साथ में ले एक साथी को
जिनकी हर बात मानते थे वो
चल दिये जयपुर की ओर
तरह-तरह के विचारों की तरंगें
उठती और समाती स्वयं में...
कुछ नहीं दिख रहा था विद्या के सिवा उन्हें
राह ने भी हरा दिया आज
बहुत लंबा लग रहा रास्ता उन्हें...
जितना पार करते
उतना ही लंबा लगता
मन थका-थका सा कहता
कब दिखेंगे वे?
जाकर क्या कहूँगा?
कैसे समझाऊँगा उन्हें?
मन ही मन तैयारी करने लगे।
हल्की-सी पलकें मूंदी ही थी कि
सुनाई दिया ‘जयपुर... जयपुर... जयपुर...
श्वासों की गति तेज हो गई
पहुँचते ही संघ-समीप
रागी आँखें विद्या को पहचान गई,
शास्त्र खोले सोच रहे थे विद्याधर
“कदाऽहं भविष्यामि पाणिपात्रो दिगम्बरः”
महावीर के धैर्य का बाँध टूट गया
मोह का जल उमड़ आया
बोले
तुमने यह क्या किया?
माता-पिता की बुरी हालत है
बहनों के आँसू थम नहीं रहे हैं
अनंत, शांति के नयन
दिन-रात ढूंढ़ रहे हैं।
सारे सदलगा में छायी है उदासी
बंद करो शास्त्र
अब चलो घर की ओर...
नहीं रोकेंगे तुम्हें कभी
कर लेना धर्म वहीं
समझाने लगे भाँति-भाँति से
जैसे मनाया था कभी
‘भरत' ने 'राम' को
लेकिन
“मौनं सर्वत्र साधयेत्”
यह सोच विद्याधर चुप थे
भीतर ही भीतर विचार रहे थे...
जीवन गतिशील है
लुढ़कते पाषाण के समान,
जीवन प्रवाहशील है
बहती सरिता के समान
और
जीवन परिवर्तनशील है
रंग बदलते गिरगिट के समान,
आज जो धर्मपथ के लिए
मना कर रहे हैं
कल वे ही
मुक्त कंठ से करेंगे सराहना इसकी
मुझे नहीं करना परवाह किसी की...
शरारत करने वाला शरीर ही जब मेरा नहीं
तो
मोह भाव से वार होता है आत्मा पर जिनसे
“आ परि समन्तात् वारं करोति इति परिवारः”
ऐसा वह परिवार
कैसे हो सकता है मेरा?
दोनों ओर से चुप्पी थी
तभी...
ज्ञानधारा की एक लहर
बोली मंद स्वर में...
तीन प्रकार की होती हैं आँखें
पहली चर्म की आँख खुलती है जब
तब उसे उठना कहते हैं
दूसरी बुद्धि की आँख खुलती है जब
तब उसे समझना कहते हैं
और
तीसरी ज्ञान की आँख खुलती है जब
तब उसे जागना कहते हैं।
विशुद्ध भावों से
दृढ़ मनोबल से
आगम चक्षु के प्रभाव से खुल चुकी है
तीसरी आँख जिनकी
वह मोह तमस से
कैसे घिर सकता है!
सही लक्ष्य ले संयमित चरणों वाला
प्रलोभन के पथरीले पथ पर
कैसे गिर सकता है!!
साहस पूर्वक करुणाभरी आवाज़ में
कहने लगे महावीर
एक बार घर चल दो
मुख खोलो और 'हाँ' कह दो।
गंभीरता से शांत स्वर में बोले
मेरे लक्ष्य में बाधक मत बनो
मुझे अपना कार्य करने दो...
माता-पिता भाई-बहन
मिले अनंतों बार
नहीं मिला अब तक
सिद्धों-सा परिवार
जग से मिला अनेकों बार...
पर मिला कुछ नहीं
एक बार मिलने दो निज से
फिर मिलने योग्य शेष
रहेगा कुछ नहीं…
दूध से निकला नवनीत
पुनः दूध में कैसे समा सकता है?
तरकस से निकला तीर
पुनः उसी में
कैसे जा सकता है?
एक बार निकल चुका हूँ मैं
निज गृह की तलाश में
अब उस जड़ गृह में आकर
क्या मिल सकता है?
अब मैं वयस्क हूँ
बीस वर्ष का हो चुका हूँ
यह मेरा सहज निर्णय है
कहकर इतना हुए मौन…
अनेकों प्रश्न पूछने पर भी
मौन धरे कुछ न बोले
तब पहुँचकर आचार्यश्री के निकट
आँसू बहाते हुए महावीर कहने लगे...
विद्या का शरीर कृश हो चुका है
कितने उपवास कर चुका है
इन्हें घर जाने की अनुमति दीजिये!
विद्या को इशारा करते हुए
कहने लगे आचार्यश्री
अपने भाई की भावना रख लीजिये।
सुनते ही मौन खोलकर बोले
हे अशरणों के महाशरण!
निराश्रयी के आश्रयधाम!
निरालंबों के आलंबन!
निवेदन है- “नहीं जा सकता मैं घर...।
मुझे व्रत प्रदान कीजिये
आया हूँ आपकी शरण
अब शरण में रख लीजिये।”
आखिर विवश हो चुप हुए महावीर
तब प्रसन्न हो आचार्य श्री ने
दिया आजीवन व्रत ब्रह्मचर्य।
सच ही कहा है
गुरु की कृपा का प्रमाण नहीं माँगना
उनके मौन को उपेक्षा नहीं समझना
इनकी कार्य प्रणाली होती जग से भिन्न
न किसी से प्रसन्न होते न किसी से खिन्न,
सदा सहज आत्मस्पर्शी
उतने ही होते हैं वे दूरदर्शी।
ऐसे गुरु को किया नमन
अंतर्जगत् की यात्रा का
हुआ यह महत्त्वपूर्ण चरण।
पूर्व में किया जो
धर्म बीज का वपन
उग आये हैं अब
यहाँ ज्ञान के अंकुर
हुआ जो गुरु-कृपा जल का वर्षण
व्रत ग्रहण कर मन में हर्षण।
अमंद गतिवाली
यतिपति वृत्ति वाली
अखंड ज्ञानधारा
प्रवाहित होते-होते
विद्याधर की कथा को
लिखती गई धरा पृष्ठ पर
इसी विश्वास के साथ
कि
अमर रहेगी यह कहानी
जब तक है
‘ज्ञानधारा' में पानी
और
आगे बढ़ती जा रही
ज्ञा ऽ ऽ ऽ न धा ऽ ऽ ऽ रा ऽ ऽ ऽ