Jump to content
मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता प्रारंभ ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    830

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Blog Entries posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. संयम स्वर्ण महोत्सव
    एक से नहीं,
    एकता से काम लो,
    काम कम हो।
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  2. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अंकिता  जैन (महेंद्रगढ़ कोरिया )  को पुरस्कार स्वरूप प्रदान किया जा रहा है आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से संचालित हथकरघा द्वारा निर्मित श्रमदान ब्राण्ड की  साड़ी |
    अनुभव कठरया   (बामोरा सागर)   को पुरस्कार स्वरूप प्रदान किया जा रहा है आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से संचालित हथकरघा द्वारा निर्मित श्रमदान ब्राण्ड का  कुर्ता पायजामा 
    आपको आपके उपहार आपसे संपर्क कर के शीघ्र भेजे जायेंगे |
  3. संयम स्वर्ण महोत्सव
    श्री
    कर्तव्य पथ - प्रदर्शन
     
    इष्ट स्तवनम्
    कर्तव्य पथ हम पामरों के लिए भी दिखला रहे।
    हो आप दिव्यालोकमय करूणानिधे गुणधाम हे॥
    फिर भी रहें हम भुलते भगवान् स्वकीय कुटेव से।
    इस ही लिये इस घोर संकटपूर्ण भव वन में फंसे॥
     
    मनुष्य की मनुष्यता - माता के उदर से जन्म लेते ही मनुष्य तो हो लेता है फिर भी मनुष्यता प्राप्त करने के लिये इसे प्रकृति की गोद में पलकर समाज के सम्पर्क में आना पड़ता है। वहां इसे दो प्रकार के सम्पर्क प्राप्त होते हैं- एक तो इसका बिगाड़ करने वालों के साथ, दूसरे इसका भला चाहने वालों के साथ। अतः इसे भी दोनों ही तरह की प्रेरणा प्राप्त होती है। अब यदि यह इसका भला करने वालों के प्रति भलाई का व्यवहार करता है कि अमुक ने मेरा अमुक कार्य निकाला है, मैं उसे कैसे भूल सकता हूं, इसके बदले में मेरा सर्वस्व अर्पण करके भी मैं उनसे उऋण नहीं बन सकता।
     
    इस प्रकार आभार मानने वाला एवं समय आने पर यथाशक्य उसका बदला चुकाने की सोचते रहने वाला आदमी मनुष्यता के सम्मुख होकर जन से सज्जन बनने का अधिकारी होता है। हां!, अपने अपकार का भी उपकार ही करना जानता हो उसका तो फिर कहना ही क्या ! वह तो महाजन होता है। कोई-कोई ऐसा होता है जो भलाई का बदला भी बुराई के द्वारा चुकाया करता है, उसे जन कहें या दुर्जन? कर्तव्यता की सीढ़ी पर खड़ा हुआ आदमी एक जगह नहीं रह सकता।
     
    वह या तो ऊपर की ओर बढ़े या नीचे को आना तो अवश्यम्भावी है ही। घड़ी का कांटा चाबी देने के बाद रूका नहीं रह सकता, उसी प्रकार मनुष्य भी जब तक सांस है तब तक निठल्ला नहीं रह सकता। चाहे भलाई के कार्य करे या बुराई के, उसे कुछ तो करना ही होगा। अतः बुराईयों में फंसकर अवनत बनने की अपेक्षा से भलाई के कार्य करते चले जाना एवं अपने आपको उन्नत से उन्नत्तर बनाना ही मनुष्यता है।
     
    बन्धुओं!
    बहुत से देश ऐसे हैं जहां भलाई के साधन अत्यन्त दुर्लभ हैं। वहां के लोगों को परिस्थिति से बाध्य होकर अपना जीवन पशुओं जैसा बिताना पड़ता है। परन्तु हम भारतवासियों के लिये तो उन भले साधनों की आज भी सुलभता है। हमारे बुजुर्ग या महर्षियों ने प्रारम्भ से ही सामाजिक रहन-सहन ऐसा सुन्दर स्थापित कर रखा है कि हम उसे अनायास ही अपने जीवन में उतार सकते हैं और अपने आपको सज्जन ही नहीं बल्कि सज्जनशिरोमणि भी बना सकते हैं। फिर भी हम उनका सदुपयोग न करके उनके विरुद्ध चलें यह तो हमारी ही भूल है।
     
    लेखक - महाकवि वाणीभूषण बा. ब्र. पं. भूरामल शास्त्री 
    (आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज)
  4. संयम स्वर्ण महोत्सव
    हम उन्न्नत कैसे बनें?
     
    पानी से पूछा गया कि तुम्हारा रंग कैसा है? उत्तर मिला कि जैसा रंग का सम्पर्क मिल जावे वैसा। अर्थात् पानी पीले रंग के साथ में घुलकर पीला, तो हरे रंग के साथ में घुलकर हरा बन जाता है। ऐसा ही हाल इस मनुष्य का भी है। इसको प्रारम्भ से जैसे भले या बुरे की संगति प्राप्त होती है वैसा ही वह खुद हो जाया करता है।
     
    अभी कुछ वर्षों पहले की बात है- लखनऊ के अस्पताल में एक प्राणी लाया गया था जो कि अपनी चाल-ढाल से भेड़िया बना हुआ था, परन्तु वस्तुत वह मनुष्य था। जो कि कच्चे मांस के सिवा कुछ नहीं खाता था। भेड़िये की आवाज में बोलता था। वैसे ही अपनी शारीरिक चेष्टा-झपटना मारना वगैरह करता था। बात ऐसी थी कि एक नन्हें बालक को भेड़िया उठा ले गया। बालक के माँ-बाप ने सोचा कि उसे तो भेड़िया खा गया होगा परन्तु भेड़िये ने उसे अपने बच्चे के समान पाला-पोषा। जैसा मांस आप खाता था वैसा कुछ मांस इस बच्चे को भी दे दिया करता था एवं अपने पास उसे प्रेम पूर्वक रखा। करीब १२-१४ वर्ष की अवस्था में वह उन अस्पताल वालों की निगाह में आ गया और चिकित्सा के लिए लाया गया। धीरे-धीरे अब वह कच्चा मांस खाने की अपेक्षा पकाया हुआ मांस खाने लगा और कोई-कोई जवान मनुष्य की सी बोलने लग गया।
     
    मतलब यही कि मनुष्य जैसी सोहबत संगत में रहता है वैसा ही बन जाता है। बुरों के साथ में रहने से अपने आप बुरा बनते हुए और का भी बुरा करने वाला होता है। तो अच्छों के साथ में रहकर खुद अच्छा होता चला जाता है एवं समाज का भी भला करने वाला होता है। अतः हमें चाहिये कि हम भले लोगो की संगति में रहें और भले बनें, यही हमारी उन्नति है।
     
    लेखक - महाकवि वाणीभूषण बा. ब्र. पं. भूरामल शास्त्री 
    (आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज)
  5. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सत्संगति का सुफल
     
    एक बार की बात है, एक बहेलिया दो तोते लाया। उनमें से उसने एक तो किसी वेश्या को दे दिया और दूसरे को एक पण्डित जी के हाथ बेच दिया। थोड़े दिन के बाद वेश्या एक रोज महफिल करने राज दरबार में पहुंची। उसका तोता उसके हाथ में था सो पहुंचते ही राजा के सम्मुख अनेक प्रकार के भण्ड वचन सुनाने लगा। राजा को गुस्सा आया और उसने हुक्म दिया कि इसे मार डाला जावे। तोता बोला - हुजूर! मैं मारा तो जाऊँगा ही परन्तु इससे पहले मुझे मेरे भाई से मिला दीजिये। राजा ने कहा तेरा भाई कहाँ है? तोते ने कहा ! गिरधरजी शर्मा के यहाँ रहता है। उसी समय राजदूत गया और मय तोते के गिरधरजी शर्मा को बुला लाया। गिरधर जी शर्मा तो बोले ही नहीं उनके पहिले ही उनके तोते ने आते ही राजा को अनेक तरह के शुभाशीर्वाद दिये, राजा बहुत खुश हुआ। सहसा राजा के मुँह से निकल पड़ा कि शाबाश! जीते रहो तुम और तुम्हारी साथी। वेश्या वाले तोते ने कहा कि तब फिर तो में भी अब अमर बन गया क्यों इसका साथी तो मैं ही हूँ। राजा असमन्जस में पड़ गया तो पंडितजी वाले तोते ने वकालत की कि प्रभु इसमें विचारने की क्या बात है? यह दुष्ट है, सचमुच इसने आपके साथ बुरा बर्ताव किया है, किन्तु आप तो सज्जनों के सरदार हैं, आपका तो काम बुरा करने वालों के साथ भी भला बर्ताव करना ही होना चाहिए। पृथ्वी के पूत, पेड़ों का भी यही हिसाब है कि वे लोग पत्थर मारने वालों को भी उसके बदले में मीठा फल प्रदान किया करते हैं। आप तो पृथ्वी के पति हैं, सम्पूर्ण प्रजा के नाथ हैं, आपका तो सभी के साथ प्रेम होना चाहिए हाँ! अब भी यदि सचेत होगा तो आगे के लिए आने इस दुर्व्यवहार का त्याग कर सही मार्ग का अनुसरण करेगा, बस इतना ही कहना पर्याप्त है।
  6. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सुभाषित ही संजीवन है
     
    जिसको सुनकर भूला भटका हुआ आदमी ठीक मार्ग पर आ जावे और मार्ग पर लगा हुआ आदमी दृढ़ता के साथ उसे अपनाकर अपने अभीष्ट को प्राप्त करने में समर्थ बन जावे उसे सुभाषित कहते हैं। यद्यपि बिना बोले आदमी का कोई भी कार्य सुचारु नहीं होता, किन्तु अधिक बोलने से भी कार्य होने के बदले वह बिगड़ जाया करता है। समय पर न बोलने वाले को मूक कहकर उसका निरादर किया जाता है, तो अधिक या व्यर्थ बोलने वाले को भी वावदूक या वाचाल कहकर भर्त्सना ही की जाती है। तुली हुई और समयोचित बात का ही दुनिया में आदर होता है। यहां हमें महाभारत के एक प्रसंग का स्मरण हो आता है। कौरवों और पाण्डवों में घमासान युद्ध हो रहा था। इधर पाण्डव पांच भाई थे तो उधर भी कर्म, भीष्म, जयद्रथ आदि प्रमुख योद्धा थे। बल्कि द्रोणाचार्य तो बाण विद्या के अधिनायक थे जो कि कौरवों की तरफ से खड़े होकर पाण्डवों की सेना में विंध्वस मचा रहे थे। यह देखकर श्रीकष्ण के दिल में विचार आया कि अगर कुछ देर भी ऐसा होता रहा तो आज अवश्य ही पाण्डवों की पराजय हो जायेगी। इतने ही में एक हाथी मारा गया। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के पास जाकर पूछा कि भूपते कौन मारा गया? युधिष्ठर इसका उत्तर अनुष्टुप चरण में 'अश्वत्थामाहतोहस्ती' इस प्रकार से देने वाले थे, उन्होंने बोलना प्रारंभ करके अश्वत्थामा तो इतना ही बोला था कि उसी क्षण श्रीकृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शङ्ख बजा दिया। लोगों ने समझा कि द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा मारा गया। अश्वत्थामा मुख्य योद्धाओं में से था, अत: इसे सुनकर पाण्डवों की सेना में उत्साह छा गया और कौरवों की सेना भंग होकर उसमें शोक छा गया और पुत्रा शोक से द्रोणाचार्य का भी भुजबल ढीला पड़ गया। इसका नाम है अवसरोचित बात, जिससे कि अनायास ही कार्य सिद्ध हो जाता है। हाँ, व्यर्थ की बकवास करने वाला आदमी अपने आप विपत्ति के गर्त में गिरता है।
  7. संयम स्वर्ण महोत्सव
    व्यर्थवादी की दुर्दशा
     
    जंगल में एक तालाब था, उसका जल ज्येष्ठ माह की प्रखर धूप से सूखकर नाम मात्र रह गया। उनके किनारे पर रहने वाले दो हंसों ने आपस में सलाह की कि अब यहां से किसी भी अन्य जलाशय पर चलना चाहिए, जिसको सुनकर उनके मित्र कछुवे ने कहा कि, “तुम लोग तो आकाश मार्ग से उड़कर चले जाओगे, परन्तु मैं कैसे चल सकता हूँ?" हंसों ने सोचा बात तो ठीक ही है और एक अपने मित्र को इस प्रकार विपत्ति में छोड़कर जाना भी भलमनसाहत नहीं है, अतः अपनी बुद्धिमता से एक उपाय सोच निकाला। 
     
    एक लम्बी सरल लकड़ी लाये ओर कछुवे से कहा कि तुम अपने मुँह से इसे बीच में पकड़ लो, हम दोनों इसके इधर-उधर के अन्त भागों को अपनी चोंचो से पकड़ कर ले उड़ते हैं, यह ठीक होगा।'' इस प्रकार तीनों आसमान में चलने लगे। चलते-चलते धरातल पर मध्य में एक गांव आया। गाँव के लोग नया दृश्य देखकर अचम्भे में पड़े और आपस में कहने लगे कि “देखो यह कैसा विचित्र खेल है।” यों कल-कल मचा देखकर कछुवे से न रहा गया, वह बोल बड़ा कि क्यों चक-चक करते हो, बस फिर क्या था, धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा और पकड़ा गया।
     
    मतलब यह कि मनुष्यों में अपने भले के लिए शारीरिक संयम के साथ-साथ वाणी का भी संयम होना चाहिए। शारीरिक संयम उतना कठिन नहीं है जितना कि मनुष्य के लिए वाक् संयम एवं मानसिक संयम तो उससे भी कहीं अधिक कठिन है। वाणी का संयम तो मुंह बन्द किया और हो सकता है, किन्तु मन तो फिर भी चलता ही रहेगा।
     
    मनुष्य का मन इतना चंचल है कि वह क्षण भर में कहीं का कहीं दौड़ जाता है। इसके नियंत्रण के लिए तो सतत साधु-संगति और सत्साहित्यावलोकन के सिवाय और कोई भी उपाय नहीं है। यद्यपि साधुओं का समागम हरेक के लिए सुलभ नहीं है फिर भी उनकी लिखी पुस्तकों को पढ़कर अपना जीवन सुधारा जा सकता है।
  8. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सत्साहित्य का प्रभाव
     
    सुना जाता है कि महात्मा गांधी अपनी बैरिस्ट्री की दशा में एक रोज रेल से मुसाफिरी कर रहे थे। सफर पूरे बारह घण्टों का था। उनके एक अंग्रेज मित्र ने उन्हें एक पुस्तक देते हुए कहा कि आप अपने इस सफर को इस पुस्तक के पढ़ने से सफल कीजियेगा। उसको गांधीजी ने शुरू से आखिरी तक बड़े ध्यान से पढ़ा। उस पुस्तक को पढ़ने से गांधीजी के चित्त पर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने अपनी बैरिस्ट्री छोड़कर उसी समय से सादा जीवन बिताना प्रारम्भ कर दिया।
     
    आजकल पुस्तक पढ़ने का प्रचार आम जनता में भी बड़े वेग से बढ़ रहा है और वह बुरा भी नहीं है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को पढ़ने के लिये पुस्तक ऐसी चुननी चाहिये जिसमें कि मानवता का झरना बह रहा हो। जिसके प्रत्येक वाक्यों में निरामिष-भोजिता, परोपकार, सेवा भाव आदि सदगुणों का पुट लगा हुआ हो। विलासिला, अविवेक, डरपोकपन आदि दुर्गुणों का निर्मूलन करना ही जिसका ध्येय हो। फिर चाहे वह किसी की भी लिखी हुई हो और किसी भी भाषा में हो उसके पढ़ने में कोई हानि नहीं। कुछ लोग समझते हैं कि अपनी साम्प्रदायिक पुस्तकों के सिवाय दूसरी पुस्तकों का पढ़ना सर्वथा बुरी बात है, परन्तु यह उनका समझना ठीक नहीं। क्योंकि समझदार के लिये तो बुराइयों से बचना एवं भलाई की ओर बढ़ना यह एक ही सम्प्रदाय होना चाहिये।
     
    अत: जिन पुस्तकों के पढ़ने से हमारे मन पर बुरा असर पड़ता हो, जिनमें अश्लील, उद्दण्डतापूर्ण अहंकारदि दुर्गुणों को अंकुरित करने वाली बातें अंकित हों ऐसी पुस्तकों से अवश्य दूर रहना चाहिये। पुस्तकों से ही नहीं बल्कि ऐसे वातावरण से भी हर समय बचते ही रहना चाहिये क्योंकि मनुष्य के हृदय में भले और बुरे दोनों ही तरह के संस्कार हुआ करते हैं जो कि समय और कारण को पाकर उदित हो जाया करते हैं। व्यापार करते समय मनुष्य का मन इतना कठोर हो जाता है कि वह किसी गरीब को भी एक पैसे की रियायत नहीं करता, परन्तु भोजन करने के समय में कोई भूखा, अपाहिज आ खड़ा हो तो उसे झट ही दो रोटी दे देता है। मतलब यही कि उस उस स्थान का वातावरण भी उस-उस प्रकार का होता है,
     
    अतः मनुष्य का मन भी वहां पर परिणमन कर जाया करता है। आप जब सिनेमा हॉल में जावेंगे तो आपका दिल वहां की चहल-पहल देखने में लालायित होगा परन्तु जब आप चलकर श्री भगवान् के मन्दिरजी में जावेंगे तो वहां यथाशक्ति नमस्कार मंत्र का जाप देना और भजन करना जैसे कामों में आपका मन प्रवृत होगा। हाँ, यह बात दूसरी है कि अच्छे वातावरण में रहने का मौका इस दुनियादारी के मनुष्य को बहुत कम मिलता है, इसका अधिकांश समय तो बुरे वातावरण में ही बीतता है। अत: अच्छे विचार प्रयास करने पर भी कठिनता से प्राप्त होते हैं और प्राप्त होकर भी बहुत कम समय तक ही ठहर पाते हैं। किन्तु बुरे विचार तो अनायास ही आ जाया करते हैं तथा देर तक टिकाऊ होते हैं। अतः बुरे विचारों से बचने के लिए और अच्छे विचारों को बनाये रखने के लिए सत्साहित्य का अवलोकन, चिन्तन अवश्य करते रहना चाहिए।
  9. संयम स्वर्ण महोत्सव
    साधु समागम
     
    अपने विचारों को निर्मल बनाने के लिए जिस प्रकार से सत्साहित्य का अध्ययन जरूरी है उसी प्रकार अपने जीवन को सुधारने के लिए मनुष्य को समीचीन साधुओं का संसर्ग प्राप्त करना उससे भी कहीं अधिक उपयोगी होता है। मनुष्य के मन के मैल को धोने के लिए उत्तम साहित्य का पठन पाठन, जल और साबुन का काम करता है। परन्तु पुनीत साधुओं का समागम तो इसके जीवन में चमत्कार लाने के लिए वह जादू का सा कार्य करता है जैसा कि लोहे के टुकड़े के लिए पारस का संसर्ग। अत: विचारशील मनुष्य को चाहिए कि साधुओं का सम्पर्क प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहे और प्राप्त हो जाने पर यथाशक्य उससे लाभ उठाने में न चूके। ऐसा करने से ही मनुष्य अपने जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है।
     
    आज से लगभग अढाई हजार वर्ष पहले की बात है कि भगवान महावीर के शिष्य सुधर्म स्वामी देश देशान्तर में भ्रमण करते हुए और अपने सदोपदेशामृत से जनता का कल्याण करते हुए आकर राजगृह नगर के उपवन में ठहरे। उनके आने का समाचार सुनकर राजगृह की जनता उनके दर्शन को आयी और उनके धर्मोपदेश को सुनकर एवं अपनी योग्यतानुसार मनुष्योचित नियम व्रत लेकर अपने-अपने घर को गयी। उन्हीं में एक जम्बूकुमार नाम का साहूकार का लड़का था, उसने सोचा स्वामीजी जब यह फरमा रहे हैं कि मनुष्य जन्म को पाकर इसे एकान्त क्षणिक विषय वासना के चक्कर में ही नहीं बिता देना चाहिए किन्तु कुछ परमार्थिक कार्य तो करना ही चाहिए अहो! यह भोला मनुष्य जिस भौतिक विभूति के पीछे लगकर चल रहा है, एक न एक दिन तो इसको उसे छोड़ना ही होगा। अगर यह उसे न छोड़ेगा तो अन्त में वह इसे अवश्य छोड़ ही देगी। परन्तु यह उसे छोड़ दे और वह इसे छोड़े इन दोनों बातों में उतना अन्तर तो कम से कम अवश्य है जितना मनुष्य के टट्टी जाने में तथा उल्टी हो जाने में हुआ करता है।
     
    अर्थात् आप जब प्रातः जंगल होकर आते हैं तो आपका चित्त प्रसन्न होता है। किन्तु समुचित भोजन करें और भोजन करने अनन्तर ही किसी कारण से कै हो जावे तो आपका जी मिचलावेगा, बस यही हिसाब सम्पत्ति के छोड़ देने और छूट जाने में है, अत: प्राप्त सम्पत्ति को छोड़कर दूर होना ही मनुष्य के लिये श्रेयस्कर है एवं जिस दलदल से निकलना दुष्कर होकर भी आवश्यक है, तो फिर अधिक समझदारी तो इसी में है कि उसमें फँसना ही क्यों चाहिए। बस मैं तो अब चलू और माता-पिता से आज्ञा लेकर आकर इन गुरुदेव के चरणों की सेवा में ही अपने आपको लगा दें, ऐसा सोचकर जम्बूकुमार घर पर गया ही था
     
    कि माता-पिता ने पूछा कि इतनी देर कहाँ रहे? जम्बू कुमार बोला कि “एक साधु महात्मा के पास बैठ गया था और मैं अब सदा के लिए उन्हीं के पास रहना चाहता हूँ।'' माता-पिता यह सुनकर आवाक् हो रहे। कुछ देर सोच कर फिर बोले कि - ‘बेटा तू यह क्या कह रहा है? देखो हम तो तेरी शादी की तैयारियां कर रहे हैं और तू ऐसी बात सुना रहा है जिससे कि हमारा कलेजा कांप उठता है, कम से कम तुझे शादी तो कर लेनी चाहिए तू खुद समझदार है, तुझे हमारी इस प्रसन्नता में तो गड़बड़ी नहीं मचानी चाहिए।'
  10. संयम स्वर्ण महोत्सव
    सकामता के साथ निष्कामता का संघर्ष
     
    माता-पिता ने सोचा इसे छोटी-सी बात कहकर मनवा लेना चाहिए, फिर तो यह खुद ही अपने दिल में आई हुई बात को भूल जावेगा। सब यही सोचकर उन्होंने कहा था कि विवाह तो करलो। इस पर जम्बू ने विचार किया कि ये माता-पिता हैं। इनका इस मेरे शरीर पर अधिकार है अतः इस साधारण सी बात के लिये नाराज करना ठीक नहीं है। वैरागी का अर्थ किसी को नाराज करना या किसी पर नाराज होना नहीं है। वह तो स्वयं आत्मावत् परमात्मा के समझा करता है। उसकी निगाहों में तो जितनी अपने आप की कीमत होती है। उतनी ही दूसरे की भी। फिर तो ये मेरे इस जन्म के माता-पिता हैं, इनका तो इस शरीर की ओर निगाह करते हुए बहुत ऊँचा स्थान है। फिर कहा कि -
     
    "ठीक है, आप कहते हैं तो मैं विवाह कर लूंगा किन्तु दूसरे ही राज गुरु के चरणों में जा प्राप्त होऊँगा।" जिन आठ लड़कियों के साथ जम्बू का विवाह होना निश्चित हुआ था उन्हें भी सावधान कर दिया गया। उन सबने जवाब दिया हम तो प्रतिज्ञा कर चुकी हैं कि इस जन्म में तो हमारे ये ही पति हैं, इनके अतिरिक्त और सब नर तो हमारे बाप, भाई समान हैं अतः बेखटके शादी रचा दी जावे, फिर या तो हम उन्हें लुभा लेगीं या हम सब भी उन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर लेंगी। विवाह हो गया और सुना जाता है कि उसमें इन्हें 99 करोड़ सोने का दहेज मिला। परन्तु जहां वैराग्य है वहां चक्रवर्ती की सम्पदा भी तिनके के समान है निस्सार है, वह उसकी नहीं, अगर है भी तो दुनिया की है। असतु, रात हुयी और रंगमहल में जहां कि विषयानुराग वर्द्धक सभी तरह का परिकर संभव से भी अधिक संख्या में जुटाया गया था वहां एक तरफ तो दिल से समता को संभाले हुए स्वयं जम्बूकुमार विराज रहे थे, उधर दूसरी तरफ उनकी नव विवहिता आठों पत्नियां वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर ममता की मोहक महक लिए हुए आकर खड़ी थीं। जो कि अपना रंग उन पर जमाना चाह रही थीं, परन्तु वहां उनके चित्त पर तो साधु सुधर्माचार्य की चरण सेवा का अमिट रंग लगा हुआ था वहां दूसरा रंग कैसे चढ़ सकता था?
     
    इधर एक ओर घटना घटी। एक प्रभव नाम का प्रख्यात चोर था, जो कि पांच सौ चोरों का सरदार था, उसने सुना कि जम्बू को दहेज में खूब धन मिला है, चलो आज उसी पर हाथ साफ किया जावे। इस चोर की यह विशेषता थी कि जहां भी वह जाता था वहां के लोगों नींद लिवा देता था ओर अपना काम बड़ी आसानी से कर लिया करता था। वह आया और धन की गठरियां बांध कर चलने को तैयार हुआ तो उसके पैर चिपक गये और चोर आश्चर्य में पड़ा और इधर-उधर देखने लगा तो बगल के कमरे में औरत मर्द आपस में बात कर रहे थे। चोरों की फिक्र छोड़कर कर प्रभव पहुंचा और जम्बू को उसे जुहार किया जम्बूकुमार बोले कौन है? प्रभव! तुम आज यहां इस समय कैसे आये? प्रभव ने कहा प्रभो! अपराध क्षमा कीजिये, मैं चोरी करने के लिए आया था।
     
    आज तक मैं मेरे काम में कहीं भी असफल नहीं हुआ किन्तु आज आपने मुझे हरा दिया आपके पास ऐसा कौन-सा मंत्र बल है कि जिससे धन लेकर जाते हुए मेरे पैर चिपक गये। जम्बूकुमार बोले प्रभव! मुझे तो पता ही नहीं कि तुम कब आये और क्या कर रहे थे, में तो सिर्फ गुरुचरणों की सेवा का मंत्र जपता हूं और अपने मन में उसी की टेर लिए हुए हूं प्रभात होते ही मैं उनके पास जाकर निर्ग्रन्थव्रत ग्रहण करने वाला हूं। तब फिर इस सारी सम्पत्ति को तुम ले जाना। मैं स्वेच्छा से इसका अधिकारी तुम्हें बनाता हूं, फिर इसमें चोरी करने की बात कौनसी है? ऐसा सुनकर प्रभव बहुत प्रभावित हुआ, उसने मन में सोचा कि- यह भी तो पुरुष ही है जो प्राप्त हुई सम्पत्ति (लक्ष्मी) को इस तरह से ठुकरा रहा है। और कहने के लिए तो मैं भी पुरुष ही हूं जो कि एक पागल की तरह इसके पीछे फिर रहा हूं फिर भी यह मुझे प्राप्त नहीं होती, तथा हो भी जाती है तो ठहरती नहीं है।
  11. संयम स्वर्ण महोत्सव
    लक्ष्मी का पति
     
    सुना जाता है कि एक बार लक्ष्मी का स्वयंवर हो रहा था। उसमें सभी लोग अपनी शान और शौरत के साथ आ सम्मिलित हुए थे। जब स्वयंवर का समय हुआ तो लक्ष्मी आयी और बोली कि मैं उसी पुरुष को वरूँगी जो कि स्वप्न में भी मेरी इच्छा न रखता हो। इस पर सब लोग बड़े निराश और हतप्रभ हो रहे। लक्ष्मी चलते-चलते अन्त में वहां पर आयी जहां पर शेषनाग की शैय्या पर विष्णु महाराज बेफिकर सोये हुए थे। आकर उसने उनके गले में वरमाला डाल दी। विष्णु बोले कौन है? तो जवाब मिला कि लक्ष्मी हूं। फिर कहा गया कि चली जाओं यहां से, तुम क्यों आयी हो, यहां पर मुझे तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। लक्ष्मी बोली, प्रभो, मुझे मत ठुकराईयें मैं सिर्फ आपकी पगचम्पी करती रहूंगी।
     
    बन्धुओ ! यह सब अलंकारिक कथन है, इसका मतलब तो इतना ही है कि जो विपत्ति से डरता है और सम्पत्ति चाहता है उससे सम्पत्ति स्वयं दूर हो जाती है। परन्तु जो सम्पत्ति को याद भी नहीं करता एवं विपत्ति आ पड़ने पर उससे घबराता नहीं है, उस पुरुष के चरणों को सम्पत्ति स्वयं चूमती है। प्रभव को भी इससे आज प्रतिबोध प्राप्त हुआ, वह विचारने लगा कि जब ऐसी बात है तो फिर मैं भी इस बोझे को अपने सिर पर लादे क्यों फिरूं? बल्कि जिस मार्ग को यह सेठ का लड़का अपना रहा है, उसी पथ का पथिक मैं भी क्यों न बन रहूँ? जिसमें सबका हित हो ऐसा सोचकर वह जम्बूकुमार के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि प्रभो ! अब मुझे किसी की भी भूख नहीं रही, आपके वचनामृत से ही मैं तो तृप्त हो गया हूँ,
     
    अतः अब मैं सिर्फ यह चाहता हूँ कि मुझे भी आप अपने चरणों में ही जगह दें, न कि मुझे अब भी इस कीचड़ में ही फँसा रहने दे। इससे हमें यह सीख लेनी चाहिए कि एक साधुसेवी के संसर्ग में आकर भी जब प्रभव सरीखा दुरहंकारी जीव साधु समागम की महिमा का तो कहना ही क्या? उसके तो गीत, वेद और पुराणों में जगह-जगह गाये हुए हैं। अतः अपने आपको सुधारने के लिए साधु की संगति करनी ही चाहिए, जिससे कि मनुष्य का मन धैर्य क्षमादि गुणों को पाकर बलवान बने।
  12. संयम स्वर्ण महोत्सव
    मनोबल ही प्रधान बल है
     
    वैसे तो मनुष्य के पास में ज्ञानबल, धनबल, सेनाबल, अधिकार बल और तपोबल आदि अनेक तरह के बल होते हैं, जिनके सहयोग से मनुष्य अपने कर्तव्य कार्य से इस पार से उस पार पहुंच पाता है, परन्तु उन सब बलों में शरीरबल, वचनबल और मनोबल ये तीनों बल उल्लेखनीय बल हैं।
     
    मनुष्य को अपने सभी तरह के कार्य सम्पादन करने के लिए उसे शारीरिक बल तो अनिवार्य है। जितना भी हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ होगा वह उतना ही प्रत्येक कार्य को सुन्दरता के साथ सम्पादित कर सकेगा, यह एक साधारण नियम है। अत: उसको प्रगतिशील बनाये रखने के लिए समुचित आहार की जरूरत समझी जाया करती है और उसकी चिन्ता सभी को रहा करती है एवं अपनी बुद्धि, विवेक तथा वित्त-वैभव के अनुसार हर कोई ही उसकी अच्छी से अच्छी योजना करने में कुछ कसर नहीं रखता है। यह तो ठीक है, परन्तु वचन का अधिकार तो उस शरीर से कहीं अधिक होता है। शरीर द्वारा जिस काम को हम वर्षों से भी सम्पादित नहीं कर पाते, उसे अपनी वचनपटुता से बात की बात में हल कर बता सकते हैं।
     
    बच्चे को जब प्यास लगती है, या उसका पेट दुखता है तो वह रोता है, छटपटाता है, हाथ पैर पटकता है। माता भी उसके दु:ख को मिटाना चाहती है, किन्तु उस की अंतवृत्ति को नहीं पहचान पाती, अत: कभी-कभी विपरीत प्रतिकार हो जाता है तो प्रत्येक वेदना बढ़ती है। बाकी वहां वश भी क्या चले, बच्चे के पास वचन तो नहीं है ताकि वह कह सुनावे और उसका समुचित उपाय कर बताया जावे। इसी प्रकार संसार का सारा व्यवहार प्राय: वचन के भरोसे पर ही अवलम्बित है, जिसकी कि खुराक स्पष्ट सत्यवादिता है, सो क्या इसकी तरफ भी सब लोगों को ध्यान कभी गया है? किन्तु नहीं। बल्कि अधिकांश लोग तो अपने वचन को कूटत्व नाम क्षय रोग से उपयुक्त बनाकर ही अपने आपको धन्य मानते हैं। उनके ऐसा करने में उनकी एक मानसिक दुर्बलता ही हेतु है। मानसिक कमजोरी से ही उनकी यह धारणा बनी हुई है कि एकान्त सत्य सरल या स्पष्ट वाक्य प्रयोग से मनुष्य का कभी निर्वाह नहीं हो सकता।
     
    उनको अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिये उसमें कुछ-कुछ बनावटीपन जरूर ले आना चाहिए। बस इसकी इस मानसिक दुर्बलता ने सम्पूर्ण व्यवहार को दूषित बना दिया, ताकि सर्वत्र अविश्वास के आतंक ने अपना अधिकार जमा लिया, एवं जीवन-पथ कष्टप्रद हो गया। मनुष्य की जीवन यात्रा में उसका मन सईस का काम करता है, वचन घोड़े का और शरीर गाड़ी का। अगर गाड़ी मजबूत भी हो और घोड़ा भी चुस्त हो किन्तु उसको हांकने वाला सईस निकम्मा हो तो वह उसे ठीक न चला कर उत्पथ में ले जावेगा एवं बरबादी कर देगा। वैसे ही मनुष्य का मन भी चंचल रहने पर किसी भी कार्य को करके भी उसमें सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।
     
    एक समय की बात है कि एक भट्टारकजी का शिष्य था, जो कि एक मंत्र लेकर जपने को बैठ गया। उसको जप करते हुए जब कई रोज हो गये तो भट्टारकजी ने उससे पूछा कि तू क्या कर रहा है? उसने कहा कि महाराजजी मैं अमुक रूप में यह मंत्र जप रहा हूं, फिर भी यह सिद्ध नहीं हो रहा है। क्या मेरे विधि विधान में कुछ कसर है? गुरुजी बोले- कमी तो कुछ भी नहीं दिखती है परन्तु ला देखें, जरा मुझे दे। यों कहकर भट्टारक गुरुजी ने उस मंत्र को जपना प्रारंभ किया और एक जप पूरा होते ही मंत्र सिद्ध हो गया। मंत्र का अधिष्ठाता देव आ उपस्थित हुआ। गुरुजी बोले- भाई इस लड़के को मंत्र जपते हुए आज कई रोज हो गये सो क्या बात है? देव बोला महाराज। मैं क्या करूं- इसका अपना मन ही इसके वश में नहीं है। मंत्र को जपते हुए भी यह क्षण में तो कुछ सोचता है और फिर क्षण में कुछ और ही सोचने लगता है। मतलब यह है कि हरेक कार्य को सम्पन्न करने के लिये सबसे पहले हमें अपने मन को एकाग्र करने की आवश्यकता है, भले ही वह कार्य लौकिक हो, चाहे पारमार्थिक। मन की एकाग्रता के बिना वह कभी ठीक नहीं हो सकाता।
     
    व्यापार, व्यवहार, शास्त्रशोधन, भगवद् भजन आदि कोई भी कार्य हो, उनको हम जैसी मानसिक लगन से करेंगे उतना वह सुन्दर सुचारु होकर यशप्रद होगा। नेपोलियन के लिये कहा जाता है कि वह एक बाद युद्ध की व्यवस्था ठीक ठीक कर देता था और फिर आप युद्ध भूमि में ही गणित के सवाल किया करता था। डेरों, तम्बुओं पर गोले बरसते, धड़ाधड़ सैनिक मरते किन्तु नेपोलियन का मन गणित के सवाल हल करने में ही लगा रहा था।
     
    खलीफा उमर की भी ऐसी ही बात सुनी जाती है। लड़ाई के मैदान में भी जब नमाज का वक्त हो जाता, वह निडर होकर युद्धस्थल के बीच ही घुटने टेक कर नमाज पढ़ने लगता था, फिर उसे यह पता नहीं रहता था कि कहां क्या हो रहा है। एक फकीर के शरीर में तीर चुभ गया, जिससे उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी। तीर को वापिस खींचने के लिए हाथ लगाने से वेदना दूनी हो जाती थी। अब क्या किया जावे। बड़ी कठिन समस्या हो गई। उसको देखकर लोग घबराये तो एक आदमी बोला अभी रहने दो, जब यह नमाज पढ़ने बैठेगा तब निकाल लेंगे। सांय का समय हुआ फकीर नमाज पढ़ने लगा, पल भर में ही उसका चित्त इतना एकाग्र हुआ कि उसके शरीर में से तीर खेंचकर निकाल लिया गया, और उसे पता भी नहीं चला।
     
    जम्बूप्रसाद ही रईस सहारनपुर वालों के शरीर में एक भयंकर फोड़ा हो गया, डॉक्टर बोला ऑपरेशन होगा, क्लोरोफार्म सूंघना पड़ेगा। लालाजी बोले क्या जरूरत है? मैं नमस्कार मंत्र जपने लगता हूं, तुम अपना काम नि:शंक होकर करलो। सो यह सब मन को एकाग्र कर लेने की महिमा है। मन को एकाग्र कर लेने पर मनुष्य में अपूर्व बल आ जाता है। हमारे पूर्व साहित्य में हमें ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिल रहे हैं, जिनमें न होने जैसी बातें भी होती हुई बताई गई हैं। जैसे - द्रोपदी को नग्न करने के लिए उसकी साड़ी पकड़ कर दु:शासन खींचता है तो साड़ी बढ़ती चली जाती है। मगर द्रोपदी नग्न नहीं होने पाती, यह सब महासती के चित्त की एकाग्रता का ही प्रभाव तो है।
     
    हम लोग ऐसी बातों को सुनकर आश्चर्य करते हैं, किन्तु जिस चित्त की एकाग्रता द्वारा यह आत्मा अपनी अनादिकालीन कर्म-कालिमा को भी क्षण भर में हटा कर परमात्मा बनता हुआ जन्म-मरण से भी रहित हो लेता है उस मन की एकाग्रता की सामर्थ्य के आगे फिर से सब बातें क्या दुष्कर कही जा सकती है?
  13. संयम स्वर्ण महोत्सव
    मन की एकाग्रता कैसे प्राप्त हो?
     
    मन को एकाग्र करना, शान्त बनाना बड़े महत्त्व की बात है, यह तो समझ में आता है परन्तु विचारों का गुब्बार हमारे इस पोले मन में भरा हुआ है उसे निकाल बाहर किये बिना मन की एकाग्रता हो कैसे? प्रथम तो इसके पास मैं यह खा लें, यह पी लें, फिर टहल लें और सो लू इत्यादि इतने विचार उपसंग्रहीत हैं कि उनका दूर करना सरल बात नहीं है और अगर कहीं प्रयास करके इन ऊपरी विचारों को दूर कर भी दिया तो यह तो मकड़े की भांति प्रतिक्षण नये विचारों को जन्म देता ही रहता है। सो उन भीतरी विचारों पर रोक लग जाने का तो कोई भी उपाय नहीं दीख पड़ता है। बल्कि जहां ऊपरी विचार चक्र को दूर करने के लिए प्रयत्न करो तो भीतरी विचार परम्परा बड़े वेग के साथ उमड़ पड़ती है। ऐसी दशा में मन को यदि शान्त, एकाग्र किया जाय तो कैसे?
     
    बात यह है कि इस बाह्य अपार संसारचक्र को हम अपनी मनोभावना के द्वारा अपने पीछे लगाये हुए ही रहते हैं। दिव्य ज्ञान-शक्ति को परमात्मा परमेश्वर के साथ तन्मय होकर रखने के बदले हम उसको दुनिया की क्षुद्र बातों में ही व्यर्थ खर्च करते रहते हैं आज यह रोटी मोटी हो गई और एक जगह से जल भी गई, यह साग भी अच्छा नहीं बना, इसमें नमक कम पड़ा इत्यादि जरा-जरा सी बातों की चर्चा में ही हम रस लेते हैं और अपने ज्ञान का दुरुपयोग करते हैं एवं मन की दौड़ निरन्तर बाहर ही होते रहने से यह निरंकुश बन गया है। अगर किसी के कहने सुनने से भगवान का भजन भी किया तो सिर्फ दिखाऊ। ऐसी दशा में यहां आसन जमा कर बैठना और आंखें मूंद लेना आदि सब व्यर्थ है। जैसा कि कहा है :-
     
    दर्भासन पर बैठ कर माला ली कर माहि,
    मन डोले बाजार में तो यह सुमिरण नाही।।
     
    प्रायः लोगों का यही हाल है। कथा सुनने बैठे तो नींद सताती है और बिस्तर पर जाकर लेटते हैं तो चिन्ता आ घेरती है। यह कर लिया तो यह बाकी है और वह उजड़ रहा है इत्यादि विचार उठ खड़े होते हैं। नींद आ जाने पर भी स्वप्न में भी ये ही सब बातें याद आती रहती हैं। क्यों कि हम इन्द्रियों की वासनाओं के गुलाम बने बैठे हैं तो एकाग्रता कहा? एकाग्रता के लिये तो जीवन में परिमितता आनी चाहिए। हमारा सारा कार्यक्रम नपा, तुला समुचित होना चाहिए। औषधि जैसे नाप तोल की ली जाती है वैसे ही हमारा खाना सोना आदि सभी बाते नपी तुली होनी चाहिए। प्रत्येक इन्द्रिय पर नियन्त्रण होना चाहिए। एक महाशय बोले कि मैं जहाँ जाता हूं वहां उस कमरे की तमाम चीजों को देख सकता हूँ। मैंने कहा भगवन् मनुष्य ऐसा क्यों करे, क्या वह किसी का पहरेदार है या चोर, ताकि उसे ऐसा करना चाहिए? यह तो अपनी आंखों का दुरुपयोग करना है। मनुष्य की आंखें तो इसलिये हैं कि वह अपना आवश्यकीय कार्य देखभाल कर सावधानी से करे। यही हिसाब कानों के लिए भी होना चाहिए,
     
    यदि श्री सद्दगुरु का आदेश उपदेश हो तो उसे मनुष्य ध्यानपूर्वक सुने और याद रखे किन्तु किसी की भी निन्दा को सुनने के लिए कभी भी तैयार न हो। मिट्टी के तेल की बदबू से नाक नहीं सड़ सकती परन्तु मनुष्य के दुश्चरित्र की बदबू फैल जाने से उसका खुद का जीवन बर्बाद हो जायेगा और धरातल को भी गन्दा बनाने में अग्रसर होगा। अत: बुरी बातों से हमें सदा बचते रहना चाहिए। मद्य मांस सरीखी सदोष चीजों को तो कभी याद भी नहीं करना चाहिए किन्तु निर्दोष वस्तुओं को भी आवश्यकता से अधिक प्रयोग में लाने से परहेज होना चाहिए। इस प्रकार अपने इन इन्द्रिय-रूपी घोड़ों को बे-लगाम न दौड़ने देकर इनके लगाम रखना ही मनोनिग्रह का मूल मंत्र है।
     
    जो कि संत महन्तों की संगति से प्राप्त हो सकता है अत: सत्संगी बनना ही मनुष्य का आद्य कर्तव्य माना गया है। हाँ एक बालक के पास से भी इसी विषय का सबक सीखा जा सकता है। आप किसी भी बच्चे को लीजिये वह जिस चीज की तरफ देखता है, टकटकी लगाकर देखता है। अगर उधर हीन आप भी देखते हैं तो आपकी आँखों की पलकें दस बार झपकें किन्तु उसकी एक बार भी नहीं ! क्यों कि बच्चे के सम्मुख जो चीज आती है तो वह उसी को अपने उपयोग में पकड़ना चाहता है कि यह क्या है और कैसी। और किसी बात की उसे चिन्ता नहीं होती। बस इसीलिये वह उसे गौर से देखता है ताकि उसके दिल पर उसका प्रभाव पड़े, जो कि घर कर लेता है, फिर अनेक प्रयत्न करने पर भी उसका दूर हटाना कठिन हो जाता है, इसी का नाम संस्कार है।
     
    लड़के को शुरू के दो चार सालों में जो शिक्षा मिलती है जिसे कि वह अपनी स्वाभाविक सरलता से ग्रहण करता है, बाद में वैसी सुदृढ़ होकर रहने वाली शिक्षा अनेक वर्षों में भी उसे नहीं दी जा सकती। बाद की शिक्षा सब कृत्रिमपने को लिए हुए होती है। और इसलिये आप लोगों को चाहिए कि आप अपने बच्चों के आगे कभी भूलकर भी चेष्टा और बुरी बात न करें क्यों कि बच्चे का दिल एक प्रकार का कैमरा होता है जो कि आपकी की हुई चेष्टाओं के प्रतिबिम्ब को ग्रहण करता है।
     
    बच्चे के मन में विश्वास भी नैसर्गिक होता है। उसकी मां उसे जो भी कहे वहीं उसके लिए प्रमाण है। जो कुछ कहानियां जिस रूप से उसे कही जाती हैं वे सब उसे अक्षरशः सच मालूम होती हैं। वह तो अपनी माता को ही अपना हित करने वाली मानकर उसके कहने में चलना जानता है, अपनी माता पर उसकी अटल श्रद्धा रहती है। वह उसे जैसा कहे वैसा करना जानता है। और कुछ भी नहीं, बस इसीलिये उसके चित्त में व्यग्रता न होकर एकाग्रता अधिक होती है।
  14. संयम स्वर्ण महोत्सव
    बाल जीवन की विशेषता
     
    एक नवजात बालक भी अपने जीवन में खाना पीना सो जाना आदि अपनी अवस्थोचित बात तो करता ही है परन्तु वह अपने सरल भाव से जो करता है और जब तक करता है फिर उसे छोड़ दूसरी बात करने लगता हो तो उसी में संलग्न हो जाता है। उसे उस समय फिर पहले वाली बात के बारे की कुछ भी चिन्ता नहीं रहा करती। जब भूख लगी कि माता के स्तनों को पकड़कर खुशी से चूसने लगता है, किन्तु जहां पेट भरा कि उन्हें छोड़कर खेलने लगता है या सो जाता है, फिर भूख लगी कि उठकर दूध पीहने लगता है एवं पेट भरा कि फिर मस्त। इसे इस बात की भी चिन्ता नहीं कि यहां पर क्या हो रहा है और आगे क्या होने वाला है।
     
    वह तो सिर्फ दो ही बातें जानता है खुद करना एवं बुजुर्ग लोगों का अनुकरण करना। अत: चोरी, जारी, झूठ पाखण्ड आदि बुरी बातों से प्राकृतिक रूप से वह परे रहता है। आप किसी बच्चे, से पूछिये कि आज क्या खाया था, तो वह जैसा खाया है कहता है कि सिर्फ मट्ठे के साथ रूखी जुबार की रोटी खाई थी। क्योंकि वह इस बात से परे है कि उसे ऐसा कहने से मेरे कुटुम्ब वालों की बेइज्जती होवेगी। वह तो अपने सरल भाव से जैसा कुछ खाया है तो बतायेगा। फिर उसकी अम्मा भले ही इस बात की मरम्मत करती हो कि क्या करूं, बच्चे को पेचिश हो रही है इसलिये मुझे भी यही खानी पड़ी और इसे भी यही खिलाई।
     
    अस्तु, बच्चा उपर्युक्त रूप से सरल और स्पष्ट बातें करता है इसीलिये उसकी बोली सबको मीठी लगती है। जो भी सुनता है उसका चित्त बड़ा प्रसन्न हो उठता है। अगर उसका हिसाब सदा के लिये ऐसा ही बना रहे तो वह मनुष्यता का सौभाग्य समझना चाहिए। किन्तु वह जब अपने जीवन क्षेत्र में आगे बढ़ता है और अपने माता-पिता आदि को या अड़ोसी-पड़ोसी को नाना प्रकार की बहानेबाजी की चालाकी भरी बातें करते हुए देखता है तो अनुकरणशीलता के कारण आप भी वैसा ही या उनसे भी कहीं अधिक चालाक हो लेता है।
     
    भारत माता की गोद में पला हुआ होने के नाते से समाज का स्वयं सेवक होकर रहने के बदले, इन इन्द्रियों का दास बनकर जनता के जीवन पथ में कण्टक स्थानीय प्रमाणित होता है, औरों को घोर कष्ट पहुंचाकर भी अपने स्वार्थ की पूर्ति करने ही तत्पर रहना, हर एक के साथ पेचीदा बातें करके केवल अपना मतलब गांठना, दूसरे के हक को हड़प करने में कुछ भी संकोच न करना, अश्लील भद्दी चेष्टायें कर के अपने आपको धन्य समझना और गुरुजनों की बातों को भी ठुकरा कर अपना उल्लू सीधा करना, किसी को भी अपनी चालाकी के आगे कुछ भी नहीं समझना इत्यादि रूप से एकान्त कठोरता को अपना कर प्रत्युत मानवता के बदले दानवता को स्वीकार कर बैठता है।
     
    हां यदि उसको शुरू से ही तुली हुई प्रमाणित बात करने वाले महापुरुषों का संसर्ग प्राप्त होता रहे तो बहुत कुछ संभव है कि उपर्युक्त बुराईयों से सर्वथा अछूता रहकर दया क्षमाशील सन्तोषादि सद्दगुणों का भण्डार बनते हुए वही बालक से पुरुषोत्तम भी बन सकता है।
  15. संयम स्वर्ण महोत्सव
    दया की महत्ता
     
    किसी भी प्राणी का कोई भी तरह का कुछ भी बिगाड़ न होने पावे, सब लोग कुशलतापूर्वक अपना-अपना जीवन व्यतीत करें ऐसी रीति का नाम दया है। दयावान का दिल विशाल होता है, उसके मन में सबके लिये जगह होती है। वह किसी को भी वस्तुतः छोटा या बड़ा नहीं मानता, अपने पराये का भी भेदभाव उसके दिल से दूर रहता है। वह सब आत्माओं को समान समझता है। तभी तो वह दूसरे का दु:ख दूर करने के लिए अपने आपका बलिदान करने में भी नहीं हिचकिचाता है। एक बार की बात है कि हाई कोर्ट के एक जज साहब अपनी मोटर में सवार होकर कचहरी को जा रहे थे। रास्ते में जाते हुए देखते हैं कि कीचड़ में एक सूअर फंसा हुआ है जो कि निकलने के लिय छटपटा रहा है। जज साहब ने अपनी मोटर रुकवाई और खुद अपने हाथों से उस सूअर को निकाल कर बाहर किया। सूअर ने अपने अंग फड़फड़ाये जिससे जब साहिब के कपड़े छींटाछींट हो गये। कचहरी को देर हो रही थी। अत: उन्हीं कपड़ों को पहने हुए मोटर में बैठ कर फिर कचहरी को रवाना हो लिए। लोगों ने जब जज साहब का यह हाल देखा तो लोग आश्चर्य में डूब गये कि आज उनका ऐसा ढंग क्यों है। ड्राईवर ने बीती हुई बात बताई तो सब लोग वाह-वाह कहने लगे। जज साहिब बोले कि इसमें मैंने बड़ी बात कौनसी की है। मैंने सूअर का दु:ख दूर नहीं किया बल्कि मैंने तो मेरा ही दु:ख दूर किया है। मुझसे उसका वह दृश्य देखा नहीं गया तब मैं फिर और क्या करता?
     
    ठीक ही है किसी को भी कष्ट में पड़ा देखकर दयालु पुरुष का दिल द्रवित हो उठता है इसमें संदेह नहीं है। वह अमरता का वरदाता होता है। जो कि अज्ञानी और असमर्थ बालकों को मातृ-भाव से उनके हित की बात कहते हैं, वे जो कुछ भूल कर रहे हों उसे हृदयग्राही मधुर शब्दों में उन्हें समझाकर उत्पथ में न जाने देते हुए प्रेम-पूर्वक सही रास्ते पर लाने की चेष्टा करता है। ऐसा करने में कोई व्यक्ति अपनी आदत के वश होकर आभार न मानते हुए प्रत्युत उसके साथ में विरोध दिखलाते हुए उसकी किसी प्रकार की हानि भी करता है तो दयालु पुरुष उसे भी सहन करता है परन्तु उसे मार्ग पर लाने की ही सोचता है। 
     
    सुनते हैं कि इंग्लैंड में होमरलेन नाम का एक विद्वान था। वह जब भी किसी असहाय, दुःखी पुरुष को देखता था तो उसका दिल पिघल जाया करता था। कोई बालक किसी भी प्रकार की बुरी आदत में पड़ रहा हो तो उसे देखकर वह विचारने लगता कि इसकी तो सारी जिन्दगी ही बरबाद हो जायेगी। किसी भी तरह से इसकी यह कुटेव दूर होकर इसका भविष्य उज्जवल होना चाहिए। बस इस विचार के वश होकर उसने एक रिपब्लिकन नाम का आश्रम खोला, जिसमें बुरी आदत वाले बालक लाना और धीरे-धीरे उनके जीवन को सुधारना ही उसका उद्देश्य था।
     
    एक दिन कोर्ट में एक ऐसा बालक पकड़ा गया जो कई बार चोरी कर चुका था। होमरलेन को जब पता लगा तो वह उसे वहां से अपने पास आश्रम में ले आया परन्तु उसने आते ही ऊधम मचाना शुरू कर दिया। वहां के लड़कों से लड़ने लगा और उनकी पुस्तकें फाड़ने लगा तो वहां के प्रबन्धक लोग घबराये और होमरलेन से बोले कि साब यह लड़का तो नटखट है। सारे बालकों को ही बिगाड़ देगा अतः इसे यहां रखना ठीक नहीं है। होमर लेन बोला- भाई मुझे इस पर दया आती है, अगर यहाँ आकर भी नहीं सुधरा तो फिर कहां सुधरेगा? इसका तो फिर सारा जीवन ही बरबाद हो जायेगा। खैर, इसे तुम यहां नहीं रखते तो मुझे दो, मैं इसे अपने पास रखूँगा। ऐसा कहकर जब उसे वह घर लाया तो वहां पर भी उसका तो वही हाल। उनके कमरे की बहुमूल्य चीजों को भी वह तो वैसे ही तोड़ने फोड़ने लगा। फिर भी होमरलेन ने बिल्कुल मन मैला नहीं किया बल्कि हंसते हुए बोला, कि बेटा यह घड़ी और बची है इसे भी तोड़ डालो।
     
    बस यह सुनते ही उस लड़के के दिल में एकाएक परिवर्तन आ गया। वह सोचने लगा कि देखों मैंने इनका कितना नुकसान कर दिया, फिर भी मेरे प्रति इनके मन में कुछ भी मलाल नहीं आया, देखो ये कितने गंभीर हृदयी हैं और मैं कितना तूफानी! ये भी आदमी हैं तथा कहने के लिए तो मैं भी तो एक आदमी ही हूँ, मुझे कुछ सोचना तो चाहिए। ऐसा विचार अपने मन में करते हुए वह लड़का होमरलेन के पैरों में पड़ गया और अपने अपराध की क्षमायाचना करने लगा। बोला कि बस मैं अब आगे किसी भी प्रकार की बदमाशी नहीं करूंगा। होमरलेन बड़ा खुश हुआ और कहने लगा कि कोई बात नहीं, बल्कि मुझे तो इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि अब तुम समझ गये हो।
     
    मतलब यही कि जिसका दिल दया से भीगा हुआ होता है वह किसी से भी मुँह मोड़ना नहीं जानता। वह तो अपना सब कुछ खोकर भी दुनिया के दु:ख को दूर करना चाहता है। क्योंकि उसका प्राणी मात्र के प्रति सहज स्वाभाविक प्रेम होता है, अत: वह तो सबको गुणवान देखना चाहता है एवं किसी भी गुणवान को जब वह देखता है तो उसका दिन प्रसन्नता से उमड़ उठता है, जैसा कि तत्वार्थसूत्र में है-
     
    ‘मेत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थयानिच सत्वगुणाधिक किल्श्यंमाना  विनयेषु ।'
  16. संयम स्वर्ण महोत्सव
    जहां दया है वहां कोई दुर्गुण नहीं
     
    जिन बातों के होने से प्राणी, प्रजा का विप्लवकारी साबित हो ऐसी हिंसा, असत्यभाषण चोरी, व्यभिचार, असन्तोष आदि को दुर्गुण समझना चाहिए। जहां दया होती है वहां पर इन दुर्गुणों का लेश मात्रा भी नहीं होता परन्तु जहां इनमें से कोई भी एक तो वहां पर फिर दया नहीं रह सकती है। हमारे यहां एक कथा आती है कि एक राजा था उस के दो लड़के थे। तो राजा के मरने पर बड़े लड़के को राजा और छोटे को युवराज बनाया गया। दोनों का समय परस्पर बड़े प्रेम से कटने लगा। परन्तु संयोगवश ऐसा हुआ कि एक रोज राजा ने युवराज्ञी को नजर भर देख लिया। युवराज्ञी युवती थी और बड़ी सुन्दर थी। अत: उसे देखते ही राजा का विचार बदल गया। वह उसके साथ अपनी बुरी वासना को पूरी करने की सोचने लगा।
     
    अत: उसने युवराज को तो किसी सीमान्त दुष्ट राजा पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया और युवराज्ञी को फुसलाने के लिए उसने अपनी दूतों द्वारा पारितोषक भेजा किन्तु वह राजी न हुयी। राजा ने सोचा भाई को मार दिया जाए, फिर तो वह लाचार होकर अपने आप मेरा कहना करेगी। वसन्तोत्सव का षडयंत्र रचाया गया, सब लोग अपनी-अपनी पत्नियों को लेकर वन-विहार को गये। युवराज भी युवराज्ञी के साथ अपने बगीचे में पहुंच गया और सोचा कि आज की रात यहां ही आराम से काटी जाये। उसे क्या पता था कि रंग में भंग होने वाला है। राजा के मनचाही बात हुई,
     
    अत: वह घोड़े पर चढ़ कर युवराज के विश्राम स्थान की ओर रवाना हुआ। पहरा लग रहा था, परहेदारों ने राजा को आगे बढ़ने से रोककर युवराज को सूचना दी कि महाराज आपके पास आना चाहते हैं। युवराज बोले, आने दो। युवराज्ञी समझ गई और बोली प्रभो। आप क्या कर रहे हैं? होशियार रहिये, आपके भाई साहब का विचार मुझे आपके प्रति ठीक प्रतीत नहीं हो रहा है। युवराज ने उसके कहने पर भी ध्यान नहीं दिया। राजा साहब आये और उचित स्थान पर युवराज के पास बैठ गये। युवराज बोला भाई साहब! आज इस समय कैसे आना हो गया, ऐसा क्या काम आ पड़ा? आपने आने का कष्ट क्यों किया, मुझे सूचित कर देते तो मैं ही आपके पास आ सकता था।
     
    राजा बोला- बताऊँगा, परन्तु मुझे बड़ी जोर से प्यास लग रही है अतः पहले पानी पिलाओ। युवराज को क्या पता था कि इनके अन्तरंग में क्या है? वह तो एकान्त भ्रातृ-स्नेह को लिए हुए था अत: बड़े भाई को पानी पिलाने के लिए गिलास-उठाने को लपका कि पीछे से राजा ने उसकी गरदन पर कटार मार दिया, और उन्हीं पैरों उलटा लौट चला। सिपाहियों से हल्ला मचा कर उसे पकडना चाहा, मगर युवराज्ञी ने सोचा कि स्वामी मरणासन्न हैं अगर हम लोग इसी धर पकड़ में लगे रहे तो संभव है कि स्वामी का अन्त समय बिगड़ जाये अतः उसने सिपाहियों को ऐसा करने से रोका और अपने दिल को कड़ा करके समयोचित अन्तिम संदेश - “हे स्वामिन इस संसार में अनादिकाल से जन्म-मरण करते रहने वाले इस शरीरधारी की अपनी भूल ही इसका शत्रु है। और स्वयं संभल कर चलना ही इसका मित्र है, बाकी ये सब दुनिया के लोग तो परिस्थिति के वश होकर जो आज शत्रु हैं वे ही कल मित्र, और मित्र से फिर शत्रु होते दिखाई देते हैं। जो भाई साहब आपके लिए जान तक देने को हर समय तैयार रहते थे वे ही आज आपकी जान के ग्राहक बन गये, ऐसा होने से यदि विचार कर देखा जावे तो प्रधान निमित्त मैं ही हूं, मेरे ही रूप के पीछे पागल होकर उन्होंने ऐसा किया, अत: एक तरह से देखा जावे तो मैं ही आपकी शत्रु हूँ, जिसको आप अपनी समझ रहे हैं।
     
    वस्तुत: कोई किसी का शत्रु या मित्र नहीं है न कोई अपना है और न कोई पराया। सब लोग अपने-अपने कर्मों के प्रेरे हुए यहां से वहां चक्कर काट रहे हैं। कोई किसी का साथ देने वाला नहीं है, ओरों की तो बात ही क्या, इस मनुष्य का शरीर भी यहां का यहीं रहा जाता है जबकि वह परलोकगमन की सोचता है। हां, उस समय यदि भगवान का स्मरण करता है तो वह स्मरण अवश्य उसके साथ रहता है एवं गड्ढे में गिरने से बचाता है। अतः आप तो क्या अच्छे और क्या बुरे सभी प्रकार के संकल्पों को त्याग कर परमात्मा के स्मरण में मन को लगाइये और इन नश्वर शरीर का प्रसन्नता पूर्वक त्याग कर जाइये।
     
    जैसे कि सर्प कांचली को छोड़ जाता है, इस प्रकार कह कर अन्तिम श्वास तक नमस्कार मंत्र उसे सुनाती रही उसने भी भगवान् के चरणों में मन लगाकर इस पामर शरीर का परित्याक किया, एवं वह दिव्य देहधारी देव बना ओर उसी युवराज के रूप में पानी लेकर राजा के पास आया तथा बोला कि लो पानी पी लो- चले क्यों आये, तुम तो प्यासे थे? परन्तु वस्तुत: तुम पानी के प्यासे न होकर जिस बात के प्यासे हो वह तुम्हारी प्यास, जो मार्ग तुमने अपना रखा है उससे नहीं मिट सकती देखों तुमने मेरे कटार मार दी थी, वह भी उस सती के सन्देश मंत्र से ठीक हो गयी है। जिस महासती को लक्ष्य कर तुम बुरी वासना के शिकार बन रहे हो। अत: अब तुमको चाहिए कि तुम सन्तोष धारण करो, उस सती के चरण छुओं एवं भगवान् का नाम जपो, बस इसी में तुम्हारा कल्याण है।
     
    इस पर होश में आकर राजा ने भी अपने दुष्कृत्य का पश्चाताप करके ठीक मार्ग स्वीकार किया।'' मतलब यह कि दया के द्वारा ही मनुष्य मानवीय बनता है। दया ही परम धर्म है, जिसको अपनाकर यह शरीरधारी ऊपर को उठता है। परन्तु जो कोई भी दया को भूल जाता है या अहंकार के वश में होकर उसकी अवहेलना करता है वह जीव इस दुनियां में घृणा का पात्र बन जाता है जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं
     
    दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
    तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण॥
  17. संयम स्वर्ण महोत्सव
    दया का सहयोग विवेक
     
    हाँ यह बात भी याद रखने योग्य है कि दया के साथ में भी विवेक का पुट अवश्य चाहिए। दया होगी और विवेक न होगा प्रत्युत उसके ही स्थान पर मोह होगा तो वह उस विश्व संजीवनी दया को भी संहारकारिणी बना डालेगा। मान लीजिये कि आपको बच्चे को कफ, खांसी का रोग हो गया, आप उसको आराम कराना चाहते हैं और वैद्य के पास से दवा भी दिला रहे हैं, मगर बच्चे को दही खाने का अभ्यास है, वह दही मांगता है, नहीं देते हैं तो रोता है, छटपटाता है, मानता नहीं है, तो आप उसे दही खाने को दे देंगे? अपितु नहीं देंगे, क्योंकि दही खिला देने से उसका रोग बढेगा यह आप जानते ही हैं। फिर भी आपको उस बच्चे के प्रति कहीं मोह आ गया तो सम्भव है कि आप उसे छटपटाता हुआ देखकर उपर्युक्त बात को भूल जावें तथा उसे दही खाने को देखें तो यह आपकी दया के बदले उस बच्चे के प्रति दुर्दया ही कही जायेगी, जो कि उसके स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली ही होगी।
     
    रावण को मार कर श्री रामचन्द्रजी महाराज जब सीता महाराणी को वापिस लाये और घर में रखने लगे तो लोगों ने इस पर आपत्ति की। श्री रामचन्द्रजी यह जानते अवश्य थे कि सीता निर्दोष है इसमें कोई भी शक नहीं, फिर भी वनवास का आदेश दिया ताकि वन के अनेक संकट सहकर भी अन्त में उसे परीक्षोत्तीर्ण होना ही पड़ा। अगर श्री रामचन्द्रजी महाराज ऐसा न करते तो क्या आज लोगों के दिल में सीता महाराणी के लिए यह स्थान हो सकता था? श्री रामचन्द्रजी की गौरव कथा जिस महत्ता से आज गायी जा रही है वह कभी भी संम्भव थी? कि एक साधारण आदमी की आवाज पर श्री रामचन्द्र जी ने अपने प्राणों से प्यारी सीता का परित्याग कर दिया, ओह कितना ऊँचा स्वार्थत्याग है परन्तु बात वहां ऐसी थी, श्री रामचन्द्रजी महापुरुष थे, उनकी निगाह में सभी प्राणी अपने समान थे। बस इसीलिए तो सब लोग आज भी उन्हें याद करते हैं।
  18. संयम स्वर्ण महोत्सव
    अभिमान का दुष्परिणाम
     
    कुछ भी न कर सकने वाला होकर भी अपने आपको करने वाला मानना अभिमान है। वस्तुतः मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, जो कुछ होता है वह अपने-अपने कारण कलाप के द्वारा होता है। हां संसार के कितने ही कार्य ऐसे होते हैं जिनमें इतर कारणों के ही समान मनुष्य का भी उनमें हाथ होता है। एवं जिस कार्य में मनुष्य का हाथ होता है तो वह उसे अपनी विचार शक्ति के द्वारा प्रजा के लिए हानिकारक न होने देकर लाभप्रद बनाने की सोचता है, बस इसीलिये उसे उसका कर्ता कहा जाता है। फिर भी उस काम को होना, न होना या अन्यथा होना यह उसके वश की बात नहीं है।
     
    मान लीजिये कि एक किसान ने खेती का काम किया - जमीन को अच्छी तरह जोता, खाद भी अच्छी लगाई, बीज अच्छी तरह से बोया, सिंचाई ठीक तौर से की, और भी सब सार सम्भाल की और फसल अच्छी तरह पककर तैयार हो गयी। किन्तु एकाएक ओला पड़ा जिस से कि किया कराया सब कुछ बर्बाद। सारी खेती टूट कुचलकर मिट्टी में मिल जाती है। ऐसी हालत में अगर किसान यह कहे कि मैं ही खेती करने वाला हूं, अन्न को उपजाता हूं तो यह उसका अभिमान गलत विचार है। इस गलत विचार के पीछे स्वार्थ की बदबू रहती है यानि जब कि खेती करने वाला हूं तो मैं ही उसका अधिकारी हूं, भोक्ता हूं, किसी दूसरे का इस पर क्या अधिकार है? इस प्रकार का संकीर्ण भाव उसके हृदय में स्थान किये रहता है। इस संकीर्ण भाव के कारण से ही प्रकृति भी उसका साथ देना छोड़कर उसके विरुद्ध ही रहती है, ताकि जी-तोड़ परिश्रम करने पर भी सफलता के बदले में प्रायः असफलता ही उसके हाथ लगा करती है।
     
    हां, जो निरभिमानी होता है, वह तो मानता है कि यह मेरा कर्तव्य है अत: मैं करता हूं। मुझे करना चाहिये। इसका फल किसको कैसा क्या होगा, इसकी उसे चिन्ता ही नहीं होती। एक समय की बात है कि किसी नगर का राजा घोड़े पर चढ़कर वायु सेवन के लिये रवाना हुआ, नगर के बाहर आया तो एक बूढ़ा माली अपने बगीचे में नूतन पेड़ लगा रहा था। यह देखकर राजा बोला कि बूढ़े तू जो ये पेड़ लगा रहा है तो कब जाकर बड़े होंगे? क्या तू इनके फल खाने के लिए तब तक बैठा ही रहेगा? बूढ़े ने उत्तर दिया कि प्रभो इसमें फल खाने की कौन-सी बात है? यह तो मेरा कर्तव्य है, अत: मैं कर रहा हूँ मैंने भी तो बुजुर्गों के लगाये हुए पेड़ों के फल खाये हैं, अत: इन मेरे लगाए हुये पेड़ों के फल मेरे से आगे वाले लोग खावें यही प्रकृति की मांग है। इस पर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और पारितोषक रूप में एक मुहर उसे देते हुये धन्यवाद दिया।
     
    मतलब यह कि कर्तव्यशील निरभिमानी आदमी जो कुछ करता है उसे कर्तव्य समझकर विवेकपूर्वक करता है, उसे फल की कुछ चिन्ता नहीं रहती। इसी उदारता को लेकर उसे उसमें सफलता भी आशीतीत प्राप्त होती है।
     
    श्री रामचन्द्रजी को पता लगा कि सीता रावण के घर पर है तो बोले कि चलो उनको लाने के लिए। इस पर सुग्रीव आदि ने कहा कि प्रभो! रावण कोई साधारण आदमी नहीं है। उससे प्रतिद्वन्दिता करना आग में हाथ डालना है। श्री रामचन्द्र जी ने कहा, कोई बात नहीं। परन्तु सीता को आपत्ति में पड़ी देखकर भी हम चुप बैठे रहे, यह कभी नहीं हो सकता है। हमें अपना कर्तव्य अवश्य पालन करना चाहिये। फिर होगा तो वही जो कि प्रकृति को मंजूर है। श्री रामचन्द्रजी की सहज सरलता के द्वारा उनके लिये सभी तरह का प्रक्रम अपने आप अनुकूल होता चला गया।
     
    उधर उनके विपक्ष में रावण यद्यपि वस्तुत: बहुत बलवान और शक्तिशाली भी था, परन्तु वह समझता था कि मुझे किसकी क्या परवाह है, मैं अपने भुजबल और बुद्धि कौशल से जैसा चाहूं वैसा कर सकता हूं। बस इसी घमण्ड की वजह से उसकी खुद की ही ताकत उसका नाश करने वाली बन गयी। इस बात का पता हमें रामायण पढ़ने से लगता है अतः मानना ही चाहिये कि अभिमान के बराबर और कोई दुर्गुण नहीं है, जिसके पीछे अन्धा होकर यह मनुष्य अपने आपको ही खो बैठता है।
  19. संयम स्वर्ण महोत्सव
    परिस्थिति की विषमता
     
    किसी भी देश और प्रान्त में ही नहीं किन्तु प्रत्येक गांव तथा घर में भी आज तो प्राय: कलह, विसंवाद, ईर्षा, द्वेष आदि का आतंक छाया हुआ पाया जा रहा है। इधर से उधर चारों तरफ बुराइयों का वातावरण ही जोर पकड़ता जा रहा है, इसलिये मनुष्य अपने जीवन के चौराहे पर किकर्त्तव्यविमूढ़ हुआ खड़ा है। वह किधर जावे और क्या करे? सभी तरफ से हिंसा की भीषण ज्वालायें आकर इसे भस्म कर देना चाहती हैं। असत्य के खारे पानी से सन कर इसका कलेजा पुराने कपड़े की तरह चीर-चीर होता हुआ दीख रहा है। लूट-खसोट के विचार ने इसके लिए हिलने को भी जगह नहीं छोड़ी है। व्यभिचार की बदबू ने इसके नाक में दम कर रखा है। असन्तोष के जाल में तो बुरी तरह जकड़ा हुआ पड़ा है। घर में ओर बाहर में कहीं भी इसे शान्ति नहीं है। क्योंकि भौतिकता की चकाचौंध में आकर इसने अपना विश्वास गला डाला है। अपनी चपलता के वश में होकर यह किसी के लिये भी विश्वास का  कर्तव्य पथ प्रदर्शन पात्र नहीं रहा है। और न इसे ही कोई ऐसा दीखता है जिसके कि भरोसे पर यह धैर्य धारण कर रह सके।
     
    साँप से सबको डर लगता है कि वह कहीं किसी को काट न खाये, तो सांप भी हर समय यो भयभीत बना ही रहता है कि कोई मुझे मार न डाले। बस यही हाल आज मनुष्य का मनुष्य के साथ में हो रहा है। एक को दूसरा हड़प जाने वाला प्रतीत होता है। अतएव मनुष्य, मनुष्य के पास जाने में संकोच करता है। हां, किसी भी वृक्ष के पास वह खुशी से जा सकता है, क्योंकि उसे विश्वास है वह भूखे को खाने के लिये फल, परिश्रान्त को ठहरने के लिये छाय, शयन करना चाहने वालों को फूल पत्तों की सेज ओर टेककर चलने आदि के लिए लतड़ियां देगा।
     
    वह मनुष्य की भांति धोखे में डालने वाला नहीं है अपितु सहज रूप से ही परोपकारी है। बस इसी विचार को लेकर मनुष्य वृक्ष के पास जाने में संकोच नहीं करता। परन्तु मनुष्य मनुष्य के पास न जाकर उससे दूर रहना चाहता है। क्योंकि वह सोचता है कि आज मनुष्य दूसरे का बुरा करने का आदी बना हुआ है। उसके पास जाने पर मेरा बिगाड़ के सिवाय सुधार होने वाला नहीं है, मेरी कुछ न कुछ हानि ही होगी अपितु कुछ लाभ होने वाला नहीं है। बस इसीलिये वह उससे दूर भागता है। परन्तु गाड़ी का एक पहिया जिस प्रकार दूसरे पहिये के सहयोग बिना खड़ा नहीं रह सकता उसी प्रकार दुनियादारी का मानव भी किसी दूसरे मानव के सहयोग से रहित होकर कैसे जीवित रह सकता है? अतः मानव को अपना जीवन भी आज दूभर बना हुआ है।
  20. संयम स्वर्ण महोत्सव
    स्वार्थपरता सर्वनाश की जड़ है
     
    ऊपर लिखा गया है कि मनुष्य का जीवन एक सहयोगी जीवन है। उसे अपने आपको उपयोगी साबित करने के लिये औरों का साथ अवश्यम्भावी है, जैसे कि धागों के साथ में मिलकर चादर कहलाता है और मूल्यवान बनता है। अकेला धागा किसी गिनती में नहीं आता, वैसे ही मनुष्य भी अन्य मनुष्यों के साथ में अपना संबंध स्थापित करके शोभावान बनता है। यानी कि अपना व्यक्तित्व सुचारू करने के लिये मनुष्य को सामाजिकता की जरूरत होती है। अत: प्रत्येक मानव का कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने आपके लिये जितना सुभीता चाह रहा हो उससे भी कहीं अधिक सुभीता औरों के लिये देने और दिलवाने की चेष्टा करे। परन्तु आज हम देख रहे हैं कि आज के मानव की गति इससे विलक्षण है। वह समाज में रहकर भी समाज की कोई परवाह नहीं करता है, उसे तो सिर्फ अपने आपकी ही चिन्ता रहती है। भूख लगी कि रोटियों की तलाश में दौड़ता है, प्यास लगी तो पानी-पीना चाहता है। जहां खाना-खाया, पानी-पीया और मस्त ! फिर लेट लगाने की सोचता है। क्या वह यह भी सोचता है कि कोई और भी भूखा होगा? बल्कि आप खा चुका हो और रोटियां शेष बच रही हों एवं भूखा भिखारी सम्मुख में खड़ा होकर खाने के लिये मांग रहा हो तो भी उसे न देकर आप ही उन्हें शाम को खा लेने की सोचता है।
     
    कहो भला ऐसे खुदगर्जी का भी कहीं कोई ठीक ठिकाना है? जिसका कि शिकार आज का अधिकांश मानव है। अपनी दो रोटियों में से एक चौथाई रोटी भी किसी को दे दें सो तो बहुत ऊँची बात है प्रत्त्युत यह तो दूसरे के हक की रोटी को भी छीन कर हड़प जाना चाहता है। इसी खुदगर्जी की आग में आज का मानव स्वयं जलकर भस्म होता हुआ देखा जा रहा है।
     
    एक समय की बात है कि एक साधु को मार्ग में गमन करते हुये चार बटोही मिले। साधु ने कहा भाइयो! इधर मत जाना क्योंकि इधर थोड़ी दूर आगे जाकर वहां पर मौत है। किन्तु उसके कहने पर उन लोगों ने कोई ध्यान नहीं दिया। अपनी धुन में आगे को चल दिये। कुछ दूर जाकर देखा तो अशरफियों का ढेर पड़ा था। उसे देखकर वे बड़े खुश हुये, बोले कि उस साधु के कहने को मान कर हम लोग वहीं रुक जाते तो यह निधान कहां पाते ! इसीलिए तो हम कहते हैं कि इन साधुओं के कहने में कोई न आवे। खैर! अपने को चलते-चलते कई दिन हो गये हैं, भूख सता रही है, अत: इन में से एक अशरफी ले जाकर एक आदमी इस पास वाले गांव में से मिठाई ले आवे। उसे खाकर, फिर इन शेष अशरिफयों के बराबर चार हिस्से करके एक-एक हिस्सा लेकर प्रसन्नतापूर्वक घर को चलेंगे।
     
    अब जो मिठाई लेने गया उसने सोचा कि मैं तो यहीं पर खालू और अब शेष मिठाई में जहर मिला कर ले चलूं ताकि इसे खाते ही सब मर जावें ताकि सब अशरफियां मेरे ही लिए रह जावें। उधर अन्य लोगों ने विचार किया कि आते ही उसे मार डालना चाहिये ताकि इन धन के तीन हिस्से ही करने पड़े एवं जब वह आया तो उन तीनों ने उसके माथे पर लट्ठ जमाया, जिससे वह मर गया और उसकी लाई हुई मिठाई को खाकर वे तीनों भी मर गये। अशरफियां वहां ही पड़ी रह गई।
     
    बन्धुओं ! यही हाल आज हम लोगों का हो रहा है। हम बांटकर खाना नहीं जानते, सिर्फ अपना ही मतलब गांठना चाहते हैं। और इस खुदगर्जी के पीछे मगरूर होकर सन्तों, महन्तों की वाणी को भुला बैठते हैं।
  21. संयम स्वर्ण महोत्सव
    श्रावक की सार्थकता
     
    श्रावक शब्द का सीधा सा अर्थ होता है, सुनने वाला एवं सुनने वाले तो वे सभी प्राणी हैं जिनके कान हैं। अत: ऐसा करने से कोई ठीक मतलब नहीं निकलता। हम देखते हैं कि किसी भी पंचायत या न्यायालय में कोई पुकारने वाला पुकारता है। उसकी पुकार पर ध्यानपूर्वक विचार करके यदि उसका समुचित प्रबन्ध नहीं किया जाता है तो वह कह उठता है कि यहां पर किसकी कौन सुनने वाला है? कितना भी क्यों न पुकारों। मतलब उसका यह नहीं कि वहां सभी बहरे हैं, परन्तु सुनकर उसका ठीक उपयोग नहीं, पुकारने वाले की पीड़ा का योग्य रीति से प्रतिकार नहीं, बस इसीलये कहा जाता है कि कोई सुनने वाला नहीं।
     
    हमारे पूर्वजों ने भी उसी को श्रावक कह पुकारा है जो कि आर्ष वाक्यों को न्यायालय के नियमों के रूप में अटल मान कर श्रद्धा पूर्वक स्वीकार किये हुये हो, जिसका हृदय विचार पूर्ण भावना से ओत-प्रोत हो। अत: किसी को भी कोई प्रकार की विपत्ति में पड़ा हुआ पाकर उसका वहां से उद्धार किये बिना जिसे कभी चैन नहीं हो एवं अपने तन,मन और धन के द्वारा सब तरह से समाज सेवा के लिए हर समय तैयार रहने वाला हो।
     
    वह खुद अनीति-पथ में पैर रखे यह तो कभी संभव ही नहीं हो सकता, प्रत्युत वह औरों को भी कुमार्ग में जाते हुए देखता है तो आश्चर्य में डूबा रहता है कि यह ऐसा क्यों हो रहा है? इस प्रकार मधुर और कोमल दिल वाला जो कोई हो जाता है वही श्रावक कहलाता है। भले ही वह परिस्थिति के वश होकर अपना कायिक संबंध कुछ लोगों के साथ में ही स्थापित किये हुए हो फिर भी अपनी मनोभावना से सब लोगों को ही नहीं अपितु प्राणी मात्रा को अपना कुटुम्ब समझता है- अत: किसी का भी कोई बिगाड़ कर देना या हो जाना उसकी निगाह में बहुत बात होती है। हां, सन्मार्ग के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धावान होता है। अतः सन्मार्ग पर चलने वालों पर उसका विशेष अनुराग हुआ करता है एवं वह हर तरह से उनकी उपासना में निहित रहता है। इसलिये उपासक भी कहा जाता है।
  22. संयम स्वर्ण महोत्सव
    उपासक का प्रशमभाव
     
    जैसा कि महात्माओं के मुंह से उसने सुना है, उसके अनुसार वह मानता है कि आत्मत्व के रूप में सभी जीव समान हैं, सबमें जानपना विद्यमान है। अव्यक्त रूप से सभी परमात्मत्व को लिए हुए हैं, प्रभुत्व शक्तियुक्त है एवं किसी के भी साथ में विरोध, वैमनस्य करना परमात्मा के साथ में विरोध करना कहा जाता है। परमात्मा से विरोध करना सो अपने आपके साथ ही विरोध करना है। अत: किसी के भी साथ में बैश्र विरोध करने की भावना ही उसके मन में कभी जागृत ही नहीं होती। उसके हृदय में तो सम्पूर्ण प्राणियों की उपयोगिता को समझते हुए प्रेम के लिए स्थान होता है। बल्कि वह तो यह मानता है कि दुनिया का कोई भी पदार्थ अनुपयोगी नहीं है। यह बात दूसरी कि मनुष्य उससे अनभिज्ञ हो। अतः अपनी चपलता के वश में होकर उसका दुरुपयोग कर रहा हो।
     
    एक बार की बात है - राजा और रानी अपने महल में सुकोमल सेज पर विश्राम कर रहे थे। इतने में राजा की नजर एक मकड़े पर पड़ी जो कि वहां महल की छत में अपने सहज भाव से जाला तान रहा था। राजा को उसे देखकर गुस्सा आया कि देखों यह बेहूदा जन्तु मेरे साफ सुथरे महल को गन्दा बना रहा है। अतः उसे मारने के लिए राजा ने तमंचा उठाया। परन्तु शीघ्रता के साथ उसका हाथ पकड़ कर रानी बोली, प्रभो ! यह आप क्या कर रहे हैं? आप इसे बेकार समझ रहे हैं, फिर भी अपनी-अपनी जगह सभी काम आने वाले हैं। समय पड़ने पर आपको इस बात का अनुभव होगा।
     
    रानी के इस प्रकार मना करने पर राजा मान गया, किन्तु राजा के मन में यह शंका बनी ही रही कि क्या यह भी कोई काम में आने वाला है? अस्तु दूसरे ही रोज राजा अपने मंत्री आदि के साथ घूमने को निकला तो पिछाड़ी से आकर एक कुत्ते ने राजा की जांघ में काट खाया। वैद्य से पूछा गया कि अब क्या करना चाहिए? जवाब मिला कि यदि कहीं मकड़ी का जाला मिल जावे तो उसे लाकर इस घाव में भर दिया जावे। बस वहीं इसकी एक लाजवाब दवा है। यह सुनकर राजा को विश्वास हुआ कि रात वाला रानी साहिबा का कहना ठीक ही था।
     
    मतलब यही कि अपनी-अपनी जगह सभी मूल्यवान हैं। अत: समझदार आदमी फिर क्यों किसी के साथ में मात्सर्यभाव को लेकर इसका मकलोच्छेद करना चाहें? क्योंकि न मालूम किसके बिना इसका कौनसा कार्य किस समय अटका रहे।
  23. संयम स्वर्ण महोत्सव
    संवेगभाव
     
    महात्मा लोगों ने निर्णय कर बताया है कि शरीर भिन्न है तो शरीरी उससे भिन्न। शरीरी चेतन और अमूर्तिक है तो शरीर जड़ और मूर्तिक, पुद्गल परमाणुओं का पिंड, जिसको कि यह चेतन अपनी कार्यकुशलता दिखाने के लिए धारण किये हुए है। जैसे बढ़ई वसोला लिए हुए रहता है काठ छीलने के लिये, सो भोंटा हो जाने पर उसे पाषाण पर घिसकर तीक्ष्ण बनाता है और उसमें लगा हुआ बैंता अगर जीर्ण-शीर्ण हो गया हो तो दूसरा बदलकर रखता है। वैसे ही उपासक भी अपने इस शरीर से भगवद्भजन और समाज सेवा सरीखे कार्य किया करता है। अतः समय पर समुचित भोजन तथा वस्त्रों द्वारा इसे सम्पोषण भी देता है। परन्तु उसका यह शरीर भगवद्भजन सरीखे पुनीततम कार्य में सहायक न होकर प्रत्युत उसके विरुद्ध पड़ता हो तो बेकार समझकर उपासक भी इससे उदासीन होकर रहता है।
     
    राजा पुष्पपाल की लड़की मदनसुन्दरी जो कि आर्यिकाजी के पास पढ़ी थी। वह जब विवाह योग्य हुई तो पिता ने पूछा, बेटी कहो! तुम्हारा विवाह किस नवयुवक के साथ में किया जावे? लड़की ने कहा- हे भगवन् ! यह भी कोई सवाल है? मैं इसके बारे में क्या कहूं? आप जैसा भी उचित समझे उसी की सेवा में मुझे तो अर्पण कर दें, मेरे लिये तो वही सिर का सेहरा होगा। इस पर चिढ़कर राजा ने उसका विवाह श्रीपाल कोढ़िया के साथ कर दिया।
     
    यह बात मंत्री मुसाहिब आदि को बहुत बुरी लगी, अत: वे सब बोले कि प्रभो ! ऐसा न कीजिये। परन्तु मदनसुन्दरी बोली कि आप लोग इस आदर्श कार्य में व्यर्थ ही क्यों रोड़ा अटका रहे हैं। पिताजी तो बहुत ही अच्छा कर रहे हैं जो कि इन महाशय की सेवा करने का मुझे अवसर प्रदान कर रहे हैं। वस्तुत: शरीर तो आप लोगों का और मेरा भी सभी का ऐसा ही है जैसा कि इन महाशय का है। सिर्फ हम लोगों को लुभाने के लिये हमारे शरीरों पर चमड़ी लिपटी हुई है, किन्तु इनके शरीर की चमड़ी में छेद हो गये हैं ताकि भीतर की चीज बाहर में दीखने लगी रही है और कोई अन्तर नहीं है। अतएव इनकी सेवा करके मुझे मेरा जन्म सफल कर लेने दीजिये। भगवान आपका भला करेंगे।
  24. संयम स्वर्ण महोत्सव
    करूणा का स्रोत

     
    उपासक के उदार हृदय सरोवर में करूणा का निर्मल स्रोत निरन्तर बहता रहता है। वह अपने ऊपर आई आपत्ति को तो आपत्ति ही नहीं समझता उसे तो हँसकर टाल देता है परन्तु वह जब किसी दूसरे को आपत्ति से घिरा हुआ देखता है तो उसे सहन नहीं कर सकता है। वह उसकी आपत्ति को अपने ही ऊपर आई हुई समझता है। अतः जब तक उसे दूर नहीं हटा देता तब तक उसे विश्राम कहां?
     
    भाण्डों ने श्रीपाल को जब अपना भाई बेटा कहकर बतलाया तो गुणमाला के पिता ने रूष्ट होकर श्रीपाल के लिये सूली का हुक्म लगा दिया, तो वे सहर्ष सूली पर चढ़ने को तैयार हो गये। परन्तु जब सत्य बात खुल गई और राजा को पता चला कि भांड़ो ने धवल सेठ के बहकाने से झूठी बात बनाई है। तब फिर उसने अपने पूर्व आदेश को बदल कर उन भोंड़ों के लिये कत्ल का हुक्म दिया। जिसे सुनकर श्रीपाल कुमार कांप गये और बोले कि हे प्रभो! आप  क्या कर रहे हैं जो कि बेचारों के लिये ऐसा कर रहे हैं? इनका इसमें क्या अपराध हुआ है? ये तो खुद ही गरीबी से दबे हुए हैं, और गरीबी के बोझ को हल्का करने के लिये इन्होंने ऐसा कहना स्वीकार कर रखा है। जो बेचारे आर्थिक संकट के सताये हुये हैं, उन्हें प्रजा के स्वामी कहला कर भी आप और भी सतावें, मरे हुओं को मारें, यह तो मेरी समझ में घोर अन्याय है।
     
    प्रत्युत इसके आपको तो चाहिये कि आप इन्हें कुछ पारितोषक देकर संतुष्ट करिये ताकि आगे के लिए ये लोग इस धन्धे को छोड़कर उसके द्वारा अपना जीवन निर्वाह करने लगे। राजा ने ऐसा ही किया और इस असीम उपकार से भाण्ड लोग श्रीपालजी के सदा के लिए ऋणी हो गये।
  25. संयम स्वर्ण महोत्सव
    आस्तिक्य भाव
     
    उपासक जानता है कि जो जैसा करता है वह वैसा ही पाता है। जहर खाता है, सो मरता है और जो मिश्री खाता उसका मुँह मीठा होता है। सिंह, जो कि लोगों को बर्बाद करने पर उतारू होता है तो वह खुद ही बर्बाद होकर जंगल के एक कोने में छिप कर रहता है। गाय जो कि दूध पिलाकर लोगों को आबाद करना चाहती है इसलिये वह लोगों के द्वारा आबादी को प्राप्त होती है। लोग उसका बड़े प्यार से साथ में पालन-पोषण करते हुए पाए जाते हैं। हम देखते हैं कि जो औरों के लिये गड्ढा खोदता है वह स्वयं नीचे को जाता है किन्तु महल चिनने वाला विश्वकर्मा ऊपर को चढ़ता है। इससे हमें समझ लेना चाहिये कि जो दूसरों का बुरा सोचता है वह खुद बुरा बनता है, किन्तु जो दूसरों के भले के लिये प्रयत्न करता है वह भलाई पाता है।
     
    एक समय की बात है एक राजमंत्री था वह वायु सेवनार्थ निकला तो एक जगह कुछ लड़के खेलते हुये मिले। उन सबमें एक लड़का बहुत चतुर और बुद्धिमान तथा सुलक्षण था। अत: उसे बुलाकर राजमंत्री अपने पास पुत्रभाव से रखने लगा। थोड़े दिनों के बाद प्रसंग पाकर राजा ने मंत्री से पूछा कि बताओ इस दुनिया का रंग कैसा है। और इसके साथ में मेरा कब तक, कैसा क्या संबंध है? जिसको सुनकर मंत्री घबराया, उसे इसका कुछ भी उत्तर नहीं सूझ पड़ा। परन्तु लड़का दौड़ा और एक पंचरंगे फूलों का गुलदस्ता लाकर उसने राजा के आगे रख दिया, एवं राजा के सिर पर जो ताज था उसे लेकर झट ही उसने अपने सिर पर रख लिया। इस पर लोग हंसने लगे, किन्तु राजा ने उन्हें समझाया कि लड़के ने बहुत ठीक कहा है कि जैसे इस गुलदस्ते में पांच रंग के फूल हैं वैसे ही यह दुनियां भी पांच परिवर्तन रूप पंचरगी है ओर इस दुनियां के साथ में मेरा राजापने का संबंध जभी तक है जब तक कि यह ताज मेरे सिर पर है जिसके कि रहने या न रहने का पल भर का भी कोई भरोसा नहीं है।
     
    तुम लोग व्यर्थ ही ऐसे क्यों हँसते हो? यह लड़का बड़ा बुद्धिमान है। मैं मेरे मंत्री का उत्तराधिकार इसे देता हूं। जब तक ये मंत्री जी हैं तब तक है इनके बाद में यही मेरा मंत्री होगा। ऐसा सुनते ही मंत्री के दिल को बड़ी चोट पहुंची। वह सोचने लगा कि हाय, यह तो बुहत बुरा हुआ। यह मंत्री बनेगा तो फिर मेरा जायन्दा लड़का तो ऐसे ही रह जायेगा वह क्या करेगा? क्या वह इसका पानी भरेगा? अत: इसे अब मार डालना चाहिये। इस प्रकार विचार कर वह एक भड़भूजे से मिला और बोला कि मैं अभी चने लेकर एक लड़के को भेजता हैं सो तुम उसको भाड़ में झोंक देना। भड़भूजा यह सुनकर यद्यपि कुछ संकोच में पड़ा क्योंकि इस तरह से एक बेकसूर बच्चे को आग में झुलसा देना तो घोर निर्दयता होगी। परन्तु वह बेचारा भड़पूँजा था, ओर इधर मंत्री का कहना था। अगर उसका कहना न करे तो रहे कहां?
     
    मंत्री ने जाकर उस लड़के से कहा कि आज मुझे भुंगडे खाने की जी में आ गई, तुम जाओ और उस भड़भंजे से यह चने मुंजवा लाओ। लड़का तो आज्ञाकारी था। वह चने लेकर रवाना हुआ। उधर उस मंत्री का जायन्दा लड़का मिल गया, वह बोला भैया तुम कहां जा रहे हो? पहला लड़का बोला- पिताजी ने चने दिये हैं सो मुंजवाने जा रहा हूं। इस पर दूसरा लड़का बोला- तुम यहीं ठहरो, इन लड़कों के साथ मेरी जगह गेंद खेलो, इन्हें मात दो, लाओ चने मैं भुजवा लाता हूं। ऐसा कहकर उसके हाथ से चने छीनकर दौड़ पड़ा और भूड़भूजे के पास गया तो जाते ही उसका काम तमाम हो गया।
     
    बन्धुओ ! व्यर्थ की ईर्ष्या के वश होकर मंत्री पराये लड़के को मारना चाहता था तो उसका खुद का प्राणों से प्यारा लड़का मारा गया। यही सोचकर उपासक पुरुष किसी भी दूसरे के लिए कुछ भी बुरा विचार कभी नहीं करता है। वृक्ष हो और उसकी छाया न हो तो उसका होना बेकार है। नदी में यदि जल न हो तो वह नदी भी सिर्फ नाम मात्र के लिए है। उसी प्रकार मनुष्य में अगर सच्चरित्रता नहीं तो उस मनुष्य का भी जीवन नि:सार ही होता है। चरित्रहीन मानव का जीवन सुगन्धहीन फूल जैसा है।
     
    मकान का पाया बहुत गहरा हो, दीवारें चौड़ी और संगीन हों, रंग रोगन भी अच्छी तरह से किया हो और सभी बातें तथा रीति ठीक हो, परन्तु ऊपर में यदि छत नहीं हो तो सभी बेकार। बैसे ही सदाचार के बिना मनुष्य में बलवीर्यादि सभी बातें होकर भी निकम्मी ही होती हैं। देखो रावण बहुत पराक्रमी था। उसके शारीरिक बल के आगे सभी कायल थे। फिर भी वह आज निन्दा का पात्र बना हुआ है। हम देख रहे हैं कि हर एक आदमी अपने लड़के का नाम राम तो बड़ी खुशी के साथ रख लेता है, किन्तु रावण का नाम भी सुनना पसन्द नहीं करता, सो क्यों? इस पर सोचकर देखा जावे तो एक ही कारण प्रतीत होता है कि रावण के जीवन में दुराचार की बदबू ने घर कर लिया था। जिससे कि रामचन्द्रजी हजारों कोस दूर थे, किन्तु सदाचार को अपने हृदय का हार बनाये हुये थे। यही बात है कि सारी दुनिया आज श्रीरामचन्द्रजी का नाम लेकर अपने को गौरवान्वित समझती है। हम भी यदि अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहते हैं तो हमें चाहिये कि हम अपने अन्तरंग में सदाचार को स्थान दें।
×
×
  • Create New...