एक बहिनजी थीं जिनके विचार बड़े उदार थे। उनके यहां खेती का। धंधा होता था। सभी आवश्यक चीजें प्रायः खेती से प्राप्त हो जाया करती थीं। अतः प्रथम तो किसी सो चीज लेने की वहां जरूरत ही नहीं होती थी, फिर भी कोई चीज किसी से लेनी हो तो बदले में उससे भी अधिक परिणाम की कोई दूसरी चीज अपने यहां की उसे दिये बिना नहीं लेती थी। वह सोचती थी कि मेरी यहां की चीज मुझे जिस तरह से प्यारी है उसी प्रकार दूसरे को भी उसकी अपनी चीज मुझसे भी कहीं अधिक प्यारी लगती है। हां, जब कोई भी भाई आकर उसके पास मांगता था कि बहिनजी क्या आपके पास गेहूं हैं? यदि हो तो दे रुपये के मुझे दे दीजिये, इस पर बड़ी प्रसन्नता के साथ गेहूं उसे दे देती मगर रुपये नहीं लेती थी। कहती थी भाईजी रुपये देने की क्या जरूरत है, ये गेहूं आपके और मैं आपकी बहिन।
आज आप मुझसे ले जाते हैं तो कभी यदि मुझे जरूरत हुई तो मैं आप से ले आ सकती हूं। मैं रुपये तो आप से नहीं लेऊंगी आप गेहूं ले जाइये और अपना काम निकालिये। आप मुझे रुपये दे रहे हैं इसका तो मतलब यह कि अपना आपस का भाईचारा ही आज से समाप्त करना चाहते हैं, मैं इसको अच्छी बात नहीं समझती, इत्यादि रूप से वह सभी के साथ वात्सल्यपूर्ण व्यवहार रखती थी। अब एक बार माघ के महीने की बात है कि बादल होकर वर्षा होने लगी। आसपास के सब खेत बरबाद हो गये मगर उपर्युक्त बहिन जी के चार खेत थे उनमें किसी में कुछ भी नुकसान नहीं हुआ, इसलिये मानना पड़ता है कि हमें जो कुछ भला या बुरा भोगना पड़ रहा है, वह सब हमारी ही करनी का फल है।
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