मुश्किल से कटते क्षण
व्यतीत हुए यों कई दिन,
घर का कोई सदस्य
अच्छे से भोजन नहीं कर रहा
माता-पिता का तो
क्या हाल हो रहा!!
जीवन में कभी नहीं बीता ऐसा काल,
हर पल खुशहाली थी जिस आँगन में
वहीं सबके मुख से
निकल रही आह!!
सिर झुकाये बैठे थे कुर्सी पर
मल्लप्पाजी घर के बाहर...
तभी डाकिया ने थमाया एक पत्र
आया था जयपुर से
सर्वप्रथम आचार्य प्रवर का था आशीर्वाद
ढाई दिन की लम्बी यात्रा कर
पुत्र आपका आया है यहाँ पर...
व्रत के लिए कर रहा अनुरोध
दो दिन से अनशन पर है
भावना इसकी उत्कृष्ट है,
लेकिन उपवासी के अलावा
रहे कोई संघ में भूखा
यह संघ की मर्यादा के प्रतिकूल है
अतः व्रत की स्वीकृति प्रदान करो
या उन्हें घर लौटा ले जाओ...!!
पढ़ते ही पत्र छूट गया हाथ से
छा गया अंधेरा चारों ओर से
मुँह से निकला शब्द
श्री...नहीं बोल पाये ‘मंति'
मोहाविष्ट थी जो मति,
परिवार आ गया सारा
कहिये ना... क्या आया समाचार विद्या का?
उतावले हो पूछने लगे…
तभी रूंधे कंठ से बोले
भोला-सा विद्या
हो जायेगा ऐसा कठोर
सदलगा से निकल जायेगा
इतनी दूर जयपुर
सोचा नहीं था...
कानों कान किसी को पता न चले
कहीं माँ जाने न दें
पिता टोक न दें
इसीलिए कुछ बोला नहीं था
हृदय का रहस्य खोला नहीं था,
बेटा!
तूने यह अच्छा नहीं किया
महकती फुलवारी को
क्यों उजाड़कर चला गया?
कहकर घर के अंदर जा
बैठ गये किंकर्तव्यविमूढ़ हो
गंभीरता से बोले महावीर
आप चिंता न करें पिताजी!
लौटाकर लाऊँगा अवश्य उन्हें
भूखी प्यासी माँ की वेदना
अवश्य समझेंगे वे
हम सबकी व्यथा कथा सुन
हृदय से पिघलेंगे वे!
किंतु भ्रातृ प्रेम में डूबे महावीर
समझ नहीं पाये कि
सागर तक सरकती सरिता को
लौटाया नहीं जाता
उदित होते सूरज को
कभी रोका नहीं जाता।