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मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता प्रारंभ ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सहानुभूति
     
    दृष्टिपथ में आने वाले शरीरधारियों को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। (१) मनुष्य (२) पशु पक्षी। इनमें से पशु पक्षी वर्ग की अपेक्षा से आम तौर पर मनुष्यवर्ग अच्छा समझा जाता है, सो क्यों? उसमें कौनसा अच्छापन है? यही यहां देखना है। खाना-पीना, नींद लेना, डरना, डराना और परिश्रम करना आदि बातें जैसी मनुष्य में है वैसी ही पशु-पक्षियों में भी पाई जाती है। फिर ऐसी कौनसी बात है जिससे मनुष्य को पशु-पक्षियों से अच्छा समझा जाता है?
     
    बात यह है कि मनुष्य में सहानुभूति होती है, जिसका कि पशु-पक्षियों में अभाव होता है। पशु को जब भूख लगती है तो खाना चाहता है और खाना मिलने पर पेट भर खा लेता है। उसे अपने पेट भरने से काम रहता है और उसे अपने साथियों की कुछ फिकर नहीं होती। उसकी निगाह में उसका कोई साथी ही नहीं होता जिसकी कि वह अपने विचार में कुछ भी अपेक्षा रखे। मनुष्य का स्वभाव इससे कुछ भिन्न प्रकार का होता है। वह अपनी तरह से अपने साथी की भी परवाह करना जानता है। यदि खाना मिलता है तो अपने साथी को खिलाकर खाना चाहता है। वस्त्र भी मिलता है को साथी को पहनाकर फिर आप पहिनना ठीक समझता है। आप भले ही थोड़ी देर के लिये भूखा प्यासा रह सकता है परन्तु अपने साथी को भूखा प्यासा रखना या रहने देना इसके लिए अनहोनी बात है। बस इसी का नाम सहानुभूति है।
     
    जिसके बल पर मनुष्य सबका प्यारा ओर आदरणीय समझा जाता है। हां यदि मनुष्य में सहानुभूति न हो तो फिर वह पशु से भी भयंकर बन जाता है। क्रूर से भी क्रूर सिंह भी प्रजा में इतना विल्पव नहीं मचा सकता जितना कि सहानुभूति से शून्य होने पर एक मनुष्य कर जाता है। सिंह तो क्रूरता में आकर दो चार प्राणियों का ही संहार करता है किन्तु मनुष्य जब सहानुभूति को त्यागकर एकांत स्वार्थी बन जाता है। तो वह सैकड़ों, हजारों आदमियों का संहार कर डालता है। कपट वचन के द्वारा लोगों को भ्रम में डालकर बरबाद कर देता है। लोगों की प्राणों से प्यारी जीवन निर्वाह योग्य सामग्री को भी लूट खसोट कर उन्हें दुखी बनाता है। मनचलेपन में आकर कुलीन महिलाओं पर बलात्कार करके उनके शीलरत्न का अपहरण करता है। भूतलभर पर होने वाले खाद्य पदार्थ वगैरह पर अपना ही अधिकार जमाकर सम्पूर्ण प्रजा को कष्ट में डाल देता है।
  2. संयम स्वर्ण महोत्सव
    हिंसा का स्पष्टीकरण
     
    इस जीव को मार दें, पीट दें या यह मर जावे, पिट जावे, दु:ख पावे इस प्रकार के विचार का नाम भावहिंसा है और अपने इस विचार को कार्यान्वित करने के लिये किसी भी तरह की चेष्टा करना द्रव्यहिंसा है। भावहिंसा पूर्वक ही द्रव्यहिंसा होती है। बिना भाव हिंसा के द्रव्यहिंसा नहीं होती और जहां भावहिंसा होती है वहां द्रव्यहिंसा यदि न भी हो तो भी वह हिंसक या हत्यारा ही रहता है। उदाहरण के लिये मान लीजिये कि
     
    एक शस्त्रचिकित्सक है, डॉक्टर है और वह किसी घाव वाले रोगी को नीरोग करने के लिये उसके घाव को चीरता है। घाव के चीरने में वह रोगी मर जाता है तो वहां डॉक्टर हिसंक नहीं होता। परन्तु पारधी शिकार खेलने के विचार को लेकर जंगल में जाता है। और वहां उसकी निगाह में कोई भी पशु पक्षी नहीं आता और लाचार होकर उसे यों ही अपने घर को लौटना पड़ता है, फिर भी वह हिंसक है, हत्यारा है। भले ही उसने किसी जीव को मारा नहीं है, फिर भी वह हिंसा से बचा हुआ नहीं है। क्योंकि प्राणियों को मारने के विचार को लिये हुये है। ऐसा हमारे महर्षियों का कहना है।
     
    इसी को स्पष्ट समझने के लिये हमारे यहां एक कथा है कि - स्वयं भूरमण समुद्र में एक राघव मच्छ है, जो बहुत बड़ा है। वह जितनी मछलियों को खाता है, खा लेता है, और पेट भर जाने के बाद भी मुँह में अनेक मछलियां जाती हैं और वापिस निकलती रहती हैं। उन मछलियों को जीवित निकली देखकर उस मच्छ की आंखों पर जो एक तन्दुल मच्छ होता है वह सोचता है। कि मच्छ बड़ा मूर्ख है जो इन मछलियों को जीवित ही छोड़ देता है, और यदि मैं इस जैसा होता तो सबको हड़प जाता। बस इसी दुर्भाव की वजह से वह मरकर घोर नरक में जा पड़ता है।
  3. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अहिंसा के दो पहलू और उसकी सार्थकता
     
    किसी को नहीं मारना चाहिये या कष्ट नहीं देना यह अहिंसा का एक पहलू है; तो दूसरा पहलू है कि किसी भी कष्ट में पड़े हुये के कष्ट को निवारण करने का यथाशक्य प्रयत्न करना। ये दोनों ही बातें साधक में एक साथ होना चाहिये तभी वह अहिंसक बन सकता है। अधिकांश देखने में आता है कि आज की दुनिया के लोग कीड़े-मकोड़े सरीखों को ही मारने में पाप समझते हैं। कर्तव्य पथ प्रदर्शन तो ठीक है परन्तु किसके साथ में कैसा व्यवहार करना चाहिये;
     
    मेरे इस बर्ताव से सामने वाला बन्धु निराकुल होने के बदले कहीं उल्टा कष्ट से तो नहीं घिर जायेगा इस बात का विचार बहुत कम होता है। इसी से हरेक देश, हरेक समाज, हरेक जाति और हरेक घर नरक जैसा बनता चला जा रहा है। प्रायः हरेक आदमी का यही रवैया हो लिया है कि दूसरे आदमी काम खूब करें और खाना बहुत कम खावें बल्कि न खावें तो और भी अच्छा है, किन्तु मुझे काम बहुत कम करना पड़े और खाने को मनचाहा खूब मिले। बस इसी हिंसामय दुर्विचार से ईर्ष्या और द्वेष की आग धधक रही है जिसमें सारा ही विश्व झुलसा जा रहा है। परस्पर प्रेम का भाव हम लोगों के दिल में से उठता जा रहा है। प्रेम अहिंसा का संजीवन माना गया है। जबकि किसी के प्रति हार्दिक प्रेम भावना होती है तो अपने आप यह विचार आने लगता है कि इसे कहीं परिश्रम न करना पड़े। मैं ही मेरे अथक परिश्रम से कार्य को सम्पन्न कर लूँ और उसका फल हम दोनों मिलकर भोगे। इस प्रकार प्रेम रूप अमृत स्रोत से ही अहिंसा रूप वल्लरी पल्लवित होती है।
  4. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पुराने समय की बात
     
    एक शाही घराना था। सेठ सेठानी प्रौढ अवस्था पर थे। जिन के पांच लड़के और सबसे छोटी लड़की थी। बड़े चारों लड़कों की शादियां होकर उनके बाल बच्चे भी हो गये थे। छोटे लड़के की भी शादी तो हो गई थी मगर बहू अभी अपने पिता के यहां ही थी। यहां घर पर एक कन्या चार बहुयें और एक सास इस प्रकार छह औरतें थी जो सब मिलजुल कर घर का कार्य चलाना चाहती तो अच्छी तरह से चला सकती थी परन्तु परस्पर प्रेम का अभाव होने से तेरे मेरे में ही उनका अधिकांश समय बरबाद हो जाता था।
     
    एक सोचती थी कि मुझे काम कम करना पड़े और आराम विशेष मिले, तो दूसरी सोचती थी कि मैं ही काम क्यों करूं? इस तरह से कलह का साम्राज्य हो गया था। इसी बीच में छोटी बहू मायके (पीहर) से आई जो कि एक शिक्षित घराने की लड़की थी। उसने बालकपन में अच्छी शिक्षा पाई थी, भले संस्कारों में पली थी। वह जब आई और घर का वातावरण दूषित देखा तो घबरा गई । वह क्या देखती है कि सास और जेठानियां बिना कुछ बात पर आपस में लड़ रही हैं। यह देखकर वह रो पड़ी और मन ही मन सोचने लगी कि हे भगवान! क्या मेरे भाग्य में यही सिनेमा देखने को बचा है? मैं यहां किस तरह से अपनी जिन्दगी बिता सकूंगी। यों रोते-रोते वह थक गई और बेहोश सी हो गई। आवाज आई कि उठ सावधान हो! लोहे को कंचन बनाने के लिये पारस के समान तेरा समागम इस घर को सुधारने के लिये ही तो हुआ है।
  5. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अपनी भलाई ही है औरों के सुधारने के लिये
     
    उसने सोचा यहां पर मुख्य लड़ाई काम करने की है। इन्हें इनके विचारानुसार काम करने में कष्ट का अनुभव होता है ये सब अपने को आलसी बनाये रखने में ही सुखी हुआ समझती हैं, यदि घर के धन्धों को मैं मेरे हाथ से करने लग जाऊँ तो अच्छा हो, मेरा शरीर भी चुस्त रहे और इन लोगों का आपस का झगड़ा भी मिट जाये, एक तीर्थ और दो काज वाली बात है। अब रोज एक जब कि सब जनी भोजनपान के अनन्तर आकर एक जगह बैठी तो सुशिक्षिता ने कहा कि सासूजी और जीजीबाइयो सुनो, मेरे रहते हुये आप लोग काम करो यह मेरे लिये शोभा की बात नहीं, अपितु मैं इसमें अपनी हानि और मेरा अपमान ही समझती हूं। यहां कोई विशेष काम भी नहीं है और मेरा अभ्यास कुछ ऐसा ही है कि काम करने में ही मुझे आनन्द मालूम होता है।
     
    अत: कल से घर का रसोई पानी का काम मैं ही कर लिया करूं, ऐसी आज्ञा चाहती हूँ। इस पर बडी जेठानी बोली कि कॅवराणी जी! अभी तो आपके खाने-पीने और विनोद कर बिताने के दिन हैं, फिर तो तुम्हें ही सब कुछ करना पड़ेगा ताकि करते-करते थक भी जाओगी। सुशिक्षिता नम्रता के साथ कहने लगी- जीजी कि मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं मुझे निराश मत करो, मेरे तो यही काम करने के दिन हैं, अभी से करने लगूंगी तो कुछ दिनों में आप लोगों के शुभाशीर्वाद से आगे को काम करने लायक रहूंगी। अन्यथा मैं तो आलसी बनी रहूंगी, तो फिर भविष्य में कुछ भी न कर सकूंगी। यथाशक्ति घर का काम करना मेरा कर्तव्य है।
     
    अत: दया कीजिये और मुझ से काम लीजिये। हां यह अवश्य हो कि मैं भूल जाऊँ तो बताते तथा होशियार अवश्य करते रहने की कृपा करें। अब वह रोज सबेरे उठती नहा धोकर भगवद्भजन करके भोजन बनाने में लगी रहती थी। अनेक तरह का सरस, स्वादिष्ट भोजन थोड़ी सी देर में तैयार कर लेती और सबको भोजन करवा कर बाद मैं आप भोजन किया करती थी। यदि कभी कोई पाहुणा आ गया और असमय में भी भोजन बनाना पड़ा तो बड़े उत्साह के साथ सही भोजन बनाया करती थी।
     
    यह देखकर सास ने एक दिन आश्चर्यपूर्वक पूछा कि बहू तू ऐसा क्यों करती है? सब काम अकेली ही क्यों किया करती है? तब सुशिक्षिता बोली कि सासूजी! आप यह क्या कह रही हैं? काम करने से कोई दुबला थोड़े ही हो जाता है। काम करने से तो प्रत्युत शरीर स्वस्थ रहता है। यह तो मेरे घर का कार्य है, मुझे करना ही चाहिये। कोई भी अपना काम करें इसमें तो बुराई ही क्या है? मनुष्यता तो इसमें है कि अपने घर का काम सावधानता से निबटा कर फिर पड़ौसी के भी काम में हाथ बटाया जावे। यह शरीर तो एक रोज मिट्टी में मिल जावेगा। हो सके जहां तक इसको दूसरों की सेवा में लगा देना ही ठीक है।
     
    सुशिक्षिता की जेठानियां भी यह सब बात सुन रही थी अतः वे सब सोचने लगी कि देखो हम लोग कितनी भूल कर रही है। पड़ोसिन के कार्य में हाथ बटाना तो दूर कितना रहा हम लोग तो अपने घर के कार्यों को भी इसी के ऊपर छोड़कर बेखबर हो रही हैं। जैसा ही घर में होने वाला कार्य इसका है, इससे पहिले हमारा भी तो है फिर हम लोगों को क्यों न करना चाहिये, जी क्यों चुराना चाहिये? बस अब सभी अपना-अपना कार्य स्वयं करने लगीं।
  6. संयम स्वर्ण महोत्सव
    कोई किसी से जैसा कराना चाहे वैसा खुद करे
     
    सुशिक्षिता ने देखा कि अब मेरे जुम्मे कोई खास काम नहीं रहा है तो एक दिन वह चक्की तो घर में थी ही कुछ गेहूं लेकर पीसने बैठ गई। उसे ऐसा करते देखकर सास आई और बोली कि बहू आज यह क्या कर रही है? क्या पवन चक्की दुनिया से उठ गई? ताकि तू गेहं लेकर पीसने को बैठी है? इस पर सुशिक्षित बोली कि सासूजी आप या जेठानियां और तो कुछ करने नहीं देती, खुद करने लग गई हैं तो फिर मैं क्या करूं? काम नहीं करने से शरीर आलसी बन जाता है, दिन भर निठल्ला बैठे रहने से मन में अनेक प्रकार के खोटे विचार आते हैं। पीसने से कसरत भी कुछ सहज ही बन जाती है। ताकि शरीर और मन दोनों प्रसन्न ही रहते हैं। इसके अलावा पवन चक्की का आटा खाने से धार्मिक और आर्थिक हानि के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य भी बिगड़ता है। इसलिये मैंने ऐसा करना ठीक समझा है।
     
    सुशिक्षिता को ऐसा करती हुई सुनकर जिठानियों को तमाशा सा लगा अतः एक-एक करके वे सब भी उसके पास में आ खड़ी हुयीं और देखने लगीं। एक ने देखा कि यह तो बड़ी ही आसानी से चक्की को घुमा रही है एवं एक प्रकार का आनन्द का अनुभव कर रही है जरा मैं भी इसे घुमाकर क्यों न देखूं? ऐसे मन से उसके साथ आटा पीसने को बैठी और थोड़ी देर बाद बोली कि ओह, यह तो बहुत अच्छी बात है। यद्यपि थोड़ा परिश्रम तो इसमें होता है, सो तो हिंडोले पर हींड़ने में भी होता है, जो कि मनोविनोद के लिये किया जाता है। इनमें तो विनोद का विनोद और काम का काम तथा शरीर बिल्कुल फूल जैसा ही हलका बन जाता है। मैं भी रोजमर्रा थोड़ा बहुत पीसा करूंगी। फिर क्या था, फिर तो क्रम-क्रम से सभी पीसने लगीं।
     
    सुशिक्षिता ने फिर फुरसत पाई कि हाथ में बुहारी लेकर घर का कूड़ा कचरा साफ किया और फिर घड़ा लेकर कुएं पर पानी भरने को जाने लगी तो सासू ने प्रेम से कहा- बेटी यह क्या करती है? घर पर तो नौकर बहुत हैं, उनसे काम कराओ। जवाब में सुशिक्षिता ने कहा माताजी ! कोई व्यक्ति आप बैठा रहकर नौकरों से काम ले, मैं इसे अच्छा नहीं समझती, क्योंकि क्या उसके खुद के हाथ पैर नहीं हैं? अगर हैं तो क्यों होना चाहिये। ऐसा करना तो मेरी समझ में उन नौकरों के साथ में दुर्व्यवहार करना है, नौकर भी तो, समझदार के लिये भाई-बन्धुस्थानीय ही होते हैं। उन्हें तो इसलिये रक्खा जाता है कि समय पर मनुष्य से खुद से काम पूरा न किया जा सकता हो या जिस-जिस काम को वह नहीं कर सकता हो वह काम प्रेम-पूर्वक उनसे लेता रहे। कार्य करने से मनुष्य की प्रतिष्ठा कम नहीं होती प्रत्युत बढ़ती है। प्रतिष्ठा के कम होने का तो कारण है स्वार्थ-परायणता या विलासिता। सुशिक्षिता की ऐसी ज्ञान भरी बात सुनकर सेठानी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह मन में सोचने लगी कि अहो ! देखो इसके कितने ऊँचे विचार हैं, यह साक्षात भलाई की मूर्ति की प्रतीत होती है
     
    जिस की  वजह से आज मेरे इस घर में शांति का साम्राज्य हो गया है जहां पर कि इससे पूर्व में कलह का आतंक छाया हुआ था। अब एक रोज सेठानी ने बाजार से मंगवाकर सब बहुओं को उनके साल भर के खर्च के योग्य छ: छः जोड़ा साड़ियों के दिये तो सुशिक्षिता अपने उन जोड़ों में से एक जोड़ा लेकर, हे जीजी ! मेरे पास पहले ही से बहुत सी साड़िया मेरी पेटी में धरी रखी हैं काम में नहीं आती तो मैं अब इनका क्या करूंगी? अतः यह साड़ी जोड़ा आप ही ग्रहण करें, ऐसा कहते हुए बड़ी जेठानी को भेंट किया एवं एक-एक जोड़ा और जेठानियों को दिया तथा ननद को भी एक जोड़ा दे दिया जिससे वे सब बड़ी प्रसन्न हुयी।
     
    इधर सेठानी को यह बात मालूम हुई तो उसने पूछा कि बहू यह क्या किया? तो सुशिक्षिता बोली कि सासूजी आप ही देखती हैं कि मैं तो मेरे हाथ के कते हुए सूत से खुद ही बुनकर तैयार कर लेती हूं, उसी साड़ी को पहनती हूं। जो कि साल भर में दो साड़िया ही मेरे लिये पर्याप्त होती हैं किन्तु मैं साल भर में छह: सात साड़ियां तैयार कर लेती हूं जो कि मेरे पास सन्दूक में भरी रक्खी हैं। मैं तो उनमें से भी इनको देना चाहती हूं, परन्तु ये जीजी बाइयाँ भले घरानों की हैं। इन्हें ये साड़ियाँ पसन्द नहीं आती। आज आपने ये बेशकीमती साड़ियाँ मंगवाकर हम सबको पारितोषक रूप में दी तो आपका हाथ पाछा गिराना तो मैंने उचित नहीं समझा किन्तु मैं व्यर्थ ही इनका संग्रह करके क्या करती? अतः एक-एक जोड़ा मैंने इनको दे दिया। अब यह एक जोड़ा और शेष है इसको भी अगर आप अपने लिये रख लें तो बहुत अच्छा हो। आपके काम में आ जावेगा, वरना मेरे पास तो व्यर्थ ही पड़ा रहेगा। मैं तो मेरी हाथ की बुनी हुई साड़ियों में से भी कभी किसी नौकरानी को तो कभी किसी गरीब बहिन को दे दिया करती हूं। संग्रहवृत्ति, या फैशनबाजी को मैं मेरे लिये अच्छा नहीं समझती। वस्त्रादि चीजों को संग्रह कर रखने में मन उन्हीं वस्तुओं में चिपका रहता है। मोह उत्पन्न होता है। जो बहिने नित्य नई पोशाकें बदलना जानती हैं वे सब अपने पतिदेवों को व्यर्थ की परेशानी में डालने का काम करती हैं। क्योंकि अन्याय अनर्थ का न होता कार्य करके भी धन कमा लाकर उनकी हविस पूरी करने की ही चिन्ता रहती है। जो कि एक बड़ी भारी हिंसा है।
     
    जिसका उत्तरदायित्व उन मेरी फैशनबाज बहिनों के जुम्मे होता है, जिन्हें कि शोभा का प्रलोभन होता है। परन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि शोभा तो गहनों और कपड़ों से न होकर समुचित नि:स्वार्थ सेवा और परोपकार आदि सद्दगुणों द्वारा होगी। इस प्रकार सुनकर सेठानी ने कहा कि बहू तेरा कहना ठीक है, आज से मैं तो यह प्रतिज्ञा करती हूं कि तेरे हाथ के बने हुए कपड़ों को ही पहिना करूंगी एवं सादगी से अपना जीवन बिताऊँगी।
  7. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अहिंसा अव्यवहार्य नहीं है
     
    किसी को भी मारना हिंसा है, न कि मरना। क्योंकि मरना तो कभी न कभी शरीरधारी को पड़ता ही है, हां, अपने आप जान-बूझकर पर्वत से पड़कर, कूप में पड़कर, तलवार खाकर या विष भक्षण कर मरना वह मरना नहीं है, किन्तु अपने आपको मारना है। जैसे दूसरों को मारना हिंसा है वैसे ही अपने आपको मारना भी हिंसा ही नहीं बल्कि घोर हिंसा है। जिसको आत्मघात बताकर महर्षियों ने उसकी घोर निन्दा की है और जब कि मारने का नाम हिंसा है तो फिर हिंसा किये बिना निर्वाह नहीं हो सकता यह विश्वास झूठा है।
     
    क्या किसी को मारे बिना किसी का काम नहीं बन सकता? नहीं ऐसी बात नहीं है। हां, कोई बहुत बड़ी या थोड़ी हिंसा करता है तो कोई हिंसा किये बिना भी रह सकता है। बल्कि अहिंसा के बिना किसी का भी गुजर नहीं हो सकता। एक बड़े से बड़ा पारधी जिसने प्राणियों को मारना ही अपना काम समझ रखा है। वह भी कम से कम, अपनी उसकी पक्ष करने वाले को तो नहीं मारता है। अतः यह तो मानना ही होगा कि अहिंसा सभी की उपास्य देवता है।
     
    हां, यह कहा जा सकता है कि अपने शरीर का निर्वाह अपने आप करने वाला आदमी भले ही मांस न खाये और खून या शराब पिये बिना रह जावे परन्तु साक सब्जी तो उसे खानी ही होगी और प्यास बुझाने के लिये स्वच्छ पानी भी पीना ही होगा। बस इसीलिए हमारे दिव्य ज्ञानी महिरिशियों ने बतलाया है कि कौटुम्बिक जीवन वाले लोगों को स्थावर हिंसा करना आवश्यक है, उसके बिना उनका निर्वाह नहीं हो सकता किन्तु उस हिंसा तो उनको कभी भी नहीं करना चाहिए।
  8. संयम स्वर्ण महोत्सव
    जैन वीरों की देशभक्ति
     
    मुसलमानों ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया। वहां के सेनापति आबूव्रती श्रावक थे। जो कि नित्य नियमपूर्वक प्रतिक्रमण किया करते थे। शत्रुओं से लड़ते-लड़ते उनके प्रतिक्रमण का समय हो गया जिसके लिए उन्होंने एकान्त स्थान पर जाना चाहा, परन्तु मुसलमानों की जबरदस्त सेना के सामने अपनी मुट्ठी भर फौज के पांव उखड़ते देखकर राष्ट्रीय सेवा के कारण रणभूमि को छोड़ना उचित न जाना और दोनों हाथों में तलवार लिए हौदे पर बैठे हुए बोलने लगें- ‘जे मे जीवा विराहिया एकगिन्दिया वा बे इन्दिया वा' इत्यादि जिसको सुनकर सेना सरदार चौंक उठे कि देखो ये रणभूमि में भी जहां तलवारों की खनाखन और मारो-मारो के भयानक शब्दों के सिवाय कुछ सुनाई नहीं देता, वहां एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय जीवों तक से क्षमा चाह रहे हैं, ये नरम-नरम हलवा खाने वाले जैनी क्या वीरता दिखा सकते हैं।
     
    प्रतिक्रमण का समय समाप्त होने पर सेनापति ने शत्रुओं के सरदार को ललकारा कि ओ! इधर आ, हाथ में तलवार ले, खांडा संभाल। अपनी वीरता दिखा, होश कर मन की निकाल। धर्म का पालन किया हो तो धर्म की शक्ति दिखा वरना जान बचाकर फौरन यहां से भाग जा। इस पर शत्रुओं सरदार उत्तर भी देने न पाया था कि जैन सेनापति आबू ने इस वीरता और योग्यता से हमला किया कि शत्रुओं के छक्के छूट गये और मुसलमान सेनापति को मैदान छोड़ कर भागना पड़ा। फिर क्या था, गुजरात का बच्चा-बच्चा आबू की वीरता के गीत गाने लगा। उसको अभिनन्दन पत्र देते हुए रानी ने हंसी में कहा कि सेनापति। जब युद्ध में एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय जीवों तक से क्षमा मांग रहे थे तो हमारी फोज घबरा उठी थी कि एकेन्द्रिय जीव से क्षमा मांगने वाला पंचेन्द्रिय मनुष्य को युद्ध में कैसे मार सकेगा। इस पर व्रती श्रावक आबू ने उत्तर दिया कि महारानीजी ! मेरे अहिंसा व्रत का संबंध मेरी आत्मा के साथ है। एकेन्द्रिय दोइन्द्रिय जीवों तक को बाधा न पहुंचाने का जो नियम मैंने ले रखा है वह मेरे व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा से है। देश की सेवा अथवा राज्य की आज्ञा के लिए यदि मुझे युद्ध अथवा हिंसा करनी पड़े तो ऐसा करने में मैं मेरा धर्म समझता हूं क्योंकि मेरा यह शरीर राष्ट्रीय सम्पत्ति है। इसका उपयोग राष्ट्र की आज्ञा और आवश्यकता के अनुसार ही होना उचित है परन्तु आत्मा और मन मेरी निजी सम्पत्ति है। इन दोनों को हिंसा भाव से अलग रखना मेरे अहिंसा व्रत का लक्षण है। ठीक ही है, ऐसा किये बिना गृहस्थों का निर्वाह नहीं हो सकता। गृहस्थ ही क्या, कभी-कभी तो साधु महात्माओं तक को भी ऐसा करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
     
    पद्मपुराण में एक जगह वर्णन आता है कि रावण पुष्पक विमान में बैठकर आकाश मार्ग से कहीं जा रहा था तो रास्ते में कैलाश पर्वत पर आकर उसका विमान रुक गया। मेरे विमान को किसने रोक लिया, इस विचार से वह इधर-उधर देखने लगा तो नीचे पर्वत पर बाली मुनि को तपस्या करते हुए पाया और विचार किया कि इन्हीं ने मेरे विमान को रोका है। अतः रोष में आकर सोचने लगा कि मैं मेरे इस अपमान का इनसे बदला लूंगा, पर्वत सहित इनको उठाकर समुद्र में डाल दूंगा। और जब वह अपने इस विचार को कार्य रूप में परिणत करने के लिए पहाड़ के मूल भाग में पहुंच गया तो महर्षि ने सोचा यदि कहीं यह सफल हो गया तो बड़ा अनर्थ हो जावेगा। भरत चक्रवर्ती के बनाये हुए बहुमूल्य और ऐतिहासिक जिनायतन भी नष्ट हो जायेंगे तथा पर्वत में निवास करने वाले पशु-पक्षी भी मारे जावेंगे। उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से जरा सा दबा लिया तब रावण दब कर रोने लगा। तब मन्दोदरी ने आकर महिर्ष से अपने पति की भिक्षा मांगी तो महर्षि ने पैर को ढीला किया।
  9. संयम स्वर्ण महोत्सव
    जैन कौन होता है?
     
    ‘पक्षपातं जयतीति जिनः जिन एव जैनः' अर्थात् कोई भी महाशय यह तेरा है और यह मेरा, यह अच्छा है और यह बुरा। इस प्रकार के विच्छिन्न भावों को अपने मन में से निकाल बाहर कर देता है वें जो सदा सब तरफ सबके साथ एक-सी माध्यमिक व्यापक दृष्टि से देखने लगता है वह जैन कहलाता है। यह दुनियादारी का पामर प्राणी अनाया ही अपने शरीर और इन्द्रियों के सम्पोषण रूप स्वार्थ में संलग्न पाया जाता है जो कि शरीर नश्वर है। तथापित आत्मा अविनश्वर, किन्तु इसकी विचारधारा इस और नहीं जाती। यह तो अपनी मोटी बुद्धि से इस चलते फिरते शरीर को ही आत्मा समझे हुए है। अतः इसे बिगड़ने न देकर चिरस्थाई बनाये रखने की सोचता है एवं इसके काम में जो सहायता देने वाले हैं उन्हें अपने और अच्छे मानकर अपनाता है। किन्तु इससे विरुद्ध को पराये और बुरे समझकर उन्हें बरबाद करने में तत्पर हैं। एवं संघर्ष की जन्मदाता बना हुआ है शन्ति से दूर है।
     
    हाँ, मनुष्य अगर अपनी प्रज्ञा से काम ले तो इसकी समझ में आ सकता है कि शरीर और आत्मा भिन-भिन्न चीजें हैं, शरीर जड़ और नाशवान है तो मेरी आत्मा चैतन्य की धारक शाश्वत रहने वाले। एवं जैसी मेरी आत्मा है वैसी ही इन इतर शरीरधारियों की भी आत्मायें हैं ऐसे विचार को लेकर फिर वह जिसके किसी भी प्राणी को कष्ट हो ऐसी चेष्टा न करके ऐसी प्रक्रिया करता है। जिसमें कि प्राणीमात्र का हित सन्निहित हो। यानी जो स्वार्थ से दूर रहकर पूर्णतया परमार्थ की सड़क पर आ जाता है वही जैन कहलाता है, एवं इस प्रकार जैन बनने का हरेक मनुष्य को अधिकार है यदि वह उपर्युक्त रूप से आत्म-साधना को स्वीकार कर ले। बस ऐसा जिसे विश्वास हो वह जैन होता है जो कि अहिंसा में रुचि रखने वाला होता है हिंसा से परहेज करता है।
  10. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अहिंसक के लिये विरोध का क्षेत्र
     
    जो अहिंसक होता है वह स्वयं तो वीर बहादुर होता है। उसे किसी से भी किसी प्रकार का डर नहीं होता। परन्तु उसने जिन बुजदिलों या बाल वृद्ध आदि लोगों को संभाल रखने का संकल्प ले रखा है, उन लोगों पर यदि कोई मनचला आदमी अनुचित आक्रमण करके गड़बड़ी मचाना चाहता है तो उसे सहन कर लेना उसके आत्मत्व से बाहर की बात हो जाती है। अतः वह उसे उस गड़बड़ी को करने से रोकता है कहता सुनता है। यदि करने सुनने से मान जावे जब तो ठीक ही है। और नहीं तो फिर बल प्रयोग द्वारा भी उसका उसे प्रतिवाद करना पड़ता है।
     
    इसी का नाम विरोध है जो कि एक अहिंसक का कर्तव्य माना गया है। क्यों ऐसा न करने से अपने आश्रितों की रक्षा करने का और दूसरा कोई चारा नहीं होता। इस विरोध करने में आक्रमणकारी का कुछ न कुछ बिगाड़ अवश्य होता है जिसको कि लेकर विरोधक को हिंसक ठहराया जाया करता है। परन्तु वहां पर जितना भी बिगाड़ होता है उसका उत्तरदायी तो वह आक्रामक ही है। विरोधक तो अपने उन लागों की रक्षा करने का प्रयत्न करता है, जिनकी रक्षा करने का उसने प्रण ले रखा है एवं समर्थ है।
  11. संयम स्वर्ण महोत्सव
    राम और रावण
     
    ये दोनों ही यद्यपि महाकुलोत्पन्न थे। महाशक्तिशाली थे। अनेक प्रकार के हथियारों को धारण करने वाले थे। फिर भी दोनों के कर्तव्य कार्य में बड़ा भारी अन्तर था। राम की शक्ति और उनके हथियारों का प्रयोग सदा परमार्थ, परोपकार के लिये हुआ करता था। किन्तु रावण की सारी चेष्टायें स्वार्थ भरी थीं। क्योंकि राम सुपथगामी के साथ दृढ़मना महापुरुष थे किन्तु रावण दुराभिलाषी था, मनचलेपन को लिये हुए था। श्री रामचन्द्र जी की शक्ति और हथियारों का प्रयोग सदा विश्वकल्याण के लिए हुआ करता था। किन्तु रावण की सभी क्रियायें औरों की तो बात ही क्या अपने कुटुम्ब के लोगों के भी विरुद्ध उनको कष्ट देने वाली होकर सिर्फ उसकी स्वार्थान्धता को ही पनपाने वाली थी, इसमें अगर कोई कारण था तो उसका मनचलापन ही था।
  12. संयम स्वर्ण महोत्सव
    कुलक्रम निश्चित नहीं है
     
    कश्यपु के प्रहल्लाद हो, अग्रसेन के कंश।
    फिर कोई कैसे कहै, किसका कैसा वंश॥
    चिरन्तर काल से चली आई हुई इस मनुष्य परम्परा में कोई आदमी सरल स्वभाव का होता है, किन्तु उसका लड़का बिलकुल वक्र स्वभाव वाला दीख पड़ता है। और अज्ञानी बाप का लड़का अतिशय तीक्ष्ण बुद्धि वाला पाया जाता है। हिरण्यकश्यपु एकान्त नास्तिक विचार वाला था किन्तु उसी का लड़का प्रहल्लाद परम आस्तिक था। एवं महाराज उग्रसेन जो कि परम क्षत्रिय थे, प्रजा वत्सल थे उनका लड़का कंस उनके बिलकुल विपरीत उग्र स्वाभाव का, घातक, प्रजा को निष्कारण ही कष्ट देने वाला हुआ। ऐसी हाल में कौन आदमी कैसे मां बाप का लड़का है इसका निर्णय कैसे किया जा सकता है? यद्यपि मूंगों से मूंग ही पैदा होते हैं, फिर भी उन्हीं में कोई-कोई धोरडु भी पैदा होता है जो कि न तो सीझता ही है और न भीजता ही। जिस खदान में पत्थर निकलते हैं उसी में कहीं कभी हीरा भी निकल आता है। यही कुलक्रम का हाल है।
  13. संयम स्वर्ण महोत्सव
    एक भील का अटल संकल्प
     
    महाभारत में एक जगह आया है कि बाण-विद्या की कुशलता के बारे में द्रोणाचार्य की प्रसिद्धि सुनकर एक भील उनके पास आया और बोला कि प्रभो ! मुझको बाण विद्या सिखा देवें। द्रोणाचार्य ने जवाब दिया कि मैं अपनी विद्या क्षत्रिय को ही सिखाया करता हूं यह मेरा प्रण है। अत: मैं तुझे सिखाने के लिए लाचार हूं। इस भील ने कहा प्रभो ! मेरा भी यह दृढ़ संकल्प है कि मैं आप से ही विद्या सीखूंगा ऐसा बोलकर चला गया और द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उसके आगे बाण चलाना सीखने लगा।
     
    कुछ दिन में वह अर्जुन से भी अधिक प्रवीण हो गया। एवं उसकी फैलती हुई बाण विद्या की कीर्ति को सुना तो घूमते फिरते हुए द्रोणाचार्य एक रोज उसके पास आये और बोले कि भाई ! तुमने यह विद्या किससे सीखी है। उत्तर में यह कहते हुए कि प्रभो ! मैंने आपसे ही सीखी है। यह देखिये आपकी मूर्ति बना कर रख छोड़ी है। द्रोणाचार्य के चरणों में गिर गया। द्रोणाचार्य बोले यदि ऐसा तो इसकी दक्षिणा मुझे मिलनी चाहिए। जबाव मिला आप जो चाहें सो ही लीजिये। द्रोणाचार्य बोले और कुछ नहीं सिर्फ अपने दाहिने हाथ का अंगूठा दे दो।
     
    भील ने झट अंगूठा काटकर दे दिया। द्रोणाचार्य हंसे ओर बोले कि भील अब तुम बाण कैसे चलाओगे? गुरु कृपा चाहिए, ऐसा कहता हुए भील ने पैर के अंगूटे से बाण चला दिया द्रोणाचार्य ने उसकी पीठ ठोकते हुए कहा शाबास बेटे! किन्तु किसी भी प्राणी की हिंसा करने में इस विद्या का दुरुपयोग मत करना। जबाव मिला कि प्रभो ! हिंसा करना तो कमीनापन है मैं कमीना नहीं हूं। इस पर द्रोणाचार्य हंसे। उनके हँसने का मतलब भील समझ गया। अत: वह बोला कि प्रभो ! यद्यपि मैं एक वनचर का लड़का हूं किन्तु मैं समझता हूं कि जन्म से कोई नीच और उच्च नहीं होता।
     
    जन्म तो सब का एक ही मार्ग से होता है। नीचता और उच्चता तो मनुष्यों के विचारों या कर्तव्य पर निर्भर है। जो आदमी एकान्त स्वार्थपरता को अपनाकर चोरी, चुगलखोरी जैसे दुष्कर्मों में फंसा रहता है वह मनुष्यता से दूर होने के कारण नीच बना रहता है। परन्तु जो मनुष्यता को समझता है वह इन दुर्गुणों से बिल्कुल दूर रह कर परोपकार, सेवाभाव आदि सद्दगुणों को अपनाता है एवं उच्च बनता है। मैं भी अपने आप को मनुष्य मानता हूं फिर आप ही कहे कि मैं मनुष्यता को कैसे भूल सकता हूँ?
     
    शस्र सम्धारण कर्ता को भी आज हिंसा का कारण मान कर हेय समझा जाने लगा है कि पूर्व जमाने में क्षत्रियता का भूषण होता हुआ चला आया है। पाषाण काल के अन्त में जब लोगों के लिए कृषि सम्पादन की आवश्यकता हुई तब दिव्य ज्ञानी भगवान् ऋषभदेव ने उसकी सुव्यवस्था के लिए मनुष्यमात्र को तीन भागों में विभक्त किया। १. क्षत्रिय। २. वैश्य। ३. शूद्र। उनमें से वैश्यों में जुम्मे खेती करने का और उसमें उत्पन्न हुयी चीजों को यहां वहां पहुंचाने का काम सौंपा गया। शूद्रों को उन्हीं चीजों को मुनष्यों के काम में आने योग्य बनाने का काम सौंपा गया और क्षत्रियों को सब की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया था। तब उन सबको उनके योग्य हथियार बना कर दिये गये थे ताकि वे लोग आसानी से अपने-अपने कार्य को सुसम्पन्न कर सकें। जैसे-किसान के लिए हल, मूसल वगैरह। लोहार के लिए हथौड़ा, घन वगरैरह। वैसे ही क्षत्रिय के लिए तलवार, बन्दूक वगैरह दिये गये थे जिनके द्वारा क्षत्रिय वर्ग अपने प्रजा संरक्षण रूप कार्य में कुशलता पूर्वक उत्तीर्ण हो रहे हैं। एवं वास्तव में वह हिंसा का नहीं बल्कि अहिंसा का पोषक ही ठहरता है, यह बात दूसरी है कि वह अगर किसी सांसी बावरिया आदि हिंसक व्यक्ति के हाथ में आ जावेगा तो अवश्य ही हिंसा में प्रयुक्त होगा परन्तु वह उस हथियार का दोष नहीं, वह तो उस व्यक्ति के मनचलेपन का फल है, हां, आज की जनता का अधिकांश यह हाल है
     
    कि वह क्षत्रियता से दूर होकर स्वार्थपरायणता की ओर ही बड़ी तेजी से दोड़ी चली जा रही है। इसलिए शस्रवृत्ति भी अनुपयोगी ही नहीं प्रत्युत घातक बनती जा रही है। जब कोई किसी भी शस्त्रधारी को देखता है तो भय के मारे थर-थर कापं उठता है क्योंकि उसके मन में यह शस्त्रधर है, सबल है, अतः मेरी रक्षा करेंगे ऐसा विचार न आकर इसके स्थान पर यही भाव उत्पन्न होता है। कि यह कहीं मुझे मार न डाले। क्योंकि आज जहां तहां बलियानबलं ग्रसते वाली कहावत के अनुसार जो भी बलवान है वह अपने उस बल का दुरुपयोग दुर्बलों को हड़पने में करता हुआ देखा जाता है। इसलिए हमारी सरकार को भी यह नियम बनाना पड़ा है कि जो कोई भी शस्त्र रखना चाहे वह शस्त्र धारण करने से पहले इस बात को प्रमाणित कर दे कि “मैं उस शस्त्र के द्वारा संरक्षण का ही काम लूंगा, संहार करने को नहीं।'' एवं भले ही हमारी सरकार ने सर्वसाधारण को चुनौती दी है फिर भी मनचले आदमी समय पर अपनी काली करतूतों से बाज नहीं आते हैं।
  14. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अहिंसा की निरूक्ति
     
    हिंसा के अभाव का नाम अहिंसा है। हनन हिंसा, इस प्रकार हन धातु से हिंसा शब्द निष्पन्न हुआ है जो कि हन धातु सकर्मक है। यानी किसी को भी मार देना, कष्ट पहुंचाना, सताना हिंसा है। परन्तु किसी भी अबोध बालक का पिता, गलती करते हुऐ अपने उस बच्चे की गलती सुधारने के लिए उसे डराता, धमकाता है और फिर भी नहीं मानने पर उसे मारता, पीटता है। अब शब्दार्थ के ऊपर ध्यान देने से पिता का यह काम हिंसा में आ जाता है
     
    एवं यह हिंसक बनकर पापी ठहरता है जो कि किसी भी प्रकार किसी को भी अभीष्ट नहीं है। अत: उस दुर्गुण से बचने के लिए हमारे महापुरुषों ने इसमें एक विशेषता स्वीकार की है। वह यह कि किसी को भी बरबाद कर देने की दृष्टि से उसे कष्ट दिया जावे तो वह हिंसा है। जैसा कि उमास्वामी महाराज के प्रमत्त योगात्प्राणज्यपरोपणं हिंसा' इस सूत्र से स्पष्ट है। मतलब यह है कि जो उसके पालन-पोषण का पूर्ण अधिकारी है वह बालक के जीवन को निराकुल बनाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है। तो बालक जबकि अपने भोलेपन के कारण उसके जीवन को समुन्नत बनाने वाली भलाई की ओर न बढ़कर प्रत्युत बुराइयों में फंसने लगता है तब ऐसा करने से रोकने के लिए उसे डांट बताना पिता का कर्तव्य हो जाता है। इस प्रकार अपने कर्तव्य का निवार्ह करता हुआ पिता पुत्र का मारक नहीं किन्तु, संजीवक, संरक्षण होकर उसके द्वारा सदा के लिए समादरणीय होता है।
  15. संयम स्वर्ण महोत्सव
    राजनीति और धर्मनीति
     
    इन दोनों में परस्पर विरोध है। क्योंकि धर्म तो अहिंसा का पालन करने एवं इसे अन्त तक अक्षुण्ण रूप निभा दिखलाने को कहते हैं। परन्तु राजाओं का काम अपने राज्य शासन को बनाये रखना होता है। अत: उसके लिए येनकेन रूपेण अपने पक्ष को प्रबल बनाते चले जाना और अपने विरोधियों का का दमन करते रहना होता है। इसलिए राज्यसत्ता हिंसापूर्ण पापमय हुआ करती है। ऐसा कुछ लोग समझ बैठे हैं, किन्तु विचार करने पर यह ठीक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि धर्म जो कि विश्व के कल्याण की चीज है उसे अपने जीवन में उतारने का नाम नीति है।
     
    राजा प्रजा का पालक होता है। सम्पूर्ण प्रजा को पापपडंक से बचाकर उसे धर्म के पथ पर समारूढ़ करा देना ही राजा का काम है, प्रजा में सभी तरह के लोग होते हैं अत: जो लोग अपने मनचलेपन से उत्पथ की ओर जा रहे हों उन्हें नियन्त्रित करने के लिए विधान करना शिष्टों का अनुग्रह करना, उन्हें सत्पथ की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देना और दुष्टों की दुष्टता को निकालकर शिष्टता के सम्मुख होने को उन्हें बाध्य करना यह राजनीति है। इसलिए यह धर्म से विरुद्ध कैसे कही जा सकती है? यह तो धर्म को प्रोत्साहन देने वाली है। हाँ, इतनी बात आवश्यक है कि धर्म तत्त्व सदा अटल है परन्तु नीतितत्त्वों में देश, काल की परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। फिर भी उस संविधान का कलेवर जितना भी हो वह सारा का सारा ही जन-समाज के हित को लक्ष्य में लेकर किया हुआ होना चाहिये। उसका एक भी विधेयक ऐसा नहीं हो जो कि किसी के भी व्यक्तिगत स्वार्थ को लेकर रचा गया हो।
  16. संयम स्वर्ण महोत्सव
    हिंसा के रूपान्तर
     
    चीन देश में बौद्धों का निवास है, उन लोगों को विश्वास है कि किसी भी प्राणी को मार कर नहीं खाना चाहिये। मुर्दा माँस के खाने में कोई दोष नहीं है। वहां ऐसी प्रवृत्ति चल पड़ी है कि जिस बकरे वगैरह को खाने की जिसकी दृष्टि होती है वह उसके मकान में ढकेल कर कपाट बन्द कर देता है और दो चार दिन में तड़फड़ा करके जब वह मर जाता है तो उसे खा लिया जाता है। कहने को कहा जाता है कि मैंने इसे नहीं मारा है, यह तो अपने आप मर गया हुआ है। परन्तु उस भले आदमी को सोचना चाहिए कि यदि वह उसे बन्द न करता तो वह क्यों मरता? अत: यह तो उस प्राणी को मारने के साथ-साथ अपने आपको धोखा देना है, सो बहुत बुरी बात है।
     
    हां, माता अपने पुत्र में कोई बुरी आदत देखती है तो उसको छोड़ने को कहती है, और नहीं मानता है तो धमकाने के लिये कभी-कभी उसे रस्से वगैरह से भी कुछ देर के लिये बांध देती है या मकान के अन्दर बन्द कर देती है, सो ऐसा करना हिंसा में शुमार नहीं होना चाहिये क्योंकि यह तो उसको सुधारने के लिये किया जाता है। अन्तरंग में उसके प्रति उसका करूणाभाव ही होता है। देखो ! माता अपने बच्चे को जब चपेट मारने लगती है तो दिखती बड़े जोर से है किन्तु बच्चे के गाल के समीप आते ही उसका वेग बिल्कुल धीमा पड़ जाता है क्योंकि उसके दिल में दया और प्रेम का भाव होता है ताकि वह सोचती है कि यह डर कर सुधर जावे जरूर, किन्तु इसके चोट नहीं आने पाये। सो ऐसा तो करना ही पड़ता है, परन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्य अपना बैर-भाव निकालने के लिए अपने कमाजोर पड़ोसी को मुक्कों ही मुक्कों की मार से घायल कर डालता है। या कोई पशु उसकी धान की ढेरी में मुँह दे जावे तो रोष में आकर ऐसी लाठी वगैरह की चोट मारता है कि उसकी टांग वगैरह टूट जाती है तो ऐसा करना बुरा है।
     
    पशु पालक लोग बैलों को बधिया कर लेते हैं या उनके नाक में नथ डालते हैं। वनचर लोग सुरभि गाय की पूंछ तरास लेते हैं या हाथी के दांत काट लेते हैं यह भी एक तरह की हिंसा है। क्योंकि ऐसा करने में उस पशु को पूरा कष्ट होता है और काटने वाले की केवल स्वार्थपूर्ति है। हां, किसी भी रोगी को डाह वगैरह दिया जाता है वह बात दूसरी है। किसी से भी शक्ति से अधिक काम लेना सो अतिभारारोपण है जिस पशु पर पांच मन वजन लादा जा सकता है, उस पर लोभ-लालच के वश हो छ: मन लाद देना। जो चलते-चलते थक गया है, चल नहीं सकता है, उसको जबरन हण्टर को जोर से चलाते ही रहना। किसी भी नौकर-चाकर से रुपये की एवज में सत्रह आने का काम लेने का विचार रखना इत्यादि सब बातें ही हिंसा से खाली नहीं हैं।
     
    हम देखते है कि प्रायः भले-भले रईस लोग भी, जब उनका नौकर बीमार हो जाता है और काम नहीं आता है तो उसका इलाज कराने की सोचना तो दूर किनार रहा प्रत्युत उसकी उस दिन की तनखा भी काट लेते हैं। भला जरा सोचने की बात है, अगर आपकी मोटर या बाइसिकल खराब हो जावे तो उसकी मरम्मत करावेंगे या नहीं? यदि कहें कि उसको को दुरुस्त कराना ही होगा तो फिर नौकर जो आप ही सरीखा मानव है वह उस निर्जीव बाइसिकल से भी गया बीता हो गया है? ताकि आप उसकी परवाह न करें। इसको काम रते-करते कितनी देर हो गयी है, भोजन का समय हो गया है, भूख लग आयी होगी, इस बात पर कोई ध्यान न देकर सिर्फ अपना काम हो जाने की ही सोचते रहना निर्दयता से खाली नहीं है। परन्तु इसके साथ में हम यह भी देखते हैं कि अधिकांश नौकर लोग भी मुफ्त की नौकरी लेना चाहते हैं। काम करने से भी जी चुराते हैं, मालिक का काम भले ही बिगड़े या सुधरे इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं होती है। बल्कि यही सोचते हैं कि कब समय पूरा हो और कब मैं यहां से चलू सो यह भी बुरी बात है और पाप है। सिद्धान्त तो यह कहता है। मालिक और नौकर में परस्पर पिता पुत्र का सा व्यवहार होना चाहिये।
  17. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अहिंसा का महात्म्य
     
    जो किसी को भी कभी नहीं मारना चाहता उसे भी कोई क्यों मार सकता है। जिसकी आन्तरिक भावना निरन्तर यही रहती है कि किसी को भी कोई तरह का कष्ट कभी भी न होवे तथा इसी विचारानुसार जिसकी बाहरी चेष्टा भी परिशुद्ध होती है उसकी उस पुनीत परिणति का प्रभाव होता है कि उसके सम्मुख में आ उपस्थिति हुआ एक खूख्वार प्राणी भी जरासी देर में शान्त हो जाता है। उसके ऊपर आयी हुई आपत्ति भी उसके आत्मबल से क्षण भर में सम्पत्ति के रूप में परिणत हो जाती है। इस बात के उदाहरण हमारे पुरातन में भरे हुए हैं।
     
    वारिषेण पर चलाया हआ खड्ग उसका कुछ भी बिगाड़ न कर सका, सोमासती को मारने के लिये लाया हुआ काला नाग उसके छूते ही फूलमाला बन गया और एक गठरिया में बांधकर तालाब में डाले गये राजकुमार और यमदण्ड चाण्डाल, इन दोनों में से राजकुमार तो मगरमच्छ द्वारा भक्षण कर लिया गया किन्तु यमदण्ड चाण्डाल बाल-बाल बच गया, इत्यादि ये सब अहिंसा के ही प्रभाव हैं।
     
    सुना जाता है कि दिग्विजय के लिए प्रस्तुत हुआ सिकन्दर जब भारत से वापस लौट चला तो रास्ते में उसकी एक परमहंस महात्मा से भेंट हुयी। उन्हें देखते ही सिकन्दर के रोष का ठिकाना न रहा। वह बोला अबे बे अदब! तू इस प्रकार लापरवाह होकर कैसे खड़ा है? तुझे मालूम नहीं कि सामने से कौन आ रहा है? खबरदार हो, संभल जा वरना तो फिर देख यह तलवार आती है। इस प्रकार कहते हुए तलवार निकालकर वह उनके ऊपर लपका। महात्मा तो अपने ध्यान में मस्त थे। परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे कि भगवान् सबको सुबुद्धि दे। वे क्यों उसकी बात सुनने लगे। अतः उसी प्रकार नि:शक खड़े रहे। तब सिकन्दर के मन में एकाएक परिवर्तन हो गया कि आहे! यह तो खुदा का रूप है, प्रकृति की देन है, अपने सहजभाव से खड़ा है, मैं क्यों व्यर्थ ही इस पर रोष कर रहा हूं?
     
    एवं वह अपनी तलवार को वापिस म्यान में रखकर उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला- कि प्रभो ! मैं समझता था कि मुझे कोई नहीं जीत सकता परन्तु आपने मुझे जीत लिया है। फिर भी मै इस पराजय को अपना सौभाग्य समझता हूं। इसी प्रकार ईसा के पूर्व छठी शताब्दी में एक लुटेरा हो गया है, वह जिसे भी पाता था उसकी हाथों का अंगुलियों को जला दिया करता था और उसके पास के माल को छीन लिया करता था। इसलिये लोग उसे अंगुलिमाल कहते थे। वह किसी भी राजा महाराजा से नहीं पकड़ा जा सकता था। एक बार महात्मा बुद्ध उधर होकर जाने लगे तो लोग बोले महात्मन् इधर को मत जाइये, इधर में तो अंगुलिमाल है जो कि बड़ा भयंकर है।
     
    परन्तु उन्होंने लोगों के कहने को नहीं सुना और चले ही गये। जब अंगुलिमाल ने देखा तो बोला अबे! कौन है? खड़ा रह, कहां जा रहा है? बुद्ध ने चलते-चलते जवाब दिया मैं तो खड़ा ही हूं, तू चलता है, सो तू खड़ा रह। अंगुलिमाल ने कहा, बड़ा विचित्र आदमी है। चला जा रहा है और बोलता है कि खड़ा तो हूं? बुद्ध ने कहा- भाई मैं ठीक तो कह रहा हूं, दुनिया के लोगों को ठहरने के लिए जो बात होनी चाहिये मैं तो उसी बात पर स्थित हूं परन्तु तू इसके इधर-उधर जा रहा है अत: तुझे उसको सम्भालना चाहिये। बस इतना सुनना था कि अंगुलिमाल के विचारों में बिल्कुल परिवर्तन हो गया। अहो ! मैं शरीर से मानव होकर भी मानवता से बिल्कुल दूर हूं। मुझे इन महात्मा के निकट रहकर मनुष्यता का पाठ पढ़ना चाहिये। इस तरह सोचकर उनका परम शिष्य बन गया।
  18. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सत्यवादी के स्मरण रखने योग्य बातें
     
    जो सत्य का प्रेमी हो, सचाई पर भरोसा रखता हो, उसे चाहिये कि वह किसी भी की तरफदारी कभी न करे। अपने गुण अपने आप न गावे। दूसरे के अवगुण कभी प्रकट न करे। किसी की कोई गोपनीय बात कभी देखने जानने में आ जावे तो औरों के आगे कभी न कहे। हमेशा नपे तुले शब्द कहे एवं अपने आप पर काबू पाये हुए रह तभी वह अपने काम में सफल हो सकता है।
     
    उदाहरण स्वरूप हमें यहां सत्यवादी श्री हरिश्चन्द्र का स्मरण हो आता है जो कि शयन दशा में दे डाले हुए अपने राज्य को भी त्याज्य समझ लेते हैं। कर्तव्य पथ प्रदर्शन और फिर उसको उत्सर्ग करने के प्रतिफलस्वरूप में बनारस के कालू भंगी के यहां कर्मचारी हो रहने को भी अपना सौभाग्य समझते हैं। इधर उन्हीं के समान उनकी पत्नी जो कि एक गृहस्थ के यहां नौकरानी बनकर अपना गुजर-बसर करने लग रही थी, उसके पुत्र रोहितास को सर्प काट जाता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है। उसकी लाश को वह (रानी) ले जाकर जब हरिश्चन्द्र घाट पर जलाने लगती है तो हरिश्चन्द्र अपने मालिक कालू के द्वारा निश्चित की हुई टैक्स वसूल किये बिना जलाने नहीं देते हैं। अपने मन में जरा भी संकोच नहीं करते हैं कि यह मेरे पुत्र की लाश है और मेरी ही स्त्री इसे जला रही है। बल्कि सोचते हैं जब मेरे मालिक ने टैक्स निश्चित कर रखा है और उसकी वसूली के लिए मुझे यहां नियत किया है फिर भले कोई भी क्यों न हो उससे टैक्स वसूल करना मेरा धर्म है।
     
    ओह! कितना ऊँचा आदर्श है? जिसे स्मरण कर हृदय विभोर हो जाता है। परन्तु उन्हीं की संतान प्रति-संतान आज के इन भारतवासियों की तरफ जब हम निगाह डालते हैं तो रूलाई भी आ जाती है, क्योंकि आज के हम तुम सरीखे लोग दो-दो पैसे में अपने ईमान-धर्म को बेचने के लिए उतारू हो रहते हैं? बल्कि कितने ही लोग तो बिना मतलब ही झूठी बातें बनाने में प्रवृत्त होकर अपने आपको धन्य मानते हैं। परन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि सत्य के बिना मनुष्य का जीवन वैसा ही है जैसा कि बकरी के गले में हो रहने वाले स्तन का होता है।
  19. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सत्य परमेश्वर है
     
    मैं जब बालबोध कक्षा में पढ़ रहा था तो एक दोहा मेरी किताब में आया।
     
    साँच बरोबर तप नहीं, झूठ बरोबर पाप।
    जाके मन में साँच है, वाके मन में आप॥
     
    इसमें आये हुए आप शब्द का अर्थ अध्यापक महोदय ने परमेश्वर बतलाया जो कि मेरी समझ में नहीं आया। मैं सोचने लगा साँच तो झूठ का प्रतिपक्षी है, बोलचाल की चीज है, उसका ईश्वर के साथ में क्या संबंध हुआ? परन्तु अब देखता हूं कि उनका कहना ठीक था। क्योंकि दुनियां के जितने भी कार्य हैं वे सब सत्य के भरोसे पर ही चल रहे हैं। आप लोगों की धारणा भी यही है कि दुनियां का नियन्ता या कर्ता-धर्ता परमेश्वर है। ऐसी हालत में यह ठीक ही है कि सत्य ही परमेश्वर है जिसके कि सर्वथा न होने पर विश्व के सारे काम ठप्प हो जाते हैं। महात्मा गांधी ने जब सत्याग्रह का काम चालू किया तो सबसे पहले उन्होंने यही कहा कि जो लोग परमेश्वर पर भरोसा रखते हों वे ही लोग मेरे इस आन्दोलन में शामिल होवे। इस पर किसी भद्र पुरुष ने सवाल किया कि क्या फिर आपके इस काम में जैन लोग न आवें? क्योंकि वे लोग ईश्वर को नहीं मानते हैं, परन्तु महात्माजी ने कहा कि तुम भूलते हो क्योंकि जो सत्य और अहिंसा को मानता है वह ईश्वर को अवश्य मानता है।
     
    मतलब यह कि जैन लोग ईश्वर को नहीं मानते सो बात नहीं किन्तु उनके विचारानुसार ईश्वर हमारे हरेक कार्य करने वाला हमारा कोई नौकर नहीं है किन्तु पदार्थ परिणमानशील स्वभाव है जिसका कि दूसरा नाम सत्य है। उस पर भरोसा लाकर अपना काम खुद करते हैं। हमें जब जो काम करना होता है तब अपने साहस, धैर्य और प्रयत्न से उसके योग्य साधन सामग्री को जुटाकर एवं उसकी बाधक सामग्री से बचते हुए रहकर उसे कर बताते हैं। हां, हम छद्यस्थों की बुद्धि की मन्दता से उपर्युक्त प्रयत्न में जो कुछ कमी रह जाती है तो उतनी ही उस कार्य में सफलता कम मिलती है एवं प्रयत्न विपरीत हो जाने पर कार्य भी विपरीत होता रहता है। हां, कितने ही कार्य जैसे वर्षा का होना, सर्दी का फैलना, गर्मी का पड़ना आदि कार्य उपर्युक्त सत्य के आधार पर तत्काल के वातावरण को पाकर ही सम्पन्न होते रहते हैं उन्हें प्राकृतिक कहा जाता है। परन्तु उपर्युक्त वातावरण के समुद्गम में भी हम सरीखे प्राणियों का अहिंसा भाव उपयोगी होता है। इस तरह से सत्यनारायण को विश्व का सम्पादक तथा अहिंसा उसकी शक्ति है ऐसा कहा जावे तो कोई अनहोनी बात नहीं है।
  20. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अदत्तादान का विवेचन
     
    बलात्कार या धोखेबाजी से किसी दूसरे के धन को हड़प जाना सो अदत्तादान है। बलात्कार से दूसरे के धन को छीन लेने वाला डाकू कहलाता है, तो बहानाबाजी से किसी के धन को ले लेने वाला चोर कहलाता है। चोरी या डकैती करना किसी का जातीय धन्धा नहीं है, जो ऐसा करता है वही वैसा बना रहता है। डाकू को तो प्रायः लोग जान जाते हैं अतः उससे सावधान होकर भी रह सकते हैं मगर चोर की कोई पहचान नहीं है। अत: उससे बचना कठिन है। जो कि चोर अनेक तरह का होता है जिसके प्रचलन को चोर्य कहना चाहिये। वह भी डाका डालने की तरह से अदत्तादान है, बिना दिये ही ले लेना है।
     
    जैसे किसी सुनार को जेवर बना देने के लिए सोना दिया गया तो वह जेवर बना देता है और उसकी उचित मजूरी लेता है वह तो ठीक, किन्तु उसमें थोड़ी बहुत खाद अपनी तरफ से मिला देता है और उसकी एवज में सोना जो रख लेता है वह उसका अदत्तादान हुआ, बिना दिये लेना हुआ, अत: चोर ठहरता है। दर्जी कोट वगैरह बनाकर देता है और उसकी उचित सिलाई लेता है, ठीक है; किन्तु जहाँ तीन गज कपड़ा लगता हो वहाँ बहाना बनाकर साढ़े तीन गज ले लेवे तो वह अदत्तादान है। ऐसे ही और भी समझ लेना चाहिये |
     
    और जैसा कि प्रायः यहां पर देखने में आ रहा है। कोई भी आदमी पूर्ण विश्वास के साथ में यह नहीं कह सकता कि बाजार में वह एक चीज तो ठीक मूल्य पर और सही सलामत मिल जायेगी। जीरे में गाजर का बीज, काली मिरचीं में एरण्ड ककड़ी के बीज, घी में डालड़ा इत्यादि हर एक चीज में कोई न कोई तत्सदृश अल्प मूल्य की चीज का सम्मिश्रण करके देना तो साधारण बात है। और तो क्या शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए ली जाने वाली दवाओं तक में बनावटीपन होता है जिससे कि देश की परिस्थिति दिन पर दिन भयंकर से भयंकर बनती चली जा रही है। मैंने एक किताब में पढ़ा था कि एक हिन्दुस्तानी भाई विलायत में घूम रहा था सो क्या देखता है कि एक बहिन जिसके आगे दूध का बर्तन रखा हुआ है, फिकर में खड़ी है, अत: उसने पूछा कि बहिन तुम क्या सोच रही हो?
     
    उसने कहा भाई साहेब ! मैंने एक महाशय को 5 सेर दूध देना कह दिया और, और मेरी गाय ने आज जो दूध दिया वह पाँच कम पांच सेर है, अत: मैं सोच रही हूं कि क्या करूं? इसे पूरा कैसे किया जा सकता है? इस पर उसी हिन्दुस्तानी भाई ने तपाक से कहा कि वाह यह भी कोई फिकर की बात है क्या? इसका उपाय तो बहुत आसान है, इसमें से भले ही तुम पाव भर दूध और भी निकाल लो तथा इसमें आधासेर पानी मिलाकर दे आओ। उसने तो शाबाशी पाने के लिए ऐसा कहा था मगर उस बहिन ने कहा,छी! छी! यह तो बहुत बुरी बात है, ऐसा करने से हमारे देश के बाल बच्चे पोषण कैसे पा सकेंगे?
     
    खैर ! कहने का मतलब यह है कि मिलावट बाजी ने बहुत तरक्की पाई है, जिससे हमारे देश का भारी नुकसान हो रहा है। सरसों के तेल में सियालकांटी का तेल मिलाकर दिया जाता है जिसको उपयोग में लाने वाले, उसको शरीर पर लगाने वालों के शरीर में फोड़े-फुन्सी हो जाते हैं, परन्तु देने वाले को इसकी कोई चिन्ता नहीं, उसे तो सिर्फ पैसा प्राप्त कर लेने की सूझती है। आज पैसा परमेश्वर बन रहा है किन्तु मनुष्य-मनुष्य भी नहीं रहा, कैसी दयनीय दशा है कहा नहीं जाता। मैं सोच ही रहा था कि एक आदमी बोला महाराज क्या आश्चर्य है? मिलावट में तो थोड़ी बहुत चीज रहती है। यहां तो चाय के बदले सर्वेसर्वा चनों के छिलके होते हैं और लेने वाले को पता भी नहीं पड़ता, हद हो गई।
  21. संयम स्वर्ण महोत्सव
    आज कल के लोगों का दृष्टिकोण
     
    भूतल पर दो चीजें मुख्य हैं, शरीर और आत्मा। शरीर नश्वर और जड़ है। तो आत्मा शाश्वत और चेतन। इन दोनों का समायोग विशेष मानव-जीवन है। अत: शरीर को पोषण देने के लिए धन की जरूरत होती है तो आत्मा के लिए धर्म की, एवं साधक दशा में मनुष्य के लिए यद्यपि दोनों ही अपेक्षणीय हैं फिर भी हमारे बुजुर्गों की निगाह में धर्म का प्रथम स्थान था। हां, उसके सहायक साधन रूप में धन को भी स्वीकार किया जाता था। परन्तु जहां पर वह धन या उसके अर्जन करने की तरकीब यदि धर्म की घातक हुई तो उस ऐसे धन को लात मारकर धर्म का संरक्षण किया करते थे, किन्तु आज के लोगों का दृष्टिकोण सर्वथा इसके विपरीत है।
     
    आज तो धर्म को ढकोसला कहकर धन को ही सब कुछ समझा जाता है। येन केन रूपेण पैसा बटोरने का ही लक्ष्य रह गया है। कहीं कोई बिरला ही मिलेगा जो कि अपनी मेहनत की कमाई पर गुजर बसर कर रहा हो, प्रायः प्रत्येक का यही विचार रहता है कि कहीं से लूट खसोंट का माल हाथ लग जाये। कहीं पाकेटमारी का हल्ला सुनाई देता है तो कहीं जुआ-चोरी का। कोई खुद चोरी करता है तो कोई उसके लाये हुए माल को लेकर उसे प्रोत्साहन देता है। आयात निर्यात की चोरियों का तो कुछ ठिकाना ही नहीं रहा है।
     
    सुना गया है दूसरे देशों से सोना लाने वाले लोग जाँघ फाड़कर वहां रख लाते हैं। कोई सोने की गोलियां बनाकर मुंह में रख लेते है। बिना टिकट रेलगाड़ी में जाना आना तो भले-भले लोगों के मुंह से सुना जाता है, मानो वह तो कोई अपराध ही नहीं। मैं तो यह कहता हूं कि व्यक्तिगत चोरी की अपेक्षा से भी स्वार्थवश होकर कानून भंग करना और सरकारी चोरी करना तो और भी घोर पाप है, अपराध है। क्योंकि उसका प्रभाव तो सारे समाज पर जा पड़ता है। परन्तु जो कोई सिर्फ अपनी हवस पूरी करना जानता है उसे यह विचार कहां? वह तो किसी भी तरह से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। सरकार तो क्या, लोग तो धर्मायतनों से भी धोखा करने में नहीं चूकते हैं।
     
    गौशाला सरीखी सार्वजनिक धार्मिक संस्थाओं में भी आये दिन गड़बड़ी होती हुई सुनी जाती है। प्रामाणिकता का कही दर्शन होना ही दुर्लभ हो रहा है। सरकार प्रबन्ध करते-करते थक गई है और अपराध दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। लोग कहते हैं कि सिंह बड़ा क्रूर जानवर होता है परन्तु मैं तो कहता हूं कि ये बिना मार्का के सिंह उससे भी अधिक क्रूर हैं जो कि देश भर में विप्लव करते चले जा रहे हैं।
     
    एक रोज एक निशानेबाज आदमी घोड़े पर चढ़कर जंगल की ओर चल दिया, कुछ दूर जाने पर उसे एक बाघ दीख पड़ा तो उसने अपना घोड़ा उसी बाघ के पीछे कर दिया। थोड़ी देर बाद वह बाघ तो अदृश्य हो गया और उसकी एवज में उसकी एक साधु से भेंट हुई। तब वह साधु के पैरों पड़ा। साधु ने कहा तुम कौन हो? तो वह बोला प्रभो ! एक तीरन्दाज हूं और क्रूर प्राणियों का शिकार किया करता हूं। आज एक बाघ मेरे आगे आया था परन्तु न मालूम अब वह कहां गायब हो गया और अब तो रात होने को आ गई है। साधु ने कहा कोई हर्ज नहीं, रात को शिकार और भी अच्छा मिलता है, चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं। चलते-चलते मदन बाजार में एक वेश्या के घर पहुंच जाते हैं तो क्या देखते हो कि एक महाशय वेश्या के साथ बैठे-बैठे शराब पीते जाते है और कहते जाते हैं कि हे प्रिय, इस दुनिया में मेरी तो उपास्य देवता एक तु ही है। दिन में साधु बनकर सड़क पर बैठ जाता हूं और किसी भगत को फीचर के आंक, तो किसी को सट्टे फाटके की तेजी मन्दी देता हूं, एवं कोई पक्का जुआरी मिल गया तो उसे विजयकारक यन्त्र देने का ढोंग रचकर माल ऐंठता हूं।
     
    दिन भर में जो कुछ पाया वह रात को आकर तेरी भेंट चढ़ा जाता हूं। आगत साधु अपने तीरन्दाज से बोला कि कहो कैसा शिकार है? मगर थोड़ी दूर आगे चलो। चल कर चीफ जज के मकान पर पहुंचे तो वहां पर जज साहेब के सामने एक वकील महाशय खड़े है जो कि एक हजार मोहरों की थैली देते हुये उन्हें कह रहे हैं कि श्रीमान जी मेरे मुवक्किल का मुकदमा आपके पास विचारार्थ आया हुआ है जिसमें उसके लिये बलात्कार के अभियोग स्वरूप कारागार का हुक्म अदालत ने निश्चित किया है, प्रार्थना है कि विचार करते समय आप उसे उन्मुक्त रहने देने की कृपा करें और बाल बच्चों के लिये यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें।
     
    यह देखकर तीरन्दाज बोला, ओह! बड़ा अनर्थ है! यहां पर तो स्वार्थवश होकर न्याय का ही गला घोंटा जा रहा है, किन्तु साधु बोला अभी थोड़ा और आगे चलना है। चलकर एक इन्सपेक्टर (निरीक्षक) के कमरे के पास पहुंच जाते हैं। वहां क्या देखते हैं कि उनके सम्मुख मेज पर तीन चार बन्द बोतले रखी हैं जिनमें शुद्ध पानी भरा हुआ है और आरोग्य सुधा का लेबिल चिपका हुआ है, आगे एक आदमी खड़ा है और कह रहा है महाशय! अपराध क्षमा कीजिये, यह दो हजार मोहरों की थैली लीजिये और इन बोतलों के बदले में आरोग्य सुधा की यह असली बोतले अब तो तीरन्दाज के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह कहने लगा कि हे भगवान! यहां तो जिधर देखों उधर ही यही हाल हैं, किस-किस को तीर का निशाना बनाया जाय?
     
    वस्तुत: विचार कर देखा जाये तो जिस प्रकार ये लोग अपने जीवन के लिये औरों के खून के प्यासे बने हुये हैं, अन्याय करते हैं तो मैं क्या इन सबसे कम हूं? ये लोग तो स्वार्थवश अन्धे होकर ऐसा करते हैं, मैं तो व्यर्थ इनके प्राणों का ग्राहक हो रहा हूं ! अगर कहूं कि क्रूरता का अन्त करना है तो भला कहीं क्रूरता के द्वारा क्रूरता का अन्त थोड़े ही होने वाला है। क्रूरता को मारने के लिये शान्ति की जरूरत है तो स्वार्थ को मारने के लिये त्याग की और दूसरों को सुधारने के लिये अपने आप सुधर कर रहने की, एवं अपने आप सुधर कर रहने के लिये सबसे पहले काम पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है।
  22. संयम स्वर्ण महोत्सव
    काम पर विजय श्रेयस्कर है
     
    काम पर संस्कृत भाषा में इच्छा का पर्यायवाची माना गया है। वैसे तो मनुष्य नाना प्रकार की इच्छाओं का केन्द्र होता है किन्तु उन इच्छाओं में तीन तरह की इच्छायें प्रसिद्ध हैं। खाने की, सोने की, और स्त्री प्रसंग की। इसमें से दो इच्छायें बालकपन से ही प्रादुर्भूत होती हैं तो स्त्री प्रसंग की इच्छा युवावस्था में विकसित हुआ करती है। पहले वाली दोनों इच्छाओं को सम्पोषण देना एक प्रकार से शरीर के सम्पोषण के लिये होता है किन्तु स्त्री प्रसंग को कार्यान्वित करना केवल शरीर के शोषण का ही हेतु होता है। अतः पूर्व की दो इच्छाओं को हमारे महर्षियों ने काम न कहकर आवश्यकता कहा है एवं कुछ हद तक उन्हें पूर्ण करना भी अभीष्ट बताया है इसलिये गृहस्थ की तो बात ही क्या साधुओं तक को उनकी पूर्ति के लिये यथोचित आज्ञा प्रदान की है।
     
    परन्तु स्त्रीप्रसंग की इच्छा को तो सर्वथा नियंत्रण योग्य ही कहा है, यह बात दूसरी है कि हरेक आदमी उसका पूर्ण नियन्त्रण करने में समर्थ न हो सके एवं कामेच्छा को नियन्त्रण करने में समर्थ न हो सके। एवं, कामेच्छा को नियंत्रण करना इसलिये आवश्यक कहा गया है कि कोई भी मरना नहीं चाहता, हर समय अमर रहने के लिये ही अपनी बुद्धि से सोचता है। काम को जीतना सो बुद्धि के विकास का हेतु और मृत्यु को जीतना है परन्तु काम सेवन करना बुद्धि के विध्वंस के लिए होकर मृत्यु को निमंत्रण देना है। अपने आप मरण मार्ग का निर्माण करना है।
     
    हमारे हित चिन्तक महात्माओं ने उपर्युक्त सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर ही हम लोगों के लिए ब्रह्मचर्य का विधान किया है। बतलाया है कि मनुष्य अपने विचारों में स्त्री को स्त्री ही नहीं समझना, चित्त में उसकी कभी याद भी नहीं आने देना, ऐसे पूर्ण ब्रह्मचर्य को यदि धारण नहीं कर सके तो एकदेश ब्रह्मचर्य का पालन तो अवश्य ही करें। स्पष्ट युवावस्था आने से पूर्व कुमार काल में कभी स्त्री प्रसंग का नाम न ले। वहां जो अपना भावी जीवन सुन्दर से सुन्दर बने इसकी साधन सामग्री बटोरने में ही समय बीतना चाहिये और वृद्धावस्था आ जाने पर यदि स्त्री विद्यमान भी हो तो उसका त्याग कर सिर्फ परमात्म स्मरण में अपने समय को बिताने लगे। रही मध्य की युवावस्था, सो वहां पर भी स्त्री को आराम देने की मशीन न मानकर अपने शरीर में आ प्राप्त हुए अवस्थोचित विकार को दबाने के लिये मधुर दवा के रूप में उसका सेवन किया जा सकता है।
     
    हमारे पूर्वातार्यों ने इसे पशु कर्म बतलाया है। इसका मतलब यह कि पशु ऋतुकाल में एक बार ही ऐसा करता है फिर नहीं। अब अगर हम यदि मनुष्य कहलाते हैं तो हमें उससे अधिक संयमित होना चाहिये। परन्तु यदि उस नियम को भी भंग करके मनमाना करते हैं तो मनुष्य तो क्या पशु भी नहीं बल्कि महर्षियों की निगाह में पशु से भी हीन कोटि पर आ जाते हैं। परन्तु खेद है कि इस बात का विचार रखने वाला कोई बिरला ही महानुभाव होगा। हर एक मनुष्य के लिए तो पर्वादि के दिन भी ब्रह्मचर्य पूर्वक रह जाना बहुत बड़ी बात हो जाती है, कितने ही तो ऐसे भी निकल आयेंगे जिनको अपनी पराई का भी विचार शायद ही हो।
     
    कुछ लोग तो बेहूदेपन से भी अपने ब्रह्मचर्य को बरबाद कर डालते हैं। आज इस विज्ञान की तरक्की के जमाने में तो एक और कुप्रथा चल पड़ी है वह यह कि जहां दो चार बच्चे हो लें तो फिर बच्चे दानी निकलवा डालनी चाहिए, ताकि बच्चा होने का तो कुछ भी भय न रहे एवं निडर होकर संसार का मजा लूटा जावे। कोई कोई तो शादी संबंध होते ही ऑपरेशन करवा डालते हैं। ताकि बच्चे की आमदनी होकर उनकी गृहदेवी का नूर न बिगड़ने पाये। भला सोचो तो सही इस विलासिता की भी क्या कोई हद है? जहां कि अपनी क्षणिक घृणित स्वार्थापूर्ति के लिए प्राकृतिक नियम पर भी कुठाराघात किया जाता है। भले आदमी, अपने लंगोट को ही कस कर क्यों न रखें ताकि उनका परमात्मा प्रसन्न हो एवं उन्हें वास्तविक शांति मिले।
  23. संयम स्वर्ण महोत्सव
    विवाह का मूल उद्देश्य
     
    आजकल के नव विचारक लोगों का कहना है कि विवाह की क्या आवश्यकता है वह भी तो एक बन्धन ही तो है। बन्धन से मुक्त हो रहना मानवता का ध्येय है। फिर जानबूझकर बन्धन में पड़ा रहना कहां की समझदारी है। स्त्री और पुरुष दोनों को दाम्पत्य जीवन में विहीन होकर सर्वथा स्वतंत्र रहना चाहिए। ठीक है, विवाह वास्तव में बन्धन है परन्तु विचार यह है कि उससे मुक्त हो रहने वाला जावेगा कौन से मार्ग से? अगर वह ब्रह्मचर्य से ही रहता है जब तो ठीक है, उसे विवाह करने के लिए कौन बाध्य करता है? मगर ऐसा तो सभी स्त्री पुरुष कर नहीं सकते हैं।
     
    जिसने अपनी वासना के ऊपर नियंत्रण पा लिया हो ऐसा कोई बिरला व्यक्ति सही कर सकता है। बाकी स्त्री पुरुष तो अपनी वासनातृप्ति के लिए दौड़ लगाएंगे। फिर उनमें और पशुओं में अन्तर ही क्या रह जायेगा? बल्कि पशुओं का एक तरह से निर्वाह भी है। क्योंकि वे लोग विवाह बन्धन से नहीं तो प्राकृतिक बन्धन से तो बधे हुए रहते हैं। इस बारे में वे अपनी सीमा से बाहर कभी नहीं होते, परन्तु मनुष्य में ऐसी बात नहीं है तथा वह एकान्त सौन्दर्य का उपासक होता है, जब तक सौन्दर्य है। तब तक की एक दूसरे को याद करता है, फिर कौन किसी को क्यों पूछेगा तो कैसे निर्वाह होगा? किन्तु मनुष्य एक सामाजिक जीवन बिताने वाला प्राणी है। सामाजिकता का मूल आधार विवाह संबंध का होना ही है। अत: उसे सुचारू रखना समझदारों का कर्तव्य है। हां, वर्तमान में उसमें जो खराबियां आ घुसी है उनको दूर करना परमावश्यक है।
  24. संयम स्वर्ण महोत्सव
    विवाह का मूल उद्देश्य
     
    सामाजिकता को अक्षुण्ण बनाये रखना है और दुराचार से दूर रहकर भी वैषयिक सुख की मिठास को चखते रहना है जैसे कि हमारे पूर्व विद्वान् श्रीमदाशाधर के ‘‘रति वृत कलोन्नति'' इस वाक्य से स्पष्ट हो जाता है। यह जभी बन सकता है कि विवाहित दम्पतियों में परस्पर सौहार्दपूर्ण प्रेमभाव हो। इसके लिए दोनों के सौहार्द रहन-सहन, शील-स्वभाव में प्रायः हरबात में समकक्षता होनी चाहिए। अन्यथा तो वह दाम्पत्य पथ कण्टकाकीर्ण होकर सदा के लिए क्लेश का कारण हो जाता है। जैसा कि सोमा सती आदि में आख्यानों से जान लिया जा सकता है। एवं इस अनबन को दूर हटाने के लिए हमारे पूर्वजों ने एक स्वयंवर प्रथा को जन्म दिया था, जिसमें कि कन्या अपनी बुद्धिमता से अपने योग्य पति को स्वयं ढूंढ़ निकालती थी। उदाहरणार्थ गीतकला ने अपनी संगीतज्ञता के द्वारा धन्यकाकर को स्वीकार किया था।
     
    परन्तु ऐसा किसी गरीब भाई को दे देनी थीं, सांयकाल तक जिन्दगी रही तो और रोटियां बना कर खाली जा सकती हैं। यदि ऐसी संग्रहकारिता हो मुझे पसन्द होती, जो किसी शाहजादे के साथ ही मेरा नाता जोड़ती, आपके पीछे क्यों लगती? यह सुनकर युवक बहुत खुश हुआ। मतलब इस सब लिखने का यह है कि जैसी के साथ में वैसे का संबंध ही प्रशंसा योग्य होता है। मगर आज ऐसा संबंध कोई बिरला ही होता होगा। आज तो यदि देखा जाता है या तो रूप सौन्दर्य या वित्तकोष। बस, इन दो के पीछे ही आज की जनता बंधी हुई है। इसीलिये आजकल का दाम्पत्य जीवन प्रेमोदऊभावक न होकर प्रायः कलह का स्थान ही रहता है। स्वर्ग का संदेश मिलने के बदले वहां पर नरक का दृश्य देखने को मिलता है।
  25. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सन्तोष ही सच्चा धन है
     
    जिस चीज से हमें आराम मिले, जिस किसी चीज की मदद से हम अपनी जीवन यात्रा के उस छोर तक आसानी से पहुंच सकें उसे धन समझना चाहिए। इस दुनिया के लोगों ने कपड़ा-लत्ता, रुपया पैसा आदि बाह्य चीजों में ही आराम समझा अत: इन्हीं के जुटाने में अपनी प्रज्ञा का परिचय देना शुरू किया। कपड़े के लिए सबसे पहले लोगों ने अपने हाथों से अपने खेत में कपास पैदा की, उसे पींज कर अपने हाथ के चरखे से सूत कातकर अपने हाथ से उसका कपड़ा बुनकर अपना तन ढकना शुरू किया फिर जब और आगे बढ़ा तो मिलों को जन्म दिया। जिसमें शुरू में मारकीन, फिर नयनसुख मलमल, अबरवा सरीखे बारीक से बारीक वस्त्र तैयार होने लगे। शुरू में लोग पैदल चलते थे और दूर जाना होता तो बैलगाड़ी या घोड़ा गाड़ी में बैठकर चले जाते थे। मगर आज तो मोटर गाड़ी, रेलगाड़ी और हवाई जाहज तक चल पड़े जिससे घण्टे भर में हजारों मील चला जा सके। बल्कि चार-छ: फर्लाग भी चलना हो तो बाइसिकल के आधार से चला जाता है। पैदल चलना एक प्रकार से अपराध-सा समझा जाने लगा है।
     
    पैदल चलते समय पैरों में कांटे न गड़ पावें इसलिये पहले काठ की खड़ाऊ पहनकर निर्वाह किया जाने लगा, फिर मुर्दा चमड़े के जूते बनने लगे परन्तु आज तो निर्दयतयापूर्वक बिचारे जिन्दा पुशओं का चमड़ा उधेड़कर उसके जूते बनने लगे हैं। जिनको कि पहन लेने के बाद वापिस खोलना असभ्य आँवारू लोगों का काम समझा जाता है। जूता पहिले ही सो रहना चाहिए और जूता पहिले ही खाना भी खा लेना चाहिए। इसी में अपनी शान समझी जाने लगी है। गर्मी से बचने के लिये पहले तो दरख्तों की हवा ली जाती थी फिर ताड़ व खजूर वगैरह के पत्तों के पंखे बनाकर उनसे अपना काम निकाला जाने लगा। परन्तु अब तो बिजली के पंखों का आविष्कार हो लिया है जिससे कि बटन दबाया और मनमानी हवा ले ली जावे।
     
    पीने के लिए पानी भी पहले तालाब या नदियों से लिया जाता था। फिर कुएं, बावड़िया, बनने लगीं परन्तु अब तो हैण्ड पम्प और नल आदि से मनमाना पानी मिलने लगा। मतलब यह कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अधिक से अधिक सुविधा प्राप्त करता जा रहा है। फिर भी किसी को शांति के दर्शन नहीं हो रहे हैं प्रत्युत विषमता होती जा रही है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य स्पर्धा की सड़क पर दौड़ लगाते हुए अपने आपको सबसे अगाड़ी देखना चाहता है। बस इसी चिन्ता में इसका सारा समय बीतता है। यहां पर हमें एक बात की याद आ जाती है। एक अच्छे करोड़पति सेठ थे जिनकी कई दुकानें चलती थीं जिनकी उलझन में सेठ जी खाना खाने को भी दौड़ते से आते थे तथा रात को सोने के लिए भी बारह बजे तक आते थे तो सो जाते थे। परन्तु स्वप्न में भी उन्हें व्यापार कारोबार की बात ही सूझती थी।
     
    एक रोज सेठानी बोली- हे पतिदेव! आप इतने बड़े सेठ हैं फिर भी आपके चित्त पर हर समय बड़ी व्यग्रता देखती हूं। मेरे देखने से आपसे तो यह अपना पड़ोसी फूसिया ही सुखी मालूम पड़ा है। जो समय पर मजदूरी करने जाता है और परिश्रम करके समय पर आ जाता है। सांयकाल के समय सितार पर दो घड़ी भगवान का भजन कर लेता है। सेठ ने कहा- ठीक बात है! एक काम कर! यह कुछ रुपयों की थैली है सो जाकर उसके आंगन में गिरा कर आ जा। सेठानी ने ऐसा ही किया। सबेरा होते ही जब फूसिया ने अपने यहां थैली पड़ी देखी तो विचार किया मैं भगवान का भगत हूं अत: भगवान ने खुश होकर मेरे लिए भेजी है। परन्तु जब उसके रुपये गिने गये तो एक कम सौ थे। सोचा भगवान ने एक कम सौ क्यों रहने दिया? 
     
    खैर कोई बात नहीं इसे मैं पूरा कर लूंगा अब वह उस रुपये को पूरा करने की फिकर में कुछ अधिक परिश्रम करने लगा। धीरे-धीरे रुपया पूरा हुआ तो अब उनको रखने के लिए एक सन्दूक और एक ताला की भी जरूरत हुयी। धीरेधीरे परिश्रम करके उनकी भी पूर्ति की। परन्तु जब वह सन्दूक उन रुपयों से भरी नहीं कुछ खाली रह गयी तो फिर उसे भर लेने की फिकर रही, इसी उधेड़बुन और परिश्रम में पड़कर उसने वह सितारा बजाना छोड़ दिया। बस यही हाल आज की सारी जनता का हो रहा है।
     
    एक घटे एक बड़े वह पूरा हो जावे, कहीं से बिना कमाया हुआ पैसा आ जावे और मैं धनवान हो जाऊ। इसी दौड़ धूप में सभी तरह की समुचित साधन सामग्री होने पर भी बिना संतोष भाव के सुख कहां हो सकता है? सुख का मुख्य साधन तो संतोष है अतः वही वास्तविक धन है। उसके सामने और सब बेकार हैं जैसा कहा हैं कि -
     
    गो धन गजधन वाजिधन, कंचन और मकान।
    जब आवे संतोष धन, सब धन धूल समान॥
     
    भगवान महावीर स्वामी के समय में उनका भगत एक गृहस्थी हो गया है जिसकी कि धर्मपत्नी भी उसके समान स्वभाव वाली थी। दोनों मेहनत मजदूरी कर पेट पालते थे। उस गृहस्थ का नियम था कि अपने पास बारह आने से अधिक नहीं रखूगा। इसलिये लोग उसे पूर्णियां श्रावक कहते थे। एक रोज दोनों स्त्री-पुरुष सुबह की सामायिक करने को बैठे थे। इधर आकाश मार्ग से होकर देवता लोग भगवान की वन्दना के लिए जा रहे थे। सो उनके ऊपर आकर उन देवताओं का विमान अटक गया। देवों ने सोचा ये दोनों भगवान के भक्त होकर भी इतने गरीब हैं। हम लोगों को इनकी कुछ सहायता करनी चाहिये। अतः उनके तवा, बेलन, चकलादि को सोना बनाकर आगे को रवाना हुए। उधर सामायिक का समय पूर्ण होने पर  पुर्णियां की स्त्री बोली हे प्रभो ! आज यह क्या बात हुई? मेरे चकला बेलन कहां गये? और उनकी एवज में ये चकला बेलन आदि कौन किसके, यहां रख गया है? हे भगवान! मैं अब रोटियां बनाऊँ तो कैसे बनाऊँ? इनको हाथ भी कैसे लगाऊँ? इतने में देव लोग वापस लौटकर आये और बोले कि आप लोगों की धर्म भावना से प्रसन्न होकर यह ऐसा तो हम लोगों ने किया है। हम लोगों की तरफ से आपको यह सब भेंट है, आप ले लेवें। पूर्णियां की स्त्री ने कहा प्रभो ! हमारे ये किस काम के? हमारे लिये तो वे सब ही भले हैं जोकि मिट्टी व पत्थर के थे। इन सबका हम क्या करें? इन सबके पीछे तो हम लोग बंध जावेंगे, इनको कहां रखेंगे? हमें यह सब नहीं चाहिये, आप अपने वापस लीजिये हमें तो अपने वे ही देने की कृपा कीजिये। इस पर आनन्दित होकर देवता लोग बोले- ओह ! कितना बड़ा त्याग है और जय जयकार पूर्वक उन पर फूल वर्षाये।
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