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संयम स्वर्ण महोत्सव

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Blog Entries posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. संयम स्वर्ण महोत्सव
    इस अवसर पर पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि बूँद बूँद के मिलन से जल में घट आ जाय बूँद मिले सागर से सागर बूँद समाय।
     
    एक बूँद दूसरी बूँद से मिल जाती है तो प्यास बुझाती है। सागर का अस्तित्व क्या है,उत्पत्ति कैंसे है ये जानना जरूरी है। लोग कहते है सरकार सुनती नहीं है, आपकी आवाज में दम होगी तो बेहरी सरकार भी सुन लेती है। स्वर के मिलते ही व्यंजन में गति आ जाती है, आप स्वर बन जाएँ तो सरकार व्यंजन बन जायेगी। कर्ता यदि सरकार है तो कार्य की अनुमोदना आपको करना है। 70 बर्षों में सरकार ने यदि शिक्षा की दिशा में नहीं सोचा तो आप ही सरकार को बनाने बाले हैं। विद्यालय का अर्थ नहीं जान पाये तो ये चल क्या रहा है क्यों स्कूल चलाए जा रहे हैं। आज बाबू बनने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसका अभिप्राय मानसिक रूप से गुलामी करना है, सुभास चंद्र बोस ने अपनी माँ को पत्र लिख कर कहा था कि बाबू बनने से अच्छा है मैं राष्ट्र सेवा करूँ। आज नोकरी में पैकेज दहेज़ की तरह बन गया है जिसे पाने के लिए युवा लालायित हो रहे हैं। जिस वाक्य में कर्ता स्वतंत्र न हो उस वाक्य का कोई अर्थ नहीं है। बुद्धि यदि खराव हो जाय तो फिर ठीक नहीं हो सकती। ज्ञान को सही बिषय मिल जाय तो ज्ञान को सही दिशा मिल जाती है नहीं तो विकृति आने से ऊपर बाला भी नहीं रोक सकता है। हमारे यहां अंक से नहीं चलता अनुभव से चलता है इसलिए अनुभव जरूरी है। सरकार सिंधु है जनता बिंदु है। बैठने का नाम सरकार नहीं होता है उसे तो जनता के हित में चलते रहना चाहिए। अपने अतीत को पुनः जाग्रत करने की जरूरत है। केवल बाणी का मंथन करने से नवनीत नहीं मिल सकता। विदेशी शिक्षा नीति ने भारत के इतिहास को पीछे धकेल दिया है 70 बर्षों में भी मंथन से यदि कुछ नहीं निकला तो चिंता का बिषय है। कर्ता का काम करने का है जो अनुभवी लोग हैं उन्हें आगे आकर इस कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए। अनुभवी शिक्षाविद् इस दिशा में कार्य करें परंतु इतिहास को सामने रखकर करें ,अपने इतिहास की अच्छाईओ को उजागर करें तो स्वतंत्रता के साथ न्याय हो सकेगा। संस्कृति को संरक्षित करने पर ही सुख शान्ति का अनुभब कर सकते हैं। आज श्रमिक बनकर ही हम राष्ट्र कल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। भारत की युवा शक्ति विराट है उसे केंद्रित करने की जरूरत है, उसे मूल तत्व से जोड़ने की जरूरत है। हम समय को भी बाँध सकते हैं यदि प्रतिभा का सही उपयोग करें।
     
    शिक्षा परिषद् के अतुल कोठारी ने कहा कि भारत में ही शिक्षा निहित है। शिक्षा के बिभिन्न आयामों को सीखने दुनिया भर के लोग यहां आते थे आज विदेशों में जाते हैं। जब हम भीतर की और झाँकने का प्रयास करते हैं तो सभी समस्याओं का समाधान मिल जाता है,एक दुसरे पर दोषारोपण करते हैं जबकि सभी की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है शिक्षा की इस दशा के लिए। जातिवाद,भाषाबाद की गांठों को खोलने की जरूरत है। सबका कल्याण हो ऐंसी शिक्षा नीति बननी चाहिए। प्रत्येक नागरिक को राष्ट्र के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, ऐंसी शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा की नींव को मजबूत बनाने की जरूरत है।शिक्षा को बदलना है तो पहले मातृभाषा को मजबूत बनाना होगा, विदेशी भाषा को थोपना देश के नागरिकों के अधिकारों पर कुठाराघात है। जिस देश को अपनी मात्रभूमि, मातृभाषा, पर अभिमान नहीं होगा बो देश कभी विकास नहीं कर सकता है । जैन धर्म के इतिहास को शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए। इस मंथन से हम अच्छा समाधान लेकर ही उठें ये भावना है।
  2. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि आपने बड़े बड़े मंदिरों का निर्माण कर लिया अनेकों प्रतिमाओं को विराजित कर पुण्य कमा लिया परंतु मुख्य कार्य तो अभी बाकी है। अब इन वीतरागीयों की आराधना के लिए युवाओं में जागृति लाने का कार्य कीजिये और जो दूर दराज के विद्यार्थी राजधानी में अध्ध्यनरत हैं उन्हें प्रेरित कीजिये। ऐंसी व्यवस्था बनाइये की वे मंदिर के आसपास ही रहकर अध्यन कर सकें और इसके लिए एक व्यवस्थित छात्रावास होना चाहिए। संस्कारों को यदि प्रतिस्ठापित करना चाहते हैं तो सबसे पहले ये काम प्रारम्भ कीजिये।
     
    उन्होंने कहा कि कोई भी काम करने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत होती है जैंसे मुम्बई में टिफिन का कार्य शाकाहारी कुछ लोगों द्वारा प्रारम्भ किया गया था जो आज सफलता पूर्वक चल रहा है, आपके यहाँ भी आप ऐंसे रचनात्मक कार्य कर सकते हैं जिनसे विद्यार्थियों को शुद्ध आहार मिल सके क्योंकि शुद्ध आहार से ही बुद्धि का विकास होता है। आप भले ही सौधर्म इंद्र बन जाओ आपको एक बार पुजन का मौका मिलेगा परंतु युवा पीढ़ी में यदि आप संस्कार डाल दोगे तो वे बार बार आपके द्वारा स्थापित जिनालय में पूजन करने आएंगे और सदियों तक ये परंपरा कायम रहेगी।
  3. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पुज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि सर्वांगीण विकास में बुद्धि और शरीर दोनों का विकास समाहित होता है। किसी भी अच्छे कार्य की यदि नींव रखी जाती है तो नीचे से लेकर ऊपर तक एक ही दीवार बनायीं जाती है उस पर छत डाली जाती है। बाँध पर भी पानी रोका जाता था उसके लिए पूर्ण प्रबंध किया जाता है उसे निकलने की व्यवस्था की जाती है और नहर के माध्यम से अनेक राज्यों में जाता है। भाखड़ा नंगल बांध में ऐंसी व्यवस्था है उसका उद्देश्य परिग्रह नहीं होता बल्कि कृषि का विकास हो इसके लिये होता है। आप भी यदि संग्रह करते हैं बुद्धि का एवं धन का, और वो समय पर जरूरत मंदों  को बांटते रहेंगे तो वो पुण्य का कारण बन जाता है और पुण्य सद्कार्यों से ही प्रबल होता है।
     
    उन्होंने कहा कि पहले योग से नियोग कीजिये फिर सबका सहयोग लेकर आप आगे बढ़ सकते हैं। धर्म कभी प्रतिशत में नहीं चलता ये तो गुणित में चलता जाता है और पुण्य को प्रबल करता जाता है। किसी भी काम के सम्बर्धन के लिए संरक्षण जरूरी होता है। आप अच्छे कार्यों का संरक्षण करते जाइए वो कार्य गुणित पद्धति से बढ़ता जाएगा। संग्रह को सदुपयोग में लगाएंगे तो आपके कार्यों को सदियों तक याद रखा जाएगा।
     
    गुरुवर ने महापौर से कहा की आपने जो संस्कार जैन पाठशाला में लिए हैं उन संस्कारों पर चलते जाइये आगे बढ़ते जाएंगे। उन्होंने कहा की महापुरुषों को महान इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने सद्कार्य किये है जनकल्याण की भावना के साथ। हथकरघा को संरक्षण और सम्बर्धन देंगे तो भावी पीढ़ी के लिए लाभदायक होगा।
  4. संयम स्वर्ण महोत्सव
    गुरुवर ने कहा कि तालाब में कंकर फेंकते हैं तो नीचे की और चला जाता है। लकड़ी बजनदार होती है फिर भी नहीं डूबती है,जबकि उसमें गाँठ भी होती है। जिसके भीतर पकड़ नहीं है बो तैरता रहता है छोटा डूब जाता है। लकड़ी पानी में गलती नहीं है और पत्थर गल जाता है। पानी के जहाज में नीचे लकड़ी लगाई जाती है और उसी बजह से जहाज डूबता नहीं है। हमें भी लकड़ी की तरह बनना है ताकि हम संसार सिंधु में डूबें नहीं। ऊपर देखता हूँ तो भगवान दिखते हैं नीचे देखता हूँ तो होनहार भगवान दिखते हैं। आप सभी में भगवान बनने के गुण विद्यमान हैं  स्वयं अपने निर्णय से पुरुषार्थ करने पर ही ऊपर बाले भगवान के समक्ष पहुंचा जा सकता है।
  5. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पुज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि जिस तरह पुराने रेडियो में हम एक स्टेशन लगाते थे और यदि हाथ हिल जाता था तो दूसरा स्टेशन लग जाता था तो गीत की जगह कई अन्य कार्यक्रम सुनाई देने लगता था। क्योंकि स्टेशन की रेंज बदल जाती थी और ये रेंज ऊपर लगे एरियल के माध्यम से मिलती थी ठीक उसी प्रकार हमारे विचार रुपी विभिन्न स्टेशन हैं जो हमारे मस्तिष्क रुपी एरियल के माध्यम से बदलते रहते हैं, अच्छे विचारों वाला स्टेशन यदि लगाना है तो मस्तिष्क को निर्मल बनाना होगा। स्थिरता लाने पर ही हम एक विचारों वाले स्टेशन पर टिकेे रह सकते हैं अन्यथा भटकते रहेंगे फिर हम जैंसे गुरुओं की कुब्बत भी नहीं है कि आपको भटकाव से रोक सकें।
     
    उन्होंने कहा कि आजकल की धारणाएं नक़ल पर आधारित होती जा रही हैं इसलिए अक्ल को ठन्डे बस्ते में डाल दिया है। नक़ल से भौतिक परीक्षा तो पास की जा सकती है परंतु जीवन की असल परीक्षा बिना अक्ल के पास नहीं की जा सकती है। आपको यदि पंचकल्याणक के अनुष्ठान की परीक्षा में खरे उतरना है तो पहले अपने आपको इसके लिए मानसिक रूप से तैयार करके स्थिरता लानी होगी। ये पंचकल्याणक आपकी आध्यात्मिक परीक्षा का केंद्र है जिसमें आपको अपना शत प्रतिशत देकर परिणाम को बेहतर बनाना है। अपने मोह को कम करके ही हम जीवन में सार्थक परिणामों की प्राप्ति कर सकते हैं। अपनी क्षमताओं का बेहतर उपयोग ही आपको सही दिशा और दशा प्रदान कर सकते हैं इसलिए अपनी क्षमताओं को बेहतर से बेहतर बनाएं।
  6. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि जीवन में यदि आगे बढ़ना है तो व्यवस्थित क्रम से ही आगे बढ़ा जा सकता है।
     
    पहले भोजन फिर स्नान ये क्रम नहीं चलता है बल्कि स्नान के उपरान्त ही भोजन ग्रहण करके हम स्वस्थ्य रह सकते हैं। एक दिन एक युवा को तेज भूख लग रही थी उसने स्नान के पूर्व ही एकदम गरम भोजन ग्रहण कर लिया फिर ठन्डे जल से स्नान कर लिया तो उसी दिन से उसको सिरदर्द की समस्या शुरू हो गई। व्यवस्थित क्रम से जीवन का निर्धारण करेंगे तो सही प्रबंधन हो सकेगा, व्यवस्था का मतलब ही है अवस्था के अनुसार प्रबंधन।
     
    उन्होंने कहा कि जीवन के प्रबंधन की कला भी जानना बहुत जरूरी होता है क्योंकि प्रबंधन से ही बंधन से मुक्ति मिलती है, आज हरेक क्षेत्र में प्रबंधन का बहुत महत्व हो गया है क्योंकि अनेक संस्थाएं उचित प्रबंधन के अभाव में समय से पूर्व ही अव्यवस्थित हो जाती हैं जिसके कारण वो स्वतः ही समाप्ति की कगार पर पहुँच जाती हैं।
     
    गुरुवर ने कहा कि खानपान में सबसे अधिक प्रबंधन की आवश्यकता है क्योंकि आज दूषित वस्तुओं के चलन से युवा पीढ़ी समय से पहले प्रौढ़ हो रही है, रोगों के कालचक्र ने आपको घेर लिया है, यदि निरोगी रहना चाहते हो तो खानपान के क्रम को व्यवस्थित करो। अच्छे पेय पदार्थों को छोड़कर डब्बा बंद पेय को प्राथमिकता देने के कारण ही युवा मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ्य हो रहे हैं। स्वच्छ और शुद्ध जल की जगह बोतल के जल का चलन भी हानिकारक सिद्ध हो रहा है क्योंकि उसमें जलीय तत्वों का आभाव रहता है।
     
    गुरुदेव ने कहा कि आपके बच्चों का पुण्य है जो उन्हें आप जैंसे माता पिता मिले हैं परंतु आपका पुण्य प्रबल तब कहलाएगा जब आप बच्चों को संस्कारित कर उन्हें जीवन प्रबंधन के गुण सिखाओगे।
  7. संयम स्वर्ण महोत्सव
    छत्तीसगढ़ के प्रथम दिगम्बर जैन तीर्थ चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी के शिष्य मुनि श्री निर्दोष सागर जी ने रविवार को हुये प्रवचन में कहा की आचार्य श्री कहते है कि भक्त कि भक्ति निःस्वार्थ होना चाहिए जिसमे किसी भी प्रकार की फल की प्राप्ति की कामना नही होना चाहिए तभी वह भक्ति सच्ची भक्ति होती है। उन्होने उदाहरण के माध्यम से समझाया कि भक्त दो प्रकार के होते है एक भक्त मंदिर में भगवान ने जो छोड़ा है उसकी प्राप्ति के लिये जाते हैं और दूसरे वे जो भगवान ने प्राप्त किया है उसे प्राप्त करने के लिये जाते है। हमे मंदिर भगवान से कुछ मांगने नही जाना चाहिए बल्कि उनके जैसा बनने के लिये जाना चाहिए। मुनि श्री ने कहा कि बिना गुरू के लक्ष्य की प्राप्ति संभव नही है। मुनि श्री ने प्रतिभा स्थली की बच्चीयों और चंद्रगिरि प्रांगण में उपस्थित सभी लोगों को स्वस्थ्य और सुखी रहने के 3 मूल मंत्र दिये कि – खाना कम, चबाना ज्यादा। बोलो कम, विचारो ज्यादा। बड़ों से विनय और छोटा से स्नेह करो।
    इसके पश्चात- मुनि श्री योग सागर जी ने कहा कि दान परिग्रह का प्रायश्चित है इसमे अहंकार नही होना चाहिए। यदि आप दायें हाथ से दान कर रहे हो तो आपके बाएँ हाथ को भी इसका पता नही चलना चाहिए। एक दृष्टांत के माध्यम से दान की महिमा बताई कि दान सिर्फ अमीर व्यक्ति ही नहीं कर सकते बल्कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी दान कर सकते है। उन्होने बताया कि एक गरीब किसान किसी महाराज जी के दर्शन करने को पहुंचा तो वह महाराज जी से कहने लगा कि मै बहुत गरीब हूँ मै तो कुछ भी दान नहीं कर सकता तो महाराज जी ने किसान से पूछा कि आप कितनी रोटी खाते हैं तो किसान ने कहा कि वह 6 रोटी खाता है तो महाराज ने कहा कि आप 5 रोटी खाएँ और 1 रोटी को दान कर दे।
    यह सुनकर किसान बहुत प्रसन्न हुआ और उसकी दान करने के भाव इतने निर्मल थे कि वह बहुत खुशी – खुशी यह कार्य रोज करने लगा तो एक दिन स्वर्ग से एक देव उसकी परीक्षा के लिये पृथ्वी पर सिंह का रूप धारण कर मंदिर में घुस गये तो गाँव के सभी लोग डर के कारण मंदिर में प्रवेश नहीं कर रहे थे और काफी भीड़ मंदिर के बाहर जमा हो गयी तब किसान रोज कि तरह मंदिर में 1 रोटी चढ़ाने आया तो उसको लोगों ने रोका की अंदर मत जाओ वहाँ सिंह बैठा है तो उस किसान ने कहा मुझे जाने दो और वह किसी कि नहीं सुना और मंदिर के अंदर गया और रोज कि तरह 1 रोटी मंदिर में दान किया और अपने काम के लिये चला गया कुछ समय बाद देव किसान के पीछे – पीछे गये और अपने असली स्वरूप में आये और किसान के पैर पड़े और कहा आपका त्याग धन्य है और आपकी भक्ति भी सच्ची है।
    फिर एक दिन गाँव में राजकुमारी का स्वयंबर था तो वह किसान भी राजा के दरबार में स्वयंबर देखने गया था वह दूर एक पेड़ के नीचे बैठा था और वहाँ राजमहल में कई राजकुमार सजे – धजे हुये आसन पर विराजमान थे तभी राजकुमारी वर माला लेकर आयी और बारी – बारी सभी विराजमान राजकुमारों को देखने लगी फिर पास में खड़े पूरे गाँव वालो को एक – एक कर देखा फिर वह राजकुमारी माला लिये किसान के पास गयी और उसके गले में वर माला डाल दी। राजकुमारी से जब पूछा गया कि अगर गाँव के गरीब किसान से ही शादी करनी थी तो इन राजकुमारों की बेजती करने क्यों राज महल के दरबार में उन्हे बुलाया तो राजकुमारी ने शालिनता से कहा कि मैने किसान के मस्तिष्क पर चंदन का तिलक देखकर उसके गले में वर माला डाली जबकि उस समय उस दरबार में किसी भी राजकुमार एवं प्रजा के माथे पर चंदन का तिलक नही था। मुनि श्री ने इस दृष्टांत के माध्यम से हमे यह समझाया कि दान छोटा या बड़ा नही होता उसके पीछे हमारी क्या भावना है, हमारा विचार कैसा है, हमे संतोष है कि नहीं यह मायने रखता है।
    उन्होंने कहा कि सुख साधन में नही साधना में है। मुनि श्री ने कहा आप विद्यासागर क्यों नही बन पा रहे? उन्होने कहा कि विद्यासागर बनने के लिये गुरू चरण के साथ – साथ उनका आचरण भी हमें अपनाना चाहिये। गुरू चरण तो छू लिया तूमने तो कई बार एक बार आचरण को छू लो तो हो जाये भव सागर पार।
  8. संयम स्वर्ण महोत्सव
    चन्द्रगिरि (डोंगरगढ़) में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने मांगलिक उपदेश देते हुए एक दृष्टांत के माध्यम से बताया कि एक संघ में मुनि महाराज ने संलेखना के कुछ दिनों पहले यम संलेखना का नियम ले लिया था, ऐसे मुनि महाराज के दर्शन के लिए चक्रवर्ती तक आए थे।
    मुनि महाराज के शरीर में कुछ भी ग्रहण करने की शक्ति नहीं बची थी। ऐसे परीक्षा के समय में उन्हें मन में विकल्प हो रहा था तो उन्होंने गुरु महाराज से कहा कि उन्हें मन में आहार लेने का विकल्प आ रहा है।
    इस बात को सुनकर समस्त मुनि संघ चिंतित हो गए कि ऐसी परीक्षा की घड़ी में मुनि महाराज क्या कह रहे हैं? उन्हें जब आहार करने कहा गया तो उनके हाथों की अंजलि से जल मुंह तक भी नहीं आया और सारा जल बाहर ही गिर गया, इसके बाद ग्रास (रोटी) दिया गया तो मुंह में चबाने की भी ताकत नहीं थी।
    गुरु महाराज ने मुनि महाराज को मन को संयमित करने को कहा कि मन की तरंगें मोक्ष मार्ग में बाधक हैं। मृत्यु निश्चित है इसलिए हमें हर पल हर श्वास में प्रभु का स्मरण करते हुए आगम अनुसार मोक्ष मार्ग में चारों कषायों को जीतकर मन को संयमित कर संलेखना व्रत को धारण करना चाहिए।
    आचार्यश्री ने बताया कि उनके गुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज संलेखना के समय शरीर के जीर्ण-शीर्ण होने के बाद अंतिम समय में भी प्रत्येक श्वास में प्रभु का स्मरण करते हुए अपने शिष्यों को उपदेश देते रहे। आचार्यश्री ने प्रभु से प्रार्थना की कि ऐसे व्रतों का निर्वहन वे भी कर सकें और अंतिम श्वास तक अपने गुरु के जैसे प्रभु का स्मरण कर संलेखना धारण कर सकें।
  9. संयम स्वर्ण महोत्सव
    योग से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रयोग होता है
    चन्द्रगिरि, डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने एक दृष्टांत के माध्यम से बताया कि अड़ोस-पड़ोस में दो किसान रहते थे। उनके पास सैकड़ों एकड़ जमीन थी लेकिन उस जगह दूर-दूर तक पानी नहीं होने के कारण उनकी आंखों में पानी था।
    एक दिन एक किसान एक व्यक्ति को लेकर आता है और अपनी जमीन दिखाता है और फिर जमीन देखने के बाद वह उचित स्थान पर खुदाई करवाकर कुआं बनवाता है जिससे पानी लेकर किसान भगवान का अभिषेक करता है और अपनी खेती-किसानी में लग जाता है।
    इसे देखकर पड़ोसी दूसरा किसान भी अपनी जमीन पर कुआं खुदवाता है और उसमें जल की मात्रा पहले वाले किसान से अधिक होती है। दूसरे किसान के कुएं में जल की मात्रा अधिक होने के कारण पहले वाले किसान के ईर्ष्या के कारण भाव बिगड़ जाते हैं और वर्षाकाल में उसके कुएं का पानी और कम होने लगता है और धीरे-धीरे उसका कुआं पूरा सूख जाता है जबकि दूसरे किसान का कुआं और लबालब भर जाता है।
    आचार्यश्री कहते हैं कि आजकल पानी भी बोतलों में बिकता है जिसका दाम 15 से 20 रुपए प्रति लीटर है जबकि प्रकृति में जल, मिट्टी और वायु (ऑक्सीजन) नि:शुल्क उपलब्ध है। आज लोग गांवों से जल, मिट्टी और वायु (ऑक्सीजन) को पैक कर शहर में बेचकर व्यापार कर रहे हैं जबकि चन्द्रगिरि में जल, मिट्टी और वायु (ऑक्सीजन) नि:शुल्क उपलब्ध है।
    आचार्यश्री कहते हैं कि किसान खेती की जगह व्यापार एवं पैसे की ओर बढ़ रहा है। मनुष्य में दया एवं करुणा का अभाव होता जा रहा है और हर चीज का दाम लगाकर उसे बेचा जा रहा है। सरस्वती और लक्ष्मी दोनों को बहनें कहा जाता है। जिसके पास ये दोनों हैं, मतलब उसकी बुद्धि ठीक है और जिसके पास लक्ष्मी है, लेकिन सरस्वती नहीं है तो वह लक्ष्मी उसके पास ज्यादा दिन नहीं रहेगी और जिसके पास दोनों नहीं हैं, मतलब उसको पुरुषार्थ की आवश्यकता है तभी कुछ हो पाएगा। योग से ज्यादा प्रयोग को महत्वपूर्ण माना गया है। अगर आपका योग अच्छा है तो आपको कोई चीज मिल भी जाती है, परंतु आपको उसका उपयोग या प्रयोग नहीं मालूम है तो वह चीज आपके कोई काम की नहीं होगी।
    आचार्यश्री कहते हैं कि पहला किसान दूसरे किसान के पास जाता है और कहता है कि तुमने सुरंग बनाकर मेरे कुएं के जल को अपने कुएं में ट्रांसफर कर लिया है जबकि उस समय तो बोरवेल-पंप आदि नहीं होते थे तो ऐसा करना असंभव था। पहले किसान की ईर्ष्या के कारण बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी।
    आज संयम की कमी के कारण भी लोग पथभ्रष्ट हो जाते हैं और पाप कर्म का बंध करने लगते हैं। अच्छे कर्म से बुरे कर्म की निर्जरा होती है और अच्छे कर्म दया-करुणा भाव से करते रहना चाहिए जिससे पुण्य कि बढ़ता रहे।
  10. संयम स्वर्ण महोत्सव
    मंगल प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज (कुंडलपुर) [08/06/2016]
     
    कुंडलपुर। महामस्तकाभिषेक महोत्सव के इन 5 दिनों में आप अपने आपको पहचानें, एक-दूसरे को पहचानें। हम परमार्थ तत्व के अनुरूप हैं, यह बोध हो जाए। यह बोध आदर्श बने और हम दिव्य शक्ति को प्राप्त करें।
    उक्त उद्गार विश्व संत आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने कुंडलपुर में आयोजित महोत्सव में व्यक्त किए। आचार्यश्री ने आगे स्वरचित मूक माटी महाकाव्य की 2 पंक्तियां सुनाईं। पात्र के बिना पानी रुक नहीं सकता, पात्र के बिना प्राणी रुक नहीं सकता।
    मुक माटी की ये पंक्ति है- अंतर में कौन सा धर्म है, मूक माटी बोलती है। किसी के पास कान हो तो वह सुन सकता है। भीतरी कान तक सम्प्रेषित करता है। हमें भी उस पात्र की खोज है। कोई भी कवि, लेखक, वक्ता होता उसके भीतर जो भाव है, कोई न कोई नाम लिखकर अभिव्यक्त करता है।
    कोई भी अभिव्यक्ति के शब्द जब कमजोर पड़ते, तब ऐसे भावों को व्यक्त करता। कोई भी कमी नहीं। मंच पर कविता पाठ करते-करते ताली बजवाते हैं। ताली बजवाना रहस्य होता है। कवि पंक्ति भूल जाता है तभी ताली बजवाता है।
    ध्वनि को प्रकाश मिले, उसमें सरलता एकमात्र ही ध्वनि का विकास है। हम जितनी सरलता से व्यक्त करेंगे, ताली बजाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। श्रोताओं की इतनी प्यास बढ़े कि ‘आपकी अभिव्यक्ति एक बार और हो’ की आवाज आए।
    भावाभिव्यक्ति पूर्व की अपेक्षा से शब्द न भी मिले, भाव के माध्यम से कविता की पूर्ति कर सकते हैं। शब्द पंगु है। अर्थ की अभिव्यक्ति करने में पंगु हुआ करते हैं। उसके लिए उदाहरण ढूंढें। दृष्टांत की ओर ध्यान दें। हम उसके लिए अनुभव की बात कहना चाहें। अनुभव के बिना शब्द में जान नहीं। शब्द एक जड़ वस्तु है। अभिव्यक्ति में बहुत विराटता आती। हाइको कृति दिपाई की भांति अर्थ को ऊंचा उठा देती। मंच पर जो भी बोलता, जनता के मन को देखकर कविता करना चाही।
    जयकुमार जलज ने बताया कि इस अवसर पर राष्ट्रीय कवि सत्यनारायण ‘सत्तन’ ने अपनी छुटपुट कविताओं के माध्यम से खचाखच भरे पंडाल को ‘वाह-वाह’ कहने पर मजबूर कर दिया।
    उनकी रचनाओं की सराहना आचार्यश्री ने तो की ही, उपस्थित जन-समुदाय को भी बेहद पसंद आई। डॉ. एसएन सुब्बाराव ने बहुत ही आध्यात्मिक भजन की प्रस्तुति से आचार्यश्री सहित जन समूह को भाव-विभोर कर दिया।
  11. संयम स्वर्ण महोत्सव
    मंगल प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज (कुंडलपुर) [08/06/2016]
     
    कुंडलपुर। महामस्तकाभिषेक महोत्सव के इन 5 दिनों में आप अपने आपको पहचानें, एक-दूसरे को पहचानें। हम परमार्थ तत्व के अनुरूप हैं, यह बोध हो जाए। यह बोध आदर्श बने और हम दिव्य शक्ति को प्राप्त करें।
    उक्त उद्गार विश्व संत आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने कुंडलपुर में आयोजित महोत्सव में व्यक्त किए। आचार्यश्री ने आगे स्वरचित मूक माटी महाकाव्य की 2 पंक्तियां सुनाईं। पात्र के बिना पानी रुक नहीं सकता, पात्र के बिना प्राणी रुक नहीं सकता।
    मुक माटी की ये पंक्ति है- अंतर में कौन सा धर्म है, मूक माटी बोलती है। किसी के पास कान हो तो वह सुन सकता है। भीतरी कान तक सम्प्रेषित करता है। हमें भी उस पात्र की खोज है। कोई भी कवि, लेखक, वक्ता होता उसके भीतर जो भाव है, कोई न कोई नाम लिखकर अभिव्यक्त करता है।
    कोई भी अभिव्यक्ति के शब्द जब कमजोर पड़ते, तब ऐसे भावों को व्यक्त करता। कोई भी कमी नहीं। मंच पर कविता पाठ करते-करते ताली बजवाते हैं। ताली बजवाना रहस्य होता है। कवि पंक्ति भूल जाता है तभी ताली बजवाता है।
    ध्वनि को प्रकाश मिले, उसमें सरलता एकमात्र ही ध्वनि का विकास है। हम जितनी सरलता से व्यक्त करेंगे, ताली बजाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। श्रोताओं की इतनी प्यास बढ़े कि ‘आपकी अभिव्यक्ति एक बार और हो’ की आवाज आए।
    भावाभिव्यक्ति पूर्व की अपेक्षा से शब्द न भी मिले, भाव के माध्यम से कविता की पूर्ति कर सकते हैं। शब्द पंगु है। अर्थ की अभिव्यक्ति करने में पंगु हुआ करते हैं। उसके लिए उदाहरण ढूंढें। दृष्टांत की ओर ध्यान दें। हम उसके लिए अनुभव की बात कहना चाहें। अनुभव के बिना शब्द में जान नहीं। शब्द एक जड़ वस्तु है। अभिव्यक्ति में बहुत विराटता आती। हाइको कृति दिपाई की भांति अर्थ को ऊंचा उठा देती। मंच पर जो भी बोलता, जनता के मन को देखकर कविता करना चाही।
    जयकुमार जलज ने बताया कि इस अवसर पर राष्ट्रीय कवि सत्यनारायण ‘सत्तन’ ने अपनी छुटपुट कविताओं के माध्यम से खचाखच भरे पंडाल को ‘वाह-वाह’ कहने पर मजबूर कर दिया।
    उनकी रचनाओं की सराहना आचार्यश्री ने तो की ही, उपस्थित जन-समुदाय को भी बेहद पसंद आई। डॉ. एसएन सुब्बाराव ने बहुत ही आध्यात्मिक भजन की प्रस्तुति से आचार्यश्री सहित जन समूह को भाव-विभोर कर दिया।
  12. संयम स्वर्ण महोत्सव
    मंगल प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज (कुंडलपुर) [08/06/2016]
     
    कुंडलपुर। महामस्तकाभिषेक महोत्सव के इन 5 दिनों में आप अपने आपको पहचानें, एक-दूसरे को पहचानें। हम परमार्थ तत्व के अनुरूप हैं, यह बोध हो जाए। यह बोध आदर्श बने और हम दिव्य शक्ति को प्राप्त करें।
    उक्त उद्गार विश्व संत आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने कुंडलपुर में आयोजित महोत्सव में व्यक्त किए। आचार्यश्री ने आगे स्वरचित मूक माटी महाकाव्य की 2 पंक्तियां सुनाईं। पात्र के बिना पानी रुक नहीं सकता, पात्र के बिना प्राणी रुक नहीं सकता।
    मुक माटी की ये पंक्ति है- अंतर में कौन सा धर्म है, मूक माटी बोलती है। किसी के पास कान हो तो वह सुन सकता है। भीतरी कान तक सम्प्रेषित करता है। हमें भी उस पात्र की खोज है। कोई भी कवि, लेखक, वक्ता होता उसके भीतर जो भाव है, कोई न कोई नाम लिखकर अभिव्यक्त करता है।
    कोई भी अभिव्यक्ति के शब्द जब कमजोर पड़ते, तब ऐसे भावों को व्यक्त करता। कोई भी कमी नहीं। मंच पर कविता पाठ करते-करते ताली बजवाते हैं। ताली बजवाना रहस्य होता है। कवि पंक्ति भूल जाता है तभी ताली बजवाता है।
    ध्वनि को प्रकाश मिले, उसमें सरलता एकमात्र ही ध्वनि का विकास है। हम जितनी सरलता से व्यक्त करेंगे, ताली बजाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। श्रोताओं की इतनी प्यास बढ़े कि ‘आपकी अभिव्यक्ति एक बार और हो’ की आवाज आए।
    भावाभिव्यक्ति पूर्व की अपेक्षा से शब्द न भी मिले, भाव के माध्यम से कविता की पूर्ति कर सकते हैं। शब्द पंगु है। अर्थ की अभिव्यक्ति करने में पंगु हुआ करते हैं। उसके लिए उदाहरण ढूंढें। दृष्टांत की ओर ध्यान दें। हम उसके लिए अनुभव की बात कहना चाहें। अनुभव के बिना शब्द में जान नहीं। शब्द एक जड़ वस्तु है। अभिव्यक्ति में बहुत विराटता आती। हाइको कृति दिपाई की भांति अर्थ को ऊंचा उठा देती। मंच पर जो भी बोलता, जनता के मन को देखकर कविता करना चाही।
    जयकुमार जलज ने बताया कि इस अवसर पर राष्ट्रीय कवि सत्यनारायण ‘सत्तन’ ने अपनी छुटपुट कविताओं के माध्यम से खचाखच भरे पंडाल को ‘वाह-वाह’ कहने पर मजबूर कर दिया।
    उनकी रचनाओं की सराहना आचार्यश्री ने तो की ही, उपस्थित जन-समुदाय को भी बेहद पसंद आई। डॉ. एसएन सुब्बाराव ने बहुत ही आध्यात्मिक भजन की प्रस्तुति से आचार्यश्री सहित जन समूह को भाव-विभोर कर दिया।
  13. संयम स्वर्ण महोत्सव
    चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की प्रवचन यहाँ पंडाल में बैठे लोगों के लिए भी है और जो किसी माध्यम से इसे समझ रहे हैं उनके लिए भी है। आचार्य श्री ने एक दृष्टान्त के माध्यम से समझाया की एक बार एक जंगली सुवर गुफा के बाहर बैठ कर समायक कर रहा होता है और वहाँ एक सिंह आ जाता है तो जंगली सुवर सिंह को आगे जाने के लिए मना करता है तो इस पर जंगल के राजा सिंह को गुस्सा आ जाता है और इसी बात को लेकर दोनों में युद्ध शुरू हो जाता है। सिंह अपने पंजे से वार करता है और जंगली सुवर अपने नुकीले दांतों से वार करता है दोनों एक दूसरे को घायल कर देते हैं और सिंह पहले गिर कर मृत्यु को प्राप्त होता है फिर जंगली सुवर गिर कर मृत्यु को प्राप्त होता है।
    सिंह मरकर नरक जाता है जबकि जंगली सुवर मरकर स्वर्ग जाता है क्योंकि जंगली सुवर अपने प्रण के लिए अपने प्राण गंवा देता है जबकि सिंह मारने के मंतव्य के कारण अपनी जान से हाथ धो बैठता है। उस गुफा में ऐसा क्या है जिसके कारण ये द्वन्द युद्ध हुआ – उस गुफा में गुरूजी (साधू) समायक कर रहे थे और जंगली सुवर का प्रण था की गुरूजी (साधू) का समायक निर्विघ्न पूरा हो जाये इसलिए वह भी गुफा के बाहर में बैठकर अपनी समायक कर रहा था और वहाँ नजर रखा हुआ था परन्तु इस बात को सिंह नहीं समझा और मान कसाये के कारण युद्ध करने को आतुर हो गया।
    सिंह जंगल का राजा होता है इसका उसे मान, स्वाभिमान और अभिमान होता है उसी मान – अभिमान के कारण उसने जंगली सुवर से युद्ध किया और मृत्यु को प्राप्त कर नरक गया जबकि जंगली सुवर का प्राण प्रण को पूरा करने के लिए गया और गुरु जी (साधू) का समायक भी निर्विघ्न पूरा हुआ इसलिए जंगली सुवर मृत्यु उपरांत स्वर्ग गया। जो बुद्धिमान होता है वो मंझधार में नहीं होता है। शतरंज में भी राजा – राजा को नहीं मारता उसी प्रकार युद्ध होने पर जिस राजा की हार होती है वह जितने वाले राजा की अधीन हो जाता है। वह राज्य उसका तो होता है परन्तु वह राजा विजयी राजा के अधीनस्थ हो कर काम करता है। इससे आप लोग समझ गए होंगे की आप लोगों को किस तरह रहना चाहिए। आज रविवार का प्रवचन सफल रहा आप लोग दूर – दूर से आयें हैं आप लोगों ने प्रवचन सूना और इसे अपने जीवन में भी उतारें।
  14. संयम स्वर्ण महोत्सव
    चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने मोह, राग और द्वेष की परिभाषा बताते हुए कहा की मोह हमें किसी भी वस्तु या मनुष्य आदि से हो सकता है जैसे दूध में एक बार जामन मिलाने पर वह जम जाता है फिर दोबारा उसी बर्तन पर दूध डालने पर दूध अपने आप जम जाता है उसमे दोबारा जामन नहीं डालना पड़ता।
    उसी प्रकार मनुष्य भी मोह में जम जाता है। राग और मोह में अंतर होता है। राग के कारण वस्तु का वास्तविक स्वरुप न दिखकर उसका उल्टा स्वरुप दिखने लगता है। जैसे कोई वस्तु है, यदि आपको उससे राग होगा तो आप कहोगे कि यह वस्तु बहुत अच्छी है और उसी वस्तु से किसी को द्वेष होगा तो वह कहेगा की यह वस्तु खराब है। बड़े – बड़े विद्वान्, श्रमण, श्रावक आदि भी इस मोह, राग और द्वेष से नहीं बच पायें हैं।
    आचार्य श्री ने कहा की वे आज पद्मपुराण पढ़ रहे थे तो उसमे बताया गया है की रावण बहुत विद्वान्, बहुत बड़ा पंडित, बहुत ज्ञानी, धनवान, ताकतवर था परन्तु श्रीराम की धर्म पत्नि सीता से उसे मोह होने के कारण उसका सर्वनाश हो गया एवं उसका भाई विभीषण ने भी उसका साथ छोड़ दिया था। आज बहुत से लोग शास्त्र, ग्रन्थ आदि पढ़कर पंडित, ज्ञानी हो गए हैं उन्हें इस ज्ञान का उपयोग पहले अपने कल्याण के लिए करना चाहिये फिर दूसरों का कल्याण करना तो अच्छी बात है ही।
  15. संयम स्वर्ण महोत्सव
    चन्द्रगिरि (डोंगरगढ़) में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि पहले असी, मसि, कृषि, वाणिज्य के हिसाब से कार्य होता था और विवाह में कन्यादान होता था। इस प्रथा में कन्या दी जाती थी। इसमें कन्या का आदान-प्रदान नहीं होता था।
    आज पाश्चात्य सभ्यता का चलन होने के कारण सब प्रथाओं में परिवर्तन आ रहे हैं, यह विचारणीय है। पहले पिता अपनी बच्ची के लिए योग्य वर ढूंढता था, पर आज बच्चे से पूछे बिना कोई काम नहीं कर सकते हैं। पहले बच्ची अपने पिता की बात को ही अपना भाग्य समझती थी, अब ऐसा देखने और सुनने को नहीं मिलता है।
    आचार्यश्री ने मैनासुन्दरी और श्रीपाल का उदाहरण देकर बताया कि किस तरह से उन्होंने अपने भाग्य पर भरोसा किया और अंत में उनका भला ही हुआ। आज का दिन आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष दूज छत्तीसगढ़ में बहुत शुभ दिन माना जाता है और ऐसा मानना है कि इस दिन वर्षा अवश्य होती है।
    आगे अष्टान्हिका पर्व आ रहा है जिसमें सिद्धचक्र विधान का विशेष महत्व माना जाता है। आप लोग अष्टान्हिका, दसलक्षण पर्व को ही विशेष महत्व देते हों, हमारे लिए तो मोक्ष मार्ग में हर दिन ही विशेष भक्ति, स्वाध्याय आदि का होता है।
    सिद्धचक्र विधान में प्रतिदिन शांतिधारा होती थी और इसके गंदोदक को वह अपने कुष्ठ शरीर पर लगाने से उसका रोग अष्टान्हिका पर्व के अंतिम दिन में पूरा का पूरा ठीक हो जाता है। यह सब सिद्धचक्र विद्वान को श्रद्धा, भक्ति, भाव, विश्वास के साथ करने से हुआ था।
    आज लोग पुरुषार्थ नहीं करना चाहते हैं और वे आलस के कारण ताजा घर में बना खाने की जगह पैकिंग फूड ले रहे हैं जिसके कारण वे खुद तो बीमार पड़ रहे हैं, साथ में 2-2 साल के बच्चे को शुगर आदि-आदि बीमारियां हो रही हैं। इसके जिम्मेदार माता-पिता खुद हैं। उन्हें अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देना चाहिए।
    विवाह धर्म प्रभावना के लिए किया जाता है। वर-वधू का विवाह होता है, फिर संतान होती है। वे अपनी संतान को अपने धर्म के अनुरूप संस्कार देते हैं। ऐसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी धर्म की प्रभावना होती रहती है।
    पहले स्वयंवर होता था जिसमें कन्या अपने लिए वर पसंद करती थी। इसमें कभी वर को कन्या पसंद करने का अवसर नहीं दिया जाता था। यह अधिकार केवल कन्या का ही होता था, परंतु आज बेटियां बेची जा रही हैं, जो धर्म और समाज के लिए घातक है।
    आज लोग दिन में दर्पण कई बार देखते हैं। और तो और, मोबाइल द्वारा भी दर्पण का इस्तेमाल किया जाता है और उसे जेब में रखते हैं तो उसका उपयोग भी कई बार किया जाता है।
    जो केवल शरीर को देखता है, उसे आत्मा का चिंतन होना कठिन है। आत्मा के चिंतन के लिए सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र अनिवार्य है। इसमें शरीर का केवल उपयोग किया जाता है, उसे ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता है।
  16. संयम स्वर्ण महोत्सव
    प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {19 नवंबर 2017}
     
    चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा का आकार प्रतिदिन परिवर्तित होता है बढ़ता जाता है और पूर्णिमा के दिन उसकी उषमा से समुद्र की लहरों में उछाल आ जाता है ऐसे ही डोंगरगढ़ वासियों के भावों में भगवान के शमोशरण आने से उत्साह, उल्लास नज़र आ रहा है।
    आचार्य श्री ने कहा की आगे कब भगवान के समवशरण देखने को मिलेगा पता नहीं परन्तु पिछले 3 दिनों के विहार में भागवान के समवशरण की झलकियाँ देखने को मिली जो की अद्भुत थी। भगवान् की यह प्रतिमा बहुत प्राचीन है और जैसे कुण्डलपुर के भगवान् को आप लोग बड़े बाबा बोलते हो वैसे ही ये चंद्रगिरी के बड़े बाबा हैं।
    दोपहर के प्रवचन में आचार्य श्री ने खरगोश और कछुवा के एक दृष्टांत के माध्यम से बताया की खरगोश बहुत तेज, फुर्तीला और विवेकशील था परन्तु उसने समय का सदुपयोग नहीं किया और संवेदनशीलता की कमी और आलस्य के कारण उसकी हार हुई। जबकि कछुवे की चाल धीमी थी परन्तु उसने समय का सदुपयोग किया और आलस्य को त्यागा और अपनी मंजील पर जाकर ही रुका। कछुवे के ऊपर का भाग बहुत मजबूत होता है और उसकी एक खासियत यह है की वह अपनी चारों भुजाओं एवं मुख को उसके अन्दर कर लेता है जिससे उसके ऊपर यदि गाड़ी भी चल जाए तो उसको कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसी प्रकार हमें भी अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बिना आलस्य किये चलते रहना चाहिये।
    दिनांक 19/11/2017 को आचार्य श्री का विहार मुरमुंदा से डोंगरगढ़ के लिए प्रातः 6 बजे हुआ जिसमे देव, शास्त्र और गुरु तीनो के सांथ रत्नों के सामान रथों में प्रतिभास्थली की बचियाँ इंद्र, इन्द्रनियाँ , देव, आदि अति सुन्दर दिखाई दे रहे थे। जो भी व्यक्ति रास्ते में विहार का दृश्य देखता और आचार्यचकित होकर वहीँ रूककर दर्शन करता और अपने मोबाइल के कमरे से इस दृश्य को कैद कर लेता। इस विहार में गाँव के लोगों ने भी उत्साह से भगवान् के समवशरण के दर्शन कर धर्म लाभ लिया जो की काफी अद्भुत था।
    आचार्य श्री ससंघ की अगुवानी में जनसैलाब उमड़ पड़ा और लोगों ने अपने घरों के सामने रंगोली बनाई और दीपक जलाकर उनका ह्रदय से स्वागत किया।
    यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  17. संयम स्वर्ण महोत्सव
    प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {20 नवंबर 2017}
     
    चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की बांस काफी लम्बे होते हैं और ऊपर की ओर परस्पर तोरण द्वार की तरह लगते हैं। पंडित जी कहते हैं न की दोनों हांथों को ऊपर उठाओ और हांथ जोड़कर शिखर बनाकर जय कारा लगाओ उसी तरह बांस भी एक – दूसरे से जुड़े हुए रहते हैं, एक – दूसरे से गुथे हुए होते हैं। यदि कोई बांस को नीचे से काटे और खिचे तो उसे ऊपर से निकालना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि बांस एक – दूसरे से मिलकर गुथे हुए रहते हैं।
    इसी प्रकार यदि आप लोग भी एक – दूसरे के सांथ मिलकर रहेंगे तो कोई बाहर का भीतर घुस भी नहीं सकता और कोई झांक तक नहीं सकता की अन्दर क्या है। यदि संघर्ष विपक्ष से हो तो सफलता मिलना तय है परन्तु यदि संघर्ष पक्ष से हो तो उसकी घर्षण से अग्नि उत्पन्न होती है और सब कुछ जलकर ख़ाक हो जाता है।
    इसलिए यदि सफलता पाना है तो संघर्ष पक्ष से नहीं विपक्ष से करना चाहिए। इसी प्रकार हमें अपने कर्म को संघर्ष से काटते रहना चाहिये जिससे आप अपनी मंजील की ओर बढ़ सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।
    यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  18. संयम स्वर्ण महोत्सव
    विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {21 नवंबर 2017}
     
    चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की बिम्ब और प्रतिबिम्ब में अंतर होता है। बिम्ब किसी वस्तु का स्वाभाव व उसके गुण आदि होते हैं परन्तु उसका प्रतिबिम्ब अलग – अलग हो सकता है यह देखने वाले की दृष्टि पर निर्भर करता है की वह उस बिम्ब में क्या देखना चाह रहा है। यदि सामने कोई बिम्ब है और उसे दस लोग देख रहे होंगे तो सबके विचार उस प्रतिबिम्ब के प्रति अलग – अलग हो सकते हैं। किसी को कोई चीज अच्छी लगती है तो वही चीज किसी और को बुरी लग सकती है परन्तु इससे उस बिम्ब के स्वाभाव में कोई फर्क नहीं पड़ता है। जैसी आपकी मानसिकता और विचार उस बिम्ब के प्रति होंगे वैसा ही प्रतिबिम्ब आपको परिलक्षित होगा।
    यदि आप शान्ति चाहते हो तो दिमाग को कुछ समय के लिए खाली छोड़ दो उसका बिलकुल भी उपयोग मत करो कुछ भी मत सोचो आपको कुछ ही समय में शान्ति की अनुभूति होने लगेगी परन्तु शान्ति को कोई बाज़ार से नहीं खरीद सकता और न ही उसे कोई छू सकता है उसे केवल महसुस किया जा सकता है।
    मन + चला = मनचला अर्थात मन चलायमान होता है उसे वश में करना, एकाग्र करना बहुत कठिन काम है। इसके लिये काफी प्रयास की आवश्यकता होती है। यदि आपने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया तो आप अपने मन को भी अपने वश में (Control में) कर सकते हो जिससे आपको कभी लोभ नहीं होगा और आप हमेशा संतुष्ट और प्रसन्न रह सकते हैं और अपनी मंजिल और लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।
    यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  19. संयम स्वर्ण महोत्सव
    प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {22 नवंबर 2017}
     
    चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कहा कि वृक्ष होता है जिसकी शाखाएं होती है उसमें से पहले कली खिलती है फिर फूल खिलता है फिर उसमें फल आता है। यह एक स्वतः होने वाली प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसी प्रकार यह प्रतिभास्थली है जिसमें ये छोटी-छोटी बच्चियां पढ़ाई के साथ-साथ संस्कार भी ग्रहण कर रही हैं। आप लोगों की संख्या अभी कम है, आप संख्या की चिंता मत करो, आप अपना काम ईमानदारी से मन लगाकर करो तो आपको सफलता अवश्य ही मिलेगी और आप के नये सखा मतलब आपके नये मित्र भी यहां आएंगे और आपकी संख्या भी बढ़ जायेगी।
     
    यहां इन बच्चों की पढ़ाई और संस्कार के लिए समाज का सहयोग मिलना आवश्यक है और इनकी शिक्षिकाएं भी अपने कर्तव्यों का पालन बहुत अच्छे से कर रही है। यहां पैसों का उतना महत्व नहीं है। आप लोग कहते है न कि पैसा तो हाथ का मैल है, इसे निर्मल करने का इससे अच्छा और कोई उपाय नहीं है। समाज को इसके लिए हमेशा उत्सुक रहना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपने सामर्थ्य के अनुसार यहां अपने पैसों का सदुपयोग करना चाहिये। यहां बच्चों का निर्वाह नहीं निर्माण हो रहा है जो भविष्य में इसे और आगे पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाते रहेंगे। आप लोगो का प्रयास सराहनीय है और आगे भी आप लोग ऐसा ही सहयोग इन बच्चों को देंगे जिससे यह कार्य आगे चलता रहेगा व बढ़ता रहेगा।
    यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  20. संयम स्वर्ण महोत्सव
    प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {29 नवंबर 2017}
     
    चंद्रगिरी डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की गायें होती हैं, उसके गले में रस्सी डाली जाती है और वह जब जंगल आदि जगह चरने जाती हैं तो वह रस्सी उसके गले में ही रहती है और वह चरने के बाद अपने यथास्थान पर आ जाती हैं किन्तु बछड़े के गले में रस्सी नहीं होती है, वह अपनी माता (गाय) के इर्द – गिर्द ही घूमता रहता है और दौड़कर दूर भी निकल जाये तो गाय की आवाज के संपर्क में रहता है और भागकर वापस अपनी माँ (गाय) के पास आ जाता है।
     
    इसी प्रकार भगवान् से भी हमारा कनेक्शन ऐसा ही होना चाहिये इसके लिए देव, शास्त्र और गुरु के संपर्क में रहकर उनके कनेक्शन से जुड़े रहना चाहिए। जिस प्रकार बल्ब जब तक तार से जुड़ा हुआ रहता है तो वह करंट मिलने से चालू रहता है और प्रकाश देता रहता है यदि तार का कनेक्शन कट जाये तो उसका प्रकाश खत्म हो जाता है। देव, शास्त्र और गुरु से जुड़े रहने से मन शांत और अंतर्मन में दिव्य प्रकाश एवं अलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। जिन लोगों के पास अधिक धन आ जाता है उन्हें उसे संरक्षित रखने का भय सताते रहता है वे लोग कहते हैं महाराज आशीर्वाद दो की हमारी धन-सम्पदा संरक्षित रहे।
     
    आचार्यश्री कहते हैं कि ‘मोल का त्याग करोगे को अनमोल की प्राप्ति होगी’ इसलिये समय-समय पर दान देने से परिग्रह का त्याग होता है और अंतर्मन प्रसन्न और अत्यंत सुख की अनुभूति होती है जो कि सहज ही उपलप्ध हो जाती है इसके लिये ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है।
     
    यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
     
  21. संयम स्वर्ण महोत्सव
    प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {30 नवंबर 2017}
     
    चन्द्रगिरि, डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने एक दृष्टांत के माध्यम से बताया कि एक पिता अपने बेटे को सही राह (धर्म मार्ग) बताता है, परंतु बेटे को पिता की बात कम ही समझ में आती है। वह केवल अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रयत्न करता है और उसमें सफलता भी प्राप्त करता है।
    जब उसके पास उसकी इच्छा अनुरूप सभी साधन और सुविधाएं उपलब्ध हो जाती हैं तो वह बैठा सोचता है कि उसके पास आज सभी चीजें जो वो अपनी जिंदगी में चाहता है, उपलब्ध हैं किंतु मन मान नहीं रहा है। तब उसे अपने पिता की बात याद आती है और वह अगले दिन देश वापस आता है और अपने देश की मिट्टी को माथे से लगाता है और फिर अपने पिता से मिलता है।
     
    पिता उसे देखकर खुश हो जाते हैं और एक पिता अपने बेटे के कार्यानुसार उसके भविष्य को अच्छी तरह जानता है। उन्हें मालूम था कि एक दिन उनका बेटा सही राह (धर्म की राह) पर जरूर आएगा। यहां पर एक वाक्य चरितार्थ होता है कि ‘सुबह का भूला शाम को लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते।’
    आज चन्द्रगिरि में भी जगदलपुर से आप लोग देव बनकर आए हैं। हमें यह देखकर प्रसन्नता हुई कि आप लोग अपनी मातृभूमि से जुड़े हुए हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मातृभूमि से हमेशा जुड़े रहना चाहिए जिससे कि उसके संस्कार हमेशा बने रहें।
     
     
    जगदलपुर में पंचकल्याणक की भूमिका डोंगरगांव में मात्र 1 दिन में बनी थी। यह वहां के लोगों का पुण्य है और उनका प्रयास भी सराहनीय है, जो इतना बड़ा कार्य कर रहे हैं। जगदलपुर एक आदिवासी इलाका है। वहां जिन मंदिर होना अपने आप में एक अलग बात है। इससे वहां के आस-पास के लोग भी जुड़ सकेंगे, जैसे कोंडागांव, गीदम आदि। यह एक आदिवासी बहुल क्षेत्र प्रकृति की गोद में है, जो कि अपने आप में एक प्राकृतिक सुन्दरता धारण किए हुए है।
     
    यह जानकारी चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  22. संयम स्वर्ण महोत्सव
    प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {2 दिसंबर 2017}
     
    चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा की आप लोग कहते हैं की अग्नि जल रही है जबकि अग्नि जलती नहीं जलाती है, जलता तो ईंधन है। इसी प्रकार गाड़ी अपने आप चलती नहीं है उसे ड्राईवर चलाता है। वैसे ही हमारी आत्मा हमारे शरीर को चलाती है और हमारा शरीर उसी के अनुसार कार्य करता है। इसे ही भेद विज्ञान कहा जाता है जो इसे समझ लिया उसे फिर कुछ और समझने की आवश्यकता नहीं होती है।
     
    यह शरीर उस आत्म तत्व के लिए एक जेल के सामान है वह इसके अन्दर कैदी की भांति कैद है। हम जो भी कार्य करते हैं उठते, बैठते, चलते – फिरते एवं आदि जो भी शरीर के द्वारा दैनिक क्रियाएँ करते हैं वह सब आत्म तत्व के द्वारा ही निर्देशित होता है शरीर तो केवल उसके अनुरूप कार्य करता है। हमें केवल अपने आत्म तत्व की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है।
    आज आचार्य श्री को आहार कराने का सौभाग्य ब्रह्मचारिणी उन्नति   दीदी, नरेश भाई जैन, जयसुख भाई जैन मुंबई  निवासी के यहाँ हुए |
     
    यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
     
     
  23. संयम स्वर्ण महोत्सव
    प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {3 दिसंबर 2017}
     
    चन्द्रगिरि (डोंगरगढ़) में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने प्रात:कालीन प्रवचन में कहा कि जब तीर्थंकर भगवान का समवशरण लगता है तो उसमें काफी भीड़ होती है और जगह की कमी कभी नहीं पड़ती है। बहरे के कान ठीक हो जाते हैं, उसे सब सुनाई देने लगता है। अंधे की आंखें ठीक हो जाती हैं और उसे सब दिखाई देने लग जाता है, लंगड़े के पैर ठीक हो जाते हैं और वह चलने लग जाता है। वो भी बिना किसी ऑपरेशन, सर्जरी या बिना किसी नकली पैरों के सब कुछ अपने आप हो जाता है। मंदबुद्धि का दिमाग ठीक हो जाता है।
     
    एक बार एक गांव में 25वें तीर्थंकर कहकर समवशरण लगाया गया। उसमें काफी भीड़ भी इकट्ठी हो गई। वहां बहरे, अंधे, लूले-लंगड़े, मंदबुद्धि लोग भी आए, परंतु उनका वहां जाकर भी कुछ नहीं हुआ। वे जब वापस आए तो अंधा, अंधा ही था, बहरा, बहरा ही था, लंगड़ा, लंगड़ा ही था और मंदबुद्धि, मंदबुद्धि ही था। किसी में कोई परिवर्तन नहीं आया तो लोग समझ गए कि यह समवशरण वीतरागी का नहीं है। यह सब एक वीतरागी के समवशरण में ही संभव हो सकता है और वीतरागी समवशरण में आने वालों का पूर्ण श्रद्धा से सम्यक दर्शन का होना भी अनिवार्य है तभी कुछ परिवर्तन होना संभव है। सम्यक दर्शन के भी 8 भेद बताए जाते हैं जिसका शास्त्रों में उल्लेख पढ़ने को मिलता है।
     
    आचार्यश्री ने कहा कि कपड़े की दुकान वाले बुरा मत मानना। एक बार एक कपड़े की दुकान में एक ग्राहक आता है और कपड़े देखता है। देखते ही देखते उसके सामने पूरे का पूरा कपड़ों का ढेर लग जाता है। दुकान मालिक उससे पूछता है कि आपको किस वैरायटी का कपड़ा चाहिए? तो ग्राहक कहता है कि आप अपनी दुकान का सारा माल दिखाइए और मुझे जो पसंद आएगा, उसे मैं ले लूंगा। कपड़े की दुकान वाले का पसीना छूट जाता है और उसने ग्राहक को चाय भी पिलाई (लोभ दिया) फिर भी ग्राहक संतुष्ट नहीं हुआ।
     
    आचार्यश्री ने कहा कि दुकान कैसी भी हो, क्वालिटी अच्छी हो तो लोग ठेले में भी झूम जाते हैं। वो कहावत है न कि ‘ऊंची दुकान और फीका पकवान’। दुकान बड़ी होने से कुछ नहीं होता, माल अच्छा हो तो दुकान में भीड़ लगी रहती है। इसी प्रकार हमारे भाव भी सम्यक दर्शन के प्रति बने रहना चाहिए और इसमें कभी कोई शंका उत्पन्न नहीं होना चाहिए तभी इसकी सार्थकता है।
     
    यह जानकारी चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  24. संयम स्वर्ण महोत्सव
    प्रवचन : आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {9 दिसंबर 2017}
     
    चंद्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागर महाराजजी ने कहा की समन्वय से गुणों में वृद्धि हो तो वह सार्थक है किन्तु यदि समन्वय से गुणों में कमी आये तो वह समन्वय विकृत कहलाता है। उदाहरण के माध्यम से आचार्यश्री ने समझाते हुए कहा की यदि दूध में घी मिलाया जाये तो वह उसके गुणों को बढाता है जबकि दूध में मठा मिलाते हैं (कुछ लोग कहते हैं दूध भी सफ़ेद होता है और मठा भी सफ़ेद होता है) तो वह विकृति उत्पन्न कर देता है।
     
    मठा में यदि घी मिलाया जाये तो वह अपचन कर सकता है परन्तु उसी घी का यदि बघार मठा में मिलाया जाये तो वह पाचक तो होगा ही और उसके स्वाद में भी वृद्धि हो जायेगी। इसी प्रकार सुयोग समन्वय से गुणों में वृद्धि होती है। आप लोग कहते हो डॉक्टर के पास जाना है डॉक्टर तो उपाधि होती है एलोपेथिक चिकित्सा के लिए चिकित्सक होता है और आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए वैद्य या वैदराज होता है जो आज कल कम सुनने को मिलता है। वर्तमान में आपकी तबियत खराब हो जाये या शरीर में कोई तकलीफ आ जाये तो आप लोग दवाइयों का सेवन करते हो जबकि पहले के लोग भोजन को ही औषधि के रूप में सेवन करते थे और उनकी दैनिक चर्या ऐसी होती थी की वे कभी बीमार ही नहीं पड़ते थे। डॉक्टर और बीमारी दोनों उनके पास आने से डरती थी।
     
    आप लोग सभी जगह आने-जाने में वाहन का उपयोग करते हो इसकी जगह यदि आप पैदल चलें तो आपकी आधी बीमारी तो यूँ ही दूर हो जायेगी। आचार्यश्री ने कहा कि ‘मन से करो, मन का मत करो’। आपको यदि स्वादानुसार अच्छा भोजन मिल जाये तो आप उसका सेवन आवश्यकता से अधिक कर लेते हैं जिससे आपका पेट कहता तो नहीं है परन्तु आपको एहसास होता है की पेट अब मना कर रहा है परन्तु आप फिर भी अतिरिक्त सेवन करते हैं तो उसे पचाना मुश्किल होता है और फिर आपको उसे पचाने के लिए पाचक चूर्ण या दवाई आदि का उपयोग करना पड़ता है। आप लोगों से अच्छे तो बच्चे हैं जो पेट भरने पर और खाने से तुरंत मन कर देते हैं। इसलिए दोहराता हूँ कि ‘मन से करो, मन का मत करो’।
     
    गृहस्थ में धर्म, अर्थ और काम होता है जबकि मोक्ष मार्ग में केवल संयम ही होता है। मुमुक्षु की सब क्रियाएं गृहस्थ के विपरीत होती है जैसे आप बैठ के भोजन लेते हैं जबकि मुमुक्षु खड़े होकर आहार लेते हैं, आप थाली में परोस कर लेते हैं, जबकि मुमुक्षु कर पात्र (दोनों हाथ मिलाकर) करपात्र में आहार लेते हैं। आपको सोने के लिए आरामदायक बिस्तर, तकिया आदि की आवश्यकता होती है जबकि मुमुक्षु लकड़ी के चारपाई, भूमि आदि में शयन करते हैं। आप लोग जब मन चाहे चट-पट जितनी बार चाहो खा सकते हो जबकि मुमुक्षु दिन में एक बार ही आहार करता है। इसी प्रकार मोक्ष मार्ग में वीतरागी देव, शास्त्र और गुरु का समन्वय आवश्यक है तभी कल्याण होना संभव है।
     
    दिनांक 09/12/2017 एवं 10/12/2017 को चंद्रगिरी तीर्थ क्षेत्र में निःशुल्क चिकित्सा शिविर का आयोजन किया गया है जिसमे सभी प्रकार के रोगों का बाहर से आये आयुर्वेदिक चिकित्सकों द्वारा ईलाज किया जा रहा है एवं मरीजों के लिए निःशुल्क भोजन की व्यवस्था की गयी है। आज डोंगरगढ़ से एवं आसपास के ग्रामीण क्षेत्र के सैकड़ों लोगों ने अपना इलाज करवाकर लाभ लिया जैसे बी.पी., शुगर, सिरदर्द, माईग्रेन, खुजली, अस्थमा आदि बिमारियों का ईलाज निःशुल्क आयुर्वेदिक औषधि एवं योग प्राणायाम के द्वारा किया गया।
     
    यह जानकारी चंद्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
  25. संयम स्वर्ण महोत्सव
    विद्यासागरजी महाराज; (डोंगरगढ़) {10 दिसंबर 2017}
     
    चन्द्रगिरि (डोंगरगढ़) में विराजमान संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि नीम का वृक्ष बहुत योगी होता है। उसकी छाल से बनी जड़ी-बूटियों से बड़े से बड़े रोगों व विभिन्न बीमारियों का उपचार संभव है।
     
    वृक्ष ऑक्सीजन छोड़ते हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड ग्रहण करते हैं जिससे हमें प्राणवायु प्राप्त होती है। नीम का फल कड़वा होता है, परंतु उसका स्वास्थ्य के लिए लाभ बहुत है। नीम की शाखाओं एवं टहनी का उपयोग दातुन आदि के लिए भी उपयोग किया जाता है। इस प्रकार नीम का वृक्ष मनुष्य एवं प्रकृति के लिए बहुत लाभकारी है जिसे पहले के लोग अपने आंगन में लगाते थे और स्वस्थ रहते थे। आज आप लोग इस ओर ध्यान नहीं देते हैं और कई छोटी-बड़ी बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं।
     
    गायें बहुत भोले-भाले मुख वाली होती हैं जिसे हम गैया भी कहते हैं। वे हमारे लिए अत्यंत दुर्लभ हैं, क्योंकि वे हमेशा 24 घंटे प्राणवायु ऑक्सीजन ग्रहण करती व छोड़ती हैं। उसके सींग की कीमत सोने से भी ज्यादा है। यदि आज सोना 30,000 रुपए है तो उसकी कीमत 1 लाख रुपए से भी अधिक है। गाय के दूध में स्वर्ण होता है। उसका सेवन अमृत-सम होता है। घर में गायें होने से घर का पूरा वातावरण पवित्र हो जाता है। गायों द्वारा ऐसी क्या रासायनिक क्रिया की जाती है जिससे वे प्राणवायु ऑक्सीजन ग्रहण करती व छोड़ती हैं, यह विचारणीय है।
     
    9 एवं 10 दिसंबर 2017 को चन्द्रगिरि तीर्थ क्षेत्र में नि:शुल्क चिकित्सा शिविर का आयोजन किया गया है जिसमें सभी प्रकार के रोगों का बाहर से आए आयुर्वेदिक चिकित्सकों द्वारा इलाज किया जा रहा है एवं मरीजों के लिए नि:शुल्क भोजन की व्यवस्था की गई है।
     
    रविवार को डोंगरगढ़ से एवं आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों के सैकड़ों लोगों ने अपना इलाज करवाकर लाभ लिया जैसे बीपी, शुगर, सिरदर्द, माइग्रेन, खुजली, अस्थमा आदि बीमारियों का इलाज नि:शुल्क आयुर्वेदिक औषधि एवं योग-प्राणायाम द्वारा किया गया।
     
    यह जानकारी चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ से निशांत जैन (निशु) ने दी है।
     
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