Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    894

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. मानव जीवन इस भूतल पर उत्तम सब सुखदाता है। जिसको अपनाने से नर से नारायण हो पाता है। गिरि में रत्न तक्र में मक्खन ताराओं में चन्द्र रहे। वैसे ही यह नर जीवन भी जन्म जात में दुर्लभ है ॥१॥ फिर भी इस शरीरधारी ने भूरि-भूरि नर तन पाया। इसी तरह से महावीर के शासन में है बतलाया॥ किन्तु नहीं इसके जीवन में कुछ भी मानवता आई। प्रत्युत वत्सलता के पहले खुदगर्जी दिल को भाई ॥२॥ हमको लडडू हों पर को फिर चाहे रोटी भी न मिले। पड़ौसी का घर जलकर भी मेरा तिनका भी न हिले॥ हम सोवें पलंग पर वह फिर पराल पर भी क्यों सोवे। हमको साल दुसाले हों, उसको चिथड़ा भी क्यों होवे ॥३॥ मेरी मरहम पट्टी में उसकी चमड़ी भी आ जावे। रहूँ सुखी मैं फिर चाहे वह कितना क्यों न दुःख पावे॥ औरों का हो नाश हमारे पास यथेष्ट पसारा से। अमन चैन हो जावे ऐसी ऐसी विचार धारा से ॥४॥ बनना तो था फूल किन्तु यह हुआ शूल जनता भर का। खून चूसने वाला होकर घृणा पात्र यों दर दर का॥ होनी तो थी महक सभी के दिल को खुश करने वाली। हुई नुकीली चाल किन्तु हो पद पद पर चुभने वाली ॥५॥ होना तो था हार हृदय का कोमलता अपना करके। कठोरता से रुला ठोकरों में ठकराया जा करके॥ ऊपर से नर होकर भी दिल से राक्षसता अपनाई। अपनी मूँछ मरोड़ दूसरों पर निष्ठुरता दिखलाई ॥६॥ लोगों ने इसलिए नाम लेने को भी खोटा माना। जिसके दर्शन हो जाने से रोटी में टोटा जाना॥ कौन काम का इस भूतल पर ऐसे जीवन का पाना। जीवन हो तो ऐसा जनता, का मन मोहन हो जाना ॥७॥ मानवता है यही किन्तु है कठिन इसे अपना लेना, जहाँ पसीना बहे अन्य का अपना खून बहा देना॥ आप कष्ट में पड़कर भी साथी के कष्टों को खोवे। कहीं बुराई में फँसते को सत्पथ का दर्शक होवे ॥८॥ पहले उसे खिला करके अपने खाने की बात करे। उचित बात के कहने में फिर नहीं किसी से कभी डरे॥ कहीं किसी के हकूक पर तो कभी नहीं अधिकार करे। अपने हक में से भी थोड़ा औरों का उपकार करे ॥९॥ रावण सा राजा होने को नहीं कभी भी याद करे। रामचन्द्र के जीवन का तन मन से पुनरुद्धार करे॥ जिसके संयोग में सभी के दिल को सुख साता होवे। वियोग में दृगजल से जनता भूरि भूरि निज उर धोवे ॥१०॥ पहले खूब विचार सोचकर किसी बात को अपनावे। तब सुदृढ़ाध्यवसान सहित फिर अपने पथ पर जम जावे॥ घोर परीषह आने पर भी फिर उस पर से नहीं चिगे। कल्पकाल के वायुवेग से,भी क्या कहो सुमेरु डिगे ॥११॥ विपत्ति को सम्पत्ति मूल कह कर उसमें नहि घबरावे। पा सम्पत्ति मग्न हो उसमें अपने को न भूल जावे॥ नहीं दूसरों के दोषों पर दृष्टि जरा भी फैलावे। बन कर हंस समान विवेकी गुण का गाहक कहलावे॥१२॥ कृतज्ञता का भाव हृदय अपने में सदा उकीर धरे। तृण के बदले पय देने वाली गैय्या को याद करे॥ गुरुवों से आशिर्लेकर छोटों को उर से लगा चले। भरसक दीनों के दुःखों को हरने से नहि कभी टले॥ १३॥ नहीं पराया इस जीवन में जीने के उजियारे हैं। सभी एक से एक चमकते हुये गमन के तारे हैं। मृदु प्रेम पीयूष पान बस एक भाव में बहता हो। वह समाज का समाज उसका, यों हो करके रहता हो॥ १४॥
  2. सामाजिक सुधार के बारे में हम आज बताते हैं। जो इसके सच्चे आदी उनकी गुण गाथा गाते हैं। व्यक्ति व्यक्ति मिल करके चलने से ही समाज होता है। नहीं व्यक्तियों से विभिन्न कोई समाज समझौता है॥ १५॥ सह निवास तो पशुओं का भी हो जाता है आपस में। एक दूसरे की सहायता किन्तु नहीं होती उनमें॥ इसीलिए उसको समाज कहने में सभ्य हिचकते हैं। कहना होती समाज नाम, उसका विवेक युत रखते हैं॥१६॥ बूंद बूंद मिलकर ही सागर बन पाता है हे भाई। सूत सूत से मिलकर चादर बनती सबको सुखदाई॥ है समाज के लिए व्यक्ति के सुधार की आवश्यकता। टिका हुआ है व्यक्ति रूप पैरों पर समाज का तख्ता॥ १७॥ यदि व्यक्तियों का मानस उन्नतपन को अपनावेगा। समाज अपने आप वहाँ फिर क्यों न उच्च बन पावेगा। इसीलिए यदि समाज को हम, ठीक रूप देना चाहें। तो व्यक्तित्व आपके से लेनी होगी समुचित राहें ॥१८॥ नहीं दूसरे को सुधारने से सुधार हो पाता है। अपने आप सुधरने से फिर सुधर दूसरा जाता है। खरबूजे को देख सदा खरबूजा रंग बदलता है। अनुकरणीयपने के द्वारा पिता पुत्र में ढलता है ॥१९॥ पानी को जिस रुख का ढलाव मिलता है बह जाता है। जन समूह भी जो देखे वैसा करने लग पाता है।। यदि हम सोच करें समाज का समाज अच्छे पथ चाले। तो हम पहले अपने जीवन में, अच्छी आदत डालें ॥२०॥ मैं हूँ सुखी और की मेरे, को क्या पड़ी यही खोटी। बात किन्तु हों सभी सुखी, यह धिषणा होवे तो मोटी॥ विज्ञ पुरुष निज अन्तरंग में, विश्व प्रेम का रंग भरे। सबके जीवन में मेरा जीवन है ऐसा भाव धरे ॥२१॥ अनायास ही जनहित की बातों पर सदा विचार करे। भय विक्षोभ लोभ कामादिक दुर्भावों से दूर टरे॥ आशीर्वाद बडों से लेकर बच्चों की सम्भाल करे। नहीं किसी से वैर किन्तु सब जीवों में समभाव धरे ॥२२॥ क्योंकि अकेला धागा क्या गुह्याच्छादन का काम करे। तिनका तिनके से मिलकर पथ के काँटों को सहज हरे॥ यह समाज है सदन तुल्य इसमें आने जाने वाले। लोगों के पैरों से उसमें कूड़ा सहज सत्त्व पाले ॥२३॥ जिसको झाड़ पोछकर उसको सुन्दर साफ बना लेना। नहीं आज का काम सदा का उसको दूर हटा देना॥ किन्तु यह हुआ पूर्व काल में संयमी जनों के कर से। जिनका मानस ढका हुआ होता था सुन्दर सम्वर से ॥२४॥ इसीलिए वे समझ सोचकर इस पर कदम बढ़ाते थे। पाप वासनाओं से इसको, पूरी तरह बचाते थे। किन्तु आज वह काम आ गया, हम जैसों के हाथों में। फँसे हुए जो खुद हैं भैया, दुरभिमान की घातों में ॥२५॥ तलाक जैसी बातों का भी, प्रचार करने को दौड़े। आज हमारी समाज के नेताओं के मन के घोड़े॥ तो फिर क्या सुधार की आशा, झाडू देने वाला ही। शूल बिछावे उस पथ पर क्यों, चल पावे सुख से राही ॥२६॥ साथी हो तो साथ निभावे क्यों फिर पथ के बीच तजे। दुःख और सुख में सहाय हो, वीर प्रभु का नाम भजे॥ यही एक सामाजिकता की, कुंजी मानी जाती है। बढ़ा प्रेम आपस में समाज को, जीवित रख पाती है॥२७॥ एक बात है और सुनो, हम चाहे अनुयायी करना। तो उनको पहले बतलावे, ऐहिक कष्टों का हरना॥ प्यासे को यदि कहीं दीख, पावे सहसा जल का झरना। पहले पीवेगा पानी फिर, पीछे सीखेगा तरना ॥२८॥ गाड़ी को हो वाङ्ग वगैरह, ताकि न कहीं अटक जावे। तथा ध्यान यह तो गढे में गिर करके न टूट पावे॥ वैसे ही समाज संचालक, पाप पंक में नहीं फँसे। आवश्यकता भी पूरी हो, ताकि समय बीते सुख से ॥२९॥
  3. सबसे पहली आवश्यकता अन्न और जल की होती। उसके पीछे गृहस्थ लोगों की, टांगों में हो धोती॥ इन दोनों के बिना जगत का, कभी नहीं हो निस्तारा। पेट पालने से ही हो सकता है भजन भाव सारा॥ ३०॥
  4. अन्न वस्त्र यह दो चीजें मानव भर को आवश्यक हैं। बिना अन्न के देखो भाई किसके कैसे प्राण रहें। अन्न और कपड़ा ये दोनों खेती से हो पाते हैं। इसीलिए खेती का वैभव हमें बुजुर्ग बताते हैं॥ ३१॥ कर्मभूमि की आदि कल्पवृक्षों के विनष्ट होने से। करुणा पूर्ण हृदय होकर के आर्यजनों के रोने से॥ सबसे पहले ऋषभदेव ने खेती का उपदेश दिया। जबकि उन्होंने भूखों मरते लोगों को पहचान लिया॥ ३२॥ उनके सदुपदेश पर जिन लोगों ने समुचित लक्ष्य दिया। शाकाहारी रह यथावगत आर्य जनों का पक्ष लिया। हन्त जिन्होंने कृषि महत्त्व को फिर भी नहीं जान पाया। मांसाहारी हो लाचारी से म्लेच्छपना अपनाया॥ ३३॥ ऐसे खेती करना माना गया प्रतीक अहिंसा का। इसकी उन्नति जहाँ वहाँ से हो निर्वासन हिंसा का॥ क्या कपड़ा क्या मकान आदिक खेती मूलक हैं सारे। जहाँ नहीं खेती होती वे जङ्ग मचाते बेचारे॥ ३४॥ अगर अहिंसा माता के सेवक होने का चारा है। तो खेती को उन्नति देना पहला काम हमारा है॥ खेती के करने से हो तो तृण कण के भण्डार भरे। कण की है दरकार हमें तृण जहाँ हमारे बैल चरें॥ ३५॥ यद्यपि आज जगत भर के, दिल में हीरों का आदर है। किन्तु अन्न के कण हीरों से भी बढ़कर यों याद रहे। एक ओर रत्नों की ढेरी दूजी ओर धान की हो। पहले धान बटोरेगा वह जिसमें बुद्धि आपकी हो ॥३६॥ क्योंकि धान को खाकर जीवित रह सकता है तनुधारी। भूखे को है व्यर्थ भेंट में दी हो रत्नों की लारी॥ रत्न खण्ड से अधिक सुरक्षित सदा अन्न का दाना हो। घर में जिससे अतिथि जनों का भी सत्कार सहाना हो ॥३७॥ अहो अन्न की महिमा को हम कहो कहाँ तक बतलावें। जिसके बिना विश्व वैरागी ऋषिवर भी न रहन पावें॥ सुख से अन्न भरोसे ही इस भारत का युग बीता है। किन्तु हमारा भारत प्यारा, आज अन्न से रीता है ॥३८॥ जहाँ अन्न की लगी रहा करती सड़कों पर झंझोटी। इतर देश के निवासियों को, भी जो देता था रोटी॥ आज उसी भारत में परदेशों से अगर अन्न आवे। तो यह भारत देश निवासी यथा पेट रोटी पावे ॥३९॥ यह क्यों हुआ कि हुए अन्न तज हम कंकर लेने वाले। इसीलिए पड़ रहे हमारे लिए रोटियों के लाले॥ जहाँ अन्न की कदर नहीं फिर खेती को क्यों याद करें। यों पर के मारक बनकर फिर सहसा अपने आप मरें॥४०॥
  5. खेती को देना बढ़वारी भू पर स्वर्ग बसाना है। खेती का विरोध करना, राक्षसता का फैलाना है॥ खेती की उन्नति निमित पशुपालन भी आवश्यक है। जो कि हमें दे दूध घास खावे फिर हल की साथ रहे॥४१॥ अहो दूध का नम्बर माना गया अन्न से भी पहला। हर मानव क्या नहीं दूध माँ के से शिशुपन में बहला॥ दूध शाक ही खाद्य मनुज का पशु का भी दिखलाता है। लाचारी में वा कुसङ्ग में, पलभक्षी हो जाता है ॥४२॥ अतः दूध की नदी बहे तृण कण की टाल लगे भारी। फिर से इस भारत पर ऐसी, खेती की हो बढ़वारी॥ उत्पादन रक्षण रूपान्तर, करण यथा विधि खेती के। हमें बताये बड़े जनों ने तीन तरीके हैं नीके ॥४३॥ पहला वैश्य जनों का दूजा, क्षत्रिय लोगों का धंधा। तीजा शूद्रवर्ग का जिसमें, लगता कन्धे से कन्धा॥ एक दूसरे से हिलमिल यों, चलने से ही कार्य बने। जो इसमें विरुद्ध हो जावे, वह जनता के प्राण हने ॥४४॥ कोई कहता हो कि कृषकता, तो हिंसा का साधन है। इसीलिए है पाप अहो व्यापार किये होता धन है॥ किन्तु यहाँ पहले तो खेती बिना कहो व्यापार कहाँ। ब्याज बनेगा तभी कि जब कुछ,भी होवेगा मूल जहाँ ॥४५॥ यद्यपि है व्यापार कारुपन खनिज चीज पर भी होता। किन्तु न जीवन दाता केवल चकाचौंध का समझौता॥ अतः हमारे पूर्व जनों ने उसे दृष्टि में गौण किया। कृषि संश्रित व्यापार कारुपन को ही यहाँ महत्त्व दिया ॥४६॥
  6. किञ्च जीव मरना हिंसा हो, तो वे कहाँ नहीं मरते। ऋषियों के भी हलन चलन में, भूरि जीव तनु संहरते॥ कहीं जीव मारा जाकर भी, हिंसा नहीं बताई है। यतना पूर्वक यदि मानव, कर्तव्य करे सुखदाई है ॥४७॥ अस्त्र चिकित्सक घावविदारण करता हो सद्भावों से। मर जावे रोगी तो भी वह, दूर पाप के दावों से॥ अगर किसी की गोली से भी, जीव नहीं मरने पाता। फिर भी अपने दुर्भावों से वह है हिंसक बन जाता ॥४८॥
  7. तो क्या बुरा विचार किसी के, प्रति भी होता किसान का। वह तो सन्तत भला चाहने वाला होता जहान का॥ उदारता जो किसान में वह क्या बनिये में होती है। कारुपना तो कहा गया संकीर्ण भाव का गोती है ॥४९॥ किन्तु हुआ व्यापार कारुपन पर ही आज लक्ष्य सारा। खेती से हो गई घृणा यों बनी बुरी विचारधारा॥ बनने लगे कारखाने यन्त्रालय आगे से आगे। अतः व्यर्थ हो पशु बेचारे, जीवित ही कटने लागे ॥५०॥
  8. गो सेवा में दिलीप, ने अपना सर्वस्व लगाया था। बन गोपाल कृष्ण ने भारत को परमोच्च बनाया था। वृषभदास ने पशुपालन में था कैसा चित्त लगाया। हा उस भारत के लालों ने आज ढंग क्या अपनाया ॥५१॥
  9. देखो सोमदेव ने अपने नीति सूत्र में अपनाया। जहाँ कि होवे सहस्त्रांशु का, समुदय होने को आया॥ शय्या से उठते ही राजा, पहले गो दर्शन करले। तब फिर पीछे प्रजा परीक्षण, में दे चित्त पाप हरले ॥५२॥ अहो पुरातनकाल में रहा, पशु पालन पर गौरव था। हर गृहस्थ के घर में होता, पाया जाता गोरव था॥ किसी हेतु वश अगर गेह में, नहीं एक भी गो होती। भाग्यहीन अपने को कहकर, उसकी चित्तवृत्ति रोती ॥५३॥
  10. सुख स्वास्थ्य मूलक होता जिसका इच्छुक है तनधारी। चैन नहीं रुग्ण को जरा भी यद्यपि हों चीजें सारी॥ रोग देह में हुआ गेह यह नीरस ही हो जाता है। देखे जिधर उधर ही उसको अन्धकार दिखलाता है ॥५६॥
  11. मनोनियन्त्रण सात्त्विक भोजन यथाविधि व्यायाम करे। वह प्रकृति देवी के मुख से सहजतया आरोग्य वरे॥ इस अनुभूत योग को सम्प्रति मुग्ध बुद्धि क्यों याद करे। इधर उधर की औषधियों में तनु धन वृष बर्बाद करे॥५७॥ मन के विकार मदमात्सर्य क्रोध व्यभिचारादिक हैं। नहीं विकलता दूर हटेगी, जब तक ये उद्रित्त्क रहें। देखों काम ज्वर को वैद्यक में कैसा बतलाया है। जिसमें फँसकर कितनों ही ने, जीवन वृथा गमाया है॥५८॥
  12. सात्विकता में द्रव्य देश या काल भाव की विवेच्यता। द्रव्य निरामिष निर्मदकारक हो वह ठीक हुआ करता॥ विहार आदिक में भातों का खाना ही अनुकूल कहा। मारवाड़ में नहीं, वहाँ तो मोठ और बाजरा अहा ॥५९॥
  13. सूर्योदय से घण्टे पीछे, घण्टे पहले दिनास्त से। भूख लगे जोर से तभी खाना निश्चित यह आगम से॥ अरविकाल में भोजन करना मनुज देह के विरुद्ध है। जो कि रात्रि में भोजन करता उसको कहा निशाचर है॥६०॥ मिट्टी कंकर आदि से रहित योग्य रीति से बना हुआ। यथाभिरूचि खाया जावे वह जिस का दुर्जर भाव मुवा॥
  14. है व्यायाम शरीर परिश्रम को विज्ञों ने बतलाया। समुदिष्ट वह एक, दूसरा सहजतया होता आया॥ ६१॥ पहला दण्ड पेलना आदिक रूप से किया जाता है। दूजा घर धन्धों में अपने आप किन्तु हो पाता है। चून पीसना, पानी भरना, रोटी करना आदिक में। औरत लोग कहो क्या भैय्या श्रमित दीखती नहीं हमें॥६२॥ बिनजी करना, लाङ्गल धरना, कुदाल आदि चलाने में। मानव भी तो थक रहता है, निज कर्तव्य निभाने में॥ किन्तु इसी सादे सुन्दर जीवन से श्री प्रभु राजी है। और इसी से हम लोगों की तबियत रहती ताजी है॥ ६३॥
  15. व्यायाम के अनन्तर ही भोजन कर लेना ठीक नहीं। नहीं भोजनानन्तर ही व्यायाम तथा यों गई कही। प्रायः निश्चित वेला पर ही भोजन करना कहा भला। वरना पाचन शक्ति पर अहो आ धमके गी बुरी बला॥६४॥ बिलकुल कम खाने से शरीर में दुर्बलता है आती। किन्तु खूब खा लेने से भी अलसतादि आधि सताती॥ ब्रह्मचारियों का तो भोजन, हो मध्याह्न समय काही। शाम सुबह दो बार गेहि लोगों का होता सुखदाई ॥६५॥ किन्तु सुबह के भोजन से, अन्थउ की मात्रा हो आधी। ताकि सहज में पच जावे वह, नहीं देह में हो व्याधि ॥ नहीं किसी के साथ एक भोजन में भी भोजन करना। वरना संक्रामकता के वश में होकर होगा मरना ॥६६॥ सीझा हुआ अन्न वासी होने पर ठीक नहीं होता। भीजा, सड़ा, गला खाने से भी आरोग्य रहे रोता॥ निरन्न पानी पीने से नर जलोदरी हो जाते हैं। प्यास मारकर खाने से गुल्मादिक रोग सताते हैं ॥६७॥ हाथ पैर एवं मुंह धोकर एक जगह स्थिरता धरके। भोजन करो अन्त में मुँह को शुद्ध करो कुल्ला करके॥ तब फिर सहज चाल से कुछ दूरी तक कदम चला लेना। ऐसे इस अपने साथी शरीर को मदु खुराक देना ॥६८॥
  16. समाज के हैं मुख्य अंग दो श्रमजीवी पूंजीवादी। इन दोनों पर बिछी हुई रहती है समाज की गादी॥ एक सुबह से संध्या तक श्रम करके भी थक जाता है। फिर भी पूरी तोर पर नहीं, पेट पालने पाता है ॥६९॥ कुछ दिन ऐसा हो लेने पर बुरी तरह से मरने को। तत्पर होता है अथवा लग जाता चोरी करने को॥ क्योंकि बुरा लगता है उसको भूखा ही जब सोता है। भूपर भोजन का अभाव यों अनर्थ कारक होता है ॥७०॥ यह पहले दल का हिसाब, दूजे का हाल बता देना। कलम चाहती है पाठक उस पर भी जरा ध्यान देना॥ उसके पैरों में तो यद्यपि लडडू भी रुलते डोले। खाकर लेट रहे पलङ्ग पर दास लोग पंखा ढोले ॥७१॥ फिर भी उसको चैन है न इस फैसनेविल जमाने में। क्योंकि सभी चीजें कल्पित आती हैं इसके खाने में॥ जहाँ हाथ से पानी लेकर पीने में भी वहाँ है। भारी लगता कन्धे पर जो डेढ़ छटांक दुपट्टा है ॥७२॥ कुर्सी पर बैठे हि चाहिये सजेथाल का आ जाना। रोचक भोजन हो उसको फिर ठूंस ठूंस कर खा जाना॥ चूर्ण गोलियों से विचार चलता है उस पचाने का। कौन परिश्रम करे जरा भी तुनके हिला डुलाने का ॥७३॥ हो अस्वस्थ खाट अपनाई तो फिर वैद्यराज आये। करने लगे चिकित्सा लेकिन कड़वी दवा कौन खाये॥ यों अपने जीवन का दुश्मन आप अहो बन जाता है। अपने पैरों मार कुल्हाड़ी मन ही मन पछताता है ॥७४॥ एक शिकार हुआ यों देखों खाने को कम मिलने का। किन्तु दूसरा बिना परिश्रम ही अतीव खा लेने का॥ बुरा भूख से कम खाने को मिलना माना जाता है। वहीं भूख से कुछ कम खाना ठीक समझ में आता है॥७५॥ चार ग्रास की भूख जहाँ हो तो तुम तीन ग्रास खावो। महिने में उपवास चतुष्टय कम से कम करते जावो॥ इस हिस्से से त्यागी और अपाहिज लोगों को पालो। और सभी श्रम करो यथोचित ऐसे सूक्त मार्ग चालो ॥७६॥ तो तुम फलो और फूलो नीरोग रहो दुर्मद टालो। ऐसा आशीर्वाद बड़ों का सुनलो हे सुनने वालो॥ स्वोदर पोषण की निमित्त परमुख की तरफ देखना है। कुत्ते की ज्यों महा पाप यों जिनवर की सुदेशना है॥ ७७॥ फिर भी एक वर्ग दीख रहा शशी में कलंक जैसा है। हष्ट पुष्ट होकर भी जिस का भीख मांगना ऐसा है॥ उसके दुरभियोग से सारी प्रजा हमारी दु:खी है। वह भी अकर्मण्यपन से अपने जीवन में असुखी है॥ ७८॥ हन्त सुबह से झोली ले घर घर जा नित्य खड़ा होना। अगर नहीं कोई कुछ दे तो फूट फूट कर के रोना॥ यों काफी भर लाना, खाना बाकी रहे बेच देना। सुलफा गांजा पी, वेश्या बाजी में दिलचस्पी लेना॥७९॥ ऐसे लोगों को देना भी काम पाप का बतलाया। मांग मांग पर वित्तार्जन करना ही जिनके मन भाया॥ क्योंकि इन्हीं बातों से पहुँचा भारत देश रसातल को। आज हुआ सो हुआ और अब तो बतलायेंगे कल को॥८०॥
  17. एक रोज वह था कि नहीं भारत में कही भिखारी था। निजभुज से स्वावश्यकता पूरण का ही अधिकारी था॥ बेटा भी बाप की कमाई खाना बुरी मानता था। अपने उद्योग से धनार्जन, करना ठीक जानता था ॥८१॥ जिनदत्तादि सरीखे धनिक सुतों का स्मरण सुहाता है। जिनकी गुण गाथाओं का वर्णन शास्त्रों में आता है॥ सब कोई निज धन को देखा परार्थ देने वाला था। किन्तु नहीं कोई भी उसका मिलता लेने वाला था॥ ८२॥ क्योंकि मनुज आवश्यकता से अधिक कमाने वाला था। कौन किसी भाई के नीचे पड़ कर खाने वाला था। इसीलिए चोरी जारी का यहाँ जरा भी नाम न था। निर्भय होकर सोया करते ताले का तो काम न था ॥८३॥ ईति भीति' से रहित सुखप्रद था इसका कोना कोना। कौन उठाने लगा कही भी पड़ा रहो किसका सोना॥ जनधन से परिपूर्ण यहाँ वालों की मृदुतम रीति रही। सदा अहिंसा मय पुनीत भारत लालों की नीति सही ॥८४॥ आज हमारे उसी देश का हाल हुआ उससे उलटा। मानो वृद्धावस्था में हो चली अहो नारी कुलटा॥ दिन पर दिन हो रही दशा सन्तोष भाव में खूनी है। अब हरेक की आवश्यकता आमदनी से दूनी है ॥८५॥ इसीलिए बढ़ रही परस्पर लूट मार मदमत्सरता। विरले के ही मन में होती इतर प्रति करुणा परता॥ अतः प्रकृति देवी ने भी अपना है अहो कदम बदला। आये दिन आया करती है, यहाँ एक से एक बला ॥८६॥ कही समय पर नीर नहीं तो कही अधिक हो आता है। पकी पकाई खेती पर भी तो पाला पड़ जाता है। जल का बन्ध भङ्ग हो करके कहीं बहा ले जाता है। अथवा आग लग जाने से भस्म हुआ दिखलाता है॥८७॥ हैजा कहीं कहीं मारी या, मलेरिया ज्वर का डर है। यों इसमें सब और से अहो, विपल्व होता घर घर है॥ देश प्रान्तमय प्रान्त नगरमय नगर घरों का समूह हो। इसीलिए घर की बावत में इतला देना आज अहो ॥८८॥
  18. ईंट और मिट्टी चूने आदिक से बना न घर होता। वह तो विश्राम स्थल केवल जहाँ कि तनुधारी सोता॥ किन्तु स्त्रीसुत पितादिमय कौटाम्बिक जीवन ही घर है। इसमें मूल थम्भ नर नारी वह जिन के आधार रहें ॥८९॥ कल्पवृक्ष की तुल्य घर बना जिस का तना वना नर है। नारी जिस की छाया आदिक जिसके ये सुफलादिक है॥ नारी का हृदयेश्वर नर तो वह भी उसका हृदय रहे। वह उसको सर्वस्व और वह उसको जीवन सार कहे॥९०॥ वह उसके हित प्राण तजे तो वह उसका हित चिन्तक हो। दोनों का हो एक चित्त स्वप्न में भी विद्रोह न हो। प्रशस्यता सम्पादक नर हो मदिर और नारीशम्पा। जहाँ विश्व के लिए स्फुरित होती हो दिल में अनुकंपा ॥९१॥ लक्ष्मी किसी भांति भामिनी सदा अतिथि सत्कार करे। माधव तुल्य मनुष्य शरण आये के संकट सभी हरे॥ न दीन होकर रहे मनुज मुक्ता मयता को अपनावे। सानुकूलता से सरिता ज्यों जनी सरसता दिखलावे ॥९२॥
  19. वह कुलाङ्गना धन्य जो कि हो पति के लिए पुष्वल्ली। अगर और का हाथ बढ़े तो वहाँ घोर विष की वल्ली॥ हो परिणीत कोढिया भी तो कामदेव से बढ़कर हो। चिन्चा पुरुष समान पुष्ट होकर भी जिसके पर नर हो ॥९३॥ एक पाणिपरिणीत पुरुष ही जिस के लिए वरद साँई। और सभी सर्वदा मनोवाक् तनु से पिता पुत्र भाई॥ अगर कहीं पति रूठ गया तो, शरण एक परमात्मा की। जिसके लिए शेष रह जाती और किसी को क्या झांकी॥९४॥ उन पतिव्रताओं के आगे मस्तक सभी झुकाते हैं। जिनके शील गुण प्रभाव से विघ्न सभी टल जाते हैं।। जहाँ अग्नि का शीतल जल हो साँप सुमन बन जाता है। अमृतरूप में विष परिणत हो, करके स्वास्थ्य बढ़ाता है।९५॥ शव के साथ किन्तु जल जाना इसमें नहीं सतीपन है। प्रत्युत इसमें हो जाता उत्पथ का सहज समर्थन है॥ इन्द्रिय दमन मनो निग्रह में, ही आत्मा की बलिहारी। देखों मीरां बाई ने कैसी अपनी परिणति धारी ॥९६॥ इसी तरह से पूर्व काल में और अनेकों हुईं सती। जिन कुलाङ्गनावों ने जाना जीवन भर में एक पति॥ सीता मदन सुन्दरी सोमा मनोरमा आदिक सतियाँ। पति सेवा में निरत रहीं जब तक गृह में उनकी मतियाँ ॥९७॥ पति एक ही किन्तु पत्नियाँ अनेक भी हो रहती है। अन्त समाधि धारि तन छोड़ा जिससे पाई सद्गतियाँ॥ कुल ललनावों की ऐसी ही अनुकरणीय वनोंवतियाँ। यद्यपि अनेक शाखायें एकघ्रिप के हो जाती हैं। नहीं एक शाखा अनेक पेड़ों पर तो जम पाती है ॥९८॥ एक पयोनिधि में अनेक नदियाँ हैं आ जाया करती। एक नदी क्या कभी अनेक समुद्रों को पाया करती॥ यों अनेक नारियाँ एक नर के भी हो जा सकती हैं। किन्तु एक नारी के अनेक नर यह बात खटकती है॥९९॥ अगर एक नर के नारी भी एक यही ध्रुव नियम बने। तो नर से नारी तिगुण संख्या में कैसे काम बने॥ हाँ नर नर की शय्या होना काम नहीं है नारी का, वैसे ही नर का भी अलि हो ना पर की फुलवारी का॥१००॥ है विवाह बन्धन उपयोगी इसीलिए माना जाता। जिसके बिना नहीं बन सकता पिता पुत्र आदिक नाता॥ फिर तो पशुओं के समान लोगों का चलन यहाँ होवे। अपनी खाज खुजाने का फिर कौन मदद किसकी होवे ॥१०१॥ इसीलिए श्री ऋषभदेव ने यथा रीति शादी की थी। उनको ले आदर्श और, सब ने भी वहीं प्रीति ली थी॥
  20. पर नर के संयोग वश्य ज्यों नारी अधमा होती है। उससे भी कुछ अधिक परस्त्री-रत नर यों समझोती है॥१०२॥ क्योंकि स्त्री का जीवन तो, भूतल पर परवश होता है। किन्तु मनुज निजवश होकर भी, ले कल्मष में गोता है॥ हन्त हन्त हम खुद तो देखो, रावणता को लिए रहें। महिलाओं में सीतापन हो, ऐसी सुख से बात कहें ॥१०३॥ तो फिर होगा क्योंकि विश्व में, विप्लव ही हो पावेगा। चन्दन में से आगी होकर, जगत् भस्म हो जावेगा॥ हा हा घर में प्रेम पियारी, मदन सुन्दरी नारी है। फिर भी देखो पर अबला पर होती ताक हमारी है॥१०४॥ उसके गूढ़ाङ्गों को लख कर, मनो मुग्ध हो जाते हैं। कब कैसे इसका चुम्बन, पावें यों विचार लाते हैं। मौका पाकर गुप्ततया, उसके घर में घुसना चाहे। भूख प्यास को भुला सतत, सोचा करते उसकी राहें ॥१०५॥ घर का हलवा तज पर का मलवा ही मन को भाता है। कुत्ते का ज्यों जूठन खाने को ही जी ललचाता है। इस उधेड़ बुन में यदि आई याद कदापि लज्जिका की। तो फिर क्या था बड़ी खुशी से लेते राह बंगला की ॥१०६॥ कञ्चनमय भूषण तज कर भाया हार मुलम्मे का। हुआ विचार धार तज कर कीचड़ में डुबकी लेने का॥ पाऊडर परिपूर्ण वदन का पारायण पा जाने में। लगी दृष्टि मुग्ध हुआ मानस सरस सुरीले गाने में ॥१०७॥ उसने जहाँ दादरा ठुमरी पीलू कव्वाली गाई। एक-एक टप्पे पर फिर तो बाहु बन्द बंगडी आई॥ घर वाली को चने नहीं इसको बरफी बालूसाई। उसको चिथड़ा नहीं यहाँ चिक्कन की बनी साड़ी आई॥१०८॥ कहीं शोरबा चुसकी ली तो मानों त्रिभुवन सुख लूटा। किन्तु जहाँ छूटा शरीर पल भर में वहाँ कर्म फूटा॥ क्योंकि वहाँ बेहूदेपन से खोटा कर्म कमाते हैं। उपदंशादिक संक्रामक रोगों के घर बन जाते हैं ॥१०९॥ कहें किसे क्या अपनी करनी यौवन का अभिमान हुआ। पैसा गया धर्म भी हारा यों जीवन निस्सार हुआ।
  21. मूल्यांकन अब घर वाली का वे हजरत कर पाते हैं। वहीं एक साथिन जब होती, और दूर भग जाते हैं ॥११०॥ अपनी भूल हुई पर अब तो मन ही मन पछताते हैं। जिसे पगरखी तुल्य कही, उसको खुद हृदय लगाते हैं॥ कहते हैं इस पर ही तो है घर का बोझ भार सारा। नर क्या करे बना यह केवल मेहनतिया है बेचारा ॥१११॥ शिशुलालन, पशुपालन, चुल्लीवालन, भिक्षुनिभालन भी। ये औरत से ही होते, नहि नर के वश की बात कभी॥ जबकि हमारे धीठ दिलों में गौरव रहा न औरत का। बिना पंख के पक्षी जैसा हाल हमारी सौरत का ॥११२॥
  22. महिलाओं को आज भले ही व्यर्थ बता कर हम कोसें। नहीं किसी भी बात में रही वे है पीछे मरदों से॥११४॥ जहाँ कुमारिल बातचीत में हार गया था शंकर से। तो उसकी औरत ने आकर पुनः निरुत्तर किया उसे॥ दशरथ राजा का सारथिपन किया कैकेयी रानी ने। कैसा लोहा लिया शत्रु से था झांसी की रानी ने॥११५॥ श्रेणिक को सत् पथ पर लाने वाली हुई चेलना थी। रहा विपत् में अहो सिर्फ वह नारी ही नर का साथी॥ बहुत जगह ललनाओं ने है मरदों से बाजी मारी। लिखी नहीं जा सकती हमसे उनकी कथा यहाँ सारी॥११६॥ इस संसार मरुस्थल में नीरसता है गुरु कहते हैं। खड़े भवाम्बु तीर पर ये सन्ताप जीव सब सहते हैं॥ मानव और मानवी दोनों तन्दुरुस्त हो चुस्त रहें। कुंभ और रज्जू इनमें हम किसको छोटा बड़ा कहें॥११७॥ वह मस्तक है तो वह दिल है इतना ही बस अन्तर है। लड़के लड़की पैर तुल्य है समाज के यों याद रहे।
  23. बाल बालिकाओं को शिक्षा दिला सुयोग्य बना देना। माता-पिता का काम उन्हें व्यसनों से सदा बचा लेना॥११८॥ किन्तु आज रह गया सिर्फ कर देना उनकी शादी का। यह ही सबसे पहला कारण समाज की बरबादी का॥ जो भी हों कर रहे आप से उन्हें वही करने देना। अनुशासन का लाड़ चाव में कुछ भी नहीं नाम लेना॥ ११९॥ बालपन है चलो अभी यों कहकर टाल बता देना। उनकी बुरी वासनाओं को पहले तो पनपा लेना॥ जब वे पकड़ गई जड़ तो फिर कैसे कहो दूर होवें। यों उनके दुश्मन बन करके अपने आप सदा रोवें॥१२०॥ जननी और जनक कहलाने वालों का विवेक ऐसा। लड़के लड़की कहलाने वालों का चाल चलन कैसा॥
  24. जहाँ बड़ों का विनय न कुछ भी और न अपनी लघुताई। कोट बूट पतलून हैट हो और गले में हो टाई॥ १२१॥ खटिया से उठते ही टी हो, फिर मुँह में आवे सिगरेट। भगवन्नाम चीज क्या होता गुडमोर्निग जहाँ हो भेट॥ रोटी खाई फुरसत पाई ताम गज्जफा करने को। एक दूसरे के अवगुण कह आपस में लड़ मरने को॥१२२॥ कहा गया यदि कहीं कि बेटे कुछ धन्धा भी देखों ना? नहीं समूचा समय चाहिये खेलकूद में ही खोना॥ तो जवाब मिलता है चट से अब तो तुम जीवित हो ना? मर जावोगे तो देखेंगे पहले ही से क्यों रोना॥१२३॥ अपढ़ों की यह बात पठित लोगों की जैसी परम्परा। सो भी लिखा जा रहा उस पर ध्यान दीजिये आप जरा॥ अगर किसी भी विद्यालय में भाग्योदय से दाखिल हो। अक्षर रटे पास हो आये तेतीस नम्बर लिए अहो॥१२४॥
  25. ब्रह्मचर्य पूर्वक गुरु सेवा करके शिक्षा पाते थे। गुरुजन भी शिष्यों को सुत कहकर निःशुल्क पढ़ते थे॥१२९॥ आज्ञाकारी हो गुरु के चरणों में शीश झुकाते थे। बनकर शिष्य हृदय उनका यों वे सब कुछ पा जाते थे॥ लोकोपकारार्थ ही होता था उनका विद्या पढ़ना। उदरपूर्ति के सवाल को तो कभी नहीं उस पर मंढना॥१३०॥
×
×
  • Create New...