हिंसा के रूपान्तर
हिंसा के रूपान्तर
चीन देश में बौद्धों का निवास है, उन लोगों को विश्वास है कि किसी भी प्राणी को मार कर नहीं खाना चाहिये। मुर्दा माँस के खाने में कोई दोष नहीं है। वहां ऐसी प्रवृत्ति चल पड़ी है कि जिस बकरे वगैरह को खाने की जिसकी दृष्टि होती है वह उसके मकान में ढकेल कर कपाट बन्द कर देता है और दो चार दिन में तड़फड़ा करके जब वह मर जाता है तो उसे खा लिया जाता है। कहने को कहा जाता है कि मैंने इसे नहीं मारा है, यह तो अपने आप मर गया हुआ है। परन्तु उस भले आदमी को सोचना चाहिए कि यदि वह उसे बन्द न करता तो वह क्यों मरता? अत: यह तो उस प्राणी को मारने के साथ-साथ अपने आपको धोखा देना है, सो बहुत बुरी बात है।
हां, माता अपने पुत्र में कोई बुरी आदत देखती है तो उसको छोड़ने को कहती है, और नहीं मानता है तो धमकाने के लिये कभी-कभी उसे रस्से वगैरह से भी कुछ देर के लिये बांध देती है या मकान के अन्दर बन्द कर देती है, सो ऐसा करना हिंसा में शुमार नहीं होना चाहिये क्योंकि यह तो उसको सुधारने के लिये किया जाता है। अन्तरंग में उसके प्रति उसका करूणाभाव ही होता है। देखो ! माता अपने बच्चे को जब चपेट मारने लगती है तो दिखती बड़े जोर से है किन्तु बच्चे के गाल के समीप आते ही उसका वेग बिल्कुल धीमा पड़ जाता है क्योंकि उसके दिल में दया और प्रेम का भाव होता है ताकि वह सोचती है कि यह डर कर सुधर जावे जरूर, किन्तु इसके चोट नहीं आने पाये। सो ऐसा तो करना ही पड़ता है, परन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्य अपना बैर-भाव निकालने के लिए अपने कमाजोर पड़ोसी को मुक्कों ही मुक्कों की मार से घायल कर डालता है। या कोई पशु उसकी धान की ढेरी में मुँह दे जावे तो रोष में आकर ऐसी लाठी वगैरह की चोट मारता है कि उसकी टांग वगैरह टूट जाती है तो ऐसा करना बुरा है।
पशु पालक लोग बैलों को बधिया कर लेते हैं या उनके नाक में नथ डालते हैं। वनचर लोग सुरभि गाय की पूंछ तरास लेते हैं या हाथी के दांत काट लेते हैं यह भी एक तरह की हिंसा है। क्योंकि ऐसा करने में उस पशु को पूरा कष्ट होता है और काटने वाले की केवल स्वार्थपूर्ति है। हां, किसी भी रोगी को डाह वगैरह दिया जाता है वह बात दूसरी है। किसी से भी शक्ति से अधिक काम लेना सो अतिभारारोपण है जिस पशु पर पांच मन वजन लादा जा सकता है, उस पर लोभ-लालच के वश हो छ: मन लाद देना। जो चलते-चलते थक गया है, चल नहीं सकता है, उसको जबरन हण्टर को जोर से चलाते ही रहना। किसी भी नौकर-चाकर से रुपये की एवज में सत्रह आने का काम लेने का विचार रखना इत्यादि सब बातें ही हिंसा से खाली नहीं हैं।
हम देखते है कि प्रायः भले-भले रईस लोग भी, जब उनका नौकर बीमार हो जाता है और काम नहीं आता है तो उसका इलाज कराने की सोचना तो दूर किनार रहा प्रत्युत उसकी उस दिन की तनखा भी काट लेते हैं। भला जरा सोचने की बात है, अगर आपकी मोटर या बाइसिकल खराब हो जावे तो उसकी मरम्मत करावेंगे या नहीं? यदि कहें कि उसको को दुरुस्त कराना ही होगा तो फिर नौकर जो आप ही सरीखा मानव है वह उस निर्जीव बाइसिकल से भी गया बीता हो गया है? ताकि आप उसकी परवाह न करें। इसको काम रते-करते कितनी देर हो गयी है, भोजन का समय हो गया है, भूख लग आयी होगी, इस बात पर कोई ध्यान न देकर सिर्फ अपना काम हो जाने की ही सोचते रहना निर्दयता से खाली नहीं है। परन्तु इसके साथ में हम यह भी देखते हैं कि अधिकांश नौकर लोग भी मुफ्त की नौकरी लेना चाहते हैं। काम करने से भी जी चुराते हैं, मालिक का काम भले ही बिगड़े या सुधरे इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं होती है। बल्कि यही सोचते हैं कि कब समय पूरा हो और कब मैं यहां से चलू सो यह भी बुरी बात है और पाप है। सिद्धान्त तो यह कहता है। मालिक और नौकर में परस्पर पिता पुत्र का सा व्यवहार होना चाहिये।
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