सत्संग के शौकीन विद्याधर
बचपन से ही
संत आगमन सुनते ही
व्यवस्था में जुट जाते,
गुरूओं के प्रति सेवाभाव देख
श्रावकगण प्रभावित हो जाते
लेकर उनसे शिक्षा
अपना आदर्श मानते।
ज्येष्ठ मास की तपती धूप में भी
पैदल चलकर
पास के गाँव चले जाते,
प्रथम पंक्ति के मुख्य श्रोता बन
ध्यान से प्रवचन सुनते,
विहार होने पर
शास्त्र तथा चटाई आदि
हर्षोल्लास से अन्य गाँव पहुँचाते,
गुरूओं के प्रति विनयवान हो
आज्ञा का पालन करते।
अनंतकीर्ति मुनिवर और
सिद्धसागर मुनिवर का भी संघ आया।
महाबल यतिवर का चौमासा
दो बार पाया।
विद्या पर गुरूजन की कृपा
कुछ विशेष ही बरसती
अत्यल्प वय में ही
गंभीर बात
सोचने की सद्बुद्धि
घूँटी में ही इन्होंने पाई थी
तभी तो
सोचते थे वे
‘‘बूंद तब तक सुरक्षित है।
जब तक वह सरोवर से जुड़ी है
शिला तब तक सुरक्षित है।
जब तक वह खान से जुड़ी है।
पतंग तब तक सुरक्षित है।
जब तक डोर से जुड़ी है।
और
मेरी आत्मा तब तक सुरक्षित है।
जब तक गुरूजनों से जुड़ी है।
" एक दिन
रात में देखा चलचित्र कि
‘‘गीत के द्वारा कमल खिल जाते हैं।
संगीत के द्वारा दीप जल जाते हैं।
देखकर कुछ और जोड़ लिया विद्या ने
कि
मिले सत्संग गुरुवर का तो ।
मुक्ति के द्वार भी खुल जाते हैं।'
चल पड़े हैं आज बोरगाँव की ओर
सुन नेमिसागर मुनि की
सल्लेखना ग्रहण का समाचार…
पाँच मील चलकर
मुनि चरणों में बैठकर
सेवा में जुट गये
श्रद्धा से।