लो! जिनमंदिर में आज हर मुख से
शुभ समाचार सुनाया जा रहा है,
आचार्यवर्य देशभूषण जी मुनि का संघ
सदलगा में आ रहा है…
आज तो गिनी रसोईघर में
पहले ही जाकर बैठ गये,
हाथ में थाली ले
बार-बार कह रहे...
तुम सबसे अच्छी हो माँ!
भोजन जल्दी परोसो ना, माँ!
आज शाम छह बजे मुनिराज आने वाले हैं
कई लोग उन्हें लेने जाने वाले हैं,
मैं भी धर्मध्वज ले
आगे-आगे चलूंगा।
उच्च ध्वनि से,
जय-जयकार करूंगा।
देख गुरु के प्रति उत्साह...
माँ की आँखों में
खुशी से छलक आया नीर
कहने लगी- कितने हो रहे हो अधीर!
शीघ्र ही परोसे दाल-चावल
बिना रोटी खाये ही
दौड़ते-दौड़ते ले मित्रों को साथ
पहुँचे तीन किलोमीटर दूर...
गुरु-चरणों में सर्वप्रथम झुका माथ,
पिच्छी से मिला आशीर्वाद
कर अपने भाग्य की सराहना
एकटक तकते रहे मुनिश्री को बारंबार..
चलते जा रहे आगे-आगे
धर्मपताका ले
जो बताती है धर्म का पता
वही है पताका
इतने में ही देखा।
कुछ मित्र चले जा रहे
अपनी धुन में,
हरी-हरी घास को कुचलते देख
आह भर आई,
नयनों में जलबिंदु तैर आई...
बोले- समझ में नहीं आता?
अपने जैसे यह भी जीव हैं
क्या तुम्हारा हृदय नहीं पसीजता?
यदि चले तुम्हारे ऊपर हाथी
तो कैसा लगेगा तुम्हें?
वैसे ही तुम्हारे पैरों के भार से
कुचली जा रही है नाजुक-सी घास,
जन्म लिया है तुमने जैन कुल में
जीवों का मत करो घात।
सुन पीलू की बात
बोले- छोटे पण्डित!
समझ गये हम
अब ऐसी गलती नहीं करेंगे हम...
विद्याधर आगे-आगे चल रहे थे
जय-जयकार के नारे गूंज रहे थे,
आचार्य देशभूषण महाराज की जय हो!
ज्ञान दर्पण धर्म सम्राट की जय हो!
करपात्री, पदयात्री की
मुक्तिपथ के सारथी की
दयासिंधु गुणसागर की
सच्चे धर्म-दिवाकर की
जय हो! जय हो! जय हो!
निज शुद्धातम दर्शक की
भविजन के उपदेशक की
संयम-पथ के राही की
त्रियोग से मुनिरायी की
जय हो! जय हो! जय हो!
सुरीली आवाज़ में
किंतु पूरी बुलंदी से
नारे लगा रहे थे।
सुनकर मुनिराज सोच रहे थे...
यह बालक है बड़ा यशस्वी
सुंदर रूप है, आवाज़ भी है ओजस्वी
चलते-चलते यूँ
सदलगा में हो गया आगमन
जहाँ देखो वहाँ श्रावकगण
कर रहे धर्म की ही चर्चा,
श्रीमति ने भी लगाया घर में चौका
उठते ही सवेरे
ज्ञात हुआ पीलू को
पकड़ माँ का हाथ कहने लगा
मैं भी दूँगा आहार
जो कहेंगे मुनिराज वह सब करूंगा त्याग।
सहज धर्मवृत्ति देख
मन ही मन सोचने लगी वह
तुम्हें मैं क्या दूँ संस्कार
पूर्व से ही आये हो होकर तैयार।
दक्षिण भारत की परम्परानुसार
आज किया जाना है ‘मँजीबंधन संस्कार’
बारह वर्ष से हो अधिक उम्र वाला बालक
करे उस दिन उपवास
बाल मुंड़ाकर रखे चोटी...
सात गृहों से भिक्षा माँगे
पहने सफेद धोती...
तब कहीं धारण होगा गणधर सूत्र
जिसे कहते हैं यज्ञोपवीत...
‘गिनी' ने मना लिया बड़े भाई महावीर को,
किंतु पिता ने नहीं दी स्वीकृति
ज़रा बड़े हो जाओ
यूँ डाँट लगाई दोनों को।
बोले तोता
बड़े तो हो गये
जाने दो ना, अन्नाजी!!
कहकर लिपट गये पिता से
रोने के अंदाज़ में सुबकने लगे
किसी तरह यूँ मनाने लगे,
बड़ों को मनाना तो कोई तुमसे सीखे
पिताजी समझ गये इनकी चाल
बोले तीव्र स्वर में फटकारते हुए
“कोई ज़रूरत नहीं है जाने की
मैं स्वयं करा दूंगा
बाद में यह संस्कार…”
आखिर धर्म-भावना को रोक नहीं पाये
दबे पैर अकेले घर से निकल आये
बालकों की भीड़ में
सबसे अग्रिम पंक्ति में बैठ गये।
आचार्यश्री के खोज रहे थे नयन
किसी विशेष भव्यात्मा को
तभी...सुंदर गौरवर्ण कमल से नयन
अरूण अधर, सुगठित बदन
देख विद्याधर को
पण्डितजी ने तीन लड़ वाला
चमकता स्वर्ण का
पहनाया जनेऊ विधिवत्,
दूर से देख यह दृश्य
मल्लप्पाजी मन ही मन मुस्काये
“सागर को गागर में समेटा नहीं जाता
आकाश को आँचल में बाँधा नहीं जाता
बड़ा जिद्दी हठी है यह विद्या!
यह किसी के रोके रोका नहीं जा सकता…
साधना पथ का
एक और पायदान मिल गया
गुरु-कृपा से संयम पथ का
एक और सोपान चढ़ गया
दिनभर प्रसन्नता से गुजर गया
घिर आयी थी रात।
तनिक नैनों में ललाई
छिड़ककर बोली माँ
“दिनभर करते हो धर्म की चर्चा
कल है परीक्षा!
किया है याद अपना पाठ?
नम्र भावों से देखते रहे एकटक माँ को
जैसे कह रहे हों...
विश्वास नहीं मुझ पर तुमको?
सारा पाठ बिना देखे सुना दिया
सुनकर
माँ का मन प्रसन्न हो गया।"
शाम को
प्रभु-दर्शन कर
हर रात
अपने भाई-बहनों को
सुनाते धर्म की बात
सुरीले कंठ से
गाते स्तुति
छोटों को भी
बड़ों की तरह करते संबोधित,
कुछ नहीं करते अनुचित |