अहिंसा अव्यवहार्य नहीं है
अहिंसा अव्यवहार्य नहीं है
किसी को भी मारना हिंसा है, न कि मरना। क्योंकि मरना तो कभी न कभी शरीरधारी को पड़ता ही है, हां, अपने आप जान-बूझकर पर्वत से पड़कर, कूप में पड़कर, तलवार खाकर या विष भक्षण कर मरना वह मरना नहीं है, किन्तु अपने आपको मारना है। जैसे दूसरों को मारना हिंसा है वैसे ही अपने आपको मारना भी हिंसा ही नहीं बल्कि घोर हिंसा है। जिसको आत्मघात बताकर महर्षियों ने उसकी घोर निन्दा की है और जब कि मारने का नाम हिंसा है तो फिर हिंसा किये बिना निर्वाह नहीं हो सकता यह विश्वास झूठा है।
क्या किसी को मारे बिना किसी का काम नहीं बन सकता? नहीं ऐसी बात नहीं है। हां, कोई बहुत बड़ी या थोड़ी हिंसा करता है तो कोई हिंसा किये बिना भी रह सकता है। बल्कि अहिंसा के बिना किसी का भी गुजर नहीं हो सकता। एक बड़े से बड़ा पारधी जिसने प्राणियों को मारना ही अपना काम समझ रखा है। वह भी कम से कम, अपनी उसकी पक्ष करने वाले को तो नहीं मारता है। अतः यह तो मानना ही होगा कि अहिंसा सभी की उपास्य देवता है।
हां, यह कहा जा सकता है कि अपने शरीर का निर्वाह अपने आप करने वाला आदमी भले ही मांस न खाये और खून या शराब पिये बिना रह जावे परन्तु साक सब्जी तो उसे खानी ही होगी और प्यास बुझाने के लिये स्वच्छ पानी भी पीना ही होगा। बस इसीलिए हमारे दिव्य ज्ञानी महिरिशियों ने बतलाया है कि कौटुम्बिक जीवन वाले लोगों को स्थावर हिंसा करना आवश्यक है, उसके बिना उनका निर्वाह नहीं हो सकता किन्तु उस हिंसा तो उनको कभी भी नहीं करना चाहिए।
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