हताश हो खाली हाथ
लौट आये सदलगा...
देख महावीर को अकेला
निश्चय हो गया...
अब तोता उड़ गया
सारे गाँव में पता चल गया…
अनेकों विचार मल्लप्पाजी के
मन को कर देते विचलित
काश! कर देते विवाह
तो यहीं रह जाते घर में निश्चित,
किंतु उनकी इच्छा बिन
कैसे था यह संभव
विचार सरिता में डूबते-तैरते
सोचते कि
व्यापार में लगा देता
तो मन रम जाता
फिर विचारते कि
मन ही यहाँ नहीं
तो कैसे रम पाता?
नौ वर्ष की उम्र में ही
अकलंक-निकलंक की करते थे चर्चा
गुफाओं में बैठकर करते थे आत्म-अर्चा
गहरी वापी में बैठे रहते ध्यान लगाकर
समकित रस पीते थे अदभुत सुधाकर,
पूछता कोई दूर कितना है घर से मंदिर?
तो अन्य जन कह देते फर्लांग भर
पर इनका उत्तर था भिन्न
कहते वह...
पढ़ो सत्ताईस बार मंत्र णमोकार
आ जाता मंदिर का द्वार…
स्वाध्याय की रुचि
हर कार्य में लगन और विवेक बुद्धि
पिछले सुकृत् के फल से पायी इन्होंने
पथ को कौन बदल सकता इनके?
अब तो सिर्फ रह गई स्मृति उनकी
जब से गये, रौनक चली गई घर की...
उधर विद्याधर की रूचि
संयम में गहराने लगी
तप-त्याग की भावना
अंतस में अंकुराने लगी
अपने परिणामों को व्यवस्थित रखते हुए
संघ की व्यवस्था देखना
उत्साहपूर्वक धर्म की क्रिया करना
तनिक भी प्रमाद नहीं करना।
‘‘सादा जीवन उच्च विचार” की उक्ति
मानो विद्याधर के जीवन को देखकर ही
विद्वानों ने गढ़ी,
लक्ष्य उन्नत है भाग्य समुन्नत है
तभी
विद्वानों ने यह बात कही
“उन्नतं मानसं यस्य भाग्यं तस्य समुन्नतं”
एक दिन सवेरे
मंदिर में छोटी-सी पुस्तक देख
लगे पढ़ने मनोयोग से...
जैन सिद्धांत प्रवेशिका'
स्व-प्रेरणा से करते याद
अक्षर-अक्षर कर लिया स्मरण उसका
पण्डिताई करने के लिए नहीं
पर लक्ष्य ही रहता उसमें,
आत्माध्ययन की दृष्टि से
स्व-लक्ष्य रहता इसमें
प्रत्येक दृश्य में देखे जो दृष्टा को
होता है सिद्धत्व का सम्यक् सृष्टा वो!!