दृष्टिपथ में आने वाले शरीरधारियों को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। (१) मनुष्य (२) पशु पक्षी। इनमें से पशु पक्षी वर्ग की अपेक्षा से आम तौर पर मनुष्यवर्ग अच्छा समझा जाता है, सो क्यों? उसमें कौनसा अच्छापन है? यही यहां देखना है। खाना-पीना, नींद लेना, डरना, डराना और परिश्रम करना आदि बातें जैसी मनुष्य में है वैसी ही पशु-पक्षियों में भी पाई जाती है। फिर ऐसी कौनसी बात है जिससे मनुष्य को पशु-पक्षियों से अच्छा समझा जाता है?
बात यह है कि मनुष्य में सहानुभूति होती है, जिसका कि पशु-पक्षियों में अभाव होता है। पशु को जब भूख लगती है तो खाना चाहता है और खाना मिलने पर पेट भर खा लेता है। उसे अपने पेट भरने से काम रहता है और उसे अपने साथियों की कुछ फिकर नहीं होती। उसकी निगाह में उसका कोई साथी ही नहीं होता जिसकी कि वह अपने विचार में कुछ भी अपेक्षा रखे। मनुष्य का स्वभाव इससे कुछ भिन्न प्रकार का होता है। वह अपनी तरह से अपने साथी की भी परवाह करना जानता है। यदि खाना मिलता है तो अपने साथी को खिलाकर खाना चाहता है। वस्त्र भी मिलता है को साथी को पहनाकर फिर आप पहिनना ठीक समझता है। आप भले ही थोड़ी देर के लिये भूखा प्यासा रह सकता है परन्तु अपने साथी को भूखा प्यासा रखना या रहने देना इसके लिए अनहोनी बात है। बस इसी का नाम सहानुभूति है।
जिसके बल पर मनुष्य सबका प्यारा ओर आदरणीय समझा जाता है। हां यदि मनुष्य में सहानुभूति न हो तो फिर वह पशु से भी भयंकर बन जाता है। क्रूर से भी क्रूर सिंह भी प्रजा में इतना विल्पव नहीं मचा सकता जितना कि सहानुभूति से शून्य होने पर एक मनुष्य कर जाता है। सिंह तो क्रूरता में आकर दो चार प्राणियों का ही संहार करता है किन्तु मनुष्य जब सहानुभूति को त्यागकर एकांत स्वार्थी बन जाता है। तो वह सैकड़ों, हजारों आदमियों का संहार कर डालता है। कपट वचन के द्वारा लोगों को भ्रम में डालकर बरबाद कर देता है। लोगों की प्राणों से प्यारी जीवन निर्वाह योग्य सामग्री को भी लूट खसोट कर उन्हें दुखी बनाता है। मनचलेपन में आकर कुलीन महिलाओं पर बलात्कार करके उनके शीलरत्न का अपहरण करता है। भूतलभर पर होने वाले खाद्य पदार्थ वगैरह पर अपना ही अधिकार जमाकर सम्पूर्ण प्रजा को कष्ट में डाल देता है।
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