राजनीति और धर्मनीति
राजनीति और धर्मनीति
इन दोनों में परस्पर विरोध है। क्योंकि धर्म तो अहिंसा का पालन करने एवं इसे अन्त तक अक्षुण्ण रूप निभा दिखलाने को कहते हैं। परन्तु राजाओं का काम अपने राज्य शासन को बनाये रखना होता है। अत: उसके लिए येनकेन रूपेण अपने पक्ष को प्रबल बनाते चले जाना और अपने विरोधियों का का दमन करते रहना होता है। इसलिए राज्यसत्ता हिंसापूर्ण पापमय हुआ करती है। ऐसा कुछ लोग समझ बैठे हैं, किन्तु विचार करने पर यह ठीक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि धर्म जो कि विश्व के कल्याण की चीज है उसे अपने जीवन में उतारने का नाम नीति है।
राजा प्रजा का पालक होता है। सम्पूर्ण प्रजा को पापपडंक से बचाकर उसे धर्म के पथ पर समारूढ़ करा देना ही राजा का काम है, प्रजा में सभी तरह के लोग होते हैं अत: जो लोग अपने मनचलेपन से उत्पथ की ओर जा रहे हों उन्हें नियन्त्रित करने के लिए विधान करना शिष्टों का अनुग्रह करना, उन्हें सत्पथ की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देना और दुष्टों की दुष्टता को निकालकर शिष्टता के सम्मुख होने को उन्हें बाध्य करना यह राजनीति है। इसलिए यह धर्म से विरुद्ध कैसे कही जा सकती है? यह तो धर्म को प्रोत्साहन देने वाली है। हाँ, इतनी बात आवश्यक है कि धर्म तत्त्व सदा अटल है परन्तु नीतितत्त्वों में देश, काल की परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। फिर भी उस संविधान का कलेवर जितना भी हो वह सारा का सारा ही जन-समाज के हित को लक्ष्य में लेकर किया हुआ होना चाहिये। उसका एक भी विधेयक ऐसा नहीं हो जो कि किसी के भी व्यक्तिगत स्वार्थ को लेकर रचा गया हो।
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