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अहिंसक के लिये विरोध का क्षेत्र


संयम स्वर्ण महोत्सव

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अहिंसक के लिये विरोध का क्षेत्र

 

जो अहिंसक होता है वह स्वयं तो वीर बहादुर होता है। उसे किसी से भी किसी प्रकार का डर नहीं होता। परन्तु उसने जिन बुजदिलों या बाल वृद्ध आदि लोगों को संभाल रखने का संकल्प ले रखा है, उन लोगों पर यदि कोई मनचला आदमी अनुचित आक्रमण करके गड़बड़ी मचाना चाहता है तो उसे सहन कर लेना उसके आत्मत्व से बाहर की बात हो जाती है। अतः वह उसे उस गड़बड़ी को करने से रोकता है कहता सुनता है। यदि करने सुनने से मान जावे जब तो ठीक ही है। और नहीं तो फिर बल प्रयोग द्वारा भी उसका उसे प्रतिवाद करना पड़ता है।

 

इसी का नाम विरोध है जो कि एक अहिंसक का कर्तव्य माना गया है। क्यों ऐसा न करने से अपने आश्रितों की रक्षा करने का और दूसरा कोई चारा नहीं होता। इस विरोध करने में आक्रमणकारी का कुछ न कुछ बिगाड़ अवश्य होता है जिसको कि लेकर विरोधक को हिंसक ठहराया जाया करता है। परन्तु वहां पर जितना भी बिगाड़ होता है उसका उत्तरदायी तो वह आक्रामक ही है। विरोधक तो अपने उन लागों की रक्षा करने का प्रयत्न करता है, जिनकी रक्षा करने का उसने प्रण ले रखा है एवं समर्थ है।

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