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मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता प्रारंभ ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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Blog Entries posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. संयम स्वर्ण महोत्सव
    दान अपनी कमाई में से देना
     
    किसी एक गांव का राजा मर जाने से उसकी एवज में उसके बेटे का राजतिलक होने लगा। जिसकी खुशी में वही उसने दान देना शुरू किया जिसे सुनकर बहुत से आशावान लोग वहां पर जमा हो गये। उन्हीं में एक पढ़ालिखा समझदार पण्डित भी था जिसने होनहार राजा की प्रशंसा में कुछ श्लोक सुनाए। राजा बड़ा खुश हुआ और बोला कि तुमको जो चाहिये सो लो। पण्डित ने कहा मैं अभी आप से क्या लू? फिर कभी देखा जावेगा। राजा ने कहा कि कुछ तो अभी भी तुमको मुझ से लेना ही चाहिये। पण्डित बोला कि यदि आप देना ही चाहते हैं तो एक रुपया मुझे दे दीजिये मगर वह आपका अपनी कमाई का होना चाहिये। इसको सुनकर और सब लोग तो कहने लगे कि इसने राजा से क्या मांगा? कुछ नहीं मांगा। परन्तु राजा ने सोचा कि इसने तो मुझसे बहुत बड़ा दान मांग लिया क्योंकि मेरे पास इस समय मेरा कमाया हुआ तो कुछ भी नहीं है। यह तो राज्य सम्पत्ति है वह तो या तो पिताजी की देन है या यों कहो कि इस पर आम प्रजा का अधिकार है। मेरा इसमें क्या है? अतः मैं मेरी मेहनत से कमाकर लाकर एक रुपया इसे दूं मैं उसके बाद ही इस राज्य- सिंहासन पर बेटुंगा। ऐसा कह कर कोई काम करने की तलाश में गांव से चला गया।
     
    इसे राजपुत्र या होनहार राजा समझ कर जिसके भी पास में गया तो उसका सम्मान खूब ही हुआ मगर उससे कोई भी काम कैसे लेवे और क्या काम लेवे? अत: बहुत देर तक चक्कर काटते-काटते वह एक लुहार की दुकान पर पहुंचा। लुहार लोहा गरम करके उसे घन से कूटने को था जो कि अकेला था, दूसरे किसी सहकारी की प्रतिक्षा में था। उसके पास जाकर बोला- कुछ काम हो तो बताओ? तब लुहार बोला- आओ मेरे साथ इस लोहे पर घन बजाओ और शाम तक ऐसा करो तो तुम्हें एक रूपया मिल जावेगा। राजपुत्र ने सोचा ठीक है परन्तु जहां उसने घन को उठाकर एक दो बार चलाया तो उसका शरीर पसीने में तर-बर हो गया। राजपुत्र बोला कि बाबा यह काम तो बड़ा कठिन है, जवाब मिला कि नहीं तो फिर रूपया कहीं ऐसे ही थोड़े ही मिल जाता है। खून का पानी हो जाता है तो कहीं पैसा देखने को मिलता है। राजपुत्र सुनकर दंग रह गया परन्तु और करता ही क्या? लाचार था।
     
    जैसे-तैसे करके दिन भर घन बजाकर रूपया लिया तथापि समझ जरूर गया कि आम गरीब जनता किस प्रकार परिश्रम कर पेट पालती है। हम सरीखे राजघराने वालें को इसका बिल्कुल भी पता नहीं है। अगर वह पण्डित ऐसा दान देने को न कहता तो मुझे भी क्या पता था कि प्रजा के लोगों का अपना, अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करने के लिए किस प्रकार कष्ट सहन करना पड़ता है? अस्तु, राजपुत्र वह रूपया ले जाकर पण्डित को देते हुए कहने लगा कि महाशय जी धन्य हैं, आपने मेरी आंखे खोल दी। पण्डित बोला, प्रभो! मुझे यह एक रूपया देकर उसके फलस्वरूप अब आप सच्चे राजा हो रहेंगे।
  2. संयम स्वर्ण महोत्सव
    बड़ा दान
     
    यद्यपि आमतौर पर लोग एक रूपया देने वाले की अपेक्षा पांच रूपये देने वाले को और पांच देने वाले की अपेक्षा पचास तथा पांच सौ देने वाले को महान दानी कहकर उसके दान की बड़ाई किया करते हैं। मगर समझदार लोगों की निगाह में ऐसी बात नहीं है क्योंकि एक आदमी करोड़पति, अरबपति जिसकी अपने खर्च के बाद भी हजारों रूपये रोजाना की आमदनी है वह आड़े हाथ भी किसी को यदि सौ रूपये दे देता है तो उसके लिए ऐसा करना कौनसी बड़ी बात है। हां, कोई गरीब भाई दिन भर मेहनत मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से कही अपना पेट पाल पाता है वह आदमी अपनी उन दो रोटियों में से आधी रोटी भी किसी भूखे को देता है तो वह उसका दान बड़ा दान है उसकी बड़ी महिमा है। वह महाफल का दाता होता है।
     
    एक समय की बात है, मैं कलकत्ते में काम किया करता था, वहां कांग्रेस का सालाना जलसा हुआ, जिसके अन्त में महात्मा गांधीजी ने कांग्रेस की सहायता करने के लिये आम जन के सम्मुख अपील रखी। जिसको लेकर किसी मकानदार ने अपना एक मकान कांग्रेस को दिया तो किसी धनवान ने लाख रूपये , किसी ने पचास हजार रूपये इत्यादि। इतने में एक खोचा मटिया आया और बोला कि महात्मा जी! मैं भी ये आठ आने पैसे जो कि दिन भर मुटिया मजूदरी करने से मुझे प्राप्त हुये हैं, देश सेवार्थ कांग्रेस के लिये अर्पण करता हूं। क्या करूं अधिक देने में असमर्थ हूं रोज मजदूरी करता हूं। और पेट पालता हूं मगर मैंने यह सोचकर कि देश सेवा के कार्य में मुझे भी शामिल होना चाहिये, यह आज की कमाई कांग्रेस की भेंट कर रहा हूं। मैं आज उपवास से रह लूंगा और क्या कर सकता हूँ?
     
    इस पर गांधीजी ने उस भाई की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और कहा था कि हमारे देश में जब ऐसे त्यागी पुरुष विद्यमान हैं तो फिर हमारे देश के स्वतंत्र होने में अब देर नहीं समझना चाहिये हमारे पुराने साहित्य में भी एक कथा आती है कि एक मेहनतिया था जो कि मेहनत करके उसके फलस्वरूप कुछ अनाज लाया और लाकर उसने उसे अपनी घरवाली को दिया ताकि वह उसे साफ सुथरा करके पीस कर उसकी रोटियां बना ले। औरत ने भी ऐसा ही किया। उसने उसकी मोटी-मोटी तीन रोटियां बनाई क्योंकि उसके एक छोटा बच्चा भी था। अत: उसने सोचा कि हम तीनों एक-एक रोटी खाकर पानी पी लेंवेगे। रोटियां बन कर जब तैयार हुई तो मरद के दिल में विचार आया कि यह कमाना और खाना तो सदा से लगा ही हुआ है और जब तक जिन्दगी है लगा ही रहेगा। हमारे बुजुर्गों ने बताया है कि कमा खाने वाले को कुछ परार्थ भी देना चाहिये तो आज तो फिर यह मेरे हिस्से की रोटी किसी अन्य भूखे को ही दे लू, मैं आज भूखा ही रह लूंगा। इतने ही में उसे एक मासोपवासी क्षीणकाय दिगम्बर परमहंस साधु दिखाई दिये। तो उन्हें देखकर वह बोला कि साधु जी ! प्रणाम, मेरे पास रूखी सूखी और बिना नोन की जौ की रोटी है मैं मनसा वाचा कर्मणा आपके लिए देना चाहता हूं। आइये और आप इसे खा लीजिये। साधु तो मन और इन्द्रियों के जीतने वाले होते हैं। सिर्फ इस शरीर से भगवद्भभजन बन जावे इस विचार को लेकर इसे चलाने के लिये कुछ खुराक दिया करते हैं। जिस पर भी उन के तो आज ऐसा ही अभिग्रह भी था। अत: उन्होंने उसकी दी हुई रोटी को अपने हाथों में ली और खड़े-खड़े ही मौनपूर्वक खा गये। इतने में औरत ने भी विचार किया कि ऐसे साधुओं के दर्शन कहां रखे हैं। हम लोगों का बड़ा भाग्य है ताकि हमारा रूखा-सूखा अन्न आज इनके उपयोग में आ रहा है। लड़के ने भी सोचा कि आहे! ये तो हम लोगों से भी गरीब दीख रहे हैं।
     
    जिनके शरीर पर बिल्कुल कपड़ा नहीं, खाने के लिये कोई पात्र नहीं, रहने को जिनका कोई घर नहीं, इनके काम में मेरी रोटी आ गई इससे भली बात और क्या होगी? इस पर देवताओं ने भी अहो! यह दान महादान है ऐसा कहते हुए आकाश में से फूल बरसाये तथा जय-जय कार किया, सो ठीक ही है। परमार्थ के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर देना ही मनुष्य जन्म पाने का फल है अन्यथा तो फिर स्वार्थ के कीच में तो सारा संसार ही फंसा हुआ दीख रहा है।
  3. संयम स्वर्ण महोत्सव
    समाधिकरण
     
    जिसने भी जन्म पाया है, जो भी पैदा हुआ है उसे मरना अवश्य होगा, यह एक अटल नियम है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक लोग इस पर परिश्रम कर के थक लिये कि कोई भी जन्म लेता है तो ठीक, मगर मरता क्यों हैं? मरना नहीं चाहिये। फिर भी इस में सफल हुआ हो ऐसा एक भी आदमी इस भूतल पर नहीं दिख पड़ा रहा है। धन्वन्तरिजी वैष्णवों के चौबीस अवतारों में से एक अवतार माने गये हैं। कहा जाता है कि जहां वे खड़े हो जाते थे, वहां की जड़ी बूटियां भी पुकार-पुकारकर कहने लगती थीं कि मैं इस बीमारी में काम आती हूं, मैं अमुक रोग को जड़ से उखाड़ डालती हूं। मगर एक दिन आया कि धन्वन्तरि खुद ही इस भूतल पर से चल बसे । जड़ी बूटिया यहीं पड़ी रहीं और धन्वन्तरि शरीर त्याग कर चले गये, उनका औषधिज्ञान इस विषय में कुछ भी काम नहीं आया।
     
    मुसलमानों में भी लुकमान जैसे हकीम हुए हैं जो कि चौदह पीरों में से एक पीर कहे जाते हैं। मगर मौत आकर उनका भी लुकमा कर देगी। जैसे सिंह हिरण को और बाज तीतर को धर दबाता है, वैसे ही मौत मनुष्यों को एवं सभी शरीरधारियों को हड़प लेती है। वह कब किसको अपना ग्रास बनायेगी यह निश्चित रूप से हम तुम सरीखा नहीं जान सकता है। अनेक लोग मौत से बचने के लिए टोणा-टामण, जन्तर-मन्तर करते हैं। ताबीज बनाकर गले में बांधते हैं। फिर भी मौत अपना दाव नहीं चूकती, समय पर आ ही दबाती है। उससे बचने के लिए शरीरधारी के पास कोई चारा है ही नहीं। ऐसी हालत में समझदार आदमी मौत से डर कर क्यों भागे; और भाग कर जावे भी कहां, उसके लिए जगह भी कहां तथा कौन-सी है जहां कि वह उससे बचा रहे? 
     
    हां, तो इसका क्या यह अर्थ है कि गले में अंगुली डाल कर मर जाना चाहिये? सो नहीं, क्योंकि ऐसा करना तो नर से नारायण बना देने वाले इस मानव शरीर के साथ विद्रोह करना है, चिन्तामणि रत्न को हथोड़े की चोट से बरबाद करना है। यह पहले दर्जे की बेसमझी है। परन्तु इसको किराये की कोठरी के समान समझते हुए रहना चाहिये। जैसे किसी को कुछ अभीष्ट करना हो और उसके पास अपना नियत स्थान न हो वह किसी किराये के मकान में रह कर अपने उस कार्य का साधन किया करता है। सिर्फ वहां पर रहकर अपना कार्य कर बताने पर दृष्टि रखता है, न कि उस मकान का मालिक ही बन बैठता है। मकान को तो मकानदार जब भी खाली करवाना चाहे करवा सकता है। यह उसे बेउजर खाली कर देने को तैयार रहता है। क्योंकि मकान उसका है। हां जब तक उसमें रहे यथा शक्य झाड़-पौंछ कर साफ-सुथरा किये रहे, यह उसकी समझदारी है। | जीवात्मा ने भी भगवान का भजन कर अपना कल्याण करने को इस शरीर रूपी कुटिया को अपना स्थान बनाया है तो इसमें रहते हुए इसके सम्मुख अनेक तरह के भले और बुरे प्रसंग आ उपस्थित होते हैं। उनमें से बुरे को बुरा मानकर उनसे दूर भागने की चेष्टा करना और भलों को भला मानकर उसके पीछे ही लगा रहना- उस उलझन में फंस जाना ठीक नहीं। किन्तु उन दोनों तरह के प्रसंगों में तटस्थ रूप से सुप्रसन्न होकर निरन्तर परम परमात्मा का स्मरण करते रहना चाहिये। फिर यह शरीर यदि कुछ दिन टिका रहे तो ठीक और आज ही नष्ट हो जावे तो भी कोई हानि नहीं, ऐसे सुप्रसिद्ध पुरुष के लिए मौत का कोई डर नहीं रह जाता, जिस मौत के नाम को सुन कर भी संसारी जीव थर-थर कांपा करते हैं।
  4. संयम स्वर्ण महोत्सव
    मौत क्या चीज है?
     
    एक सेठ था जिसके पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय से ऐहिक सुख की सब तरह की साधन-सामग्री मौजूद थी। अतः उसे यह भी पता नहीं था कि कष्ट क्या चीज होती है? उसका प्रत्येक क्षण अमन चैन से बीत रहा था। अब एक रोज उसके पड़ोसी के यहां पुत्र जन्म की खुशी में गीत गाये जाने लगे जो कि बड़े ही सुहावने थे, जिन्हें सुनकर उस सेठ का दिल भी बड़ा खुश हुआ। परन्तु संयोगवंश थोड़ी देर बाद ही वह बच्चा मर गया तो वहां पर गाने के स्थान पर छाती और मूड कूट-कूट कर रोया जाने लगा। जिसे सुनकर सेठ के मन में आश्चर्य हुआ। अतः उसने अपनी माता से पूछा कि मैया यह क्या बात है? थोड़ा देर पहिले जो गाना-गाया जा रहा था वह तो बहुत ही सुरीली आवाज में था मगर अब जो गाना गाया जा रहा है वह तो सुनने में बुरा प्रतीत हो रहा है। | माता ने कहा, बेटा! यह गाना नहीं किन्तु रोना है। थोड़ी देर पहिले जिस बच्चे के जन्म की खुशी में गीत गाये जा रहे थे वही बच्चा अब मर गया है जिसे देखकर उसके घर वाले अब रो रहे हैं सेठ दोड़ा और जहां वह बच्चा मरा हुआ पड़ा था तथा लोग रो रहे थे वहां गया। उसने उस मरे हुए बालक को देखा और खूब गौर से देखा। देखकर वह बोला कि क्या मरा है? इसका मुंह, कान, नाक, हाथ, आंखे और पैर आदि सभी तो ज्यों का त्यों है फिर आप लोग रो क्यों रहे हैं ? तब उन रोने वालों में से एक आदमी कहने लगा कि सेठ साहब आप समझते नहीं हो, तुमने दुनिया देखी नहीं है इसीलिये ऐसा कहते हो। देखो अपने लोगों का पेट कभी ऊंचा होता है और कभी नीचा लेकिन इसका नहीं हो रहा है। अपनी छाती धड़क रही है परन्तु इसकी छाती में धड़कन बिल्कुल नहीं है। मतलब कि हम लोगों के इन जिन्दा शरीरों में एक प्रकार की शक्ति है। जिससे कि जीवन के सब कार्य सम्पन्न होते हैं जिसका कि नाम है आत्मा। वह आत्मा इसके शरीर में नहीं रही है अत: यह मुर्दा यानी बेकार हो गया है। हम लोगों के शरीर में से वह निकल जाने वाली है सो किसी की दो दिन पहले और किसी की दो दिन पीछे अवश्य निकल जावेगी एवं हमारे ये शरीर भी इसी प्रकार मुर्दा बन जावेंगे, मौत पा जावेंगे।
     
    आत्मा जिसका कि वर्णन ऊपर आ चुका है जिसके कि रहने पर शरीर जिन्दा और न रहने पर मुर्दा बन जाता है और वह आत्मा अपने मूल रूप में सास्वत है, कभी भी नष्ट होने वाली है और अमूर्तिक है उसमें न तो किसी प्रकार का काला पीला आदि रूप है, न खट्टा मीठा, चरपरा आदि कोई रस है। न हलका भारी, रूखा, चिकना, ठण्डा गरम और कड़ा या नरम ही है। न खुशबूदार या बदबूदार ही है। हां सिर्फ चेतनावान है, हरेक चीज के गुण दोषों पर निगाह करने वाला है। जिसमें अवगुण समझता है उनसे दूर रहकर गुणवान के पीछे लगे रहना चाहता है। यह इसकी अनादि की टेव है जिसकी वजह से नाना तरह की चेष्टाएं करने लग रहा है। उन चेष्टाओं का नाम ही कर्म हे। उन कर्मों की वजह से ही शरीर से शरीरान्तर धारण करता हुआ चला आ रहा है, इसी का नाम संसार चक्र है।
     
    संसार चक्र में परिभ्रमण करता हुआ आत्मा इतर जीवात्मा को कष्ट देने वाला बनकर नरक में जन्म लेता है तो वहाँ स्वयं अनेक प्रकार के घोर कष्ट सहन करता है। अपने ऐश आराम की सोचते रहकर छल वृत्ति करने वाला पशु या पक्षी बनता है तो वहां अपने से अधिक बलशाली अन्य प्राणियों द्वारा बञ्चना पूर्वक कष्ट उठाता है। हां, अगर औरों के भले की सोचता है तो उसके फलस्वरूप स्वर्ग में जन्म लेकर सुख साता का अनुभव करने वाला बनता है। परन्तु संतोष भाव से अपना समय बिताने वाला मानव बनता है। इस मानव जन्म में अपने आपके उद्धार का मार्ग यदि वह चाहे तो ढूंढ निकाल सकता है। लेकिन अधिकांश जीवात्मा तो मानव जन्म पाकर भी मोह माया में ही फंसे रहते है। इस शरीर के संबंधियों को अपना संबंधी मानकर मानकर उनमें मेरामेरा करने वाला और बाकी के दूसरों को पराये मानकर उनसे नफरत करने वाला होकर रहता है।
     
    कोई विरला ही जीव ऐसा होता है जो कि शरीर से भी अपने आप (आत्मा) को भिन्न मानता है एवं जब कि आप इस शरीर से तथा इतर सब पदार्थों से भी भिन्न है। ऐसी हालत में पराये गुण दोषों पर लुभाने से क्या हानि लाभ होने वाला है। पराये गुण दोष पर में होते हैं उनसे इसका क्या सुधार बिगाड़ हो सकता है? क्यों व्यर्थ ही उनके बारे में संकल्प विकल करके अपने उपयोग को भी दूषित बनावे? तटस्थ हो रहता है। उसके लिये फिर इस संसार में न कोई भी सम्पत्ति ही होती है और न कोई विपत्ति ही, वह तो सहज तथा सच्चिदानन्द भाव को प्राप्त हो रहता है।
     
    समता के द्वारा ममता को मिटा डालता है। क्षमा से क्रोध का अभाव कर देता है। विनीत वृत्ति के द्वारा मान का मूलोच्छेद कर फेंकता है। अपना तन, मन और वचन से प्राप्त किये हुये सरल भाव से कपट को पास में भी नहीं आने देता है और निरीहता के द्वारा लोभ पर विजय प्राप्त कर्म निजयी बन कर आत्मा से परमात्मा हो लेता है फिर सूके हुये घाव पर खरूंट की भांति उसका यह शरीर भी अपने समय पर उससे अपने आप दूर हो जाता है। आगे लिये फिर कभी शरीर धारण नहीं करना पड़ता।
     
    ॥ ॐ शान्ति॥
    यही एक कर्त्तव्य है सुखी बने सब लोग।
    रोग शोक दुर्भोग का कभी न होवे योग ।
    यही एक कर्तव्य है कहीं न हो संत्रास।
    किसी जीव के चित्त में, सब ले सुख की सांस ।
     यही एक कर्तव्य है कभी न हो दुष्काल।
    भूप और अनुरूप भी सभी रहें खुशहाल।
    इति शुभं भूयात्
  5. संयम स्वर्ण महोत्सव
    महाराजा रामसिंह
     
    महाराजा रामसिंह जयपुर स्टेट के एक प्रसिद्ध भूपाल हो गये हैं। जो कि एक बार घोड़े पर बैठकर अकेले ही घूमने को निकल पड़े। घूमते-घूमते बहुत दूर जंगल में पहुँच गये तो दोपहर की गर्मी से उन्हें प्यास लग आई। एक कुटिया के समीप पहुँचे जिसमें बुढ़िया अपनी टूटी सी चारपाई पर लेटी हुयी थी। बुढ़िया ने जब उन्हें अपने द्वार पर आया हुआ देखा तो वह उनके स्वागत के लिए उठ बैठी और उन्हें आदर के साथ चारपाई पर बैठाया। राजा बोले कि माताजी मुझे बड़ी जोर से प्यास लग रही है अत: थोड़ा पानी हो तो पिलाइये। बुढिया ने अतिथि सत्कार को दृष्टि में रखते हुए उन्हें निरा पानी पिलाना उचित न समझा।
     
    इसलिये अपनी कुटिया के पीछे होने वाले अनार के पेड़ पर से दो अनार तोड़कर लायी और उन्हें निचोड़ कर रस निकाला तो एक डबल गिलास भर गया जिसे पीकर राजा साहब तृप्त हो गये। कुछ देर बाद उन्होंने बुढ़िया से पूछा- तुम इस जंगल में क्यों रहती हो तथा तुम्हारे कुटुम्ब में और कौन हैं? जवाब मिला कि यहां जंगल में भगवान भजन अच्छी तरह से हो जाता है। मैं हूं और मेरे एक लड़का है जो कि जलाने के लिये जंगल में लकड़ियां काट लाने को गया हुआ है। यह जमीन जो मेरे पास बहुत दिनों से है पहले ऊसर थी अतः सरकार से दो आने बीघे पर मुझे मिल गई थी। जिसको भगवान के भरोसे पर परिश्रम करके हमने उपजाऊ बना ली है। अब इसमें खेती कर लेते हैं जिससे हम दोनों मां बेटों का गुजर बसर हो जाता है एवं आए हुए आप सरीखे पाहुणे का अतिथि सत्कार बन जाता है। यह सुन राजा का मन बदल गया। सोचने लगे ऐसी उपजाऊ जमीन क्यों दो आने बीघे पर छोड़ दी जाये। बस फिर क्या था उठकर चल दिये और जाकर दो रुपये बीघे का परवाना लिखकर भेज दिया। अब थोड़े ही दिनों में अनार के जो पेड़ उस खेत में लगाये हुए थे वे सब सूखे से हो गये और वहां पर अब खेती की उपज भी बहुत थोड़ी होने लगी। बुढ़िया बेचारी क्या करें लाचार थी।
     
    कुछ दिन बाद महाराज रामसिंह फिर उसी घोड़े पर सवार होकर उधर से आ निकले। बुढ़िया बेचारी क्या करें लाचार थी। कुछ दिन बाद महाराज रामसिंह फिर उसी घोड़े पर सवार होकर उधर से आ निकले। बुढ़िया की कुटिया के पास आ ठहरे तो बुढ़िया उनका सत्कार करने के लिये पेड़ पर से अनार तोड़कर लाई परन्तु उन्हें बिंदाकर देखा तो बिल्कुल शुष्क, काने कीड़ोंदार थी। अतः उन्हें फेंक कर और अच्छे से फल तोड़कर लाई तो उनमें से भी कितने ही तो सड़े गले निकल गये। तीन चार फल जरा ठीक थे। उन्हें निचोड़ा तो मुश्किल से आधा गिलास रस निकल पाया। यह देखकर महराज रामसिंह झट से बोल उठे कि माताजी ! दो तीन वर्ष पहले जब मैं यहां आया था तो तुम्हारे अनार बहुत अच्छे थे, दो अनारों में से ही भरा गिलास रस का निकल आया था। अब की बार यह क्या हो गया? बुढ़िया ने जवाब दिया कि असवारजी! क्या कहूं? निगोड़े राजा की नीयत में फर्क आ गया, उसी का यह परिणाम है। उसे क्या पता था कि जिससे मैं बात कर रही हूं वह राजा ही तो है। वह तो उन्हें एक साधारण घुड़सवार समझकर सरल भाव से ऐसा कह गई ।
     
    राजा समझ गये कि बुढ़िया ने अपने परिश्रम से जिस जमीन को उपजाऊ बनाया था उस पर तुमने अपने स्वार्थवश हो अनुचित कर थोप दिया, यह बहुत बुरा किया। बन्धुओ! जहां सिर्फ जमीनदार की बुरी नियत का यह परिणाम हुआ वहां आज जमीनदार और काश्तकार दोनों ही प्राय: स्वार्थवश हो रहे हैं। ऐसी हालत में जमीन यदि अन्न उत्पन्न करने से मुंह मोड़ रही है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? हम देख रहे हैं कि हमारे बाल्यजीवन में जिस जमीन में पच्चीस-तीस मन बीघे का अन्न पैदा हुआ करता था वही आज प्रयत्न करने पर भी पांच छ: मन बीघे से अधिक नहीं हो पाता है। जिस पर भी आये दिन कोई न कोई उपद्रव आता हुआ सुना जाता है। कहीं पर टिड्डियां आकर खेत को खा गई तो कहीं पानी की बाढ़ आ गई या पाला पड़कर फसल नष्ट हो गई इत्यादि यह सब हम लोगों की ही दुर्भावनाओं का ही फल है। यदि हम अपने स्वार्थ को गौण करके सिर्फ कर्तव्य समझकर परिश्रम करते रहे तो ऐसा कभी नहीं सकता।
  6. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ज्ञानाष्टक
     
    इस भद्र भारतवर्ष में, थे ज्ञान में नेता गुरू।
    इस लोक में सबसे अधिक, स्वाधीनता रखते गुरू॥
    स्वाधीनता ही सन्त का, भूषण बना इस लोक में।
    इस लोक में परलोक में, सब लोक में दिखते गुरू ॥१॥
     
    थे ज्ञानासागर पूज्य गुरुवर, आन जिनकी ज्ञान थी।
    उन ज्ञान ने उस ज्ञान से, ज्योति जगायी ज्ञान थी।
    जिस ज्योति ने लाखों जगायी, ज्योतियाँ अब ज्ञान की।
    जलती रहेगी ज्योति नित, अब ज्ञान की उर ध्यान की ॥ २ ॥
     
    जिनके न मन में राग था, न द्वेष रखते थे कभी।
    उनके चरण में ढोक देते, आर्य जन तो आज भी॥ 
    आजाद थे आजाद वे कल आज भी आजाद हैं।
    मैं भी करूं बन्दन उन्हीं का, ज्ञानधारी ज्ञान हैं॥ ३ ॥
     
    फैली जगत की भ्रान्तियों का, आप हो निरसन किये।
    भारत में सोये ज्ञान की, ज्योति जगाकर चल दिये। |
    होते कहीं जो आज गुरुवर, देश के भू-भाग में ।
    तो देश का कुछ और का कुछ और होता वेश था॥ ४॥
     
    वे सौम्य मुद्रा ज्ञान गुरुवर, ज्ञानधारी ये रहे।
    कोई विषय उनसे छिपा हो, बात ऐसी न कहे ।|
    हस्तामलक वत ही उन्हें, सारा विषय प्रत्यक्ष था।
    कोई कहीं से पूछ जाये, पर न पारावार था॥५॥
     
    ऐसे गुरु की ज्ञान महिमा, वाणी कहे थकती नहीं।
    महिमा कहूं कहता चलू, कहता रहूं, गुरु आपकी॥
    मेरे हृदय में बसे रहे, वो ज्ञान के सागर गुरु।
    जग में तुम्हारा नाम होवे, काम होवे मम गुरु ॥ ६ ॥
     
    साधु तुम्हारी लोक में करते प्रशंसा नित्य है।
    जो ज्ञान में उर ध्यान में, तल्लीन तत्पर नित्य हैं।
    इस लोक में परलोक में, जयवन्त गुरुवर ज्ञान हो।
    ऐसी हमारी भावना, शिव लोक में जयवन्त हो ॥ ७ ॥
     
    वे ही चरण हैं वास करते, नित्य ही इस दास में।
    उस वास से इस 'दास' में आती नयी है चेतना ॥
    हे ज्ञानासागर मम गुरुवर, आये थे तारण तरण।
    जय हो तुम्हारी प्राण प्यारे, ज्ञानासागर, ज्ञानासागर ॥ ८ ॥
  7. संयम स्वर्ण महोत्सव
    आचार्य श्री का संयम स्वर्ण महोत्सव 5 तारीख को भट्टारक जी की नसिया में पूरे जयपुर की महिलाओं का मनाया गया 
  8. संयम स्वर्ण महोत्सव
    विद्या वाणी प्रतियोगिता
    दिनांक 8 जुलाई 2018
    स्वाध्याय करे : विद्या देशना > प्रकाशित प्रवचन 
    स्वाध्याय का लिंक
    https://vidyasagar.guru/pravachan/sankalan/
    आप इस प्रतिओयोगिता में 10 जुलाई तक भाग ले सकेंगे
    प्रतियोगिता प्रारंभ
    https://vidyasagar.guru/pratiyogita/vidhyavaani/
     
  9. संयम स्वर्ण महोत्सव
    विचार सूत्र प्रतियोगिता 
    दिनांक 7 जुलाई 2018
    स्वाध्याय करे : विद्या देशना > विचार सूत्र > परमार्थ देशना 
    स्वाध्याय का लिंक
    https://vidyasagar.guru/quotes/?show=categories
    आप इस प्रतिओयोगिता में 9 जुलाई तक भाग ले सकेंगे

    प्रतियोगिता प्रारंभ
    https://vidyasagar.guru/pratiyogita/vichaar-sutra/
     
  10. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सामाजिक सुधार के बारे में हम आज बताते हैं।
    जो इसके सच्चे आदी उनकी गुण गाथा गाते हैं।
    व्यक्ति व्यक्ति मिल करके चलने से ही समाज होता है।
    नहीं व्यक्तियों से विभिन्न कोई समाज समझौता है॥ १५॥
     
    सह निवास तो पशुओं का भी हो जाता है आपस में।
    एक दूसरे की सहायता किन्तु नहीं होती उनमें॥
    इसीलिए उसको समाज कहने में सभ्य हिचकते हैं।
    कहना होती समाज नाम, उसका विवेक युत रखते हैं॥१६॥
     
    बूंद बूंद मिलकर ही सागर बन पाता है हे भाई।
    सूत सूत से मिलकर चादर बनती सबको सुखदाई॥
    है समाज के लिए व्यक्ति के सुधार की आवश्यकता।
    टिका हुआ है व्यक्ति रूप पैरों पर समाज का तख्ता॥ १७॥
     
    यदि व्यक्तियों का मानस उन्नतपन को अपनावेगा।  
    समाज अपने आप वहाँ फिर क्यों न उच्च बन पावेगा।
    इसीलिए यदि समाज को हम, ठीक रूप देना चाहें।
    तो व्यक्तित्व आपके से लेनी होगी समुचित राहें ॥१८॥
     
    नहीं दूसरे को सुधारने से सुधार हो पाता है।
    अपने आप सुधरने से फिर सुधर दूसरा जाता है।
    खरबूजे को देख सदा खरबूजा रंग बदलता है।
    अनुकरणीयपने के द्वारा पिता पुत्र में ढलता है ॥१९॥
     
    पानी को जिस रुख का ढलाव मिलता है बह जाता है।
    जन समूह भी जो देखे वैसा करने लग पाता है।।
    यदि हम सोच करें समाज का समाज अच्छे पथ चाले।
    तो हम पहले अपने जीवन में, अच्छी आदत डालें ॥२०॥
     
    मैं हूँ सुखी और की मेरे, को क्या पड़ी यही खोटी।
    बात किन्तु हों सभी सुखी, यह धिषणा होवे तो मोटी॥
    विज्ञ पुरुष निज अन्तरंग में, विश्व प्रेम का रंग भरे।
    सबके जीवन में मेरा जीवन है ऐसा भाव धरे ॥२१॥
     
    अनायास ही जनहित की बातों पर सदा विचार करे।
    भय विक्षोभ लोभ कामादिक दुर्भावों से दूर टरे॥
    आशीर्वाद बडों से लेकर बच्चों की सम्भाल करे।
    नहीं किसी से वैर किन्तु सब जीवों में समभाव धरे ॥२२॥
     
    क्योंकि अकेला धागा क्या गुह्याच्छादन का काम करे।
    तिनका तिनके से मिलकर पथ के काँटों को सहज हरे॥
    यह समाज है सदन तुल्य इसमें आने जाने वाले।
    लोगों के पैरों से उसमें कूड़ा सहज सत्त्व पाले ॥२३॥
     
    जिसको झाड़ पोछकर उसको सुन्दर साफ बना लेना।
    नहीं आज का काम सदा का उसको दूर हटा देना॥
    किन्तु यह हुआ पूर्व काल में संयमी जनों के कर से।
    जिनका मानस ढका हुआ होता था सुन्दर सम्वर से ॥२४॥
     
    इसीलिए वे समझ सोचकर इस पर कदम बढ़ाते थे।
    पाप वासनाओं से इसको, पूरी तरह बचाते थे।
    किन्तु आज वह काम आ गया, हम जैसों के हाथों में।
    फँसे हुए जो खुद हैं भैया, दुरभिमान की घातों में ॥२५॥
     
    तलाक जैसी बातों का भी, प्रचार करने को दौड़े।
    आज हमारी समाज के नेताओं के मन के घोड़े॥
    तो फिर क्या सुधार की आशा, झाडू देने वाला ही।
    शूल बिछावे उस पथ पर क्यों, चल पावे सुख से राही ॥२६॥
     
    साथी हो तो साथ निभावे क्यों फिर पथ के बीच तजे।
    दुःख और सुख में सहाय हो, वीर प्रभु का नाम भजे॥
    यही एक सामाजिकता की, कुंजी मानी जाती है।
    बढ़ा प्रेम आपस में समाज को, जीवित रख पाती है॥२७॥
     
    एक बात है और सुनो, हम चाहे अनुयायी करना।
    तो उनको पहले बतलावे, ऐहिक कष्टों का हरना॥
    प्यासे को यदि कहीं दीख, पावे सहसा जल का झरना।
    पहले पीवेगा पानी फिर, पीछे सीखेगा तरना ॥२८॥
     
    गाड़ी को हो वाङ्ग वगैरह, ताकि न कहीं अटक जावे।
    तथा ध्यान यह तो गढे में गिर करके न टूट पावे॥
    वैसे ही समाज संचालक, पाप पंक में नहीं फँसे।
    आवश्यकता भी पूरी हो, ताकि समय बीते सुख से ॥२९॥
  11. संयम स्वर्ण महोत्सव
    ईंट और मिट्टी चूने आदिक से बना न घर होता।
    वह तो विश्राम स्थल केवल जहाँ कि तनुधारी सोता॥
     
    किन्तु स्त्रीसुत पितादिमय कौटाम्बिक जीवन ही घर है।
    इसमें मूल थम्भ नर नारी वह जिन के आधार रहें ॥८९॥
     
    कल्पवृक्ष की तुल्य घर बना जिस का तना वना नर है।
    नारी जिस की छाया आदिक जिसके ये सुफलादिक है॥
    नारी का हृदयेश्वर नर तो वह भी उसका हृदय रहे।
    वह उसको सर्वस्व और वह उसको जीवन सार कहे॥९०॥
     
    वह उसके हित प्राण तजे तो वह उसका हित चिन्तक हो।
    दोनों का हो एक चित्त स्वप्न में भी विद्रोह न हो।
    प्रशस्यता सम्पादक नर हो मदिर और नारीशम्पा।
    जहाँ विश्व के लिए स्फुरित होती हो दिल में अनुकंपा ॥९१॥
     
    लक्ष्मी किसी भांति भामिनी सदा अतिथि सत्कार करे।
    माधव तुल्य मनुष्य शरण आये के संकट सभी हरे॥
    न दीन होकर रहे मनुज मुक्ता मयता को अपनावे।
    सानुकूलता से सरिता ज्यों जनी सरसता दिखलावे ॥९२॥
  12. संयम स्वर्ण महोत्सव
    एक रोज वह था कि नहीं भारत में कही भिखारी था।
    निजभुज से स्वावश्यकता पूरण का ही अधिकारी था॥
    बेटा भी बाप की कमाई खाना बुरी मानता था।
    अपने उद्योग से धनार्जन, करना ठीक जानता था ॥८१॥
     
    जिनदत्तादि सरीखे धनिक सुतों का स्मरण सुहाता है।
    जिनकी गुण गाथाओं का वर्णन शास्त्रों में आता है॥
    सब कोई निज धन को देखा परार्थ देने वाला था।
    किन्तु नहीं कोई भी उसका मिलता लेने वाला था॥ ८२॥
     
    क्योंकि मनुज आवश्यकता से अधिक कमाने वाला था।
    कौन किसी भाई के नीचे पड़ कर खाने वाला था।
     
    इसीलिए चोरी जारी का यहाँ जरा भी नाम न था।
    निर्भय होकर सोया करते ताले का तो काम न था ॥८३॥
     
    ईति भीति' से रहित सुखप्रद था इसका कोना कोना।
    कौन उठाने लगा कही भी पड़ा रहो किसका सोना॥
    जनधन से परिपूर्ण यहाँ वालों की मृदुतम रीति रही।
    सदा अहिंसा मय पुनीत भारत लालों की नीति सही ॥८४॥
     
    आज हमारे उसी देश का हाल हुआ उससे उलटा।
    मानो वृद्धावस्था में हो चली अहो नारी कुलटा॥
    दिन पर दिन हो रही दशा सन्तोष भाव में खूनी है।
    अब हरेक की आवश्यकता आमदनी से दूनी है ॥८५॥
     
    इसीलिए बढ़ रही परस्पर लूट मार मदमत्सरता।
    विरले के ही मन में होती इतर प्रति करुणा परता॥
    अतः प्रकृति देवी ने भी अपना है अहो कदम बदला।
    आये दिन आया करती है, यहाँ एक से एक बला ॥८६॥
     
    कही समय पर नीर नहीं तो कही अधिक हो आता है।
    पकी पकाई खेती पर भी तो पाला पड़ जाता है।
    जल का बन्ध भङ्ग हो करके कहीं बहा ले जाता है।
    अथवा आग लग जाने से भस्म हुआ दिखलाता है॥८७॥
     
    हैजा कहीं कहीं मारी या, मलेरिया ज्वर का डर है।
    यों इसमें सब और से अहो, विपल्व होता घर घर है॥
    देश प्रान्तमय प्रान्त नगरमय नगर घरों का समूह हो।
    इसीलिए घर की बावत में इतला देना आज अहो ॥८८॥
  13. संयम स्वर्ण महोत्सव
    समाज के हैं मुख्य अंग दो श्रमजीवी पूंजीवादी।
    इन दोनों पर बिछी हुई रहती है समाज की गादी॥
    एक सुबह से संध्या तक श्रम करके भी थक जाता है।
    फिर भी पूरी तोर पर नहीं, पेट पालने पाता है ॥६९॥
     
    कुछ दिन ऐसा हो लेने पर बुरी तरह से मरने को।
    तत्पर होता है अथवा लग जाता चोरी करने को॥
    क्योंकि बुरा लगता है उसको भूखा ही जब सोता है।
    भूपर भोजन का अभाव यों अनर्थ कारक होता है ॥७०॥
     
    यह पहले दल का हिसाब, दूजे का हाल बता देना।
    कलम चाहती है पाठक उस पर भी जरा ध्यान देना॥
     
    उसके पैरों में तो यद्यपि लडडू भी रुलते डोले।
    खाकर लेट रहे पलङ्ग पर दास लोग पंखा ढोले ॥७१॥
     
    फिर भी उसको चैन है न इस फैसनेविल जमाने में।
    क्योंकि सभी चीजें कल्पित आती हैं इसके खाने में॥
    जहाँ हाथ से पानी लेकर पीने में भी वहाँ है।
    भारी लगता कन्धे पर जो डेढ़ छटांक दुपट्टा है ॥७२॥
     
    कुर्सी पर बैठे हि चाहिये सजेथाल का आ जाना।
    रोचक भोजन हो उसको फिर ठूंस ठूंस कर खा जाना॥
    चूर्ण गोलियों से विचार चलता है उस पचाने का।
    कौन परिश्रम करे जरा भी तुनके हिला डुलाने का ॥७३॥
     
    हो अस्वस्थ खाट अपनाई तो फिर वैद्यराज आये।
    करने लगे चिकित्सा लेकिन कड़वी दवा कौन खाये॥
    यों अपने जीवन का दुश्मन आप अहो बन जाता है।
    अपने पैरों मार कुल्हाड़ी मन ही मन पछताता है ॥७४॥
     
    एक शिकार हुआ यों देखों खाने को कम मिलने का।
    किन्तु दूसरा बिना परिश्रम ही अतीव खा लेने का॥
    बुरा भूख से कम खाने को मिलना माना जाता है।
    वहीं भूख से कुछ कम खाना ठीक समझ में आता है॥७५॥
     
    चार ग्रास की भूख जहाँ हो तो तुम तीन ग्रास खावो।
    महिने में उपवास चतुष्टय कम से कम करते जावो॥
    इस हिस्से से त्यागी और अपाहिज लोगों को पालो।
    और सभी श्रम करो यथोचित ऐसे सूक्त मार्ग चालो ॥७६॥
     
    तो तुम फलो और फूलो नीरोग रहो दुर्मद टालो।
    ऐसा आशीर्वाद बड़ों का सुनलो हे सुनने वालो॥
     
    स्वोदर पोषण की निमित्त परमुख की तरफ देखना है।
    कुत्ते की ज्यों महा पाप यों जिनवर की सुदेशना है॥ ७७॥
     
    फिर भी एक वर्ग दीख रहा शशी में कलंक जैसा है।
    हष्ट पुष्ट होकर भी जिस का भीख मांगना ऐसा है॥
    उसके दुरभियोग से सारी प्रजा हमारी दु:खी है।
    वह भी अकर्मण्यपन से अपने जीवन में असुखी है॥ ७८॥
     
    हन्त सुबह से झोली ले घर घर जा नित्य खड़ा होना।
    अगर नहीं कोई कुछ दे तो फूट फूट कर के रोना॥
    यों काफी भर लाना, खाना बाकी रहे बेच देना।
    सुलफा गांजा पी, वेश्या बाजी में दिलचस्पी लेना॥७९॥
     
    ऐसे लोगों को देना भी काम पाप का बतलाया।
    मांग मांग पर वित्तार्जन करना ही जिनके मन भाया॥
    क्योंकि इन्हीं बातों से पहुँचा भारत देश रसातल को।
    आज हुआ सो हुआ और अब तो बतलायेंगे कल को॥८०॥
  14. संयम स्वर्ण महोत्सव
    व्यायाम के अनन्तर ही भोजन कर लेना ठीक नहीं।
    नहीं भोजनानन्तर ही व्यायाम तथा यों गई कही।
    प्रायः निश्चित वेला पर ही भोजन करना कहा भला।
    वरना पाचन शक्ति पर अहो आ धमके गी बुरी बला॥६४॥
     
    बिलकुल कम खाने से शरीर में दुर्बलता है आती।
    किन्तु खूब खा लेने से भी अलसतादि आधि सताती॥
     
    ब्रह्मचारियों का तो भोजन, हो मध्याह्न समय काही।
    शाम सुबह दो बार गेहि लोगों का होता सुखदाई ॥६५॥
     
    किन्तु सुबह के भोजन से, अन्थउ की मात्रा हो आधी।
    ताकि सहज में पच जावे वह, नहीं देह में हो व्याधि ॥
    नहीं किसी के साथ एक भोजन में भी भोजन करना।
    वरना संक्रामकता के वश में होकर होगा मरना ॥६६॥
     
    सीझा हुआ अन्न वासी होने पर ठीक नहीं होता।
    भीजा, सड़ा, गला खाने से भी आरोग्य रहे रोता॥
    निरन्न पानी पीने से नर जलोदरी हो जाते हैं।
    प्यास मारकर खाने से गुल्मादिक रोग सताते हैं ॥६७॥
     
    हाथ पैर एवं मुंह धोकर एक जगह स्थिरता धरके।
    भोजन करो अन्त में मुँह को शुद्ध करो कुल्ला करके॥
    तब फिर सहज चाल से कुछ दूरी तक कदम चला लेना।
    ऐसे इस अपने साथी शरीर को मदु खुराक देना ॥६८॥
  15. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सात्विकता में द्रव्य देश या काल भाव की विवेच्यता।
    द्रव्य निरामिष निर्मदकारक हो वह ठीक हुआ करता॥
    विहार आदिक में भातों का खाना ही अनुकूल कहा।
    मारवाड़ में नहीं, वहाँ तो मोठ और बाजरा अहा ॥५९॥
  16. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सुख स्वास्थ्य मूलक होता जिसका इच्छुक है तनधारी।
    चैन नहीं रुग्ण को जरा भी यद्यपि हों चीजें सारी॥
    रोग देह में हुआ गेह यह नीरस ही हो जाता है।
    देखे जिधर उधर ही उसको अन्धकार दिखलाता है ॥५६॥
  17. संयम स्वर्ण महोत्सव
    देखो सोमदेव ने अपने नीति सूत्र में अपनाया।
    जहाँ कि होवे सहस्त्रांशु का, समुदय होने को आया॥
    शय्या से उठते ही राजा, पहले गो दर्शन करले।
    तब फिर पीछे प्रजा परीक्षण, में दे चित्त पाप हरले ॥५२॥
     
    अहो पुरातनकाल में रहा, पशु पालन पर गौरव था।
    हर गृहस्थ के घर में होता, पाया जाता गोरव था॥
    किसी हेतु वश अगर गेह में, नहीं एक भी गो होती।
    भाग्यहीन अपने को कहकर, उसकी चित्तवृत्ति रोती ॥५३॥
  18. संयम स्वर्ण महोत्सव
    मनोनियन्त्रण सात्त्विक भोजन यथाविधि व्यायाम करे।
    वह प्रकृति देवी के मुख से सहजतया आरोग्य वरे॥
    इस अनुभूत योग को सम्प्रति मुग्ध बुद्धि क्यों याद करे।
    इधर उधर की औषधियों में तनु धन वृष बर्बाद करे॥५७॥
     
    मन के विकार मदमात्सर्य क्रोध व्यभिचारादिक हैं।
    नहीं विकलता दूर हटेगी, जब तक ये उद्रित्त्क रहें।
    देखों काम ज्वर को वैद्यक में कैसा बतलाया है।
    जिसमें फँसकर कितनों ही ने, जीवन वृथा गमाया है॥५८॥
  19. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सूर्योदय से घण्टे पीछे, घण्टे पहले दिनास्त से।
    भूख लगे जोर से तभी खाना निश्चित यह आगम से॥
    अरविकाल में भोजन करना मनुज देह के विरुद्ध है।
    जो कि रात्रि में भोजन करता उसको कहा निशाचर है॥६०॥

    मिट्टी कंकर आदि से रहित योग्य रीति से बना हुआ।
    यथाभिरूचि खाया जावे वह जिस का दुर्जर भाव मुवा॥
  20. संयम स्वर्ण महोत्सव
    पवित्र मानव जीवन प्रतियोगिता 
    दिनांक 6 जुलाई 2018
    स्वाध्याय करे : Browse Apps > Blogs > पवित्र मानव जीवन
     
    स्वाध्याय का लिंक
     
    आप इस प्रतिओयोगिता में 8 जुलाई तक भाग ले सकेंगे
    प्रतियोगिता प्रारंभ
     
    https://vidyasagar.guru/pratiyogita/pavitra-maanva-jeewan/
     
  21. संयम स्वर्ण महोत्सव
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    पूज्य आचार्य भगवन ससंघ का हुआ मंगल विहार।

    आज 28 जून अभी 3 बजे परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का मंगल विहार, टीकमगढ़ से अतिशय क्षेत्र श्री बंधा जी की ओर हुआ।
    ◆ आज रात्रि विश्राम: रमपुरा (11 किमी)
    ◆ कल की आहार चर्या: दिगौड़ा सम्भावित (रमपुरा से 13 किमी)
    ■ आचार्यसंघ की अगवानी करेंगे मुनि संघ।
    पूज्य मुनिश्री अभय सागर जी महाराज ससंघ का बरुआ सागर से हुआ मंगल विहार। परसों 30 जून को प्रातःकाल पूज्य आचार्यसंघ की भव्य अगवानी करेंगे, पूज्य मुनिश्री अभय सागर जी ससंघ। वर्षो के अंतराल के उपरांत करेंगे गुरु दर्शन, मिलेंगे गुरुचरण।
     
     
     
    भव्य मंगल प्रवेश
    नन्दीश्वर कालोनी टीकमगढ़

             ???
    श्रीमद आचार्य भगवंत श्री विद्यासागर जी महाराज का बालयति संघ सहित भव्य मंगल प्रवेश नन्दीश्वर जिनालय टीकमगढ़ में आज 28 जून गुरुवार को प्रातः वेला में हुआ । 
           गत वर्ष नन्दीश्वर कालोनी में आर्यिका माँ विज्ञानमती माता जी ससंघ वर्षायोग सम्पन्न हुआ था। आर्यिका संघ के सानिध्य में त्रिकाल चौवीसी जिनालय का भूमिपूजन किया गया था।
     


    ????????
     
     
    ?विद्या गुरु का मंगल विहार?
    संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का अभी अभी ६.४० मिनट पर अतिशय क्षेत्र पपौरा जी से टीकमगढ़ के लिए हुए मंगल विहार
    आहरचार्य ??टीकमगढ़ संभावित

     
  22. संयम स्वर्ण महोत्सव
    परम पूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के दीक्षा के 50 वर्ष पूर्ण होने पर उनकी दीक्षा स्थली अजमेर में परम पूज्य मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज के मंगल आशीर्वाद एवं प्रेरणा से संस्थापित 71 फुट ऊंचा भव्य कीर्ति स्तंभ का लोकार्पण हुआ |
     
    जैन समाज के श्रेष्ठी पाटनी परिवार (आर के मार्बल्स समूह) को इस कीर्ति स्तम्भ के पुण्यार्जन का लाभ मिला ।
     
     

     
    कीर्ति स्तम्भ के साथ अन्य  लोकार्पण: 
    बड़ा दड़ा संयम स्वर्ण भवन का भी लोकार्पण हुआ  डाक टिकिट हुआ जारी   आचार्य श्री के हायकू एवं विचारों पर विशेष डायरी   
    इस सम्पूर्ण कार्यक्रम को आप यहाँ देख सकते हैं :
     
     
     
    समाज में आरके मार्बल जैसे परिवार की जरुरत-जैन मुनि सुधासागर। नारेली तीर्थ का मुख्य द्वारा आचार्य विद्यासागर महाराज के नाम से बनेगा। स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल होगा जीवन चरित्र 30 जून को अजमेर के महावीर सर्किल के निकट पंचायत बड़ धड़ा की नसिया के परिसर में आचार्य विद्यासागर महाराज के 71 फिट ऊंचे कीर्ति स्तंभ का लोेकार्पण जैन मुनि सुधासागर महाराज ने किया। इसी स्थान पर 50 वर्ष पूर्व आज के दिन ही बालक विद्यासागर ने आचार्य ज्ञान सागर महाराज से दीक्षा ग्रहण की थी। इस स्तंभ पर कोई 2 करोड़ रुपए की राशि खर्च हुई है। कीर्ति स्तंभ का सम्पूर्ण निर्माण कार्य आरके मार्बल और वंडर सीमेंट के मालिक अशोक पाटनी की ओर से करवाया गया है। इसलिए लोकार्पण समारोह में पाटनी परिवार के सदस्यों का अभिनंदन भी किया गया। सुधासागर महाराज ने कहा कि पैसा तो बहुत लोगों के पास होता है। लेकिन ऐसे लोग कम होते हैं जो धर्म के कार्यों पर खर्च करते है। आचार्य विद्या सागर महाराज के कीर्ति स्तंभ का निर्माण कर अशोक पाटनी ने अजमेर के धार्मिक महत्व को और बढ़ाया है। आज समाज में पाटनी परिवार जैसों की जरुरत है। अशोक पाटनी ने बिना कहे कीर्ति स्तंभ का निर्माण कर समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत किया है। अब अजमेर आने वाले लोग इस कीर्ति स्तंभ का अवलोकन भी करेंगे। इस अवसर पर पाटनी का कहना रहा कि मैं आज जो कुछ भी हंू उसके पीछे आचार्य विद्यासागर महाराज और जैन मुनि सुधासागर महाराज का आशीर्वाद है।
     
    नारेली तीर्थ का द्वारः  समारोह में अजमेर प्राधिकरण के अध्यक्ष शिव शंकर हेड़ा ने घोषणा की कि नारेली तीर्थ स्थल का मुख्य द्वार आचार्य विद्या सागर महाराज के नाम पर बनाया जाएगा। द्वार के निर्माण का कार्य प्राधिकरण करेगा। वहीं स्कूली शिक्षा मंत्री देवनानी ने कहा कि अगले शिक्षा सत्र में आचार्य विद्यासागर महाराज की जीवनी को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।
    (एस.पी.मित्तल) (30-06-18)
     

     
  23. संयम स्वर्ण महोत्सव
    मुंबई. 4 जुलाई 2018.
    सुप्रसिद्ध जैन संत आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की दीक्षा के 50 वें वर्ष को  देशभर का जैन समाज ‘संयम स्वर्ण महोत्सव’ के रूप में पिछले एक वर्ष से विभिन्न आयोजनों के माध्यम से मना रहा है, इसी कड़ी में पिछले वर्ष ‘राष्ट्रीय संयम स्वर्ण महोत्सव समिति’ ने जुलाई २०१७ में “संयम स्वर्ण महोत्सव वर्ष २०१७-१८” के अंतर्गत हरित जैन तीर्थ अभियान का संकल्प पारित किया था और लक्ष्य रखा था कि अगले 5 वर्षों में प्रमुख तीर्थ स्थानों पर 5 लाख पेड़ लगाए जाएँगे ।  इस अभियान के अंर्तगत अनेक तीर्थस्थानों और मंदिर परिसरों में बड़ी संख्या में वृक्षारोपण किया गया था और इस साल आगामी आषाढ़ शुक्ल पंचमी अर्थात 17 जुलाई 2018 को आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की दीक्षा के 50 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं और उनका 51 वाँ दीक्षा दिवस देशभर में मनाया जाएगा, विभिन्न राज्यों के जैन धर्मावलम्बियों ने अपने स्तर अनेक धार्मिक आयोजनों और सामाजिक हित के काम करने की योजना बना रखी है, ऐसे समय में वृक्षारोपण अभियान को नाम दिया गया है “विद्या तरु/विद्या-वाटिका” वृक्षारोपण अभियान। समिति के गौरव अध्यक्ष श्री अशोक पाटनी (आरके मार्बल्स) ने एक अपील जारी कर भारत के समस्त तीर्थ क्षेत्रों के न्यासियों एवं पदाधिकारियों अनुरोध किया है कि लोग जुलाई 2018 के इस महीने में अपने आसपास के तीर्थ क्षेत्रों, मंदिरों, धर्मशालाओं और संस्थानों के परिसरों में वृक्षारोपण का कार्यक्रम आयोजित करें । उन्होंने आगे कहा है कि देशभर में वर्षा आरंभ हो चुकी है और यही वृक्षारोपण का सही समय है।
     

     
    इस अपील का व्यापक असर हुआ है और विभिन्न तीर्थक्षेत्रों पर बड़ी संख्या में वृक्षारोपण शुरू भी हो चुका है. मध्यप्रदेश के दमोह जिले में स्थित सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कुण्डलपुर से गौरव जैन ने जानकारी दी है कि भारी वर्षा के पीछे कुण्डलपुर के पर्वत पर वृक्षारोपण का कार्य शुरू कर दिया गया है और अब तक 500 पौधों का रोपण कर दिया  गया, अगले एक माह  में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की 51 वें दीक्षा के उपलक्ष्य में  5100 पेड़ कुण्डलपुर पर्वत लगा दिए जाएँगे, उन्होंने बताया कि विभिन्न संस्थानों, युवक मंडलों, महिला मंडलों के सदस्य इस वृक्षारोपण में भाग ले रहे हैं.
     
    नवोदित दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र डोंगरगढ़ से सुधीर जैन ने सूचना दी है कि क्षेत्र पर वृक्षारोपण की तैयार चल रही है और इस वर्ष क्षेत्र पर 1500 पौधे रोप जाएँगे, पिछले वर्ष भी यहाँ लगभग 2000 वृक्ष लगाये गए थे.
     
    सागर जिले के भाग्योदय तीर्थ चिकित्सालय से ब्र. श्री मिहिर जैन ने बताया है कि उन्होंने इस अभियान के अंतर्गत 500 पौधों का रोपण चिकित्सालय परिसर में करवाया है.
     
    कटनी के पास स्थित श्री बहोरीबंद तीर्थक्षेत्र से लोकप्रिय कवि श्री अजय अहिंसा ने अवगत कराया है कि  बहोरीबंद में पिछले साल ही विद्या वाटिका का निर्माण किया गया है जिसमें 400 पौधे रोप गए थे, इस वर्ष पौधे लगाने की उनकी योजना है.  भारत भर के जैन तीर्थ स्थानों से इस वृक्षारोपण अभियान को शुरू करने के समाचार आ रहे हैं.
     
    “हरित तीर्थ अभियान” अब केवल जैन तीर्थों तक सीमित नहीं रह गया है, अन्य समाज के लोग भी इससे प्रेरणा लेकर इस अभियान को देश व्यापी अभियान की शक्ल देना चाहते हैं.  अब तक हम लोग हरित गाँव, हरित शहर, हरित विद्यालय जैसे अभियानों के बारे में खूब सुनते थे, पहली बार किसी ने “हरित तीर्थ” का नारा दिया है.
     
    जैन समाज के लोग पर्यावरण के प्रति जागरुक हैं जो उन्होंने तीर्थ स्थलों के लिए “हरित तीर्थ अभियान” आरम्भ किया है, यदि देश भर के सभी सम्प्रदायों के लोग इस अभियान से जुड़ जाएँ और अपने-२ तीर्थ स्थानों की हरियाली लौटाने का बीड़ा उठा लें तो अल्प समय में ही भारत के सभी धर्मों के तीर्थ स्थल हरे भरे हो जाएँगे. 
    कुंडलपुर में जारी वृक्षारोपण के चित्र संलग्न हैं। 
     
    प्रवीण कुमार जैन
    संयुक्त सचिव,  ‘राष्ट्रीय संयम स्वर्ण महोत्सव समिति’
    अणु डाक: cs.praveenjain@gmail.com  
    चलभाष:  98199-83708
         
     


  24. संयम स्वर्ण महोत्सव
    जैन पाठशाला प्रतियोगिता 
    दिनांक 4 जुलाई 2018
     
    स्वाध्याय करे : जैन धर्म परिचय>जैन पाठशाला
    स्वाध्याय का लिंक
    https://vidyasagar.guru/paathshala/
     
     
    आप इस प्रतिओयोगिता में 6 जुलाई तक भाग ले सकेंगे

    प्रतियोगिता प्रारंभ
    https://vidyasagar.guru/pratiyogita/pathshala/
     
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