यूँ सफर में बीत गये दो दिन
विद्याधर है यहीं कहीं आस-पास
यह आभास माँ को करता बेचैन
भोजन करते समय
बार-बार भीग जाते नैन
दुखी सारा परिवार,
पूछते नगरवासी जब
दिख नहीं रहा कहाँ गया विद्याधर?
स्वयं को पता नहीं था क्या कहते मल्लप्पा...
गीले नयन से
कंधे कंठ से
बोझिल मन से
इतना ही कह पाते- करने गये हैं दर्शन,
समझाना आसान औरों को
लेकिन कैसे समझायें स्वयं को?
दिन पर दिन निकलते जा रहे
पल-पल सागर सम प्रतीत होने लगे
विकल्पों के काले घने बादल छा गये...
रह-रहकर शंकाकुल हो मन रोने लगा
भूख खो गई
नींद स्वयं सो गई,
माँ को न सोये चैन है
न बैठने में चैन है
एक मौन रूदन का झरना
आँखों से रह-रहकर झर रहा है
कोई देख न सके ऐसा
विरह का वृण दर्द दे रहा है।
कभी देखती माँ विद्या के वस्त्रों को
कभी उसके बैठने,
तो कभी शयन के स्थान को
सहस्रनाम, तत्त्वार्थसूत्र पढ़ाते
अपने भाई-बहनों को
जगह वह खाली दिख रही है
श्वासें रूक गई हैं
आँखें थक गई हैं,
मानो देह पड़ी निष्प्राण
दूर तक दिखता वीरान…
मल्लप्पाजी जितना कठोर बनते
आज हृदय उतना ही पिघलता जा रहा था
बैठे अकेले कक्ष में बंद कर द्वार
रोना ही रोना आ रहा था,
कहाँ चले गये मेरे लाल!
एक बार भी सोचा नहीं,
क्या होगा हमारा हाल?
जाते-जाते कुछ कह तो जाते
मुझे नहीं तो अपनी प्यारी माँ को बता जाते,
हर बार की भाँति एक बार आ जाओ
मेरे प्राण! मुझमें आ समाओ!!
लिपटकर माँ से पूछ रही 'शांता'
कब आयेंगे घर भ्राता?
रो-रोकर आँखें फूल गई हैं
माँ की पीड़ा को देख आहत ‘सुवर्णा'
लगता है बोलना ही भूल गई है,
छा गया गहन सन्नाटा
‘शांति' रहने लगे हैं शांत
मेरे भैया को भेज दो भगवान।
मंदिर में जा प्रार्थना कर रहे ‘अनंत’
भैया तुम मत बन जाना संत।
‘श्रीमंति' के विचार थम नहीं रहे
चलचित्र की भाँति…
अचानक स्मृति पटल पर आ गई चादर
जो मेले से ले आये थे वह
लिखा था उस पर “सुखी जीवन”
मुझे हाथ में लाकर दी थी
कहीं संकेत तो नहीं था वह कि
इस निशानी को देखकर कर लेना स्मृति
सुखी जीवन की खोज में जा रहा हूँ बनने यति।
इस तरह
विद्या का खेलना-मचलना
पल्लू पकड़ना
ज्ञान की बातें कर सबको प्रसन्न रखना
सर्वगुण-संपन्न
हे मेरे जीवंत धन!
तुम बिन सूना है जीवन
एक बार कहो मैं आ गया हूँ माँ!
सुनने को यह व्याकुल हैं कर्ण।
इतने में रोती-रोती आई ‘सुवर्णा'
माँ!
भैया कब आयेगा?
अब हमें तत्त्वार्थसूत्र कौन पढ़ायेगा?
थकान के कारण एक रात
मैं सो गई थी जब जल्दी
तत्त्वार्थसूत्र का पाठ नहीं कर पाई थी
मुझे सोते से जगाकर उठाया था
सूत्रजी का पाठ पढ़वाया था,
फिर बोले स्नेह से
अब सो सकती हो तुम!
संकल्प के पक्के
मन के सच्चे
कहाँ चले गये भैया!
मैं अब उनसे नहीं लडूंगी माँ!
घर हो गया सूना-सूना
एक बार बुला लो माँ!
भक्तामर के हर श्लोक के स्मरण में
मिलता था पिताजी से
हम सबको एक आना,
किंतु वे नहीं लेते आना
कहते थे लूँगा हरा पत्ता
पाँच का नोट लेकर रहते थे,
जाकर मेले में उन पैसों से
तस्वीर व ग्रंथ ले आते थे।
या करते गरीबों की सेवा!!
मित्र मारुति को ले आते
आये दिन घर पर
विशेष त्यौहार के अवसर पर
एक ही थाली में करते भोजन
डाँटने पर माँ के
लिपटकर कहते- ओ माँ!
अजैन है तो क्या
इंसान तो है ना, माँ!
यह धन से गरीब है।
लेकिन मन से गरीब नहीं है माँ!
मैं सुखी तो कर नहीं सकता इसे
पर दुखी क्यों करूँ
भैया यह कहता था ना, माँ?
आगे बात बढ़ाते हुए
कहने लगी सुवर्णा
माँ! याद है ना आपको वह बात...
सुनार के गरीब लड़के के साथ
मित्रता थी भैया की
तब घर से अचानक
लडडू पेड़ा नमकीन आदि नाश्ता
हो जाता गायब
कौन आता है भूत
जो खा जाता है सब कुछ...
सोचते ही रहते पर समझ नहीं पाये
बाद में खुला वह राज़
घर में ही था दानवीर कर्णराज
जो ले जाकर दे आता उन्हें
भोला-सा चेहरा ले
अनजान बनता था सबसे,
दया करूणा का भाव
बचपन से ही था स्वभाव
ऐसा भैया किसी का नहीं होगा माँ!
जो प्यासों के लिए रेवा
भूखों के लिए अन्नपूर्णा था माँ!
मुझे उनकी याद सता रही है माँ!
कहते-कहते सुबक-सुबक कर रो पड़ी,
अभी तक शांता थी शांत
देख सुवर्णा को रोक न पायी आँसू
बोली सिसकते हुए
हमसे क्या भूल हो गई माँ!
जो बताये बिना ही चले गये भैया
हारमोनियम का शौक था उन्हें
बजाते थे हर शाम...
प्रकृति भी शांत होकर
खो जाना चाहती थी तब उनमें;
क्योंकि होता था दर्शन ईश्वर का
उनके प्रत्येक उभरते स्वर में...
लोगों की भीड़ हो जाती जमा
मिश्री-सी मीठी आवाज़ सुन करके।
कभी रोका नहीं मैंने उन्हें
कभी टोका नहीं उन्हें
फिर क्यों नाराज़ हो गये?
शांतिनाथ तो रहते सदा शांत
वाद्य की आवाज़ सुन
जुलूस देखने दौड़ते सब,
किंतु वे पढ़ा करते
अपने ही काम में लगे रहते
ज्यादातर मौन रहते,
अनंतनाथ निभाते व्यवहार
स्वभाव इनका मिलनसार
सबके यहाँ आना-जाना
साथ ही निर्देशन भी देना,
किंतु
विद्या भैया का हर कार्य होता था सहज
नहीं करना पड़ता था विशेष परिश्रम।
बड़े से बड़े सेठ साहुकार थे मित्र उनके
तो छोटे से छोटे गरीब भी थे मीत उनके
घर में डरते नहीं किसी से
तनिक डरते भी तो पिताजी से,
घुड़सवारी करने लगे थे
पिताजी देखकर ठगे से रह जाते थे...
सांगली में नेहरूजी का
भाषण सुनने पहुँच गये थे
सब जानते हुए भी
कोई इनसे कुछ कह नहीं पाये थे।
आखिर क्या हो गई हमसे गलती
जो बिना बताये चल दिये
छोड़कर अपनी मीठी यादें
क्यों हमें रोता छोड़ गये?
कहते-कहते
सिसक-सिसक कर रोती-रोती
शांता की आँखें न जाने कब मुंद गईं,
श्रीमति अनसोयी रात में
गिनी, तोता, पीलू और प्यारे विद्या की
बचपन से अब तक की यादों में खो गई...
रात के घने अंधेरे में
दूर तक देख आती बाहर
होता बार-बार आहट का आभास
सुनाई देती दस्तक-सी आवाज़
द्वार खोलकर
विद्या को न पाकर
भारी मन से इधर-उधर देखकर
आ जाती वापस लौटकर
पल-पल करती रहती इंतजार…
माँ का सबसे प्यारा
हृदय का दुलारा
नयनों का तारा
न जाने कहाँ खो गया?
इन दिनों आँखों को
रोने के सिवा कुछ न रह गया
शब्द गुम हो गये
पीड़ा गहरा गयी
अधर मौन हो गये
आँखें पथरा गयीं।
सहमे-सहमे से मल्लप्पा
खेत की ओर चल दिये
हर श्वास में सौ-सौ बार
करते विद्या की पुकार...
चलते-चलते आज
पिता के कदम रुक गये।
बेटे को छूने बाँहें मचलने लगीं
यादें उभर-उभर कर कहने लगीं
जितने तुम हो सहज सरल
उतने ही विचारों में
साहसी दृढ़ अविकल,
झुकते हो मेरे सामने पर रूकते नहीं
करना सो करते हो पर किसी से कहते नहीं,
मैंने ऊपर से कभी प्यार जताया नहीं,
पर जाते-जाते तुमने भी
यह सोचा नहीं...
कैसे तुम बिन जियेंगे हम??
जैसे कहानी में राजा के प्राण
रहा करते थे तोते में।
हमारे प्राण भी
बेटा तोता! बसते हैं तुममें
बस यूँ ही परोक्ष संवाद में
दिन गुजर रहे थे विद्या की याद में,
खेत में जा पानी सींचते
बनाते क्यारियाँ
पल भर रुककर
नीले नभ में झाँककर सु... दूर...
रो पड़ती अँखियाँ...
खोज-खोज में बीता दिन
रात देर स्वाध्याय करके।
मंदिर से आ
पूछते सबसे पहले
मिली कोई खबर?
कोई सूचना न पाकर
बेबस होते गीले नयन।
काल का कारवाँ अपनी गति से
आगे बढ़ता जा रहा था
एक पल थमने का
नाम नहीं ले रहा था,
सदलगा की सीमा से परे
असीम सुख-पथ का पथिक
अविरल चलता जा रहा था,
सदलगा से स्तवनिधि बस में
फिर अजमेर तक रेल में
दो उपवास कर
भोजन नहीं भजन का सहारा लेकर
चले जा रहे हैं...
पहली बार अकेले कर रहे रेल यात्रा
हिन्दी न आने से आ रही बड़ी समस्या
बमुश्किल पहुँचे अजमेर,
रात के दस बज चुके थे।
धर्मशाला में मिले दो ब्रह्मचारी
कहने लगे
सो जाओ
पर गर्मी बहुत लग रही थी...
सवेरे स्नान पूजन से निवृत्त हो
सौंफ डाल जल पीकर
भोजन सामायिक संपन्न कर सो गये,
दिन ढल चुका था
सच कहें तो
जीवन का सुनहरा प्रभात हो चुका था।