती पैर की ओर तो कभी चेहरा
पैर ठीक होते ही…
एक दिन सुन
शहनाई की धुन
देखा पड़ोस में हो रहा विवाह
गौर से सुना
पण्डितजी दिला रहे थे सात वचन
विचारने लगे...
एक दूजे से जोड़ने नाता
वचन देना पड़ता है,
मन से कौन इसे निभाता
संसार का झूठा नाता है !
अचानक क्या सूझा
पहुँचे मंदिर प्रभु के पास
हाथ जोड़ कहने लगे
मैं आपसे ही नाता जोड़ना चाहता हूँ
इसके लिए सात वर माँगना चाहता हूँ
निजात्मा को जान
अजीव से कर भेद ज्ञान
आस्रव को दूर कर
बंध से संबंध तोड़कर
कर सकूँ कर्मों का संवर
बद्ध कर्मों को धीरे-धीरे निकाल कर
सत्ता से कर सकूँ
कर्मों का क्षय।
यों
भावों की भाषा में कहते गये...
श्रद्धा की आँखों से तकते रहे...
प्रभो! माँ ने समझाया है कि
पर के ग्रहण से पामरता
परम की शरण से पावनता
और
स्वयं के वरण से आती है अमरता
इसीलिए
आया हूँ आज आपकी शरण
पूरे हों ये सात वचन।
ज्यों ही दर्शन कर मुड़े
देखी मित्रों की टोली
पकड़ हाथ यूं बोली
चलो सर्कस आया है,
आयेगा बड़ा मज़ा...
तुम्हारा मन किसमें खोया है?
अनुत्तर ही
चल दिये साथियों के साथ
सर्कस में...
तार पर चलना बहुत पसंद आया
मन विचारों से भर आया
इस पर दौड़ा भी तो जा सकता है,
गर हो सावधानी
संतुलित हो मन
करे नहीं मनमानी
तो तार के बिना भी चला जा सकता है
ज्यों चलते हैं ऋद्धिधर,
यों सोचते-सोचते विद्याधर
आ गये घर।