बचपन से ही गुरु का समागम जो हुआ था
उन्हीं का उपदेश हृदयंगम जो किया था
इसी से आज
सवेरे से ही कर रहे अनुरोध
राजस्थान की गुलाबी नगरी ‘जयपुर' जाने का,
जहाँ विराजमान हैं ‘देशभूषणजी आचार्य
सुनते ही डाँटते हुए बोले पिताजी
कोई आवश्यकता नहीं जयपुर जाने की
चुपचाप रहो यहीं!
ऊपर से हो गए चुप किंतु
भीतर से सोचने लगे उपाय
कि मेरा यह जीवन है महाभारत
और मोहीजन हैं कौरव सम,
कर्मों के साथ करना है संघर्ष
महाभयंकर युद्ध है यह,
किंतु मेरे पास है
“मोक्षपुर का पथ
अहिंसा धर्म का रथ,
निर्भयता का सुरक्षा कवच
ज्ञानी गुरू का सारथ्य,
हिम्मत है हथियार
आत्मविश्वास की तलवार,
श्रद्धा की ढाल है
निष्ठा का भाला,
तपो साधना का तीर है
सम्यक् विचारों की सेना है तो
विजय अवश्य होगी
मंज़िल निश्चित मिलेगी।
बीस वर्ष के युवा विद्याधर
तय कर चुके अपनी दिशा
परिवार में कोई भी न पढ़ सका
उनके विचारों की विधा,
मनःस्थिति उनकी
ऊपर से सागर की भाँति शांत
और भीतर में
अंतर्द्वन्द्वों से भरी हुई थी,
वे किधर जा रहे थे
यह उनके संयमित पदचापों ने
आहट तक नहीं होने दी,
गंतव्य निर्धारित होने पर भी
उस तक पहुँचने की पगडंडी ओझल थी
गुरु तक पहुँचने के लिए मति बोझिल थी,
इस अंतर रहस्य को
जानता था सिर्फ मारुति।