जीवन-यात्रा सानंद हो
शुभारंभ निर्विघ्न हो
इसके लिए मार्गदर्शन हेतु
सदलगा में विराजित
अनंतकीर्ति मुनिराज
जो थे आचार्य शांतिसागरजी के
महातपस्वी शिष्य कृपापात्र
एकांत में जा चरण-वंदना कर पूछने लगे
में करना चाहता हूँ आत्मकल्याण…
नश्वर इन्द्रिय सुख के प्रति
नहीं है मेरा आकर्षण
गुरू चरणों में करना चाहता हूँ
सर्वस्व समर्पण,
कृपा कर मेरा मार्गदर्शन कीजिए
गंतव्य की राह दिखा दीजिए।
सुनते ही श्रमण ने
शीश पर रख हाथ
हर्ष भाव से दे आशीर्वाद
कहा- वत्स!
उत्तम है विचार,
किंतु मार्ग है यह मानो तलवार की धार
ज्यों ही
बीज को पानी, प्रकाश, खाद
और मिले माली
तो वह तरुवर बन जाता है
त्यों ही
कल्याणेच्छु को मिले कल्याणकारक गुरु
तो वह स्वयं मुनिवर बन जाता है।
तुम्हारी इच्छा हो पूर्ण
सर्व विघ्न हों चूर्ण
यही आशीष देता हूँ…
किंतु एक बात ध्यान रखना
बिना लहरों का समंदर
देखने को मिल सकता है,
बिना शूलों का फूल दे
खने को मिल सकता है,
बिना पुरुषार्थ पुण्य से
पैसा भी मिल सकता है,
किंतु बिना संघर्ष के
उन्नत जीवन देखने को नहीं मिलेगा
इसीलिए साहस को खोना नहीं
मंज़िल मिलने के पहले सोना नहीं।
इन क्षणों में लगा इन्हें कि
“जैसे मरीज को समय पर न मिले वैद्य
तो वह बच नहीं पाता है,
साधक को समय पर न मिले मार्गदर्शक
तो वह भटक ही जाता है।''
उपकृत हूँ आपसे दिशाबोध पाकर
यह कहकर चरणों में सर झुकाकर
बिना पीठ दिखाये द्वार से बाहर आकर
एक बार और निहारा कहा मन ही मन
‘गुरुस्तु दीपवत् मार्गदर्शकः’
“भूयात् पुनर्दर्शनम्”
और चल पड़े घर की ओर...
किसी को ज्ञात नहीं है
एक दिन का मेहमान है विद्या
रात भी अंतिम है आज इस घर में
तोता उड़कर जाने वाला है
गुरू-शरण में,
फिर तो जीवन की
नूतन संयम यात्रा का
मंगलमय सुप्रभात होने वाला है
तरस जायेंगे पाने विद्या को
इस घर के देहरी-आँगन
और करने को परस
सदलगा की धरती का कण-कण...
निज गृह को पाने की चाहत में
रात भर बदलते रहे करवटें
गेह के प्रति नेह न रहा
देह से परे विदेह पद के लिए
आत्मा व्याकुल हो गया।
भावों से क्षमा माँगकर
पूरे परिवार को त्याग कर
गंतव्य की ओर मुख किये
कहे बिना ही चल दिये
जाना है बहुत दूर
जहाँ नगरी है जयपुर…
कि इधर
एक घड़ी आ गई संकट की
पास नहीं है एक रूपया भी
तभी भाँप गये मारुति मन की बात को
विद्याधर के मनो रहस्य को,
प्यार से कंधे पर रख हाथ
बोले अपनेपन से
कैसे भुला सकता हूँ मैं तुम्हारा साथ।
जब पहली बार नहीं थी कुछ पहचान
फिर भी परीक्षा के समय
खत्म होने पर स्याही
जानकर चेहरे से परेशानी
पूछा था तुमने
क्यों बैठे हो?
कहा था मैंने
रूआँसे स्वर में
स्याही नहीं है पेन में
उठाकर अपना पेन
दिया था तुमने लिखने को।
मेरी निर्धनता का नहीं बनाया उपहास
बल्कि मित्र बनाकर थामा था मेरा हाथ,
परीक्षा कक्ष से निकलकर
दिये थे दो पेन
ले गये थे अपने घर
कराया प्यार से भोजन
तभी से मुझे लगने लगा था
कृष्ण और सुदामा का प्रेम
ऐसा ही होता होगा।
मित्र!
जीवन में दो इंसान भूले नहीं जाते
जब कोई पराया परेशानी में साथ दे
या अपना जब परेशानी में साथ छोड़ दे
विद्या! तुम्हारे पास रूपयों की नहीं कमी
पर तुम पिता से माँग नहीं सकते अभी
माँगते ही उन्हें होगा संदेह
इससे तुम्हारे मंगल कार्य में
विघ्न आयेगा निःसंदेह
अतः
मेरे पास कुल रुपये हैं एक सौ आठ
इन्हें रख लो अपने पास
इस जड़ धन का
इससे श्रेष्ठ क्या होगा सदुपयोग!!
गले मिलकर
अवरूद्ध कंठ से बोले मारुति
तुम्हारे पास पैसा नहीं परमात्मा है।
वस्तुएँ नहीं पर विवेक है।
संपदा नहीं पर संतोष है
सत्ता नहीं पर सदगुण हैं
पद नहीं पर आनंद है
इसीलिए
अध्यात्म जगत के बेताज बादशाह हो तुम,
जाओ मित्र!
गंतव्य तुम्हें पुकार रहा है
तुम्हारे पीछे तुम्हारा मित्र भी आ रहा है...
कहकर बिठा दिया
स्तवनिधि के लिए बस में
एक दूसरे को देखते-देखते हुए विलग
कोई देख न ले इस शंका से
पोंछी मारूति ने अपनी आर्द्र आँखें
और कुछ पल अतीत में खो गए…
यदि मित्रता का बंधन
हुआ है भावनाओं से
तो छूटना मुश्किल है
यदि हुआ है स्वार्थ से
तो टिकना मुश्किल है
मैं हूँ तुम्हारा सच्चा मीत
निस्वार्थ है हमारी प्रीत।