Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    894

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. अपलक नयनों से निरखते एक सज्जन ने कह दी आखिर अंतस की बात बहुत कुछ पूछने आते हैं समीप आपके, लेकिन दर्शन करते ही सहज समाधान पा जाते हैं। देखते ही आपको वचन शांत हो जाते हैं, निर्मोही यतिवर ने कहा ‘‘निजात्मदर्शन का बनाओ लक्ष्य जिससे कर्म ही शांत हो जाते हैं। '' देश के प्रख्यात विद्वान् कैलाशचंद्र शास्त्री की दृष्टि में नहीं था वर्तमान में कोई अनगार, पर आचार्यश्री के किये दरश ज्यों ही दूर हुई भ्रांति... लिखा उनने लेख कि मेरे मन में था यह भ्रम संप्रति में होता नहीं सच्चा श्रमण किंतु आचार्य श्री विद्यासागरजी के दर्शन से मेरे मन में हो गया परिवर्तन निष्परिग्रही आगम सम्मत सच्चे साधु को देख मेरा मस्तक हुआ नत। निमित्त मिल जाते अवश्य यदि उपादान है सशक्त, ऐसे ही विद्यासागर संत परिग्रह से रहित निर्लेप सुमेरू से अडिग अकंप हर वाक्य में जिनके झलकता वैदुष्य ऐ से यतिवर के दर्शन पा जीवन हुआ धन्य! अज्ञ को भय रहता है दुख का सदा विज्ञ को भय रहता है दोष का सदा, आचरण नित्य निर्दोष हो स्वातम में ही संतोष हो ऐसे संत सदा जयवंत हों!
  2. दुर्लभ राजहंस की भाँति गुरूवर का पाकर दर्शन आबाल वृद्ध का मुदित होता मन, बाहर में चाहे कितना हो कोलाहल भेदज्ञान के बल से कर लेते हर समस्या का हल! हज़ारों-लाखों लोगों की भीड़ में रह लेते सुरक्षित जो अपने ज्ञान नीड़ में। शुभ से शुद्ध उपयोग के झूले में आनंद से झूलते रहते सदा अशुभ की ओर झाँकते नहीं कदा। लो! अचानक नैनागिर में, संत के साम्य भाव की कर्मों ने ले ली परीक्षा, काली-घनी निशा में यतिवर बैठे खुले मैदान में शिला तल पर अकेले! ‘दस्युराज मूरतसिंह' आया साथियों के संग आभायुक्त देख गुरु की चमकती देह झुक गया शीश, रह गया दंग लख गुरु की सूरत मूरतसिंह भूल गया निज मूरत, कुछ दूरी पर रख शस्त्र निहारता रहा संत को देख खनकते शस्त्र अचल रहे निडर गुरुवर, जो डरते नहीं जड़ कर्म-तस्करों से वे क्यों डरें जंगल के लुटेरों से!! बुदबुदाया डाकुओं का सरदार... हे भगवन्! आये हो हमारी बस्ती में लौटकर अब जाना नहीं । अब तक होते रहे दिन दहाड़े यहाँ कत्ल, लेकिन अब तनिक भी किसी को आँच आयेगी नहीं, शपथ है यह सरदार की..." चार माह निभाया नियम । किसी को आधी रात में भी हुई नहीं परेशानी। एक रात राजस्थान वासी भटक गये पथ, स्वयं सरदार ने बैठ बस में दिखलाया पथ, जिनकी चरण-छाँव सन्निधि पा डाकू भी बन जाता साधु-सा। धन्य! ये संयमित चरण पतित को बनने पावन मिलती है जहाँ शरण… विहार की सूचना मिलते ही पूरा परिकर ले साथ। डाकू ने कर दिया आत्म समर्पण संत समक्ष ले संकल्प।
  3. योगी और भोगी में होता है अंतर अवनि-अंबर का इसमें फासला होता है। ऊषा और निशा-सा, भोगी भोगों के वश में जीता है। योगी भोगों को वश में करके जीता है। मालिक यदि हो जाये गुलाम के वश में तो व्यापार कैसे चले? पुलिस यदि हो जाये चोर के वश में तो कानून कैसे चले? सपेरा ही हो जाये सर्प के वश में तो खेल कैसे चले? गुरु यदि हो जाये शिष्य के वश में तो विद्या कैसे बढ़े? योगी ही हो जाये संयोगी भाव के वश में तो धर्म कैसे चले? नीति कहती है ‘‘पाना है यदि सत्ता तो इन्द्रिय विजयी बनना होगा ‘राज्यमूलं इंद्रिय जयः फिर यहाँ तो । स्वात्म लोक का शाश्वत राज्य पाने चल पड़े हैं सद्योगी! स्वाभाविक गुण योद्धा ले साथ विकारों पर विजयी होने अंतर्यात्रा पर… पाकर प्रभु-सा मीत पूँजे जैनगीता के गीत । एक ओर करूणा सागर का कवि-हृदय दूसरी ओर शांत-सुंदर कुण्डलपुर का दृश्य नये-नये छंद बनते जाते मदमाती बहती पुरवैया में गूंज उठते एक ओर बड़े बाबा का आकर्षण दूसरी ओर आत्मान्वेषी साधु का सम्मोहन! चौतरफा थी धर्म की धूम... धीमानों-श्रीमानों का आने लगा समूह, अग्रिम सतत्तर का चौमासा कुण्डलपुर में ही हुआ संपन्न। चित्त लगा चिंतन में मन लगा मनन में तन लगा लेखन में वहीं एक वृद्ध विद्वान् आये दर्शनार्थ किया निवेदन-गुरूवर्य! अल्पायु में कैसे हो गया वैराग्य? बोले गुरूदेव “परमात्मा के गुणों से हो गया अनुराग सो हो गया वैराग्य, संक्षिप्त किंतु सारभूत समाधान सुन पण्डितजी हुए गद्गद्।'' विहार कर कुण्डलपुर से । थम गये गुरु-चरण नैनागिर में, साहू श्रेयांसप्रसादजी आये दर्शनार्थ धर्म-चर्चा करते हुए पूछ लिया प्रश्न... क्या पड़ता है ग्रहों का प्रभाव? परिग्रहधारी पर पड़ता अवश्य, किंतु निष्परिग्रही पर नगण्य तनिक-सा पड़ता भी है असर तो वह भी तन पर चेतन पर नहीं। समाधान का साक्षात्कार हुआ नैनाशिर आते ही पुनः देह ज्वराक्रांत हुआ, प्रकृति पुरुष में । बार-बार असाता कर्मप्रकृति उदित होने लगी... कहीं तजकर उन्हें मोक्ष न चले जाये इस संदेह से। किंतु संत थे शांत दर्पण की भाँति निश्चिंत थे वे, संयोग से स्वभाव में कुछ आता नहीं। वियोग में स्वभाव से कुछ जाता नहीं । इसलिए ज्ञानधारा में बहे जा रहे... असाता को सहज भाव से सहे जा रहे... हर बार की अपेक्षा इस बार की असाता घातक व क्रूर थी भयंकर, किंतु मर्मज्ञ मनीषी, साहसी, सहनशील निर्भय थे अपने में गुरुवर! देख साधु की समता बदल गई असाता, हो गई साता।
  4. लौकिक जगत कहता है वह माँ क्या? जिसमें ममता नहीं वह महात्मा क्या? जिसमें समता नहीं' भेदज्ञान धर साम्यभाव से मं द-मंद ध्वनि से पढ़ने लगे ‘भक्तामर' तभी प्रसिद्ध 'चिकित्सक निगम' ने परीक्षण करके कहा आश्चर्य! इस दशा में रोगी होश में रह नहीं सकता। कदाचित् होश में रहे भी तो वचनों से कुछ कह नहीं सकता, विवश हो कहा चिकित्सक ने इनकी श्वासों का अब कुछ कहा नहीं जा सकता। सुनते ही हैरत में आ देकर पात्र पण्डितजी ने अपने पुत्र के साथ भेज दिया आचार्य श्री के पास, पढ़ते ही बोले यतिवर श्रेष्ठ कहना पण्डितजी से करवा दें समाधि सक्षम हैं स्वयं आप ही। सुनते ही आवेश में बोल पड़ा पण्डित पुत्र बहुत कठोर हैं आप आचार्य श्री! संघस्थ हैं वह क्षुल्लक जी आपके रिश्ते में लगते हैं छोटे भाई आपके आपको कुछ लगता नहीं, हृदय पसीजता नहीं!'' थोड़ा शांत होकर फिर कहने लगा आपको अवश्य पहुँचना चाहिए कटनी। गंभीरता और समता से सुनते रहे यतिवर फिर बोले संयत स्वर में तुम्हारी क्रोध भरी भाषा है। और तुम्हारे पिता पण्डित होने से उनकी बोध भरी भाषा है, लेकिन अर्थ दोनों का है एक पिता-पुत्र की भाषा जानता हूँ मैं नेक यदि लग रहा है समाधि-काल निकट तो साथ में नियमसागरजी हैं वहाँ ले जाइये स्वरूपानंदजी को भी वहाँ करा दीजिए समाधि पर मैं आ नहीं सकता वहाँ। अंतस् की बात यही थी । यदि मोह हो जाता उदित, तो बिगड़ जाती समाधि अतः जाना है अनुचित। साधु और श्रावक की सोच का अंतर समझ गये श्रावक साता का उदय आते ही श्री समयसागरजी हो गये स्वस्थ |
  5. समय भी निःशब्द अपने कदमों से सरक रहा था आगे कि अचानक... समयसागर जी हो गये अस्वस्थ पण्डितजी ने किया अनुरोध चिकित्सा संभव नहीं यहाँ, हृदय काम कर नहीं रहा शरीर से ठंडा पसीना आ रहा नाड़ी का पता चल नहीं रहा... गंभीर है स्थिति! कटनी ले जाने की दीजिए अनुमति… धीरे से पूछा पण्डितजी ने यदि सुधरता नहीं स्वास्थ्य तो करेंगे क्या आप? क्षुल्लक समयसागरजी ने मंद स्वर में उत्तर दिया धरकर शांतभाव ‘‘सल्लेखना लूंगा।'' क्या समाधि के लिए तैयार है मन? बोले संयत स्वर में क्षुल्लक जी आप चिंता न करें श्रीमान्! मृत्यु महोत्सव को तैयार है मेरा चेतन।' मरण से निर्भय हूँ मैं; क्योंकि जान लिया है। स्वभाव से अमर हूँ मैं। वाह-वाह धन्य! आह्लाद के स्वर फूट पड़े। पण्डितजी के सूकंठ से… “जैसे जाके नदिया-नारे वैसे वाके भरखा। जैसे जाके बाप-मताई वैसे वाके लरका''। जैसे गुरु वैसे शिष्य जैसे दाता वैसे पात्र जैसी दीक्षा वैसे संस्कार, जो कुएँ में होता है। वही बाल्टी में आता है। जो गुरु में होता है। वही शिष्य में आता है।
  6. माना जाता है जो बुंदेलखंड का हृदय गुरू के वियोग के उपरांत… प्रथम बार मिल गया आत्मिक सहारा कोई अपना-सा मन की भाषा पढ़ने वाला, एक सच्चा देव ‘अरहंत' सामने खड़े हैं निग्रंथ एक आराध्य, दूजे आराधक एक समर्थ्य, दूजे समर्पक अहो अद्भुत मिलन की घड़ी! ‘‘बड़े बाबा से छोटे बाबा के मिलने की अभूतपूर्व थी वेला बड़ी। मूरत को देख मूर्तिमान देख लिया पल-पल नवीन से नवीनतम निज में ही अनुभवन कर लिया "वंदे तद्गुण लब्धये साकार कर दिया। बाहर के नयन मुँदे रह गये भीतर के खुल जो गये, देख प्रभु-मुख की दिव्यता सुंदर सूरत की सौम्यता कंधे तक लटकती केशमाला मुख से फूट पड़ा ‘जय हो आदिजिन...' 'जय हो आदिजिन... “चरण शरण है आपकी, हे मेरे सर्वस्व हो जाऊँ बस आपसा, और नहीं कुछ लक्ष्य।' भावी भगवान मिल रहे वर्तमान भगवान से भावलिंगी निथ मिल रहे देव अरहंत से उच्चरित हुई स्तुति प्रभु-भक्ति में लीन हुई यूँ यति की मति। एक दो दिन बीते ही थे कि... जीव कितना ही साहसी हो, पर काया तो काया है। कर्म की छाया है जड़ पौगलिक माया है। सो विहार के परिश्रम से हो गया पुनः ज्वराक्रांत शीतलता हेतु नेत्रों में । डाल दिया तेल चंदन का, उपचार ही बन गया उपसर्ग ऐसी आँखें हो गईं लाल सुर्ख शीघ्र ही बुलाया चिकित्सक को परीक्षण हेतु किया निरीक्षण यदि दो घंटे हो जाती देरी तो नेत्रों की मंद पड़ जाती रोशनी, जो लाखों लोगों को बाँट रहे ज्ञान-ज्योति अकर्ता भाव से भला कर्म उनकी नेत्र-ज्योति कैसे हर सकता? जो स्वप्न में भी किसी प्राणी को देख नहीं सकते दुखी भला असाता कर्म उन्हें दुखी कैसे कर सकता?
  7. कि इधर... चलते-चलते कदम संत के पहुँच गये कटनी नगर अचानक उदित हुई असाता देह की बढ़ गई उष्णता... बिगड़ गया मलेरिया ज्वर से तपा देह सारा आहार को भी उठ न पाये घबरा गये भक्तगण, देह की बढ़ती जा रही जलन पर भीतर ही भीतर चल रहा ज्ञायक स्वरूप का आस्वादन... भेदज्ञान पूर्वक मंथन-मनन चिन्मय चेतना का चिंतन। स्वरूप का लक्ष्य होने पर रूप की ओर ध्यान जाता नहीं । विदेह पद का उद्देश्य होने पर देह से नेह रहता नहीं, अंतर्जगत् में विहार करने पर बाह्य जगत में उपयोग टिकता नहीं। एक तो चूने सीमेंट की नगरी कटनी। ऊपर से मच्छरों का प्रकोप! संत की देह काँपने लगी नाड़ी धीमी मंद पड़ने लगी इधर भक्तों की धड़कनें तीव्र होने लगीं। इस भाँति असाता दिखा रहा पराक्रम पूरा ज्वर की तीव्रता से देह होने लगा निष्क्रिय-सा, तभी अंतर्जागृति से बोले मंद स्वर में ध्यान से सुनो हे योगसागर! “आठ दिन तक मुझे कोई न पुकारे ‘आचार्य' कहकर..." अद्भुत थी काय की सु-दृढ़ता गुरू के मन की सरलता वचनों में सहजता, आत्मा में समता, तभी आचार्य श्री ने पण्डित जगन्मोहनलाल शास्त्री जी को लाने का कर दिया इशारा... सल्लेखना मरण की तैयारी में लग गया संत का चेतनात्मा। पूछा पण्डितजी ने- कैसे हो महाराज? सजग हूँ अंतर में स्वस्थ हूँ। देह काम नहीं कर रहा, पर विदेह का जानन-देखन कार्य चल रहा अनवरत।'' सुनते ही पण्डितजी रह गये अवाक् यह सामान्य संत नहीं हैं संत भावलिंगी। श्रावक गण जाप करते रहे रातभर णमोकार मंत्र का बोर्डिंग के प्रांगण में, ले लो समूचा पुण्य हमारा पर स्वस्थ कर दीजिए मेरे गुरु को यूँ भावों से करने लगे प्रभु से प्रार्थना… कोई मौन तो कोई मुखर रूप में अ श्रु बहाते हुए प्रभु की शरण में, आखिर भक्तों की भावना से। और संत की सत्य साधना से त पस्वी के तप से कर्म काँपने लगे ज ड़ कर्म ढीले पड़ने लगे...। कर्मों की तुच्छ तपन पर संत की साम्य भावना के जलाशय का प्रभाव पड़ा अद्भुत, ज्वर करने लगा पलायन जैसे विशल्या के समीप आते ही लक्ष्मण की मूच्र्छा दूर होने लगी वैसे ही निजानुभूति गाढ़ होते ही कर्म की उष्णता चूर होने लगी, भक्तों की व्याकुलता बदल गई निराकुलता में ढाई माह बीत गये यूँ असाता को करवट लेने में। मृत्यु को जीतने चले हैं जो मृत्यु की लघु सहेली असाता से पराजित कैसे हो सकते हैं वो! शिथिल शरीर से, किंतु दृढ़ मनोबल से संयमाचरण रूपी चरण से धरती नापते... राजस्थानी मखमली धरा छोड़ चल रहे बुंदेली टीलों पर नदी-नाले, समतल, पहाड़ तो कहीं बियावान जंगल, पठार पार करते युवा योगी आ पहुँचे कुण्डलपुर।
  8. करते-करते पद-विहार पथ में भक्तजनों को दे ज्ञान का उपहार आये धर्ममयी लालित्य नगरी 'ललितपुर क्षेत्रपाल जी के ‘अभिनंदन स्वामी' की देख मनोज्ञ मूरत हो गये भक्ति में रत। यदि बनना है ज्ञानवान तो अध्ययन जरूरी है। बनना है धनवान तो व्यापार करना जरूरी है, बनना है बलवान तो व्यायाम जरूरी है। बनना है भगवान तो भक्ति जरूरी है। लक्ष्य है जिनका विकारों का अंत ऐसे शांतमना संत देवगढ़ चंदेरी से पधारे थूबौन जी, है जो नितांत निर्जन... सुनाई देती चिड़ियों की चहचहाहट निकट में बहती नदी का कलरव जहाँ एक भी नहीं श्रावक का गृह वंदना कर बिना आहार लिये लौट आये चंदेरी। सम्यक् आचरण-युत चरण जिनके पड़ते ही थूबौन में कल्पनातीत हुई प्रगति यात्रा के प्रवास में आया 'तालबेहट' मंदिर के समीप ही था कूप पानी भरने आया दस वर्षीय बालक साथ में लाया एक परात जिज्ञासु बन देखते रहे महाराज घड़े को रख परात में पानी छान दोहरे छल्ले से परात में गिरे जल को सावधानीपूर्वक पहुँचाया कूप में। इस तरह लीन देख बालक को चरणानुयोग की चर्या में प्रसन्न हुए आचार्य श्री फूट पड़े मुख से दो शब्द धन्य बुंदेलखंड की माटी! धन्य यहाँ के संस्कारित प्राणी! इसी धुन में धुन मिलाती बोल पड़ी बुंदेली धरती धर्म अहिंसा श्रेष्ठ है, करुणा इसका प्राण। दया धर्म का मूल है, कहते वेद-पुराण॥" प्रकृति के हाथों की बनावट होती है अत्यंत सूक्ष्म, बिना कागज के लेख लिखती हैं कर्म-वर्गणाएँ स्वयं। छद्मस्थ जान पाते आंशिक ही सत्य पूर्ण सत्य को जान सकती हूँ मैं यूँ विचारधारा में लीन थी ज्ञानधारा…
  9. चातुर्मास फिरोजाबाद का सभी के लिए था अविस्मरणीय, प्रासंगिक है प्रसंग वहाँ का चार माह उपरांत बिना सूचना के विहार कर लिया गुरुवर ने... दो मील दूर जाने पर पता लगते ही लोग आये दौड़े-दौड़े चरणों में गिरकर नगर सेठ बोले… आप श्री ने तो कहा था कल होगा प्रवचन ‘अतिथि पर, फिर बिना किये प्रवचन क्यों गमन कर गये गुरुवर? मंद मुस्कान ले बोले आचार्यश्री यही तो है अतिथि पर प्रवचन जिनके गमनागमन की तिथि का होता नहीं नियमन, बिना आमंत्रण आया था मैं बिना सूचना दिये जा रहा हूँ मैं, व्यक्ति वस्तु व वसतिका की आसक्ति कहलाती है मूर्च्छा निर्ग्रथों में रहती नहीं मूर्च्छा। सुन आगम की वाणी जन-जन हुए आह्लादित पथ में सारी प्रकृति हो आयी पुलकित प्रसन्न होने लगी पत्ती-पत्ती । दोलायमान होने लगी डाली-डाली टहनियाँ टुकुर-टुकुर देखने लगीं, बहती पुरवैया एक लय में गुरू का गुणगान करने लगीं झिलमिल करते जल के झरने जय-जयकार करने लगे... फूल महकने लगे फल विकसने लगे...। इस तरह भाँति-भाँति की प्रकृति अतिथि का करने लगी आतिथ्य, यतिवर फिरोजाबाद से फिर आगरा, मथुरा, ग्वालियर होते हुए आ पहुँचे सिद्धक्षेत्र सोनागिर, दर्शन कर चन्द्रप्रभ भगवान का अभिभूत हो स्मरण हुआ गुरु का। कहा था श्री गुरु ने संघ को बनाना गुरुकुल रहे दिगम्बरत्व की परम्परा अक्षुण्ण! सो अनंत व शांतिनाथ को प्रदान कर क्षुल्लक दीक्षा बना दिये योगसागर, समयसागरजी बदलते ही नाम बदल गये काम। इधर दो भाई दिसम्बर माह में विरक्त हुए घर से उधर बड़े भ्राता महावीर उसी माह में अनुरक्त हुए विवाह-बंधन में। सोनागिर क्षेत्र से हो प्रभावित बुंदेलखंड के क्षेत्र दर्शन को मन हुआ भावित।
  10. आत्मविहारी आचार्य श्री महावीर जी से कर विहार भरतपुर मथुरा आगरा से... चातुर्मास स्थापना में एक दिन था शेष पधारे फिरोजाबाद नित्य-प्रतिदिन प्रवचन होते विशेष... वहाँ के एक श्रावक प्रमुख ने संकलित कर प्रवचन किया प्रकाशन। एक दिन भीमसेन ब्रह्मचारी उदर-पीड़ा से कराहते कहने लगे मैं नहीं बनूंगा जीवित काश! आचार्य महाराज के दर्शन कर पाता अंतिम तो मिल जाता मनवांछित। गंभीर रूप से अस्वस्थता के सुन समाचार बिना प्रवचन किये लौट आये गुरु महाराज, देखते ही गुरू को हर्षित भीमसेन सल्लेखना की करने लगे याचना, तब आगमानुसार समझाने लगे “सुनो ब्रह्मचारी जी! मरण आने के पहले ही मर जाना कायरता है। और मरण समय उपस्थित होने पर भी आत्मा की अमरता पहचानना वीरों की वीरता है।'' कायर, नश्वर काय के संग जनमता-मरता बार-बार, वीर, अविनाशी आत्म वीर्य गुण-संग शाश्वत सुख पाता अपार... इसीलिए आदेश है मेरा "चिकित्सा करवाओ असाता कर्म से मत घबराओ अपने दुखों का दायित्व जड़ कर्मों पर मत डालो चिकित्सक ने आते ही देखकर कहा उलझ गई हैं पेट की आँतें शल्य चिकित्सा करने से भीमसेन हो गये खड़े।
  11. गर्भ में रखा जिसे नौ माह वह क्षेत्र की अपेक्षा दूर है बहुत, लेकिन मन से दूर कैसे हो सकता? रह-रहकर याद सताने लगी भूख जाती रही राते उनींदी बीतने लगीं। आखिर एक दिन बोली- स्वामी! पुत्र दर्शन बिन रहा नहीं जाता अब अधिक विरह सहा नहीं जाता आत्मीय निगाहों से निहार बोले मल्लप्पाजी अब नहीं वह पुत्र हमारा दीक्षा के पूर्व तक था विद्याधर हमारा... तुम्हें जाने से रोकता नहीं मैं, किंतु जा नहीं सकता अभी मैं..." हास्य-विनोद में कह गई वह कहीं श्रमण न बन जाओ क्या इसी भय से जाना नहीं चा... वाक्य पूर्ण होने से पूर्व ही कहने लगे मल्लप्पाजी गृहस्थ जीवन के दायित्व से करके पलायन आगम भी नहीं देता अनुमति दीक्षा की, ब दल जाए बाहर से भेष भले ही पर भीतरी भावना बदलती नहीं। दो पुत्रों में अभी प्रौढ़ता आयी नहीं दोनों पुत्रियों का भी है विकल्प, मुनि होने का मन में है विचार पर कर नहीं पाता संकल्प। इसी वार्तालाप में स्वामी से ले अनुमति आखिर श्रीमति और अनंतनाथ शांता, सुवर्णा को ले साथ चल पड़ी दर्शनार्थ… यात्रा के दौरान सोच रही शांता शांत मन से... यदि संख्या से निकाल दें। मूल एक का अंक तो गिर जाती है गणित की इमारत शून्य को निकालते ही ढह जाती है भूगोल की इमारत और अध्यात्म के हटाते ही बिखर जाती है आनंद की इमारत। मैं प्रवेश पाना चाहती हूँ। परमानंद के महल में, जड़ महल में होती चहल-पहल बहुत पर स्वातम का अनुभव कहाँ? परेशानियों का हल कहाँ? भोगों के भग्न भवन में दुखों का आसव रूकता कहाँ? अंतहीन अतृप्ति रूप-वासना में एक ही आत्म पदार्थ पर वास रहता कहाँ? अतः किसी से ऐसा राग करना नहीं कि वह न रहे तो मैं रह ना सँकू, और किसी से ऐसा द्वेष करना नहीं कि वह रहे तो मैं रह ना सँकू, यों शांत निःशब्द भावात्मक विरक्ति के दुर्गम पथ पर कल्पना से विचर रही थी... ‘सुवर्णा' भावों से भीगी कहे बिना कुछ भी वर्ण साथ दे अंतस् से बहन का साधना-पथ पर चाहती है अविराम चलना भावों की आहट को कोई सुन न ले इस शंका से रास्ते भर रही मौन।। किंतु साथ थे अनंतनाथ बचपन से ही मेधावी कार्य में कर्मठ योगी अकथ ही हृदय के समझ गये भाव बोले- व्रत लेने की भूल मत करना बहुत कठिन है संयम-पथ अपनाना। उल्लास उर्मियाँ उठ रही हैं। चित्त में नूतन अंगड़ाई है । दोनों के उमंगित हैं तन उल्लसित हैं कदम, पुलकित है मन। मनोरथ पर सवार देखा दोनों बहनों ने आ गया है अजमेर वहाँ से पहुँच कर सवाई माधोपुर अभिभूत हुए दर्शन कर, ब्रह्मचर्य व्रत लेने की भावना व्यक्त कर आशीर्वाद मिला ‘देखो आहारोपरांत प्रार्थना करने पर आजीवन व्रत ब्रह्मचर्य प्रदान किया ब्राह्मी, सुंदरी की परंपरा का निर्वाह किया। ज्ञात हुई जब यह बात बहुत रोये अनंतनाथ... यदि होता मुझे पता तो साथ में नहीं लाता, जब तक नहीं होती अध्यात्म की अनुभूति तब तक नियम-संयम लगते निरर्थक। इधर मल्लप्पाजी शांतिनाथ के साथ आ पहुँचे ‘सवाई माधोपुर दोनों पुत्रियों को देख श्वेत शाटिका में हुए चिंतातुर, पूछा आचार्यश्री से क्या आजीवन दिया है व्रत । या काल है नियत...?" यतिवर रहे मौन; क्योंकि जाना जा सकता है बिना बोले भी शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत्’ क्षेत्र महावीर जी में आये दर्शनार्थ अ नन्य भक्त कजौड़ीमल, तभी निर्देश दिया उन्हें पहुँचा दो दोनों ब्रह्मचारिणी को। ‘मुजफ्फरनगर' आचार्य धर्मसागरजी के संघ में। देख अपनी सुता को धवल परिधान में माँ का मन हो गया विरत, अनंतनाथ, शांतिनाथ लेने गये आज्ञा घर लौटने की तो वीतराग भाव से भरकर बोले मुनिश्री ‘पर घर का छोड़ो आकर्षण निज घर में करो पदार्पण! दुर्लभ मनुज जन्म रूपी रत्न को मत फेंको वासना के गहरे समंदर में जिस पथ का किया है अनुकरण मैंने चल पड़ो इसी अनंत शांति के पथ पे..." श्रुतिपुट में पड़ते ही सुमधुर शब्द खो गई मति स्मृति में। सुदू...र वर्षों पीछे कहते थे भैया विद्या “बैठकर णमोकार की कार में जाना है सिद्धों के दरबार में'' खेल-खेल में सिखाई जिन्होंने धर्म की वर्णमाला, प्रारंभ होती है जो दया से दया होती है भरपूर उन्हीं में, जो सिंहवृत्ति वाले होते साधु महानता के होते मेरू यही हैं हमारे आज से गुरू...। यूँ ठान मन में पूछ ली मन की बात, गुरूवर! वैराग्य होता है क्या? तत्काल दिया समाधान सधे शब्दों में राग-आग सम है तो वैर विकराल ज्वालामुखी-सा है द्वेष स्वरूपा, राग-द्वेष से रहित होने की साधना है वैराग्य। दृष्टि में विरक्ति है यदि आत्म रुचि है यदि तो मार्ग यह सरल है अत्यंत, दृष्टि में आसक्ति है यदि आत्म रुचि नहीं है यदि तो मार्ग यह जटिल है निश्चित। गहन भाषा कुछ उतरी भीतर कुछ तिरोहित हो गई बाहर, किंतु समझ में आ गई भावों की भाषा झट झुका दिया शीश एक चरण में अनंत तो दूसरे चरण में शांति। दर्शनीय था दृश्य मानो आदिप्रभु के चरणों में विराजित हों भरत, बाहुबली उन्नीस सौ पचहत्तर दो मई के दिन दोनों भ्राता ने ले लिया ब्रह्मचर्य व्रत संघ में ही रहकर हो गये साधना रत… इधर वैराग्य के वेग को रोक न पाये मल्लप्पाजी भी, सो श्रुतसागर आचार्य के संघ में रहकर करने लगे धर्म-साधना... कुछ ही समय में आचार्य धर्मसागरजी के संघ में सम्मिलित हो बन गये मुजफ्फरनगर में विशाल जनमेदिनी के मध्य ‘मल्लप्पा' से 'मुनि मल्लिसागरजी ‘श्रीमंति' से हो गई ‘आर्यिका समयमति' धन्य माता-पिता की मति!! चल पड़े जिन-पथ पर प्रशंसनीय है परिवार यह! घर में एक सदस्य को छोड़ साथ चल पड़े सत्पथ पर सप्तम परम स्थान को पाने, युग के आदि में आदिप्रभु के पूरे परिवार ने ग्रहण की थी ज्यों दीक्षा त्यों विलुप्त होती परम्परा को सं यम की संजीवनी बूटी दे पुनर्जीवित कर दिया।
  12. गुरु के गुण में डूबते गहराई से पहुँच जाते स्वयं तक और स्वयं की गहराई में डूबते तो बाहर आ जाते गुरु-तट तक, विद्या और ज्ञान में अंतर कहाँ रह गया था! जो ज्ञान था वह विद्या में प्रवेश कर चुका था, तभी तो जनता ने एक कंठ से कहा विद्यासागर भी यही हैं ज्ञानसागर भी यही हैं सिर्फ कुण्ड बदला है पानी तो वही है!! परिवर्तनशील है समय फिसलता जा रहा है रेत की भाँति वह मनुज अपने नाजुक कर से काल की सरकती प्रकृति को कहाँ थाम पाता, कितना पराधीन है वह? या यूँ कहें कि वास्तव में स्वाधीन ही है यह तभी तो परद्रव्य का मनाक्” भी कुछ कर नहीं सकता, जिसने संयम की श्वास दी उसे शिष्य भूल भी नहीं सकता। जिसने बनाया विद्याधर को विद्यासागर उन्हें कैसे बिसराया जा सकता? अतः शिष्य ने हृदय-पुस्तिका पर धड़कन की टाँकी से श्वासों का रूप दे उभार लिया, इस तरह गुरू-सा बन गुरु का ऋण उतार दिया। ज्ञानधारा ज्यों-ज्यों बढ़ती गई आगे त्यों-त्यों धरा पर उकेरती रही यादें उभरती गयीं अंतर की कुछ बातें और लिखती गयी... जब तक रवि-शशि गगन में, तब तक हो गुरू नाम। भावी भगवन् शिष्य-गुरू, द्वय को नम्र प्रणाम।" जब-जब पथिक गुजरते गुरू-शिष्य की कथा पढ़ते... अद्भुत संबंध की सराहना करते ज्ञानधारा के लिखे लेख से कुछ सीखते यूँ गुजर रहा था काल… कि सन् चौहत्तर सोनीजी की नसिया में हो रहे चौमासे में निज श्रामण्य के अनुभव से जो लखा सो लिखा रचा ‘श्रमण शतकम् प्रथम संस्कृत रचना के रूप में विमोचन के समय प्रकाण्ड विद्वान् जगन्मोहनलाल जी शास्त्री ने किया अवलोकन कृति का जब समझ न पाये शब्दार्थ तब ज्ञानी आचार्य विद्यासागरजी कृत पढ़कर हिन्दी अनुवाद ज्ञात हुआ अर्थ, बोले वे “संस्कृत पढ़ते पढ़ाते हो गए मुझे पचास वर्ष फिर भी समझ नहीं पाया मैं अज्ञ!" ‘कन्नड़ भाषी' होकर भी कितनी परिष्कृत है इनकी संस्कृत! नूतन आचार्य धनी हैं। विलक्षण प्रतिभा के, अनूठे संगम हैं ज्ञान व साधना के, स्वनाम धन्य, विद्वत् मान्य प्रबुद्ध चिंतक हैं निज शुद्ध आतमा के। मैं श्रेष्ठ हूँ यह सिद्ध करने अज्ञ करता साधना मैं सिद्धसम हूँ यह अनुभवने विज्ञ करते आत्म-आराधना। नहीं है चाहत चित्त में स्वयं को सच्चा मुनि सिद्ध करने की चाहत है चेतन में एकमात्र । सिद्धिवधू वरने की, सो पहुँच गये ‘श्मशान घाट' ‘छतरी योजना' नाम से प्रसिद्ध है जो। एकांत में निर्मोही संत ने किया केशकुंचन सहज हुआ क्लेश का विमोचन लगा आसन बैठ गये ध्यान में... जलती है धू-धू जहाँ देह की चिता... जलने लगी वहीं विकारों की चिता, चेतन में लीन होने लगा मन धाराप्रवाह पवित्र ऊर्जा का होने लगा आगमन पूर्वदिशा में सम्मेदशिखर से पश्चिम में गिरनार से उत्तर में विदेहक्षेत्र से द क्षिण में गोम्मटेश्वर से नैऋत्य से मूलभूत नायक ज्ञायक तत्त्व रूप निज को निज में थिर करने वाली, वायव्य से प्रभावित हुई वायु पाप धूल को उड़ाने वाली, ईशान से देवाधिदेव के देवत्व की विकारों को शांत करने वाली, आग्नेय कोण से पराकर्षण को निस्तेज कर तप तेज को बढ़ाने वाली, ऊर्ध्व से अनंत सिद्धों की पवित्र ऊर्जा का वर्षण संकल्प-विकल्प का गमन अधो से मूलाधार की शक्ति प्रदाता यों दसों दिशा से बहती ऊर्जा… ज्यों-ज्यों दिखने लगे निज दोष त्यों-त्यों बढ़ने लगा गुणकोष अनेक प्रतिकूलताओं में भी दिखने लगा भव का कूल आत्मिक सुख का मूल। जितना-जितना उपयोग गहराया उतना-उतना आत्मानंद उछल आया, ज्ञान ने ज्ञान को जाना अहा! अपूर्व था वह क्षण दृष्टि ने निज दृष्टा को पहचाना परमार्थ स्वरूप की ओर दृष्टि होते ही मिट जाती है सर्व निमित्ताधीन वृत्ति शुद्धात्म धरा पर ज्ञान वृष्टि होती है। दिख जाती है अनंत गुण संपत्ति!! निजात्म तत्त्व की कमनीयता निहारते-निहारते बीत गये एक दो नहीं पूरे छत्तीस घंटे मानो आचार्य के छत्तीस गुणों को पार कर जाना चाहते हैं शिवधाम को, लेकिन निश्चय के उपरांत आना पड़ता है व्यवहार में, संत अभी संसार में हैं। पर संसार नहीं रखते स्वयं में धन्य है आपका श्रामण्य। यूँ कहने लगा धरा का कण-कण जन-जन का अंतर्मन...
  13. पुण्य भूमि नसीराबाद की समाधिस्थली ज्ञानसागरजी की, चल दिये वहाँ से... अर्पित कर प्रणामाञ्जलि साथ में दो क्षुल्लक ब्र ह्मचारी था एक एक-एक कदम चलते-चलते हो रहे थे दू...र इस नगरी से… भक्तों का समूह भी चल रहा साथ-साथ... किंतु किधर जा रहे किसी को नहीं यह बात ज्ञात राह अनिश्चित है गंतव्य असूझ, किंतु गुरू-स्मृति के साथ अकंपित चरण बढ़ रहे। प्रतिपल अग्रपथ की ओर... दूसरे ही दिन अंतर्भावों को ओढ़ाकर शब्दों के परिधान और लिख दी स्तुति अपने दीक्षा गुरु ज्ञानसागरजी की, आ गया दिवाकर बड़े सवेरे एकाकी संतमना का मन बहलाने ज्ञानदाता की स्मृति न सताये इस भावना से स्वयं देने लगा प्रकाश। लेकिन गगन सूरज के जड़ प्रकाश और ज्ञान-सूरज के चिन्मय प्रकाश में अंतर है जमीं-आसमान सा... प्रखर प्रखरतम अपनी किरणावलियों से । विरह-वेदना से रिसते अश्रु बिन्दुओं को स्वेद कणों के बहाने बाहर निकाल रहा है, दिन में दिवाकर साथी बन संत को साथ दे रहा है, तो रात्रि में निशाकर चाँदनी छिटकाकर गुरु के अभाव में शिष्य की देखभाल कर रहा है। इस तरह प्रकृति- पुरूष को सँभाल रही प्रकृति ज्यों सँभालती माँ सुत को बेटे ने तजी एक माँ श्रीमंति, तो बन गई माँ सारी प्रकृति कर रही परवरिश जगती के वंशज की! शीत ऋतु में काला-सा कवच पहनाकर अपने सुत की करती रक्षा ग्रीष्म में पसीने के रूप में, निष्कासित करती देह की कलुषता तो बारिश के दिनों में तन को नहलाकर करती तरोताजा। यूँ सब ऋतुओं में सजग हो प्रकृति करती रही श्रृंगारित कभी शीत तो कभी उष्ण पवन बहाती तरह-तरह की स्वाद वाली घ्राण की ओर सुरभि सरकाती, चक्षु के लिए रम्य श्रवण को लगे मधुर श्राव्य ऐसे भाँति-भाँति के पंचेन्द्रिय विषयों से रिझाना चाहती प्रकृति जितमना जितेन्द्रिय संत को। जो करते रहते प्रतिपल ‘आत्म-शृंगार वे कहाँ चाहेंगे इन्द्रिय विषय? जो लगते हैं इन्हें दहकते अंगार, श्रमण करते मुक्ति पाने का श्रम मिटाने को भव का भ्रमण मन विकार को चूर करते तन श्रृंगार से दूर रहते नित नवीन आनंदानुभूति से आत्मा की प्रतीति से उभरती है अदभुत आभा सहज सौन्दर्य संयुत है चिदात्मा!! ऐसे चेतन की गहराई में डूबे संत का मुखरित हुआ वीर रस मुझे नहीं आवश्यक प्रकृति की सहानुभूति होने नहीं देती जो स्वानुभूति यदि है आत्म प्रकृति तो सुख की कारिका है वरना कर्म प्रकृति दुखकारिका सुखहारिका है। यूँ वीर्य गुण से निःसृत ‘वीर रस' ने कहा अपनी वीरता के अंदाज में जो वीर्य गुण से है वीर उसमें है रवि-सा पराक्रम वीर्य गुण के बिना जानन-देखन होता है कहाँ ? भले ही प्राप्त हो केवलज्ञान, लेकिन बिना अनंतवीर्य के लोकालोक जान पाते कहाँ? वैसे प्रत्येक आत्मा वीर्यत्व गुण के कारण है वीर फिर भला पराश्रित हो क्यों सहता है पीर? द्रव्य की महानता रखना है लक्ष्य में निमित्ताधीन दृष्टि छोड़ स्वयं की स्वतंत्रता रखना है स्मरण में। इस तरह पर आकर्षण में न अटककर शील शिरोमणि विद्या के सागर रखते स्वयं को सावधान अवधान अर्थात् ज्ञान से करते समाधान फिर ‘भय' का क्या काम? जब पर का मुझमें वास नहीं पर का मैं दास नहीं पर के स्वामित्व से होता भयवान पर के ईश बनने से होता परेशान! स्वभाव से सुभट हूँ मैं निज चिन्मात्र धर्मी की शरणागत हूँ मैं इसी से हैं निर्भय, परमानंदमय... इसी के रसास्वादन में हो रहे थे लीन कि अचानक... बाहर से अट्टहास किया 'हास्य' ने ‘‘यदि है निर्भय आत्म स्वभाव तो कर्मों से भयभीत हो इधर से उधर नाना योनियों में क्यों हो रहा भटकाव?'' हास्य रस की बात श्रवण से सुन कहा श्रमण ने हास्य से किसका इतिहास नहीं रहा हास्यमय? पूर्व का जीवन सबका रहा दुखमय अति हास्य अच्छा नहीं होता इसमें भी दूसरों पर जो हँसता वह आत्मा के शक्ति अंश को खोता' ‘बीमारी की जड़ खाँसी। और लड़ाई की जड़ हाँसी' इसीलिए हँसे तो फंसे हँसोगे जितना रोओगे उतना कहते हैं- विद्वत्जन हँसमुख रहना अच्छा है, लेकिन हँसते ही रहना है मूर्खता की निशानी… हास्य है मोह की प्रकृति जब तक रहेगी हँसी, नहीं होता पूर्णज्ञानी, गांभीर्य वृत्ति वालों की बात मानी जाती है वजनदार, दिखाकर बत्तीसी हँसते-हँसते बोलने वालों की बात नहीं रहती असरदार। मेरा हो रहा अनादर यूं समझकर, व्यंग से हँसकर फिर विकराल रूप धारण कर ‘रौद्र' ध्यान मय होकर भद्रता खोकर रूद्रता प्रकटकर वह तमतमाने लगा पहुँचाता जो नरक द्वार होता है जहाँ क्रूरता से वार ही वार सहता है मार ही मार फिर भी विस्मय इस बात का कि जीव डरता नहीं दुर्गति से! क्यों नहीं करता मनन मति से? विचार नहीं जिसे निज हित का ज्ञान का सदुपयोग नहीं जिसका वह है जड़ सम, चैतन्य सत्ता का अपमान है यह स्वयं का ही विराधक है वह!! पर की विराधना करने वाला पाता है दण्ड आजीवन कारावास स्वभाव की विराधना करने वाला पाता है अनंत संसार वास, बनकर पर का दास भूल कर अपना भान करता है मान यही है विस्मय की बात! स्मय अर्थात् मद है और वि अर्थात् विशेष मान होने से कर नहीं पाता ज्ञान का सदुपयोग मद का विलोम रूप है दम म...द...द...म... मद से सुख का निकल जाता है दम फलतः जीव पाता है दुख ही दुख... श्रमण के सधे ज्ञान ने समझाया 'विस्मय' को सहज भाव से अहो विस्मय! जग में होते हैं कई जीव कोई ज्ञानी, कोई अज्ञानी कोई आत्मध्यानी, कोई दुर्ध्यानी कोई सुखी, कोई दुखी कोई धनी, कोई निर्धन कोई श्रमिक, कोई श्रमण इसमें आश्चर्य की क्या बात? प्रत्येक द्रव्य परिणमते हैं स्वतंत्र एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का देता नहीं साथ। फिर भी आश्चर्य है अज्ञ चाहता है पर से सुख पाना ज्ञानी को कभी विस्मय नहीं होता; क्योंकि उनके ज्ञान में युगपत् सब झलकता शेष कुछ रहता नहीं इसीलिए विशेष कुछ होता नहीं, सहज सामान्य रहते वह जैसा स्वरूप है स्वातम का वैसा ही परिणमते वह... विस्मित होना तुच्छता है ज्ञान की शाश्वत सहज रहना पूर्णता है ज्ञान की, आत्मस्थ चर्या होने से रहता नहीं आश्चर्य ‘बीभत्स देह की ओर दृष्टि होने से पा नहीं सकता व्रत ब्रह्मचर्य। भटकाती दैहिक दृष्टि तारती है आत्मिक दृष्टि सूर्पनखा की थी दैहिक दृष्टि तभी तो कोई नहीं रखती माँ अपनी सुता का नाम ‘सूर्पनखा'। सीता की थी आत्मिक दृष्टि इसीलिए पूजित हुई वह सर्व जगत से आदर से कहते सभी ‘जय सियाराम', देह-दृष्टि के कारण। तन को धोता है मल-मल कर नाजुक-सा मलमल पहनाकर। रूप को सजाता है। दुख-कूप में गिरता है। अनूप चिद्रूप को निहारने वाला स्वरूप में रमता है। वही स्वयं का भूप बनता है। आज की युवतियाँ आधुनिकता की दौड़ में आध्यात्मिकता तजकर लाज लज्जा छोड़कर, संस्कृति को भूलकर कर रही देह प्रदर्शन, देश हो या विदेश गाँव हो या नगर क्षेत्र अमीर हो या गरीब खूबसूरत हो या बदसूरत सभी हैं इस होड़ में किसे है स्वरूप रमण की सुध? रूप ही रूप के नशे में धुत्त!! देह में ही लगा उपयोग जिनका वे एक श्वास में अठ-दस बार तन पाते हैं बार-बार, जिस इन्द्रिय के विषय को जो चाहता है जितना भोग करता है आसक्त होकर जितना करता उसमें क्रीड़ा उ तनी ही पाता पीड़ा। बीभत्स तन में ब हते रहते नव मल-द्वार पिटारा है यह मल का बुलबुला है जल का, फिर भी करते यारी यही तो है दुख भारी! घृणित देह से क्या प्रीत? ज्ञानधन देही को बनाते मीत युगों-युगों से यही रही है। श्रमणों की रीत... कहते-कहते यूं श्रमण के उन्नत हृदय-पर्वत से फूट पड़ी 'करुणा' की धारा देह श्रृंगार करने वाले अभक्ष्य भक्षण कर तन को तंदुरुस्त कर स्वयं को वीर कहने वाले, किंतु रहते भयभीत वे पल-पल मात्र है उनके पास छल-बल हास्यास्पद है जीवन उनका... रौद्र भाव से रौंद कर औरों का जीवन सुख नहीं पा सकता सच्चा, विस्मय की बात नहीं ऐसा ही इतिहास रहा सबका... कैसी विडम्बना है? फूलों की भीनी-भीनी महक तज बीभत्स मल पर बैठती मक्षिका, आत्मस्वभाव का परमानंद तज घृणित भोगों में मन जाता अज्ञ का यूँ सातों ही रस हैं वैभाविक संयोग जनित होने से हैं सांसारिक। सभी को हेय दृष्टि से निहारते करूणा-पूरित हृदय नयन संत के च लते-चलते रुकना नहीं चाहते। बढ़ते-बढ़ते पथ पर थमना नहीं चाहते... करुणा भी पड़ाव है मंज़िल नहीं मार्ग है... औरों के आँसुओं को पोंछकर अनुकंपा की पगडंडी से चलकर स्वयं भीगती है करुणा; अन्य को भी भिगोती है। औरों का दुख मिटाने हो जाती दुखी स्वयं यही है सुख का प्रथम सोपान। निज पर करुणा किये बिना अन्य पर करुणा हो नहीं सकती स्वयं रोशन हुए बिना औरों को रोशनी दी नहीं जाती, धर्म का मूल दया मान ऋषि मनीषियों ने करुणा रस की गायी है महिमा। क्योंकि दया के बीज से ही अंकुरित होती करुणा । फिर वही वृद्धिंगत होती-होती विशाल संयम तरु बन दस धर्मों के सुमन खिलाती अंत में वही पुष्पवती हो शांत रस भरित फल के रूप में दोलायमान होती। करुणा है मंदिर की नींव स्वरूपा तो शांत रस है कलश उसका, श्रमण समग्रता पाता है यहाँ स्व में बसता है। पर से हटता है। तभी आत्मानंद का रस आता है। ‘शांत रस' का कस मिलता है। इतना करो तो बस होता है। करुणा की जाती है। ‘डुकृञ् करणे' धातु का प्रयोग करते इसमें, किंतु शांत रस होता है। ‘भू' धातु का प्रयोग रहता इसमें हटते ही विकारों की चट्टान शांत रस का झरना दिखता है, स्वच्छ झरने के जल में शुद्धातम का स्वरूप झलकता है। जितना-जितना होता है शांत उतना-उतना होता सच्चा संत, पर से दृष्टि हटती है ज्यों ही स्व सन्मुख हो जाती है त्यों ही विकारों की घटाएँ फटती हैं। कर्मों के बंधन काटती हैं। उन क्षणों में अपूर्व निराकुलता मिलती है। सर्व आकुलता मिटती है। जब शांत रस की धारा अंतर में बहती है, यही है पुरूषार्थी वीरों की साधना यही है आत्मार्थी धीरों की आराधना सर्व रसों का सरताज जान लिया है। शांत रस का राज़। तभी तो गुरू वियोग में भी शांत हैं संत महाराज! जिस दिशा में भानु हो उदित उसी दिशा में उसका अस्त असंभव जिस दृष्टि में पाप हो उस दृष्टि से प्रभु का दर्शन असंभव, जिस चित्त में हो संयोग-वियोग की आकुलता उस चित्त में शांत रस है असंभव। इसीलिए तो समाधि को नियति मान यति की अपनी मति को गुरू-स्मृति में डुबोये प्रथम शतक के रूप में “उन्नीस सौ तिहत्तर ब्यावर में रच दिया 'निजानुभव शतक' पद्य की प्रत्येक पंक्ति में उभर आये अनेक रूप अपने गुरु की भक्ति में सो गुरु की असंख्य तस्वीर सजा दीं स्वातम के असंख्य प्रदेश में।
  14. अभी भी भीतर जाने की ही लौ लगी है परम पारिणामिक भाव-स्वरूप की निश्चय से निज परमात्मा की शाश्वत प्रतीति की आस जगी है... शहनाई की हल्की-सी आवाज़ सुन इंसान घर छोड़ बाहर चला जाता है, तीखी-सी चीख सुनकर मानव मंदिर छोड़ बाहर निकल आता है, किंतु स्वानुभूति की धुन सुनते ही संत बाहर से भीतर चला जाता है। चेतन पंछी को तन-पिंजर से उड़ने के मिलने लगे संकेत... चाहे कितनी लंबी हो यात्रा अंत उसका अवश्य आता जीवन की भी एक लम्बी यात्रा देह को ले देही करता रहता, मरण के समय लगता है। मानो क्षणिक कर रहा विश्राम, लेकिन पुनः नूतन यात्रा का करता आयाम नियत है जब मरण । तो क्या खुशी क्या गम? देह छोड़े मुझे इसके पहले ही मैं छोड़ चुका उसे । मेरी साधना का उत्कर्ष ही समाधिमरण है, समाधि से ही निश्चित होता शाश्वत सिद्धि का वरण है। यूँ चिंतन में गहराते जा रहे… आज सूर्य है अनमना कभी बिखराता प्रकाश तो कभी बादलों की ओट में आ जाता, किंतु ज्ञान प्रकाश पुंज पूरी तरह निभा रहे अपना दायित्व... इधर विद्यासिंधु आचार्य अपने ही विद्यागुरु को दे रहे संबोधन पूर्ण सजगता से न मे मृत्युः कुतो भीतिः न मे व्याधिः कुतो व्यथा'' पूछा- हो आत्मस्थ? क्षपक मुनि ने पलक खोल कर दिया विश्वस्त... आत्म-ज्ञान रूपी वीणा के असंख्य प्रदेश रूपी तार से झंकृत हो शुद्धोपयोग के रस से भीगा निजानुभूति का स्वर गूंजने लगा... हृदय की धड़कनों का स्वर शनैः शनैः मंद होने लगा। क्षपक आत्मा अंतिम प्रयाण की तैयारी में ज्ञान-निधि समेटने लगे ज्ञान-चक्षु से आत्म विद्या को भीतर ही भीतर निहारने लगे... एक जून उन्नीस सौ तिहत्तर की ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या की प्रातः दस बजकर पचास मिनट की आ गयी वह घड़ी डूबती साँसें... बुझती निगाहें... अंतर्लीन हुई स्वयं में... चेतन निकल गया तन से... तत्क्षण थम गई हवाएँ बहते-बहते रूक गईं सरिताएँ अंतिम श्वास को देखने… शेष रह गई कीर्ति संयम साधना की स्मृति उन्हीं के संस्कारों की अनमोल कृति आचार्य श्री विद्यासागर”। ज्ञानसिंधु की अनमोल धरोहर सौंप गए समूची धरती को... फूट गया पानी का बुलबुला विघट गया बादल का टुकड़ा-टुकड़ा मुरझा गया सुमन, शेष रही महक बिजली की खो गई चमक, उड़ गया इन्द्रधनुष का रंग चल दिया चेतन, पड़ा रहा अंग… गुरु उत्तीर्ण हुए समाधि करके शिष्यत्व सार्थक हुआ समाधि कराके आनंद-विरह की वेला थी, भीतर से आँखें नम थीं। आनंद था इसलिए कि गुरु की श्रेष्ठ सल्लेखना हुई थी। विरह इसलिए कि गुरू का अब दर्शन संभव नहीं… भोगों के लिए रोता है भोगी, भगवान सम गुरु के लिए रोता है ज्ञानी। गुरू-विरह में बरसे आँसू मानो बसरा मोती हैं, गुरू-विरह में बरसे आँसू गुरु स्नेह की ज्योति है, वह मात्र नयन का नीर नहीं हीरे-सी उज्ज्वल कणिका है, वह मात्र हृदय की पीर नहीं गुरू-भक्ति की शुभ मणियाँ हैं। इस भाँति प्रकृति ने गायीं कुछ पंक्तियाँ... “अन्ते मतिः सा गतिः'' अन्त में होती है जैसी मति वैसी ही होती गति, धन्य ज्ञानसिंधु यति! अन्त तक रहकर आत्मस्थ हो गये मुक्ति के निकटस्थ!! जन-जन की नज़रें ढूँढ़ रही थीं उन्हें शिष्य हृदय की धड़कनें पुकार रही थीं उन्हें, लेकिन रह गई शेष ज्योति, दीपक बुझ गया रह गई शेष चमक, नक्षत्र डूब गया रह गई शेष अरूणाई, सूरज ढल गया शेष रह गई शीतल पुरवैया नदी का जल आगे बढ़ गया… यही तो है प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता स्वयं द्रव्य ही है अपना नियंता किसी के परिणमन को कोई रोक नहीं सकता, लो ज्ञानधारा की गति मंद हो गई स्वयं बहते-बहते ज्ञानसागरजी की खोज में… कभी देखती पर्वत की चोटी पर कभी देखती गगन की ओर... कभी झरनों के प्रवाह में तो कभी प्रकृति की शांत आवाज़ में यूँ धरती के कण-कण में मार्तण्ड की एक-एक किरण में निहारती-सी ज्ञानधारा... दूऽऽऽ र बहुत दूऽऽऽर तक... बही जा रही... बहते-बहते कहती जा रही बीज वपन के उपरांत फूटता है अंकुर, बढ़ता-बढ़ता बनता तरुवर जिस पर खिलते हैं फूल। संत की संयम साधना से तपाराधना के महक रहे यहाँ सुमन, यही तो विकास का क्रम है... सम्यक् समाधि ही समूचे श्रमण जीवन का श्रम है। सब कुछ जानती- समझती औरों को समझाती ज्ञानसिंधु की समाधि का संदेश देती... बीहड़ जंगलों से गुजरती तो कभी नगर-नगर, डगर-डगर घूमती प्राणी मात्र के भीतर बहती नित्य निरंतर प्रवाहिता आत्म तत्त्व अवगाहिता ध्रुव लक्ष्य की ओर... चली जा रही ज्ञा ऽऽऽ न धा ऽऽऽ रा ऽऽऽ
  15. देख आज नवाचार्य के उदास नयन नीरस वदन देह की ओर इशारा कर बोले क्षपक उद्घाटित कर अधर यह तो नश्वर पर्याय है। कर्म आधीन होने से, पर आय है। आयु की आय है। जब हो जायेगी व्यय आयु पर्याय नष्ट हो जायेगी धड़कनें रूक जायेंगी तब श्वास खो जायेगी; क्योंकि जहाँ आय है वहाँ व्यय है। जिसका होता है उत्पाद उसका होता है नाश फिर पाने में हर्ष क्यों? और खोने में विषाद क्यों? करना है प्रतीति राग से भिन्न ज्ञान की आत्म रसिक बन । करनी है अनुभूति अंतध्र्यान की। आतम के ही आत्मीय बन, निश्चय से ज्ञान राग से भिन्न है। तुम राग नहीं राग के ज्ञायक हो यही तो तुम्हारा स्वरूप है। ज्ञान से ज्ञान में देखो ज्ञान को ही इस प्रशस्त राग का भी हो जायेगा अभाव सहज ही बिखरना स्वभाव है देह का, इसे शाश्वत कोई टिका नहीं सकता अमिट स्वभाव है आतम का इसे कभी कोई मिटा नहीं सकता, बढ़ा नहीं सकता कोई जीवन की लंबाई चाहे कितना कर ले पुरुषार्थ! हाँ, बढ़ा सकते गुणों की ऊँचाई भेदज्ञान की गहराई... आप तो जानते हो ना यह सत्य फिर क्यों उद्विग्न हो आचार्य? अधखुले होठों से कह पाये अस्पष्ट कुछ ही ‘अब संसार शेष रहा है स्वल्प ही, मुझे विश्वास है आपकी आगमानुकूल चर्या से शीघ्र सिद्धि पायेंगे अवश्य ही।'' कैसे सहूँ मैं आपके विरह को? मेरे तो एक आप ही आधार हैं। सब कुछ सौंप दिया है आपको एक आप ही तारणहार हैं। आपके गुणों का ‘अनुरागी हूँ मैं स्वीकारता हूँ इसे मैं, क्या सवेरे की लाली होती है शाम की लाली-सी । क्या विरागी के प्रति राग की और रागी के प्रति राग की । हो सकती है बराबरी कभी?" तभी बीच में ही मुखरित हुए क्षपक ज्ञानसागरजी मैं जानता हूँ गुरु के प्रति अनुराग तुम्हें बुलवा रहा है। मैं मानता हूँ शुभोपयोग का अपराध है यह जो तुमसे कहला रहा है, ज्यों कहा मानतुंग स्वामी ने कोयल के कुहकने में आम्र मंजरी कारण है। और मुझे स्तुति करने में प्रभु आपकी भक्ति कारण है... तुम तो हो विद्या निधि जिनवाणी की मिली सन्निधि जानते हो ना तुम? की ‘‘चौरे गते वा किमु सावधानम् निर्वाण दीपे किमु तैल दानम्" चोर भाग जाने के बाद । सावधान रहना किस काम का? दीपक बुझ जाने के बाद तेल डालना किस काम का? आयु पूर्ण होने पर संभव नहीं उसे जलाना...।' इस तरह गुरु-शिष्य की वीतरागता से भरी गुणानुराग की सुन वार्ता दुनिया के सारे दैहिक प्रेम लगते हैं स्वार्थी, नीरस से गुरु का आत्मिक प्रेम पहुँचाता है मुक्ति मंज़िल पे... जब कर दिया त्याग आसन बदलने का भी आये कुछ लोग ‘आचार्य श्री शिवसागर स्मृति ग्रंथ' हेतु लेने कुछ स्मृतियाँ क्षपक महामुनि श्री ज्ञानसागरजी से... थे जो प्रथम शिष्य श्री शिवसागरजी के डरते-डरते आये समीप वे सुनते ही बात स्मृति-ग्रंथ की बोले- आये हो मेरे गुरू के लिए इसमें डरने की बात क्या थी? तत्क्षण आशु कवि ने लिख दिए दो श्लोक जो आज भी हैं स्मृति ग्रंथ में दर्शाते हैं जो गुरु के प्रति अमरभक्ति को प्रकट करते हैं जो अंतर शक्ति को… तन लेटा है क्षपक का चेतन जागृत है। कर्म द्वारा आवृत है व्यवहार से निश्चय से आतम अनावृत है, डूबे हैं सुदू...र गहन चिंतन में अकृत्रिम जिनालय के दर्शन में… मात्र हो गया है शिथिल सामर्थ्य भी नहीं इसमें सो निहार नहीं सकते चर्म नैनों से, लेकिन निहार सकते हैं ज्ञान नयनों से स्वाधीन है ज्ञान चक्षु कर्माधीन है चर्म चक्षु। कहता है जैनागम जो निज में रत हो गये वह भव से तर गये र... त... त... र मग्न हो गये स्वयं में अवगाहित हो गये। स्वानुभव के समंदर में तभी अंदर ही अंदर में... झलकने लगा विशाल चैत्यालय ऊपर अधर से हौले-हौले आ रहा धरती पर कि अचानक बज उठे सुमधुर वादित्र... मंद-सुगंध पवन बहने लगी... दिव्य रत्नवृष्टि होने लगी... पारिजात, नमेरू, मंदार घ्राणप्रिय सुगंध भरे सुमन सुंदर-सुंदर बरसने लगे... नर सुर मुनिवर के हृदय हरषने लगे लो! देखते ही देखते अनुपम अद्वितीय अकृत्रिम जिनालय स्थापित हो गया हृदय-धरा पर दोनों कर जोड़े हैं मुनिवर और डूब गये चिंतन की गहराई में… परमानंदी दृश्य देख लगा पल भर कि नंदीश्वर में आ गये हों इधर... उत्तर में बना है सेतु स्फटिक मणि का । पहुँचाता है जो सरवर मध्य जिनालय तक, कई योजनों का विशाल हीरे-सा चमकता बाहर में बारीक है नक्काशी... वर्गों से वर्णन संभव नहीं इसका अंतर्नयन विस्फारित किये बस देख रहे हैं, देख ही सकते हैं। आतम आकुल है प्रभु दरश पाने चेतना आतुर है परम का परस पाने... ज्यों ही रखा चन्द्र स्वर के साथ बायाँ चरण सरवर के तट पर, पलक झपकते ही आ गया मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार विशालता, पवित्रता, स्वच्छता अद्भुत है सिंहद्वार की रमणीयता। ध्वनि हुई- ओम्... जय-जय-जय, निःसहि-निःसहि-निःसहि की प्रभु दर्श से प्रभु होने की प्रार्थना चल रही है क्षपक संत की… कि ज्यों ही देखा ऊपर की ओर दिख गया गगन चूमता शिखर राजाओं के मुकुट की भाँति, शिखरों का महाशिखर देखकर जिसे नृपतियों का भी मान हो जाता तितर-बितर अभिमान गलकर जाता है बिखर अपलक निहार स्फटिक मणि का शिखर... ज्यों ही झुकी पलक दिखा इधर नीचे जहाँ प्रवेश द्वार है, उसके चारों ओर रत्न चूर्ण से निर्मित नानारंग युक्त वलयाकार कोट है, चौदिश में स्वर्णिम स्तंभ वाले । चार तोरणद्वार हैं, मंगल द्रव्य रखे हैं द्वार के बाहर धूपघट भी हैं, भीनी-भीनी महक आ रही नासा पुट पर, किंतु घ्राणेन्द्रिय जयी संत गंध से परे । लीन हैं अगंध स्वरूप में… कि अचानक लगा कोई रोक रहा है मुझे द्वार पर तभी संयत स्वर में पुकारा हे नाथों के नाथ! हे मेरे हृदय प्रकाश! हे वीतरागी जिनराज! दर्शन पाना चाहता हूँ आपके मृत्युजयी बन मिलना चाहता हूँ निज से। अंतर्मन से की प्रार्थना कभी नहीं जाती व्यर्थ दूर कर देती सब अनर्थ लो ! पल-भर में ही मुख्य प्रवेश द्वार के खुल गये कपाट... असली रत्नों के प्रकाश की दमक अद्भुत सघन पवित्र ऊर्जा से पूरित देख अकृत्रिम चैत्यालय की चमक य ह मध्यलोक है या ऊर्ध्वलोक या है साक्षात् सिद्धलोक!! बुद्धि काम नहीं कर रही मात्र श्रद्धा ही बोल रही । सारी कमनीयता तीन लोक की मानो सिमट कर आ गयी हो यहीं, प्रथम 'कोली' मण्डप में एक सौ आठ स्तंभ में सुंदर उकेरे हुए चित्र हैं। मानो जीवंत हो बोलने ही वाले हैं। फर्श माणिक मणि का देखते ही बनता है। द्वितीय ‘पूजा' मण्डप का पुखराज से मण्डित है आँगन बारीक कलाकृति से सज्जित, यहाँ भी हैं एक सौ आठ स्तम्भ मर्त्यलोक” के कृत्रिम जिनगेह में भला कौन कर सकता है ऐसी कलाकृति? जान सकता है इसे वृहस्पति। ये आ गया तृतीय श्रृंगार' मण्डप यहाँ एक सौ आठ स्तंभों पर हैं पंच परमेष्ठी का चित्रण चौक ‘चन्द्रकांतमणि' से जडित, मन आगे बढ़ने को है लालायित गर्भगृह में जाने को प्रतीक्षित बाहरी परिवेश जब है इतना मनोहर तो भीतर भगवान होंगे कितने मनोरम! अहा! आनंद! परमानंद! जिसके लिए चिर प्रतीक्षित थे नयन...। आ गया वह गर्भगृह परस पाते ही यहाँ का कण-कण स्मरण आता है निजगृह... शांत अलौकिक वातावरण सुगंधित सुवास, गर्भगृह का आँगन जगमगा रहा है। समूचा 'नीलमणि' से! ज्यों ही पड़ी अंतर्दृष्टि प्रथम वेदिका पे… अकल्पनीय है इसकी कलाकारी अनिर्वचनीय है महिमा इसकी, प्रतिमा है पाँच सौ धनुष की अविकारी अपनी अपूर्व ऊर्जा से । स म्पूर्ण वेदिका को आप्लावित कर रही! पाकर प्रभु का दर्शन हो गये मौन वचन... प्रत्येक वेदी पर हैं। एक-एक प्रतिमा विराजमान आगे-आगे बढ़ते गये... ज्यों-ज्यों दर्शन करते गये... त्यों-त्यों आत्मानंद में खोते गये… मानो अनंत सिद्धों के समीप आ गये! आँखों की कोर में मूरत समा गई कोई हीरे की, कोई स्फटिक की। कोई नीलम की, कोई माणिक की कोई पन्ना की, कोई पुखराज की कोई गोमेद की, कोई गरूड़ मणि की कोई चन्द्रकांतमणि की, कोई वैडूर्य मणि की कोई स्वर्ण की, कोई चाँदी की भाँति-भाँति की जिन प्रतिमाएँ दर्शन करते ही जिनके मिट जाती हैं भव-भव की पीड़ाएँ… जो स्वयं रचनाकार हैं। विद्यासिंधु चेतन कृति के । ऐसे कृतिकार यति की मति करके सबकी विस्मृति मूर्ति में ही खो गई है। आग्नेय कोण में एक रत्नदीप जगमगा रहा है संयमित लौ के साथ मानो वह अपनी नन्हीं-सी देह में समेट लेना चाहता है विराट प्रभु को, ऊपर अनेक स्वर्ण धुंघरुओं से नाना रत्नमयी नगों से जड़ित है चंदोबा, तीन छत्र नूतन स्वर्ण के प्रभु की सन्निधि से फूले नहीं समाये हैं सो झूम-झूम कर जिनराज के गुण गा रहे हैं... समाधि की वेला को सन्निकट जान अंतिम वेदिका के समक्ष भावों से उत्थित होकर लीन हो गये परम में जन्म-मृत्यु से परे...। निराकार निज चेतन में ज्ञान में ज्ञेय निजातम हो या प्रभु परमातम हो । और कोई ज्ञेय न हो इसी भावना से...। अकृत्रिम जिनालय के डूबे गहन चिंतन में... बीत गया बहुत काल नयन मूंदें, तो आचार्य श्री विद्यासागरजी ने पूछा मंद ध्वनि से सावधान हो महाराज? सुनते ही यह आवाज़ भीतर से बाहर आना पड़ा आँखों का कपाट खोलना पड़ा खुली पलकों ने बिना कहे ही सब कुछ कह दिया। ''मैं सावधान हूँ'' हौले से यह इशारा कर दिया।
  16. एक दिन ढलती शाम में देखा शिष्य के नयन में झलक रही ललाई नीर से भर आई। छिपा न पाये गुरु से। गुरु से बढ़कर शिष्य तपस्वी हो सकता है। गुरु से बढ़कर शिष्य शब्दों से ज्ञानी हो सकता है, पर लाख प्रयत्न करने पर भी गुरू से बढ़कर अनुभवी नहीं हो सकता आखिर पूछ लिया क्यों हो रहे अधीर? क्या है मन में पीर? गर्दन हिलाकर कहा- 'कुछ नहीं... पर सुन ली अंदर की सिसकियाँ । जल भरी छलकती अँखियाँ, गुरु बढ़कर हैं माँ से क्या छिपा सकता है भला शिष्य गुरु से। जननी देती है मात्र पल-पल मौत की ओर ले जाने वाला जनम गुरु माँ देती है। पल-पल मोक्ष की ओर ले जाने वाला जीवन। सस्नेह हाथ का स्पर्श पाकर खोलकर भीतर का अवगुंठन बोले आप ही हैं एकमात्र सहारा मेरे जीवन का आप बिन कैसे रह पाऊँगा? अनाश्रित लता-सा टूट जाऊँगा धरा-बिन सब यूँ ही धरा रह जायेगा मूल बिन चूल कहाँ टिक पायेगा? सुनकर वेदना के स्वर गंभीर मुद्रा में कहा शिष्य से यह राग भी बाधक है वीतरागता में अवरोधक है शुद्धात्मानुभूति मय साधुता में क्या रेत की दीवार बन सकती है आधार? पराश्रित होकर ही तो बढ़ाया है संसार खायी है कर्मों की मार ही मार… पर का सहारा है जब तक जीव हारा हुआ है तब तक, सारा मत मानो सहारा को आनंददायिनी पीयूषपायिनी आत्मसात् कर ज्ञानधारा को साधक होता है कर्मजयी अनंत अव्याबाध सुख गुणमयी। सुन अमृत वचनावली गु रु मूरत में निज सूरत निहार सुमेरु सम अकंप निश्चल ज्ञानसिंधु को अंतर्मन से किया प्रणाम बार-बार, किंतु दूसरे ही क्षण सल्लेखना का आते ही विचार सिहर उठी फिर से शिष्य की आत्मा… गहन वेदना से पिघलती अश्रुधारा को । नहीं मिल रहा बाहर निकलने का मार्ग तब भीतर ही भीतर नहा उठे अश्रु निर्झर से, प्रभाव दिख रहा स्पष्ट देह से स्वेद-कण से भीग गया समूचा बदन, फिर भी सजग हैं आचार्य भगवन् बोध है दायित्व का आचार्य की गरिमानुरूप बढ़ गई और सजगता जो कभी चलते थे गुरु का हाथ थामे आज स्वयं थामे हैं हाथ गुरु का! सेवा ही आवश्यक बन गया जिनका और परिणामों को सँभालना लक्ष्य है क्षपक का। मौलिक है हर पल नहीं आँवाना है निराशा व अवसाद में क्षण। निर्विकल्प समाधि हो गुरु की, संयमित जीवन की अंतिम घड़ी हो निजानुभूति की । विचारकर यह समाधिस्थ अनंत उपकारी संत को दिया संबोधन “समाधिसौख्याच्चपरं च सौख्यम्”। आत्म स्थिरता में सुख है जो नहीं है परद्रव्यों में वो हे आत्मन्! कमजोर हो रहा देह पिंजर पर तुम हो आनंदमयी ज्ञान निर्झर! विदेह स्वरूप है तुम्हारा ब हती जहाँ चैतन्य धारा फिर भय किस बात का? निर्भय हो तुम, निर्द्वन्द हो तुम! बस यूँ ही स्वरूप गुप्त रहना बा हर कर्म लुटेरे हैं। अपनी निधि सँभालकर रखना!! कहते-कहते फिर एक बार हो गया कंठ अवरूद्ध नहीं होता संत का हृदय पाषाण का, जगत के जीवों से भी अनंत गुणा संवेदनशील होता हृदय उनका सो दृश्य होता दिखा यहाँ... पर से अनासक्त होकर भी । उपकारी के प्रति अनंत स्नेह की निज की पीड़ा से विरत होकर भी समूचे जगत की पीड़ा की बन गये कल्पनातीत करूणा की किताब, प्रेम की पुस्तक उपकारों का उपन्यास प्यार की पोथी आचार्य श्री विद्यासागर ज्ञान रत्नाकर… सावधान थे गुरु ज्ञान दिवाकर सुनते संबोधन ध्यान से... करते स्वाध्याय उपयोग से शिष्य कहीं कर जाते चूक तो ठीक से पढ़ने का करते इशारा, देह हो गया कृश इतना खड़े होने को लेना पड़ता सहारा; गर्दन में वेदना थी भारी शिष्य रातभर तकिया लगाये रहते बाँहों का अपना निश्छल मासूम बालक की भाँति सो जाते क्षपक निश्चिंतता से सुकून से तब स्नेह भरे नयनों से अपलक निहारते रहते ये… करते निर्दोष साधना मानते यही परमागम की सही प्रभावना यूँ गुजर गए माह पर माह पूरे सात माह... अन्न त्याग चल रहा है पूर्व से ही छाँछ भी अब त्याग दी, तत्त्व-ज्ञान का जल पी रहे हैं पल-पल में मात्र दे रहे जल एक बार शरीर में । वह भी कर दिया त्याग दिन बीते यूँ चार। देह को कितना ही सँभालो एक दिन नष्ट होना ही है। चाहे कोई कितना हो अपना आखिर एक दिन खोना ही है... जीवन-नौका डूबने से पूर्व तट पर पहुँचा देना ही ज्ञान है। कहीं लूट न लें आत्मा को कर्म शत्रु । इससे पूर्व परमात्मा से मिल लेना ध्यान है। यह जानकर ज्ञानी गुरू सँभालते पल-पल निज परिणामों को सीखे थे अक्षर जिसने ज्ञान की वर्णमाला के परम शिष्य वह डुबा रहे ज्ञान में ज्ञानी गुरू को! आत्मा शाश्वत है। अजर-अमर धर्मा है। जो कुछ दिख रहा है। वह सब कर्म की लीला है। निश्चय से निष्कर्मा है। विधि की परतों से ढकी। चैतन्य निधि को निहारो ज्ञान-चक्षु से यही है ज्ञान का फल । कि ज्ञान अवगाहित हो जाये ज्ञान में अन्य कुछ जानने में आये नहीं चेतना को और कुछ भाये नहीं। सँभाल लो अनमोल रत्नत्रय संपत्ति चौतरफा खड़े हैं विकारी तस्कर रहना है सावधान मुनिवर! मृत्यु होती नहीं आतम की मरता है तन, मृत्यु शब्द कह रहा है स्वयं तन को कि मरे तू! विलग होता है विनश्वर है तन जानते हो ना आतम? समाधिमरण से सुसज्जित मृत्यु-रथ पर सँभालकर ले जाना है संयम की गठरी । अविराम चलते-चलते यों चारित-पथ पर पाते ही नूतन भव स्मृति आये संयम की पानी है मंज़िल शाश्वत मुक्तिधाम की… तैयार रखो अपने आत्मप्रदेशों को जाना है सिद्धों के देश को इस भाँति दे रहे उद्बोधन… सुन अध्यात्म वचनावली अभिभूत ही नहीं अनुभूत भी हुए, थे अब तक जो संघ के नायक वे अब होकर संघ के सदस्य कर रहे अंतर अध्यात्म साधना अभेद रत्नत्रय की उपासना जो की जाती है स्वयं में स्वयं के द्वारा। संबोधन तो है केवल निमित्त जो है उपादान का मीत देता है संबल आतम को बल।
  17. इधर अंतेवासिन्” भी स वेरा हो या शाम पल-पल अनुभवते आनंद ही आनंद करते चार बार स्वाध्याय; स्वात्म परिणाम को पकड़ना स्वात्म चिंतन करना स्व का विस्मरण नहीं करना स्वयं को समझाते रहना और स्वात्म चतुष्टय में रमना यही कार्य चलता रहता… ज्ञानी गुरु की कृपा है यह उन्हीं का अनंत उपकार, इसी से कर सका मैं स्व-संवेदन उन्हीं का है यह सत् संस्कार। नजदीक आ गया है समय गुरु के महाप्रयाण का, जानकर यह सावधानीपूर्वक कर रहे सत् शिष्य अपना कर्तव्य; तन से क्रियात्मक मन से भावात्मक और वचनों से मृदुल अध्यात्म युत विवेकात्मक, करते सेवा तीनों ही रूप में और गुरू निश्चले रहते निज चिद्रूप में।
  18. इधर न जाने क्यों मन खोया-खोया सा है। प्रभात की वेला होने पर भी विरह वियोग के विचार से शिष्य का हृदय घिरा-सा है। तभी बोझिल हृदय को पढ़ लिया गुरूवर ने वात्सल्य नयन से आध्यात्मिक फुहार बरसाते हुए बोले वस्तु का अभाव नहीं है अभाव अभाव की अनुभूति का नाम है। अभाव मेरे संस्कार का प्रभाव यदि है तुममें तो कहाँ है मेरा अभाव? नदी अंततः मिलती है सागर में और जिंदगी अंततः समाविष्ट होती है मौत में, मोम की भाँति वक्त पिघलता जा रहा है, राग के जंजाल में फँस जीव छलता जा रहा है।'' हे आचार्य विद्यासागर! स्वयं विराट समंदर हो तुम सहज होकर नियति को स्वीकार लो अब! च लते चलो जिनदेव की आज्ञा में प्रकृति स्वयं चलने आतुर होगी। तुम्हारी आज्ञा में! इस तरह आत्मीय स्नेहमिश्रित शब्दों से ज्ञानसिंधु ने नहला दिया, अंतर्मन से निःसृत वचन की पंखुड़ियों से विद्यासिंधु ने भी मन को बहला लिया। प्रारंभ हो चुकी है सल्लेखना लक्ष्य है जिनका निजात्म को लखना, वात-व्याधि से पीड़ित है रूग्ण देह फिर भी होकर गत नेह जिन्हें पाना है पद विदेह... न दुखितोऽपि संतापं भजते यः स पण्डितः" पाप को खण्डित करे सो पण्डित असाता में भी साता से मण्डित रहे वह पण्डित सो अपने सम्यक् पाण्डित्य का करके अनुभवन त्याग दिया अन्न सावधान है चेतन मन, अतीत का कोई विकल्प नहीं अनागत का असत् संकल्प नहीं अपने ही सत् चित्त आनंद में हुए लीन।
  19. तभी अगले ही क्षण... एक और अप्रत्याशित घटना अकथनीय व्यथा के दौर से गुजरना पड़ा, गहन सन्नाटे में सबने जो सुना नहीं था वह झूठा सपना... विनम्र स्वर में... हाथ जोड़ प्रमुदित मन से बोले मुनिश्री ज्ञानसागरजी अंतिम समय जानकर अपना । लेना चाहता हूँ अब समाधि अनुग्रह करें मुझ पर याचना करता हूँ आपसे यतिवर!" श्रुतिपुट में पड़ते ही यह शब्द चकित हुए चिंतित भी मानो कर्ण मृतवत् हो गये अगाध ज्ञान होकर भी, इतना निरभिमान! सरल है कंचन कामिनी तजना कठिन है यश ख्याति की लालसा तजना सच! तुम विशेषणों के विशेषण हो। श्रेष्ठों में श्रेष्ठ हो गुरू के सद्गुरु हो!! अहा! धन्य! धन्य! धन्य! अहं के विसर्जन की अर्हं के सृजन की अभूतपूर्व घड़ी है यह!!! उपस्थित हुआ जो दृश्य उसे देखते ही देखते स्वयमेव झुक गई पर्वतों की चोटियाँ नम गई पेड़ों की डालियाँ, स्वयं को सर्वोन्नत मानने वाला गल गया गगन का कोना-कोना श्रमण ज्ञानसिंधु के महान गुणों की झग-झग करती अनगिन मणियाँ मान कषाय की दिख रही टूटती-बिखरती लड़ियाँ... जनमेदनी की भीगती अँखियाँ भाषा मूक हो आयी श ब्दों की थम गई पंक्तियाँ!! संयोग था प्रबल नियति थी अटल अपनी कामनानुसार नियति नहीं करती प्रवर्तन, कृत कर्मानुसार ही चलती है क्षण-प्रतिक्षण आखिर न चाहते हुए भी होना पड़ा आचार्यपद पर आरूढ़... मुखरित हुए प्रकृति से स्वर जयवंतों जयवंतों श्री ज्ञानसिंधु गुरूवर… ऐसी सम्यक् चर्या देख गूंथे गये ग्रंथ शास्त्र तो गूंगे हैं। बोलते हैं निग्रंथ, भौतिकी इस युग का प्रथम चमत्कार! प्रकाण्ड विद्वान् होकर भी हुए श्रमण अनगार, अपने ही शिष्य को गुरु मानना यह दूसरा चमत्कार! शिष्य के समक्ष नीचे आसन पर बैठ प्रणाम करना नम्रता से शिष्य को हर्ष भाव से त्याग कर उपाधि याचना करना समाधि की यह है तीसरा चमत्कार! शब्द लगते बौने ऐसे व्यक्तित्व को कहने मानव-तन धर तपोपूत ज्ञान से मान पर विजय कर मृदुता ऋजुता शुचिता की त्रिवेणी बहाने वाले होते हैं विरले संत पाते हैं वे ही भगवंत-पंथ... आज विशेषों में विशेष अनेकों में एक वीरों में वीर, धीरों में परम धीर साबित हो गये श्री ज्ञानसिंधु श्रेष्ठ मुनिवर! अब तक देखा सभी ने। सरिता को सागर की ओर जाते पर आज देखा सभी ने सागर को सरिता की ओर आते...!! गुरु-मुख से बात सुन समाधि की आँखें नम हो गईं सभी की श्रीमान् हो या श्रेष्ठी विद्वान् हो या त्यागी नयन की पलकें थम गयीं, दिनकर भी चल पड़ा अस्ताचल की ओर बिखर गई पश्चिम में विरह की ललाई प्रकृति निस्तब्ध हो आई! पवन का प्रवाह थम गया पंछियों का कलरव बढ़ गया, किंतु ज्ञानी गुरु के मुख पर आध्यात्मिक अपूर्व आभा हो रही प्रदीप्त, ज्यों दीप बुझने से पूर्व बढ़ जाती है ज्योत अंततोगत्वा नवोदित आचार्य श्रद्धा से हुए विनत गुरु बिछोह की कल्पना से हो गए द्रवित। मानकर समाधिमरण को संत का पंथ बोझिल मन से किया प्रवचन गुरू व्यक्तित्व का करके बखान तीर्थंकरों की पावन परंपरा में आपने जोड़ दी एक और कड़ी महान! शीश पर रहे हाथ सदा आपका तो निश्चित ही वरण कर लूंगा मुक्ति का निर्वाह कर सकें इस गुरु-पद का हे गुरुवर! वह युक्ति शक्ति व भक्ति देना। बालक हूँ मैं आपका था अनगढ़ पाषाण तराश कर मूरत किया है उपकार महान। आत्म-कल्याण हो, सबका कल्याण हो श्रमण परम्परा जयशील हो। जिनशासन जयवंत हो,' यह भावना भाते हुए दिया प्रवचन को विराम और विनम्र भावों से मन ही मन गुरू को कर लिया प्रणाम। सुनते ही प्रवचन, बोले श्री ज्ञानसिंधु गुरु न कहो मुझे आचार्य भी नहीं अब मैं बस एक बार कह दो ‘वत्स' मुझे पुकारो मुझे एक बार ‘वत्स' कहकर मैं शिष्य हूँ आपका समाधि की याचना कर शरण लिया है मैंने आपका! अहा! जिसने दी अब तक चरणों में स्नेह-संयुत शरण आज वे ही विनत माथ हो निश्छल हृदय से गुरू कहकर अपने ही शिष्य को हाथ जोड़ कर रहे हैं नमन... भाव भीना यह दृश्य देख सभा में गहन सन्नाटा छा गया। आचार्य श्री विद्यासागरजी के श्वासों का प्रवाह मंद-सा हो गया... बोले साहस जुटाकर सार्थक हो समाधिमरण अति शीघ्र हो मुक्ति का वरण। ज्ञात इतिहास की प्रथम घटना थी यह जीवित अवस्था में ही अपने शिष्य को अपने ही कर कमलों से किया हो अपना आचार्यपद प्रदान और उन्हीं की आज्ञा में रहकर किया हो मुनि चर्या का परिपालन। आज सूरज उदित होकर भी लग रहा कांतिहीन उसे भी हुआ आज यह एहसास मुझसे भी अधिक प्रतापी है कोई, राजस्थान की वसुंधरा पर आज प्रकृति के विराट आँगन में घटित घटनाएँ... मात्र सर्वज्ञ के प्रज्ञा-दर्पण में होती हैं प्रतिबिम्बित।
  20. एक होता है भिखारी दूसरा होता है साधु अविकारी, धन नहीं दोनों के पास फिर भी ए क उपहास का पात्र दूजा होता उपासना का पात्र कारण? माँगता हुआ हाथ सीधा रखता है। भिखारी आशीष देता हुआ हाथ ऊपर रखता है। अविकारी आसीन होकर भी पद पर इच्छा नहीं पद पाने की उदासीन है अविकारी शिष्य का मन गंभीर मुद्रा में बैठे रहे सिर ही झुकाए... आशीष पाकर भी गुरु का बोझिल है आज तन अवसाद से भरा है मन; क्योंकि जानता है उनका चेतन... स्वयं के वैभव को भूलने वाला पद की चाहत में अटक जाता है, प्रसिद्धि की चाह में सिद्धि को भूलने वाला मद की घनी तामसता में भटक जाता है। परिग्रह मान पद को भी गुरू हो रहे आज निर्भार अंतर्यात्रा करके पाने सिद्धों का परिवार, जनता जनार्दन का तो कहना ही क्या! कार्यक्रम के प्रवाह को ताक रही अपलक...। पूर्ण होते ही संस्कार-विधि पूर्व स्थान पर ज्यों ही लगे बैठने नवोदित आचार्य श्री विद्यासागरजी तभी स्नेह-मिश्रित वचन से बोले श्री ज्ञानसागरजी रुको! आचार्य का आसन रिक्त है इस पद का त्याग कर चुका हूँ मैं गुरु स्वयं शिष्य को बिठाते हैं अपने आसन पर परिक्रमा लगा बैठ गये गुरू, शिष्य के आसन पर। देखते ही देखते यति की नियति ने कर दिया अभूतपूर्व परिवर्तन पल भर में मुनि से आचार्य और आचार्य से मुनि का । सहज शांत, शुद्धोपयोगी संत का करा दिया साक्षात्कार! जन-जन के नयन हो गए आर्द्र शिष्य के प्रति स्नेह की पराकाष्ठा देख, योग्य शिष्य को गरिमामय महिमा से । कर दिया मण्डित... नूतन आचार्य का भले ही बैठा था तन आसन पर, किंतु मन तो था गुरु चरणों में समर्पित। दिख रही थी सभी को चेहरे की चमक देख न पाया कोई नयनों के अश्क, हृदय भर आया भीतर ही भीतर स्वयं को समाते गये स्वयं की वेदना को छिपाते रहे...
  21. यहीं से श्रमण संस्कृति की ओजस्विनी गौरवशालिनी गाथा पुनः प्रवाहित हो गई... । ज्ञानधारा आह्लादित होती हुई त्वरित गति से आगे बढ़ गयी। युवा मुनि को देंगे ‘आचार्यपद' नसीराबाद में आचार्य श्री ज्ञानसागर... फैल गए पवन संग घोषणा के स्वर बिना प्रचार ही सर्वत्र। हवाओं के हरहर करते स्वर कहने लगे आचार-विचार उत्तम हो जिनके मरण उनका अधम हो नहीं सकता, दुराचार दुर्विचार हो जिनमें मन उसका प्रसन्न रह नहीं सकता।" लेकिन यहाँ निर्भार होने की प्रसन्नता पद के प्रति निरीहता। परिणामों में निर्मलता होने से आचार्य श्री ज्ञानसागरजी अत्यधिक आह्लादित हैं आज... उल्लसित था संघ व सारा समाज। किंतु भावी संचालक संघ के... श्री विद्यासागरजी मुनिवर के अंतर्द्वन्द चल ही रहा था मन में… कि...लो! आ गई घड़ी बाइस नवंबर उन्नीस सौ बहत्तर की, अपने चर्म चक्षुओं को सार्थक करने उमड़ गया जन-सैलाब, यत्र-तत्र सर्वत्र भक्त समूह से भर गया नसीराबाद बाह्य आडम्बर से रहित सात्विक भाव-भीने समारोह की शोभा थी दर्शनीय!! सूर्य की गति चाहती थी स्वयं थमना आचार्य श्री ज्ञानसागरजी द्वारा प्रदत्त श्रमण संस्कृति को अद्भुत उपहार ठहरकर चाहती थी देखना।। एक ओर विराजे थे शिष्य मुनिराज करने वाले हैं आचार्य पद पर आरोहण, दूसरी तरफ हैं गुरु महाराज निर्मोही होकर कर रहे पद से अवरोहण विधिपूर्वक संपन्न हुए। आचार्य पद के संस्कार दिए अपने पिच्छी-कमण्डल स्नेह से शिष्य को निहार... अभिनव आचार्य की और उनके गुरु महाराज की मु क्त कंठ से होने लगी। जय-जयकार! जय-जयकार! जय-जयकार! बहुत देर तक चलता रहा लगातार जयकार का अखंड उद्घोष...।
  22. इस तरह शिष्य मुनि की। निज साधना में जिन उपासना में चौमासे बीते चार अजमेर दो बार किशनगढ़ दो बार विराजे हैं नसीराबाद अबकी बार महत्त्वपूर्ण यहाँ कुछ होने को है। सब कुछ रहस्य की कोख में है... विद्यासिंधु मुनिवर के गुरूवर हैं। पंच पदों में तृतीय पद धारी महिमा मण्डित मुक्ति के अधिकारी, श्रमण संस्कृति की दिव्य धरोहर प्रत्यक्ष परमेष्ठी लगते मनोहर, पद भी परिग्रह लगा इन्हें मुनि होकर भी मुनित्व विस्मृत करना है जिन्हें। अनगार चर्या के अनुकूल है। संपूर्ण चर्या जिनकी कोई थाह नहीं पा सकता इन स्थितप्रज्ञ सूरि की... निर्विकल्प होना चाहते हैं। पद से परे परम में खोना चाहते हैं। स्वयं में स्वयंमय होना चाहते हैं... सो गंभीरता से विचार कर, ज्ञान, चारित्र, वक्तव्य कला की कसौटी पर कसकर अपने ही शिष्य को योग्य समझकर कह दी मन की बात.. सुनते ही शिष्य-हृदय में मानो हो गया वज्रपात! कि देह का पिंजड़ा टूटने वाला है। साँसों का पखेरू उड़ने वाला है, जीर्ण पात तरूवर से बिन आहट टूट जाते हैं। पेड़ के सिवा आवाज़ को कौन सुन पाते हैं? सुनते ही निर्मम स्वर शिष्य के नयन झरने से अश्रु बहते रहे झर-झर... ज्यों वीर के विरह से गौतम हो गये मन से दुखी । दुख सच्चा था शिष्य पक्का था, सो शाम ढलते ही । हो गये गणी गौतम अनंत सुखी त्यों शिष्य सच्चे थे मुनि श्री विद्यासागरजी। पद देकर जब अपना दायित्व से चाहते थे मुक्त होना आचार्य गुरु ज्ञानसागर, सुनते ही तब गुरु-वचन चरणों में शीश टेककर अविरल अश्रुजल से कर दिया प्रक्षालन, उठाकर गुरु ने अपने हाथों से देखा शिष्य की आँखों में छा रही है ललाई अश्रुधारा अभी भी बंद न हो पायी... भर्रायी आवाज़ में प्रकट करते हुए असमर्थता वचनों में ले अति विनम्रता बोले शिष्य मुनिवर मीन को नीर चाहिए पंछी को अपना नीड़ चाहिए रहने दो मुझे इन चरणों की छाँव में इसी के सहारे पा लूंगा शिवधाम मैं। सुनकर हृदय की भाषा जीवन में पहली बार गुरु भी हार गये पद के प्रति निर्लिप्त देख पल भर सोच में पड़ गये फिर अहोभाव से भर गये… सोचकर कुछ बोले पुनः आज्ञा है जिनागम की छोड़कर पद जाओ अन्य की शरण वहीं करो सम्यक् समाधिमरण।" अन्यत्र योग्य आचार्य के निकट जा सकूँ सामर्थ्य नहीं वह मुझमें, अतः सँभाल कर आचार्यपद सहायक बनो मेरे कल्याण में..." शिष्य ने कहा विनम्रता से अन्य शिष्य को बना दीजिए आचार्य मुझे तो चाहिए गुरु-चरण और मुक्तिद्वार, सुनकर गुरू ने निज ज्ञान से जाना था इसी शिष्य में योग्य आचार्य को पहचाना था भारतः प्रतिभारतः का यह संवाहक होगा। जिनधर्म का यही सच्चा प्रभावक होगा, अथक प्रयास किया शिष्य को मनाने पर गुरु न हो पाये सफल। तब स्वीकृति नहीं मिलने पर आखिर रख दी कुछ ऐसी बात कर दिया मजबूर सोचने को... बीत गये वर्ष चार पढ़ाते हुए गुरु दक्षिणा माँगता हूँ तुमसे सहर्ष स्वीकार कर आचार्यपद निर्भार करो मुझे पद के परिग्रह से'' निरूपाय हो तकते रहे... मन ही मन रोते रहे... घड़ी थी समर्पण के परीक्षा की दक्षिणा देना भी अनिवार्य थी सही शिष्य की यही पहचान थी शीश झुकाए रहे... नयन-नीर से गुरू-चरणों को पखारते रहे… चिर ऋणी हूँ गुरु का ज्ञानदान का प्रतिदान नहीं होता अनमोल का कोई मोल नहीं होता चुका नहीं सकता ऋण गुरु का, प्राण समर्पण करने पर भी निर्णायक क्षण था वह जीवन का। हृदय का कोना-कोना अंतर्द्वन्द से भरा भाव और भाषा स्तब्ध हो गई। दृष्टि ज्यों की त्यों थम गई। समर्पण के साथ टेक दिया माथा गुरु चरणारविंद में... पर अभी भी शिष्य के मनो-मस्तिष्क में चल रही विचारों की श्रृंखला… सोने, उठने, देखने, खाने का होता है समय निश्चित यह सब होते हैं समय-समय पर पर ऐसे नहीं हैं मेरे लिए गुरुवर वह तो हैं श्वास जैसे सतत चलती रहती है अंदर...। आचार्य पद नहीं चाहिए मुझे हर पल गुरु-पाद नहीं... नहीं... मेरी आत्मा उसे स्वीकारने तैयार नहीं है, किंकर्तव्यविमूढ़ होकर गुरु के तर्क के आगे चेतना विवश हो रही है… शिष्य के चेहरे की भाव-भंगिमा देख पूछा- “क्या सोच रहे हो?" कर जोड़ करने लगे निवेदन कीजिए अपने निर्णय में परिवर्तन अनुभवहीन हूँ मैं श्रमण... गंभीर वाणी में समझाते हुए बोले गुरू “आशीर्वाद है सदा मेरा समय स्वयं एक दिन कहेगा ‘विद्यासागर' नाम धरा गगन में गूंजेगा संतों के सरताज हैं यह शांति की ठौर और आनंद की भोर हैं यह, समंतभद्र, अकलंकदेव, कुंदकुंदाचार्य सबकी गाथा दुहराओगे होकर महान आचार्य निर्भय हो, निश्चित हो भविष्य तुम्हारा मंगलमय हो, उज्ज्वल हो!!" यही है भावना मेरी… सुनकर गुरु की अंतरवाणी मौन रहकर ही शिष्य ने गुरु को मानो आश्वस्त कर दिया गुरु ने शीघ्र ही स्नेह भरा हाथ शिष्य के शीश पर रख दिया।
  23. चातुर्मास केसरगंज का । था पूर्णता की ओर... तभी वृद्ध ब्रह्मचारी की देख अस्वस्थ अवस्था शिष्यमुनि ने दिया संबोधन, अंतिम लक्ष्य रहे सल्लेखना का सुनकर उल्लसित मन से बोले गुरू समीप जाकर हे ज्ञानसिंधु मुनिवर! देह से बहुत किया नेह फिर भी हो रहा कृश निरंतर शरण मुझको आपकी है आप ही सर्वस्व गुरूवर! पाने को शाश्वत शांति अ ब दीजिए समाधि... आधि-व्याधि-उपाधि से परे दूर कर सर्व उपधि मुझ जड़ धी की करिये समधी!!" कहकर झुका मस्तक हो गए गुरु-चरणों में नत निश्छल भाव की सच्ची भाषा सुन परम ज्ञानी गुरु ने दी 'समाधि परिचर्या-प्रभारी बने मुनि श्री विद्यासागरजी समझाते समय-समय पर... हे क्षेपक आत्मन्! यदि करना है सम्यक् समाधि तो सोचो! कुछ प्रतिकूल नहीं है यदि भटकना ही है भव-वारिधि तो सोचो! कुछ अनुकूल नहीं है। प्रतिकूल-अनुकूल का मूल अपना मन है, और मन का आधार अपना चेतन है; चेतन पर टिकाओ दृष्टि करो स्वयं पर आनंदवृष्टि। चर्चा सुनकर भेदज्ञान की त्याग की भावना हुई बलवती लेकर मुनि दीक्षा हो गई उत्तम सल्लेखना...। पलक झपकते ही वर्ष दो हो गये पूरे तृतीय दीक्षा दिवस है कल प्रमुख भक्तगण गुरू ज्ञानसिंधु-शरण में जा कहने लगे- हे गुरूवर! आज्ञा दीजिए दीक्षादिवस मनायें धूमधाम से।'' पाते ही आशीर्वाद लग गये तैयारी में ज्ञात हुआ जब शिष्य मुनिवर को उस दिन उपवास कर लिया। सुनते ही भक्तों का उत्साह ठंडा पड़ गया। ‘‘मौनं मुनीनां प्रशमश्च धर्मः' इस उक्ति को विचार कर मुख किया दीवार की ओर ध्यान लीन हो गये मुनिवर, अगले दिन लोगों ने की शिकायत मनाने क्यों नहीं दिया दीक्षादिवस? बोले मधुर मुस्कान ले तुम सब मना न पाये तो क्या मैंने अपना मना लिया सर्वप्रथम नाम जप गुरूवर का गुण गाया प्रभु का, स्वयं बेनाम सुखधाम ध्यान किया निजातम का; इस तरह मना लिया दीक्षा का उत्सव भीतर ही भीतर… बाहर में बजाते शहनाईयाँ अन्यजन भीतर में बजाता है भेदज्ञान की बंसी स्वयं मन, बाहर में थकान है। खोलकर नयन देखना पड़ता है बाहर। भीतर में आनंद है, नयन मूंदकर भी दे खा जा सकता है भीतर बाहर में संसारी जीवों से मिलकर मिलेगा क्या? भीतर में अनंत सिद्धों की भेंट से मिलता है परमानंद! अहा! सुखकंद, महिमावंत मनाता रहूँ ऐसा ही दीक्षोत्सव सानंद...। अनंतकाल से परिभ्रमण कर सौभाग्य से अब संयम धर मानव की देह पाकर हो गया शरीर वृद्ध, ज्ञानी गुरु विचारते यों... अष्ट कर्मों को करने जर्जर चउ आराधना आराध कर रहते सदा सजग, किंतु जग के साथ नहीं अपने आप में ही रहते सदा जागृत। समझ लिया था उन्होंने कि प्रमाद मृत्यु है। जागृति है जीवन नव जीवन संजीवन, पल-पल शिष्य मुनि भी धर्मचर्चा, चर्या, आत्मिक क्रिया गुरुसेवा, परिचर्या करते आचरण सावधानी पूर्वक हुआ गौरवान्वित 'चरणानुयोग' स्वयं इनसे.. समय निकलता जा रहा है। अंजुलि के जल की भाँति जल का प्रवाह कौन रोक पाता? छिन-छिन छन-छनकर बस निकलता जा रहा है... न जाने क्या खोने वाला है यहाँ? बहुत कुछ घटित होने वाला है यहाँ… नसीराबाद में चातुर्मास चल रहा था पूर्णता की ओर... ज्ञानी गुरुदेव की देह कभी भी अलग हो सकती है देही से सो बचाकर स्वयं को चौरासी लाख योनि से ले जाना चाहते ध्रुवधाम की ओर पाना है जिन्हें संसार का छोर, सो करते निरंतर आत्मसाधना... मात्र स्व के अस्तित्व का अनुभव यही है उनका विभव । एकत्व की अनुभूति हो रही आत्मीय प्रतीति हो रही। करके दोषों का भाग, गुणों का गुणा विकारी भावों के प्रति राग घटाना जिनदेव के प्रति भक्ति जोड़ना निजात्म में निज जागृति रखना पर को प्रभावित नहीं करना, धन्य हैं रूग्ण दशा में भी स्वयं को सावधान रखना परिणामों को परखते रहना यही था उनका दैनिक कार्य। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी ‘तीन दशक से अधिक ग्रंथों के सजेता नूतन चिन्मय विद्यासागर'' ग्रंथ के प्रणेता जिन्हें देख सकता सारा जहान अंधा हो या आँखों वाला पढ़ सकता इन्हें हर कोई इंसान…
  24. क्षीण काय होकर भी लीन रहते नित ज्ञान-ध्यान में ज्ञानी गुरू के ज्ञान-गुण में झर रहा 'समयसार' का रस छलक रहा है जिनके आचरण से अध्यात्म अमृत कलश। बेजोड़ रत्न है यह जैनागम का पवित्र यज्ञ है यह ज्ञान का सिरमौर है यह आर्ष का ग्रंथ है यह सारभूत निर्ग्रथों की अनुभूति का, अनंत चिदाकाश की सैर कराता है यह निज का निज से मेल कराता है यह अति सरल है सुनने वाला समयसार' । कठिनतम है निजानुभव का सार सुलभ है चर्चा का मूलाचार दुर्लभ है भावलिंगी का आचार, शिरोगम कर सकता कोई भी पर हृदयंगम नहीं, वाचन-भाषण कर सकता असंयमी भी पर पाचन-संवेदन नहीं। स्मृति रहे। हो वह निग्रंथ, किंतु विस्मृति हो निर्व्यथता की भी, इस तरह गूढ़तम करते चर्चा कभी शिष्य गुरू से तो कभी गुरु शिष्य से, ‘समयसार' के आनंद प्रवाह में बहते-बहते समय का पता ही न चला दिख रही देह कुटी जीर्ण-सी गुरु ज्ञानसागरजी की; तन के हर जोड़ में । तीव्र वेदना होने पर भी कमी न आयी तनिक भी आत्म संवेदना में इस वृद्धावस्था में भी ज्ञानवृद्ध गुरूवर साधन ले शुद्धोपयोग का कर रहे प्रबल पुरूषार्थ। पूरी लगन से गुरु-सेवा में रात-दिन तत्पर देख यह सेवा का दृश्य गगन के तारे भी मुस्काते काश! यह दृश्य आज के बेटे देख पाते! आश्चर्य भी आश्चर्य से भर जाता परमार्थ के लिए निःस्वार्थ क्या कोई शिष्य ऐसी सेवा कर पाता? पाकर अछूट धरोहर पुत्र भी नहीं करता सुश्रूषा कोई अपने जनक की...। बढ़ती जा रही अत्यधिक दिनों दिन पीड़ा पर अंतर में चल रही स्वानुभूति के साथ आत्म क्रीड़ा। निकटस्थ भक्त श्रावक ने तीव्र पीड़ा देख गुरू की। रखने सिरहाने चौकी बनवाई छोटी काष्ठ की, मना करने पर भी रखने लगे तो बोले सतेज “ले आओ मुलायम मखमल की गादी सुनते ही कजौड़ीमल उठा चौकी हो गये नौ दो ग्यारह... हर आदर्श देख गुरुवर का प्रेरणा ले उतारते जीवन में शिथिलाचार से अति दूर मूलाचार से भरपूर, सजग रहते पल-पल तन से निश्चल मन से निश्छल। जानते थे वे दोष दृष्टि खाई-समान पथ है अवनति का, गुण दृष्टि तलहटी-समान मार्ग है प्रगति का, और गुरु के प्रति श्रद्धा दृष्टि शिखर-समान सोपान है उन्नति का।
  25. नव दीक्षित मुनि की । सघन होती गई ज्यों-ज्यों साधना, उपसर्ग परीषह सहने की बढ़ती गई त्यों-त्यों क्षमता, शीर्षासन से देर तक ध्यान लगाते आत्म गुणों के शक्त्यंश बढ़ाते, उन्नति के सोपान पर चढ़ते-चढ़ते लो आ गया चातुर्मास का समय, 'केसरगंज' अजमेर में सारा वातावरण उल्लासमय। निरंतर ज्ञान-ध्यान लीन श्रमण का श्रावक दर्शन कर भाग्य सँवारते, आगमानुसार आचरण देख उनका भक्ति कर बड़भागी मानते। तभी सदलगा से मल्लप्पाजी का आया परिवार चौका लगाकर दिया आज मुनि श्री विद्यासागरजी को आहार। मासूम हैं चेहरे जिनके ऐसे ‘अनंत' व 'शांति हो गये चौदह व बारह वर्ष के, धर्म के रंग में रंगकर अंतर में अंकुर फूटने लगे हृदय में विराग के बीत गये दो माह दो पल की भाँति। दो काम किये भ्राता द्वय ने गुरू श्री ज्ञानसिंधुजी के प्रवचन-पूर्व महामंत्र के साथ मंगलाचरण । और गंभीर सुखद शिक्षा को अपने बाल-मानस पर किया अंकन। अजमेर से आज जा रहा परिवार सदलगा की ओर... हृदय में अपने विद्या मुनि की छवि उकेरकर। इन दिनों यहाँ कर्नाटक वासियों का लगा है ताँता अपने क्षेत्र के युवा मुनि का करके दर्शन मन नहीं भरता अपलक तकते रहते तभी कैसे हुआ वैराग्य अल्प उम्र में इसी विषय पर गुरु-आज्ञा से करना पड़ा प्रवचन कन्नड़ भाषा में सुंदर शैली से मानो सुमन झर रहे मुख से! इस प्रसंग पर ज्ञानधारा और अधिक आनंद से बहने लगी... बचपन से वैराग्योत्पत्ति का समग्र वर्णन सुनने जो मिला स्वयं नायक के मुखकमल से जिसे जाना था ज्ञानधारा ने उकेर लिया हृदय पुस्तिका के श्रद्धा-पृष्ठों पर। हर्ष से मदमाती लगी नृत्य करने छोटी-बड़ी अनेक लहरों के बहाने देखते ही देखते अदृश्य हो गई वह धारा...।
×
×
  • Create New...