अहिंसा के दो पहलू और उसकी सार्थकता
अहिंसा के दो पहलू और उसकी सार्थकता
किसी को नहीं मारना चाहिये या कष्ट नहीं देना यह अहिंसा का एक पहलू है; तो दूसरा पहलू है कि किसी भी कष्ट में पड़े हुये के कष्ट को निवारण करने का यथाशक्य प्रयत्न करना। ये दोनों ही बातें साधक में एक साथ होना चाहिये तभी वह अहिंसक बन सकता है। अधिकांश देखने में आता है कि आज की दुनिया के लोग कीड़े-मकोड़े सरीखों को ही मारने में पाप समझते हैं। कर्तव्य पथ प्रदर्शन तो ठीक है परन्तु किसके साथ में कैसा व्यवहार करना चाहिये;
मेरे इस बर्ताव से सामने वाला बन्धु निराकुल होने के बदले कहीं उल्टा कष्ट से तो नहीं घिर जायेगा इस बात का विचार बहुत कम होता है। इसी से हरेक देश, हरेक समाज, हरेक जाति और हरेक घर नरक जैसा बनता चला जा रहा है। प्रायः हरेक आदमी का यही रवैया हो लिया है कि दूसरे आदमी काम खूब करें और खाना बहुत कम खावें बल्कि न खावें तो और भी अच्छा है, किन्तु मुझे काम बहुत कम करना पड़े और खाने को मनचाहा खूब मिले। बस इसी हिंसामय दुर्विचार से ईर्ष्या और द्वेष की आग धधक रही है जिसमें सारा ही विश्व झुलसा जा रहा है। परस्पर प्रेम का भाव हम लोगों के दिल में से उठता जा रहा है। प्रेम अहिंसा का संजीवन माना गया है। जबकि किसी के प्रति हार्दिक प्रेम भावना होती है तो अपने आप यह विचार आने लगता है कि इसे कहीं परिश्रम न करना पड़े। मैं ही मेरे अथक परिश्रम से कार्य को सम्पन्न कर लूँ और उसका फल हम दोनों मिलकर भोगे। इस प्रकार प्रेम रूप अमृत स्रोत से ही अहिंसा रूप वल्लरी पल्लवित होती है।
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