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पूज्य आचार्य श्री ने कहा की महोत्सव प्रारम्भ हुआ जीवन में मौलिक क्षण आये चिरप्रतीक्षित समय आ गया है उमंगें तरंगें हैं सभी के मन में महोत्सव की प्रतीक्षा के लिए जिज्ञासा है , सौभाग्य के क्षण, तोरण द्वार सजे हैं , गीत , संगीत बज रहे हैं सबको प्रतीक्षा है उन क्षणों की । रोंगटे खड़े हो जाते हैं किन्तु महोत्सव किसके लिए है ये किन्तु कहते ही सब में जिज्ञासा जागृत है । होता बही है जो ललाट पर लिखा होता है उसे कोई बदल नहीं सकता ये लेखा मिटाया नहीं जा सकता है । लकीर मिटने से समय का लिखा मिटाया नहीं जा सकता । परंतु एक रात में क्या बदल जाय कुछ कहा नहीं जा सकता है । लोकतंत्र में चुनाव 5 बर्ष में होते हैं , लोकतंत्र में 4 काल होते हैं भूत ,वर्तमान्, भविष्य और चौथा कॉल भी होता है बो है आपातकाल। राजा रामचंद्र जी के राज्याभिषेक की तैयारी चल रही होती है परंतु आधी रात को किसी के मोह का जागरण हो गया और शर्तों और अनुबंधों में बंधा राजा विवश हो गया और अपने प्रिय पुत्र राम की जगह कैकेयी पुत्र भरत के राज्याभिषेक और राम के वनवास की मांग को अपने पूर्व बचन का पालन के कारन स्वीकार करना पड़ा । बज्र ह्रदय बाले दशरथ की आँखों में अश्रुओं की धार बेह जाती है परंतु कैकेयी का ह्रदय पिघलता नहीं है । दशरथ मूर्छित हो जाते हैं और शीतोपचार का उपक्रम प्रारम्भ हो जाता है ।उन्होंने कहा की इस तरह के क्षणों पर धिक्कार है जोभारत की पवित्र भूमि पर घटित हो गए जो काला इतिहास लिख गए । कभी कभी शोधित मुहर्त में भी इस तरह की आंधी चल जाती है जो लाखों मनों को विचलित कर जाती है । ये समाचार सुनकर भरत का मन भी उद्धेलित हो जाता है , लक्ष्मण के मन में अनेक विचार जन्म ले लेते हैं परंतु बो भ्राता राम के निर्णय को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं । आचार्य श्री ने कहा की महापुरुषों की ये कथाएँ हमें बार बार पढ़ना चाहिए । राम सबसे पहले ये समाचार सुनकर माँ कौशल्या के पास जाकर वन जाने के लिए आशीर्वाद लेने जाते हैं फिर कैकेयी के पास जाकर आशीर्वाद मांगते है और कहते हैं में भरत के लिए मन वचन काय से राजा बनने का मार्ग प्रशस्त करने की भावना भाता हूँ । पिता की आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ । भरत ने राम से निवेदन किया की आप नहीं तो आप की चरण पादुकाएं दे दीजिये में उन्हें ही सिंहासन पर विराजमान करके राज काज चलाऊंगा । अपने पिता के चरण छूकर राम कहते हैं पिताश्री मुझे क्षत्रिय धर्म के पालन की आज्ञा और आशीर्वाद प्रदान करें ।कैकेयी की आँखों में आंसू नहीं आये परंतु उसकी कोख से जन्मे भरत की आँखों से आँसृ की धारा बेह रही थी। शासन तो शासन होता है और प्रजातंत्र तो प्रजातंत्र होता है । हमारे स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस का पूरा पूरा सम्मान करना चाहिए । कर्तव्यों के क्षणों से कभी विमुख नहीं होना चाहिए अहिंसा धर्म का पालन करते हुए अनीति को छोड़ नीति पूर्वक कार्य करने के लिए संकल्पवध्द होना चाहिए । जो आपके सामने लक्ष्य है उसे पूर्ण करने के लिए एकजुट होने की शपथ लें। उत्साह को तालियों तक सीमित न रखकर उसे सदुपयोग में लगाएं । मंदिर के साथ साथ शिक्षा के मंदिर की भी जरूरत है उस दिशा में सबको सोचना चाहिए । आपके कार्यों से आने बाली पीढ़ी को भी प्रेरणा मिलेगी इसलिए संकल्पित हो जाइए ।दिन निकलता है ,शाम होती है , रात होती है पुनः सूर्यनारायण प्रकट होते हैं और हम सोते रहते हैं । हमें जागृत होने की आवश्यकता है ।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा क़ि जो भगवान का भक्त होता है बो भक्ति करते समय अपनी भवन व्यक्त करता है । सम्यक दर्शन की विशेषता क्या होती है ये आप सभी को ज्ञात होना चाहिए ताकि आप भक्ति के मार्ग को और सुदृढ़ बना सको ।सम्यक दर्शन होने के उपरांत जो बंध के कारन बिभिन्न परिस्तिथियां जीवन में उत्पन्न होती हैं उसके बारे में ज्ञात होना चाहिये । थोडा सा स्वाध्याय करने से ये ज्ञान भी जागृत किया जा सकता है । जिस दुकान को या व्यापर को आप जिस बारी की के साथ और समूचे बाजार पर नजर रख कर चलाते हो तब आपको लाभ मिलता है उसी प्रकार कर्म सिद्धान्त की भी जानकारी होनी चाहिए। पुण्य और पाप के जो बंध निरंतर चलते हैं बो अपने भावों के माध्यम से आप चलाकर लाभ ले सकते हो । सम्यक दर्शन के माध्यम से आप पुण्य की प्रकृति कर सकते हो ,किसी से मांगने की आवश्यकता नहीं है अपने भावों की निर्मलता से आप सब पा सकते हो। जो हम सुबह कर्मों का बंध करते हैं बो अन्तरमुहर्त्त में काम आ सकता है। जिस प्रकार चोट लगने पर घर पर ही प्राथमिक चिकिसा की जाती है तो अस्पताल नहीं जाना पड़ता उसी प्रकार पुण्य का बंध भी आत्मा के प्राथमिक उपचार में सहभागी होता है। कर्म सिद्धान्त में मांगने का निषेध् है , संतोष को प्राथमिकता दी गई है। आप सभी के पास संतोष होना चाहिए नहिं तो धैर्य की परीक्षा हो जाती है । जो संतोष रखता है विवेक के साथ उसका विश्वास और सम्यक दर्शन प्रगाढ़ होता जाता है । आचार्यों ने ध्यान की अच्छी परभाषा दी है की हाथ पर हाथ रखना ध्यान नहीं है बल्कि जिनवाणी के कथन को ध्यानपूर्वक सुनना भी ध्यान है । जो व्यक्ति संतोष के साथ धैर्य और ईमानदारी के साथ 8 घंटे व्यापर करता है उसे धर्म का लाभ भी प्राप्त होता है। ये किसी सिद्धचक्र विधान से कम नहीं होता है। कर्म सिद्धान्त पर चलने बाला व्यक्ति यदि व्यापर में भी संतोष रखता है तो वो भगवान् की एक तरह से आज्ञा का पालन ही कर रहा होता है।
उन्होंने कहा क़ि आप भले ही बहुत व्यस्त रहते हो पर आपसे ज्यादा व्यस्त हम रहते हैं पर हमारा धर्म ध्यान निरंतर चलता रहता है ऐंसे ही आप भी कहीं भी व्यस्त रहें यदि धर्म का चिंतन मनन निरंतर चल रहा है तो आपका पुण्य का बंध हो रहा है , आपके सम्यक दर्शन , ज्ञान ,चारित्र में बृद्धि हो रही है। अन्तरमुहरत में जिन प्रकृतियों का बंध होता है बो प्राथमिक चिकित्सा का काम करते हैं । प्रतिपल , प्रतिक्षण जो भावों का परिणमन चल रहा है ये ही फलदायक होता है । इसलिए मांगने की प्रवत्ति का त्याग करो जो संतोष के साथ करोगे बो शुभ परिणाम देने बाला होगा।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा कि जैंसा हम प्रयोग करते हैं बैंसा योग होता जाता है ,भावों के साथ प्रयोग करने पर शुभ योग होता है । जीवन एक प्रयोगशाला है जिसमें नित नए प्रयोग किये जाते हैं , आनंद की अनुभूति प्रयोग के बिना नहीं होती है।
भक्ति का प्रयोग जीवन में सतत् चलता रहना चाहिए , परंतु भक्ति के प्रयोग में अपने साधर्मी बंधुओं का ध्यान भी रखना चाहिए । भक्ति की अंजुली किसी की छोटी हो सकती है ,किसी की बड़ी हो सकती है ,किसी की अंजुली ऊपर से छोटी है परंतु भावांजलि बहुत बड़ी है , किसी की भावांजलि छोटी है और बाहर की अंजुली बहुत बड़ी है।भावपूर्वक अर्घ चढ़ाने से ही अनर्घ् पद की प्राप्ति होती है। बड़ा ही अदभुत हिसाब है जैंसे आप व्यापर करते हो तो प्रतिशत में लाभ की गणना करते हो , कभी कभी प्रतिशत कम होता जाता है बैसे ही ये जो भक्ति रुपी दुकान है वो गुणित प्रतिशत की है ,कितने गुणा बढ़ोतरी हो रही है कह नहीं सकते । असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती है ,अपनी भक्ति की कूबत को बढ़ाते जाइए परिणाम पर ध्यान केंद्रित मत कीजिये।
देव गति में जाकर कितनी ही भगवान् की पूजन भक्ति करते रहो बहा असंखात गुणी निर्जरा नहीं हो सकती ।जो रईस का बच्चा होता है बो रईसी के साथ पढाई करता है पड़ोस का बच्चा साधारण परिवार का था बो भी पढाई करता था ,उसके पास कोई विशेष सुविधा उपलब्ध नहीं थी । बल्कि बह सरकारी बिजली के खम्बे की टिमटिमाती रौशनी में पढाई करता था । जब परीक्षा का परिणाम आता है तो रईस कमजोर परिणाम लाता है और गरीब सतप्रतिशत परिणाम लाता है। आज लगभग भारत की यही स्थिति है बिना श्रम के अच्छे परिणाम की कल्पना की जा रही है जबकि अच्छे परिणाम के लिए श्रम और पुरुषार्थ की सबसे ज्यादा महत्ता है।
उन्होंने कहा क़ी धर्म को हीरे की खान कहा गया है यहां जितनी गहराई में उतरोगे उतनी ही मातरा में सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र रुपी हीरे प्राप्त होते चले जायेंगे । थोडा सा द्रव्य चढ़ाकर अधिक फल की कामना व्यर्थ है इस मार्ग में तो भावों के अनुसार स्वयं ही फल की प्राप्ति होती है। असली योग बही है जो प्रयोग के साथ चलता रहे।
समय धीरे धीरे व्यतीत हो रहा है।राजधानी का चातुर्मास है ,अपने मुहं से न कहो बल्कि अपने हाथों से करो तभी सार्थक परिणाम प्राप्त होंगे। सही दिशा में पसीना बहाते जाओ क्योंकि पसीना न बहे तो अस्पताल जाना पड़ता है, पसीना बहाने से स्वास्थ और मन दोनों अच्छे रहते हैं।स्व धर्म और श्रमण धर्म तीर्थंकरों की देन है, हम तारने की बात तो भगवान से करते हैं परंतु उनकी वाणी को जीवन में उतारने का उपक्रम नहीं करते हैं । अपने जीवन में प्रयोग प्रारम्भ कर दें , प्रमाद न करें और कार्य का लक्ष्य और गति निर्धारित कर आगे बढ़ने का क्रम शुरू करें। विवेक पूर्ण निर्णय लें क्योंकि विवेक से ही सार्थक फल की प्राप्ति होती है।
उन्होंने कहा कि स्पर्धा से नहीं बल्कि साफ़ मन से परीक्षा उत्तीर्ण करने का प्रयास करें ,कोई सिफारिश न करें , कोई मांग न करें बस अपने उत्कृष्ट कार्य करने का पुरुषार्थ करें। मन का काम न करना बल्कि मन से काम लेना यही क्षत्रियता होने का प्रमाण है , काम को रोकने से काम नहीं रुकता बल्कि मन को रोकने से काम होता है ,अपने अनुसार मन को चलाओ मन के अनुसार मत चलो ,मन को कर्मचारी बनाओ ,उसे अपने नियंत्रण में रखो ,उसे अपने ऊपर हावी मत होने दो । मन का काम नहीं करना बल्कि मन से काम लेना।
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"नदी में बाढ़ आती है , बाढ़ उसे बोलते हैं जिसमें पानी का वेग होता है जिसमें सब कुछ बेहतर जाता है ।" उक्त उदगार पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा की बाढ़ के वेग में अच्छे अच्छे कुशल नाविक भी घबराया जाया करते हैं ,पानी के वेग में उशी दिशा में बहना पड़ता है नदी को हम कुशलता पूर्वक पार कर सकते हैं ऐंसे ही कर्मों का वेग है जिसमें हमको उसी की गति के अनुसार बहना पड़ता है । जब कर्मों का वेग धीमा होता है उस समय हम अपना पुरुषार्थ कर सकते हैं।
आचार्यों ने कहा है की जब भूख न लगी हो तो किसी को जोर जबरदस्ती से खिलाया नहीं जा सकता । ऐंसे ही जब नदी के बेग की भांति कर्मों की धीमी गति होने पर आत्मा को ज्ञान का डोज दिया जा सकता है । जब कर्मों का तीव्र उदय होता है कुछ नहीं किया जा सकता ज्ञानी व्यक्ति कर्मों की रफ़्तार को धीरे होने की प्रतीक्षा करता है । गुणवत्ता बाली बस्तु को सभी पसंद करते हैं और प्राथमिकता उसे ही देते हैं परंतु कभी कभी विज्ञापन के प्रभाव में गुणवत्ता का आभाव हो जाता है और कम गुण बाली बस्तु से संतुष्ट होना पड़ता है। आज विज्ञापन का इतना जोर है है क़ि समाचारपत्रों में विज्ञापन की अधिकता के कारण ख़बरों की गुणवत्ता कम हो जाती है । कोई भी निष्कर्ष तभी निकलता है जब हम गुणवत्ता को अच्छे से परख लेते हैं । कुशल तैराक भी बाढ़ में बेह जाता है उसी प्रकार आप लोग भी विज्ञापन की बाढ़ में बह रहे हो।
उन्होंने कहा कि लोहे को बैसे आसानी से नहीं मोड़ा जा सकता परंतु अग्नि के निमित्त से उसे किसी भी रूप में ढाला जा सकता है इसी प्रकार आत्मा को भी पुरुषार्थ से अच्छे रूप में ढाला जा सकता है। आचार्यों ने कहा है की ऐंसे वातावरण में रहना चाहिए जहाँ कषाय का वेग उत्पन्न न हो । आपकी कषायों की वेग आपके नियंत्रण से बहार होती है इसलिए पहले इसे नियंत्रित करें ,अंकुश लगाएं। आत्मा अनंतकाल से कषायों की वेग की वजह से नियंत्रित नहीं हो पा रही है।पुरुषार्थ की भूमिका बनाने के लिए आचार्यों ने इसीलिए प्रेरित किया है। एक बार में कोई भिखारी नहीं बनता बल्कि धीरे धीरे काम बनते हैं और प्रयासों से बनते हैं ,भूमिका बनाने की आवश्यकता है, चिंतन की आवश्यकता है और उसके साथ ही अपने आदर्शों के जीवन को सामने रखकर काम में जल्दी सफलता मिलती है । महापुरुषों ने सभी तूफानों ,बाढ़ोंं और वेगों में अपने पुरुषार्थ से सामना करके उन्हें दरकिनार किया है । जो आदर्श वादी जीवन हमारे पूर्वजों ने जिया है बही हमें संघर्षों के लिए प्रेरित करता है । उनके अनुभव् , सूझबूझ , संकल्प , दृढ़ता उनकी अनुपस्थिति में भी हमारे काम आ रही है , उनके विचार, उनके द्वारा बताए गए संकेत और सूचनाएं हमारे लिए पथ प्रदर्शक का काम कर रही हैं।
उन्होंने कहा क़ि अध्यात्म का आनंद तभी आता है जब हम उसमें गोते लगाने का मन बनाते हैं। संयम के मार्ग पर चलने से ही मीठे फल की प्राप्ति होती है इसलिए आप लोग धीरे धीरे इस मार्ग का अनुशरण करते जाएँ । साबधानी पूर्वक चलते जाएँ वातावरण आपके अनुकूल स्वयं ही निर्मित होता जायेगा । अच्छे मार्ग का अनुकरण करने पर ही मंजिल को पाया जा सकता है। जो प्रवाह है, परंपरा है उसकी गति रुकनी नहीं चाहिए निरंतर चलायमान रहें पीछे लौटने का उपक्रम न करें।
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" जो आप प्राप्त करना चाहते हैं पहले आपको छोड़ना पड़ेगा क्योंकी त्याग से ही प्राप्ति सम्भव है " उक्त कथन आज पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा की स्वार्थ और निस्वार्थ ये जीवन के लिए दोनों आवश्यक है जैंसे जो श्वास आपने अपने स्वार्थ के लिए भीतर ली है उसे बहार छोड़ना ही पड़ेगा ऐंसे ही मोक्ष मार्ग में आप भरोसा रखो या न रखो परंतु बिना भरोसे के मोक्ष मार्ग प्रशस्त भी नहीं हो सकता ।राग के मार्ग को छोड़े बिना बैराग्य का मार्ग प्रशस्त नहीं होता , त्याग किसी बस्तु मात्र का करने से कुछ नहीं होगा राग द्वेष की प्रवत्तियों का त्याग करने से ही त्याग सार्थक होगा । त्याग के मार्ग में समझोता नहीं होता बल्कि द्रढ़ निश्चय होता है तभी वैराग्य की गाड़ी आगे बढ़ती है।
उन्होंने कहा कि आपने दुनिया में हर प्रकार की दुकान देखी होगी परंतु मैं तो आप जैंसे ग्राहक रोज देखता हूँ जो आद्यात्म की इस दुकान् में ज्ञान का माल प्राप्त करने के लिए आते हैं । हमारा एक ही भाव है आप कहीं भी जाएँ घूमफिर कर ज्ञान रुपी बस्तु की प्राप्ति के लिए आपको बापिस इस दुकान की तरफ ही रुख करना पड़ेगा। त्याग का नाम ही धर्म होता है और त्याग धर्म बहुत पवित्र है , राग को मूलतः नष्ट करने का उपाय त्याग धर्म में ही निहित होता है।
श्वास यदि लेनी की बात करते हो तो श्वास को छोड़ने की भी बात करो परिग्रह करके आप श्वास को नहीं रख सकते हो । श्वास लेने और छोड़ने की प्रक्रिया को योग की भाषा में प्राणायाम कहते हैं इससे आँतों की क्षमता को भी ज्ञात किया जा सकता है । आप लोग भोजन आदि करते हो तो बर्तनों को कुछ समय के लिए खाली रखते हो ताकि बो थोड़ी हवा खा लें फिर उसमें तेल मसाला आदि डालते हो सब्जी पकाने के लिए उसी तरह परिग्रह से खाली जब हम होते हैं तभी आगे की क्रिया प्रारम्भ होती है । बिना परिग्रह के जो व्यक्ति रहता है मांगता नहीं है उसे कहते हैं याचना परिश्रय विजय।
चक्रवर्ती का जो भोजन होता है बो 6 खण्डों में सबसे अलग ही होता है , एक लड्डू का आधा भाग भी यदि सेना को खिलाया जाय तो सैनिकों का पाचन बिगड़ सकता है इतना गरिष्ट होता है लड्डू। और चक्रवर्ती न जाने कितने लड्डू खा जाते हैं परंतु जब चक्रवर्ती वैराग्य के मार्ग पर प्रशस्त होता है तो उसकी त्याग की परीक्षा आरम्भ होती है क्योंकि श्रावक् तो जो भोजन देगा बही लेकर संतुष्ट हो जाते हैं इसलिए उसके पेट में जो जठग्नि होती है बो ज्वालामुखी की भांति होती है लगातार आग उगलती रहती है । ऐंसे ही क्षुदा परिश्रय को सेहन करते हुए बो चक्रवर्ती त्याग के मार्ग को प्रशस्त कर निर्वाण की और बढ़ता है।
जब त्याग की पराकाष्ठा होती है तभी मुनिराज को केवलज्ञान होता है । उन्होंने कहा की जो कुछ भी आवश्यक है उसमें से भी थोडा सा त्याग करने से ही त्याग धर्म की अनुभूति की जा सकती है।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा की जिस वस्तु को प्राप्त करना है उस वस्तु को प्राप्त करने के लिए भूमिका बनाई जाती है। जैंसे आप लोगों को घी प्राप्त करना है और घी से आप अपरिचित हैं तो फिर उसका स्रोत्र खोजने का प्रयास करेंगे तब आपको उसकी जानकारी लगेगी। स्रोत पर आप पूरा विश्वास करेंगे तो उससे घी प्राप्त कर लेंगे, दूध स्रोत है और उस पर श्रद्धान करेंगे तो अवश्य घी प्राप्त कर पाएंगे।
ऐंसे ही मोक्ष मार्ग का स्रोत मनुष्य पर्याय है और वीतरागी धर्म है जिस पर श्रद्धान करके ही इस पर आगे बढ़ा जा सकता है। श्रद्धान करने पर ही आनंद की अनुभूति होती है और आनंद की अनुभूति होने के बाद प्रक्रिया से गुजरने की आवश्यकता है । जो वस्तु आपको प्रिय है उसे प्राप्त करने के लिए आपको आगे आना पड़ेगा और उसे पाने के लिए ये जानना जरूरी है की कहाँ से उस कार्य को प्रारम्भ करना है फिर उसे प्रारम्भ करें, जब हम चलकर उस तक पहुंचेंगे तब हमें उसकी अनुभूति होगी
उन्होंने कहा की दूध से घी बनने की प्रक्रिया के बाद घी में दूध दिखाई नहीं देता और 10 किलो दूध से मात्र 1 किलो घी की प्राप्ति होती है ,ऐंसे ही आप स्वाध्याय तो कर रहे हो परंतु दूध की तरह मंथन नहीं कर पा रहे हो। श्रद्धान के साथ अनुभूति भी आवश्यक है जब तक अनुभव नहीं होगा तब तक बो प्राप्त नहीं कर पाओगे जो प्राप्त करना चाहते हो। श्रद्धान में जब अनुभूति की ओर कदम बढ़ने लग जाते हैं तो आनंद का स्वाद आने लग जाता है।
आचार्यश्री कहते हैं कोई भी बात श्रद्धान के पक्ष को लेकर करना चाहिए । श्रद्धान अतीत , वर्तमान और भविष्य तीनों का होता है परंतु अनुभूति तो तात्कालिक होती है, जो घर में बैठे बैठे वीतरागिता की अनुभूति कर रहे हैं उनसे ये कहना है अपनी धारणा को बदल लें क्योंकि धारणा जब वीतरागी भावों की बनेगी श्रद्धान मजबूत होगा और श्रद्धान मजबूत होगा तो सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी और अनेकों लोग आपके साथ हो जाएंगे।
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आचार्य श्री ने कहा की बड़ी बड़ी वस्तुएं होती है जो क्रेनें के माध्यम से उठाई जाती हैं । हिम्मत विश्वास और ताकत से ही दायित्व का भार उठाया जाता है । दायित्व दिया जाता है उसे जो सक्षम कंधे होते हैं , दायित्व का भार अनूठा होता है उसे ही दिया जाता है जो इस भरोसे को पूरा करने की सामर्थ रखता हो । जो जिसका रसिक होता है उसका पान आनंद के साथ करता है । आप सब दायित्व से न घबराएं अपने आदर्श पुरुषों को समक्ष रखकर कार्य प्रारम्भ करे । लोकतंत्र मैं जो लोक का हो जाता है उसके प्रति समर्पित हो जाता है बही लोकतंत्र का पालन कर पाता है । दायित्व का निर्बहं करने बाळा व्यक्ति जब उसमें रम जाता है तो जिस तरह संगीत की मधुर ध्वनि होती है उसी प्रकार कार्य में आनंद की ध्वनि उत्पान्न होती है । बांटो और राज्य करो ये नीति इतिहास का एक हिस्सा रही है । प्रजा और राज ये दो पहलु हैं । प्रजा की रक्षा के लिए राजा को दायित्व दिया जाता है । मैथलीशरण गुप्त की एक पंक्ति का जिक्र करते हुए कहा की यथा राजा यथा प्रजा को सार्थक तभी किया जा सकता है जब प्रजा को संतान के रूप में राजा देखता है क्योंकि संस्कृत में प्रजा को संतान कहा गया है । जीवन में जो क्षण मिलें हैं उन्हें जी भर कर जिओ और ये भू ल जाओ कोउ का कहे । कहना लोगों का काम है करना आपका काम है जो दायित्व मिला है किसी भी स्थिति में पूर्ण करना आपका कर्तव्य है । आप दूर दूर से आते हो तृप्त होने के लिए आपकी तृप्ति अनोखी होती है किसी को खाकर पुरी होती है किसी को खिलाकर पूरी होती है में तो माँ की भाँती ज्ञान परोसता हूँ।
प्रकाश विद्यमान नहीं होता परंतु बह प्रकाश आँख खोलकर ही नहीं आँख बंदकर भी देखा जाता है क्योंकि भीतर भी प्रज्ञा की आँख होती है । उन्होंने कहा की शोध प्रबंध में कुछ कहा जाता है समालोचन होता है और आलोचना के माध्यम से लोचन खुलते हैं । प्रशंशा व्यक्तिगत न होकर साहित्यिक होना चाहिए तभी प्रसंसा का महत्व होता है । राजा हमेशा प्रजा के लिए समर्पित भाव से कार्य करता है तो प्रजा भी अपना दायित्व निभाने के लिए तत्पर होती है । मत का मतलब मन का अभिप्राय होता है । लोकनीति लोक संग्रह है लोभ संग्रह नहीं । आप दौड़ना सीखो पर दौड़धूप मत सीखो क्योंकि दौड़ धुप से व्यर्थ की शक्ति लगती है ।
गुरुवर ने कहा की आधी रात में मंत्रणा चल रही है , संघर्ष की घडी है , एक पल में इतिहास पलटने को है और इसी बीच एक पक्ष से एक संदेश मिलता है । राजा सोचता है की क्या होने बाला है फिर राजा उस संदेशवाहक को बुलबाता है तो बह आकर पत्र देता है ,राजा उसे पढता है । राजा राम के समक्ष विभीषण खड़ा होता है अपना प्रस्ताव लेकर । राजा के लिए मन पर भी विश्वास करना खतरनाक होता है क्योंकि मन दगाबाज होता है । लक्ष्मण सोचते हैं राम जी को क्या हो गया जो दुश्मन के भाई को आधी रात को बु लाया। विभीषण ने कहा की मुझे धरती की रक्षा का सामर्थ राम के भीतर दिखाई देता है इसलिए में उनकी शरण में आया हूँ । ये सुनकर राम की सेना में सन्नाटा छा जाता है । सब आवाक रह जाते हैं । विभीषण ने अपनी लंका की प्रजा की रक्षा के भाव से सत्याग्रह को छोड़कर सत्याग्रही बनने का भाव प्रकट किया ।
इस अवसर पर गुरुवर ने वधशाला के सन्दर्भ में कहा की कोई कहता है शहर के बहार हो , कोई कहता है नगर के बहार हो , कोई कहता है मध्य प्रदेश से बहार हो परंतु ये सम्पूर्ण भारत हमारा है हिंसा इससे बहार होनी चाहिए । मध्यप्रदेश भारत का ह्रदय है और इसके ऊपर , नीचे , आगे ,पीछे सब जगह भारत राष्ट्र है जिसमें अहिंसा का पालन कराना हम सभी का दायित्व है । भारत की संस्कृति में राम के आर्दशों से हमें प्रेरणा लेने की आवश्यकता है उन्होंने जो दायित्वों का निर्वाहन किया है बो प्रेरणादायक है । अपने कर्तव्यों का पालन धुआंधार तरीके से कीजिये न फल की चिंता कीजिये न परिणाम की।
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पूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागरजी महाराज ने कहा क़ि माया से बचने का प्रयास करो क्योंकि माया की छाया पतन की ओर ले जाती है। जब छाया आपकी कहीं पड़ती है तो प्रकाशमान वो स्थान भी प्रकाश रहित हो जाता है इसी प्रकार माया की छाया से आपका प्रकाशित जीवन भी अंधकारमय हो जाता है।विक्रिया ऋद्धि सदुपयोग में लगती है तो दिन दूनी रात चौगुनी बृद्धि आपके जीवन में हो सकती है। अंधेरों से निकलकर उजालों की बात करो। देवलोक में कभी रात नहीं होती , थकावट नहीं होती परंतु वो धरती पर मनुष्यों को देखकर लट्टू हो जाते हैं । धरती पर मनुष्य कोई मन्त्र सिद्धि में लगा है कोई तंत्र सिद्धि में लगा है परंतु सिद्धि उसे ही होती है जिसके मन में उसके सदुपयोग की भावना होती है। आप लोगों के यहाँ दीपक जलता है , दीपक प्रकाशवान होता है परंतु आप पर ये कहावत चरितार्थ होती है "दिया तले अँधेरा" क्योंकि ज्ञान का आप सदुपयोग नहीं करते हो। हम प्रकाश के निकट रहकर भी प्रकाश के महत्व को समझ नहीं पा रहे हैं । इतिहास को पढ़ने से ज्ञात होता है कि प्रकाश की क्या महिमा होती है पहले रत्नों के दीप से पूरा जिनालय प्रकाशवान हो जाता था , रत्नों का प्रकाश ऊपर नीचे चारों तरफ फैलता था ऐंसे ही ज्ञान की आराधना करोगे तो रत्नत्रय रुपी दीप से सम्पूर्ण जीवन प्रकाशमयी हो जायेगा।
उन्होंने कहा कि घरवार , परिवार ,व्यापार छोड़कर भगवान के द्वार पर पर्युषण पर्व में आप सभी आने बाले हो यदि रत्न रुपी दीपक प्राप्त करने आओगे , अच्छी भावना से आओगे तो हम से बो प्राप्त कर लोगे जिसकी जरूरत आपको है । ऊपरी आँख खोलने से ऊपरी तत्वों को पा सकते हो परंतु आत्मतत्व को पाने के लिए तो भीतर की आँख खोलनी ही पड़ती है , भीतर की आँख खोलो तो आत्मदर्शन अवश्य हो जाएंगे। संयम और साबधानी पूर्वक यदि अध्यात्म का रसपान करोगे तो बो सब प्राप्त होगा जो आपको अन्धकार से प्रकाश की और ले जाएगा।
आचार्य श्री ने कहा की आप सभी को ज्ञान को ही दीपक बना कर चलना है । ये राजधानी है पहले यातायात पुलिस हाथ से यातायात नियंत्रित करती थी अब लाइट के माध्यम से नियंत्रण होता है ऐंसे ही अध्यात्म में ज्ञान के प्रकाश के माध्यम से आत्मनियंत्रण होता है परंतु संयम और साबधानी से चलने की आवश्यकता है । अपने ज्ञान के दीपक को जागृत करके आगे बढ़ो मोक्ष मार्ग की बाधाएं स्वयमेव ही दूर होती चली जाएँगी । चाहे चांदी का दीप जलाओ या सोने का प्रकाश उतना ही होगा परंतु यदि मन का दीप जलाओगे तो पूरा जीवन भी प्रकशित होगा और आपके प्रकाश से आसपास भी प्रकाश फ़ैल जायेगा। एक बार आप की भीतर की आँख खुल जाय तो बाहरी पदार्थों को देखने की चेष्ठा नहीं करोगे क्योंकि जो भीतर प्रकाश की किरण है उसके सामने बाहरी पदार्थों का कोई मोल ही नहीं है। आप सभी बहुत स्वार्थी हो गए हो पूजन में पूरा आनंद ले लेते हो हमें बोलने का मौका ही नहीं देते हो।
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64 लब्धियां होती हैं और आपके पास छयोपसम्म लब्धि है । सम्यक दर्शन ,ज्ञान , चारित्र को प्राप्त करने बाला भव्य होता है और जो इससे वंचित है बो अभव्य है । कर्म के क्षय के उपरांत भी आप रहने बाले हो । भव्य कभी अभव्य नहीं हो सकते और अभव्य कभी भव्य नहीं हो सकते किन्तु अभव्य के पास भव्य होने की क्षमता तो है परंतु अज्ञान दशा के कारण बह भव्यता से वंचित रहता है। तत्व के आभाव में भी हमारा अस्तित्व रह सकता है कुछ ऐंसे तत्व भाव रहते हैं , उपयोग चैतन्य में होता है , नैमित्तिक सम्बन्ध में हमेशा आत्मा में रहने बाले का नाम उपयोग है । आत्मा उपयोग के बिना नहीं रह सकता। आत्मा का उपयोग दो प्रकार का है दर्शना उपयोग और ज्ञाना उपयोग । दर्शन उपयोग 4 प्रकार का होता है और ज्ञानोपयोग 8 प्रकार का होता है ।। ज्ञान के ऊपर मिथ्यात्व का प्रभाव तो पड़ता है किन्तु दर्शन के ऊपर मिथ्यात्व का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । जीव संसारी और मुक्त दो प्रकार के हैं , हम सभी संसारी जीव हैं , संसारी जीव मन बाले भी हैं और बिना मन बाले भी हैं , समनत्व और अमनत्व दो प्रकार के संसारी जीव हैं ।
पृथ्वी कायिक और जलकायिक जीव होते हैं , अग्निकायिक जीव होते हैं ,वायु कायिक और वनस्पति कायिक जीव होते हैं । पाँच इंद्रियां होती हैं ज्यादा नहीं होती । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं मन सहित और मन रहित। छयोप्सम्म की क्षमता को लब्धि कहते हैं और लब्धि का प्रयोग करना उपयोग कहलाता है । सारे पंचिन्द्रिय जीवों में 28 मूलगुण होते हैं परंतु ज्ञान दर्शन के आभाव में सब इन्हें उपयोग में नहीं ला पाते । वनस्पति जीवों में मात्र एक ही इन्द्रिय होती है । प्रथम स्पर्श इन्द्रिय होती है । दूसरी रस इन्द्रिय ,तीसरी गंध यानि घ्राण इन्द्रिय, चौथी चक्क्षु इन्द्रिय और पांचवी इन्द्रिय मनुष्य आदि जीवों में होती है ज्ञान इन्द्रिय । देय और उपादेय का भान होता है बो संघीय पंचिन्द्रिय है , मोक्ष मार्ग में प्रवेश के लिए संघीय होना अति आवश्यक है । संघीय 12 बे गुणस्थान तक रहता है 13 बे में संघी और असंघी का भेद समाप्त हो जाता है। मन दो प्रकार से चलता है एक योगात्मक और एक उपयोगात्मक चलता है । संघीय पंच इन्द्रिय के पास जो मन है बो उपयोगात्मक है इसलिए बो शुधोपयोग के द्वारा मति ज्ञान , श्रुत ज्ञान , अबधि ज्ञान और मनः प्राय ज्ञान के माध्यम से 14 बे गुण स्थान तक पहुँच कर मुक्त जीवों की श्रेणी में पहुच जाता है।
केवली भगवन न संघी हैं न असंघी हैं। कर्मयोग भीतर से होता है उसी माध्यम से बहा पहुंचा जा सकता है । कर्मों का संपादन होता है तभी आत्मोपलब्धि होती है। सभी लब्धिओं को उपलब्धि में परिवर्तित तभी किया जा सकता है जब ज्ञान को सही दिशा में मोड़ा जाय । ऐंसा नहीं है केवल मनुष्य ही मुक्त जीव बना हो घोड़े के मुख बाले और अन्य पंचिन्द्रिय जीव भी मोक्ष गए हैं । कर्म के उदय से अलग अलग प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं हलके ,भारी , मोटे , पतले । मनुष्य का शरीर लब्धिओं की वजह से सम्पूर्ण क्षमताओं से परिपूर्ण होता है और ज्ञान का सदुपयोग उसे सार्थक दिशा की और बढ़ने की प्रेरणा देता है जिससे बो आगे भाड़ सकता है।
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पूज्य गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने प्रवचन में कहा की सत्य क्या है, संसार की कल्पनाएं असत्य हुआ करती हैं , द्रव्य का लक्षण सत्य होता है । स्वप्न जो साकार होते हैं उनका पूर्वाभास माहनआत्माओं को हो जाता है । 16 स्वप्न माता को दिखाई देते हैं और तीर्थंकर के आगमन का आभास हो जाता है । उनके आने के पूर्व ही भोर का उदय हो जाता है एक आभा सूर्य के आभाव में भी सत्य का प्रकाश बिखेरती है । महापुरुष के जीवन में भी इसी प्रकार की सत्य की आभा फूटने लग जाती है ,ऐंसा सत्य का प्रभाव होता है। ऐंसे ही छोटा सा दीपक भी सूर्य की भांति चमकता है और असत्य के घोर अन्धकार को प्रकाशित करने में सामर्थवान होता है । जो भागते हैं उन्हें पकड़ना कठिन होता है , महान आत्माओं से मुलाकात तभी हो सकती है जब सत्य के मार्ग का अनुशरण करेंगे , सत्य का मार्ग पकड़ना पड़ता है।
उन्होंने कहा की जब तीर्थ वंदना करते हैं आधी रात को तो दीखता कुछ नहीं है परंतु तीर्थ की पगडण्डी पर कदम अपने आप चलने लग जाते हैं क्योंकि सत्य के दर्शन की अनुभूति मन में रहती है ,बुजुर्गों के क़दमों में भी अद्भुत शक्ति आ जाती है । सत्य का उदघाटन तभी होता है जब मन में कोई प्रेरणा जागृत होती है।
गुरुवर ने आगे कहा की रात में ही तारे नहीं होते बल्कि दिन में भी तारे होते हैं परंतु ज्ञान के आभाव में दिखाई नहीं देते परंतु जिन्होंने सत्य को जीत लिया है ऐंसे महापुरुष प्रेरणा पुंज के रूप में दिखाई देते हैं । आध्यात्म जगत के चमकते सितारे अपनी आभा को सदैव बिखेरते रहते है । सूर्य के सामने चंद्रमा कभी प्रकट नहीं होता क्योंकि सूर्य नितांत अकेला होता है जबकि चंद्रमा के समक्ष तारे और सभी ग्रह प्रकट होते हैं बो एक परिवार से घिरा होता है जबकि सूर्य संत के समान है इसलिए एकाकी भाव लेकर रहता है और सारे जग को प्रकाशित करता रहता है । मनुष्य एक अलग विचित्र प्राणी है । सत्य को ख़रीदा नहीं जाता बल्कि सत्य तो छना हुआ शुद्ध होता है जबकि असत्य भाड़े में भी मिल जाता है कभी भी कहीं भी । भगवान् महावीर के अनेक नाम हैं परंतु उनकी उपलब्धि उनके जीवन से ,उनकी तपस्या से ,उनके सत्य आचरण से परिलक्षित होती है ,कम समय में उन्होंने अपने आत्मतत्व को पहचानकर निर्वाण की प्राप्ति की थी । बाजार तो भावों के तारतम्य से ऊपर नीचे होता रहता है परंतु महावीर ने अपने भावों को नियंत्रित कर लिया ,सत्य पर विजय प्राप्त कर ली । करुणा ,अनुग्रह, दया उनकी जागृत हो गयी थी सब जीवों के प्रति । मेरु पर्वत किसी से हिल नही सकता परंतु जब महावीर बालक थे तो उनके प्रभाव से मेरु पर्वत भी हिल गया था और सोधर्म इंद्र भी आवाक रह गया था , सारे इंद्रलोक में हलचल मच जाती है , ज्ञात हो जाता है की सत्य का प्रकाश धरती पर आ चूका है । महावीर सत्य के एक पुंज थे जिनकी आभा ने पृथ्वी को प्रकाशित कर दिया था।
आचार्य श्री ने कहा की पुरुषार्थ से दिगम्बर वीतरागी मुद्रा को धारण करने बाले हमेशा सत्य के निकट होते हैं । सत्य की सिद्धि के लिए नहीं बल्कि सत्य को प्राप्त होने के लिए कमर कस लो ,सत्य आपके इर्द गिर्द दिखाई देने लग जायेगा । सत्य बिरले लोगों की पूँजी हुआ करता है सबके पास नहीं रुक पाता है । सत्य की पहचान तो देवलोक के सबसे शक्तिशाली इंद्र सौधर्म को भी नहीं हो पाई थी ,जबकि उसकी इन्द्राणी का अवसान हो गया तो भी बो सत्य को नहीं जान पाया । सत्य को जानने के लिए भीतर से वीतरागी होना पड़ता है ,अपने मन को नियंत्रित करना होता है ,ये महावीर ने सिद्ध करके दुनिया को दिखाया । तीर्थंकरो का आकाल पड जाता है परंतु सौधर्म इंद्र हमेशा हर काल में रहते हैं क्योंकि तीर्थंकर बिरले ही होते हैं । महापुरुषों ने सत्य का दीपक अपने जीवन में प्रज्जवलित किया और बो सत्य का दीपक सदियों के बाद भी आज दुनिया को प्रकाशित कर रहा है । छायिक सम्यक दर्शन से ,श्रद्धान से ही सत्य रुपी केवलज्ञान प्रकट होता है , कल्याण की और युग की प्रतीक्षा नहीं होती बो तो पुरुषार्थ से प्रकट होता है।
गुरुवर ने कहा की नींद और मूर्छा में अंतर होता है ,सुख की नींद उसे ही आती है जो सत्य के निकट होता है जो नींद की गोली खाते हैं बो मूर्छित हो जाते हैं उन्हें फिर स्वप्न भी नहीं आ सकते हैं । सुख की नींद आसानी से नहीं आ सकती क्योंकि मन में निश्चिन्ता नहीं है , मन चलायमान रहता है बिषय भोगों में , आशक्ति में । मन का केंद्रीय करण करने पर ही सुख की नींद आ सकती है । ध्यान तभी लग सकता है जब भावनाओं में बदलाब आता है , और सत्य की खोज ध्यान के माध्यम से ही होती है । जो पाने की खोज में लगे हैं सत्य प्राप्त नहीं हो सकता जो खोना चाहते हैं बे खुद ही सत्य का एक पिंड बन जाया करते हैं फिर दुनिया उस पिंड को नमस्कार करती है।
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तप और ध्यान जीवन के आवश्यक अंग होते हैं तपे बिना आत्मा कुंदन नहीं बन सकती है । उक्त उदगार पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने आज तप धर्म के सन्दर्भ में आयोजित प्रवचन में व्यक्त किये।
आचार्य श्री ने कहा की हीरे का कण भोजन के साथ पेट में चला जाय तो मृत्यु का कारन बन जाता है जबकि ओषधि के रूप में जाय तो गुणकारी बन जाता है । तप सात्विक भाव से करते हैं तो परिणाम अच्छे होते हैं । दो प्रकार की साधना बताई गई है मृदु और कठोर । जीवन में दोनों प्रकार की साधना कर लेना चाहिए परंतु पूर्ण ध्यान और मनोयोगके साथ करना चाहिए । जब नदी में पानी का वेग होता है अच्छे अच्छे तैराक भी धोखा खा जाते हैं उसी प्रकार तप की अग्नि जब तेज होती है तो अच्छे अच्छे साधक भी विचलित हो जाते हैं । तपस्या करने से पहले आकुलता को छोड़ना पड़ता है तब निराकुलता मिलती है । कितना भी ध्यान लगाओ जितनी शक्ति है साधना उतनी ही हो पायेगी । छोटी सी साधना में ही लोग घबराते हैं । तप से ही कर्मों की निर्जरा होती है और निर्जरा से मोक्ष की प्राप्ति होती है और बिना आकुलता को त्याग किये तप साधना संभव हीनहीं है । जैंसे खेल में लंबी कूद में काफी पीछे से दौड़कर आना पड़ता है तभी ऊँची छलांग लगाई जा सकती है ऐंसे ही साधना में भी काफी अभ्यास की जरूरत पड़ती है।
उन्होंने कहा की जो व्यक्ति तप करते समय विपरीत परिस्थितियों में दहशत में आ जाता है बो कभी सफलता प्राप्त नहीं कर पाता । जिनके पास तप त्याग का अनुभव है बो ही आपको इस बिषय में सही रास्ता बता सकते हैं अन्यथा आप भटकाव की दिशा में जा सकते हैं । उन्होंने कहा की जिस प्रकार हवाई जहाज रनबे पर दौड़ता है तो उड़ते ही उसके पहिये अंदर मुड़ जाते हैं फिर उतारते समय फिर पहिये खुल जाते हैं उसी प्रकार जब आपकी साधना का जहाज आप शुरू करते हो , तप में जब प्रवेश करते हो तब जो बाहरी पदार्थ रूपी पहिये हैं उन्हें भीतर करना पड़ता है तभी आप साधना की उडाँन भर पाओगे। आपका अनुभव ,आपका ज्ञान पैराशूट का काम करता है जो आपको अधोगति में जाने से रोक सकता है । साधना से ही आत्मा की गति उर्धगमन् की और जा सकती है । कर्मों का बंध तभी टूट सकता है जब तप की तीव्रता होती है । भीतर शुक्ल ध्यान की अग्नि जलने पर ही बाहर के पुदगल छूटते हैं और कर्मों का क्षय हो जाता है तो केवलज्ञान जागृत होने लगता है , और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
गुरुवर ने पांच पांडवों का उदहारण देते हुए कहा की जब उन्होंने साधना प्रारम्भ की तो समता के भाव से तप किया और युधिष्ठर, भीम, अर्जुन ने निर्वाण को प्राप्त किया और नकुल ,सहदेव बड़े भाइयों के मोह की भावना के आ जाने के कारन मोक्ष को जाने से चूक गए । इसलिए साधना के मार्ग में बढ़ने के पूर्व सभी मोह के भावों का त्याग आवश्यक होता है । तप से आयु कर्मों का क्षय नहीं होता है परंतु कठोर तप से घातिया कर्म का क्षय अवश्य होता है और घातिया कर्मों के क्षय से ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त होती है । किसी वीतरागी को हजार बर्ष के तप में मुक्ति मिली तो किसी को अन्तरमुहरत में ही मुक्ति प्राप्त हो गई । सबका अपने अपने कर्मों का कर्म सिद्धान्त होता है उसी अनुसार मुक्ति प्राप्त होती है । साधना के क्षेत्र में निरंतरता और अभ्यास को बनाके रखने की महती आवश्यकता होती है साथ ही साधना के क्षेत्र में जो योगी जन सतत् लगे हैं उनका मार्गदर्शन प्राप्त करके अपना आत्मकल्याण किया जा सकता है।
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पूज्य आचार्य श्री ने कहा की संकल्प का रूप वडॉ विराट होता है जिससे सभी का कायाकल्प हो जाया करता है । दया का क्षेत्र में कार्य होना चाहिए । दया हमेशा जीवंत रहती है , माया के प्रति राग होता है परंतु दया तो धर्म का मूल होता है । जब दो आँखें दूसरी दो आँखों से मिलती हैं तो दया और करुणा के भाव जागृत होते हैं । कभी भी आवश्यकता से अधिक की अपेक्षा नहीं करना चाहिए जो चाहिए सब पुरुषार्थ से मिलता जायेगा । गौ माता कामधेनु होती है उसको हम दे क्या रहे हैं जबकि लेते ही जा रहे हैं और बो एक माँ की भांति मीठा दूध और अमृत दे रही है । पहले गौ दान की परंपरा होती थी उसको जीवित करने की जरूरत है । सरकार अपना कार्य करती है हमें अपना कार्य करना चाहिए उस पर आश्रित नहीं रहना चाहिए । गौ सेवा के क्षेत्र में भारत की जनता को स्वयं ही आगे आना चाहिए । आप तो धर्म के कार्य को करते जाइये ये जबरदस्त कार्य है परंतु जबरदस्ती का कार्य नहीं है , जो है भगवान् के भरोसे चलता जायेगा , प्रकृति ने कामधेनु को दिया है तो प्रकृति ही उसकी रक्षक है । कामधेनु की कृपा के बदले सिर्फ अपने कर्तव्यों का पालन करना करते जाइये । उन्होंने कहा की दान दाता को तो दान देते समय अहोभाग्य समझना चाहिए की उसका दान दया के क्षेत्र में जा रहा है । जो व्यक्ति अर्जन करता है उसे धन का विसर्जन भी करना चाहिए यही धर्म का सन्देश है । पहले भी भारत में गौ संरक्षण की परंपरा चली आ रही है ,राजाओं के राज्य में भी गौमाता निर्भय होकर घूमती थी आज लोकतंत्र में आप सभी राजा की भांति गौ माता का संरक्षण करो । प्राचीन समय में भारत में गुरुकुल , गौशालाएं चलाई जाती थीं आज भी गुरुकुल की शिक्षा के लिए और गौशालाओं की गाय के संरक्षण के लिए जरूरत है । भारत की कृषि तंत्र को तहस नहस करने का प्रयास हो रहा है , राष्ट्रभाषा के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है , संस्कृति को छिन्न भिन्न करने का प्रयास विदेशिओं द्वारा आज भी किया जा रहा है । नेता मात्र का कर्तव्य नहीं है व्यवस्था परिवर्तन में जनता को भी अपने कर्तव्यों के पालन के प्रति गंभीर होना चाहिए । लोकतंत्र मजबूत तभी होगा जब सब सामूहिक रूप से से प्रयास करेंगे । गुरुवर ने कहा की गौ धन राष्ट्र की सबसे बड़ी पूँजी है जबकि हम कामधेनु को छोड़कर यांत्रिक कार्यों को बढ़ाबा दे रहे हैं । गौरस योगी के शुक्ल ध्यान में भी कारगर होता है और आपके द्वारा दिया जाता है योगी को तो आपको पुण्य की प्राप्ति होती है परंतु जब गौ नहीं होगी तो दुघ की धारा कहाँ से लाओगे । चार प्रकार के दान में अभय दान भी श्रेष्ठ माना जाता है इसलिए कम से कम कामधेनु के अभय के लिए तो कुछ अर्थ का त्याग करने का संकल्प लो तभी तुम्हारे दस धर्मों के पालन की उपयोगिता मानी जायेगी । एक बार जो ब्रत ले लिया उसे पूर्ण करने के लिए कमरकस लेना चाहिए ,बीच में छोड़ना नहीं चाहिए । जैंसे हम दाम्पत्य जीवन में वचन लेकर एक दुसरे के प्रति समर्पित रहते हैं बैसे ही कामधेनु के प्रति वचनबद्ध होकर काम करें उसके प्रति समर्पित रहें क्योंकि बो भी आपके प्रति दया का भाव रखकर आपको अपना दूध देती है । बो दुग्ध प्रदान करती है आप उसे संरक्षण प्रदान करो । यदि सम्यक दर्शन के निकट पहुंचना चाहते हो तो दया जो धर्म का मूल है उसे जीवन में उच्च स्थान देना होगा ।
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पूज्य गुरुवर ने कहा मोक्ष मार्ग बहार कम भीतर ज्यादा है। हमारी दृष्टि बहार की तरफ है जबकि अन्तर्दृष्टि की और जाने की जरूरत है। आगे देख सकते हैं परंतु पीछे नहीं देख सकते ऊपर भी नहीं देख सकते हैं। व्यक्ति यहां बहा सब जगह दृष्टि दौड़ाता रहता है । अपनी आत्मा में लींन होना ही ब्रह्मचर्य है क्योंकि आत्मा को ब्रहम् कहा गया है। फोटो लगाने के लिए या चस्मा लगाने के लिए फ्रेम लगानी पड़ती है। जिनके पास अनंत है हम उसे नमस्कार करते हैं क्योंकि बो उपाधि एक तरह से फ्रेम होती है । चित्रकार जब चित्र बनाता है तो हरेक कोण का बिशेष ध्यान रखता है तब जाकर सूंदर चित्र बनता है। अनंत को देखने का प्रयत्न करो किसी भी चोखट के बिना, आप अपने अंतरंग का चित्र स्वयं बनाओ और अंतरंग में डूब कर बनाओ। जब सफ़ेद कागज पर सफ़ेद रंग से लिखा जाता है उसे समझने में दिक्कत होती है। आत्मा अक्षर रहित होती है जबकि आप अक्षर खोजते हो। चित्रकार कृष्ण के साथ हमेशा सफ़ेद गाय का चित्र बनाता है जबकि कृष्ण को सभी रंग की गाय पसंद थी। गाय सफ़ेद हो या काली दूध सफ़ेद ही देती है। कोण कैंसा ही हो दृष्टिकोण स्पष्ट होना चाइये दृष्टिकोण में बिशालता लाने की आवश्यकता है। दृष्टि फ्रेम या चौखट तक सीमित न रखें केंद्रबिंदु तक ले जाएँ। श्रद्धान कीजिये सम्यक ज्ञान को प्रकट कीजिये आपकी दृष्टि नासा दृस्टि बन सकती है। ब्रह्मचर्य की सुगंधि लेना चाहते हो, उसकी सुंदरता को महसूस करना चाहते हो तो बहिरंग की छाया को देखना बंद करो अंतरंग की तरफ दृष्टिपात करो।
उन्होंने कहा की परमात्मा की सुगंधि फूटती है तो अंतरात्मा तक जाती है और फिर अंतरात्मा ब्रह्म में लीं" होने की और आकृष्ट हो जाती है। आज का विकास चित्र से विचित्र की और जा रहा है इसलिए दिशाहीन है। जब तक गहराई में उतरेंगे नहीं , जब तक ज्ञान में डूबेंगे नहीं और जब तक हीरे को चारों तरफ से अच्छे से देखेंगे नहीं तब तक उसकी सही पहचान नहीं कर पाएंगे। जब दर्शन करते हैं तो परमात्मा की प्रतिमा को दर्पण के प्रतिबिम्ब के माध्यम से अनेक रूप में देखते हैं ऐंसे ही ज्ञान के प्रतिबिम्ब के माध्यम से आत्मा का स्वरुप भी विराट दिखाई देता है। जीवन में जब भार बढ़ता है तो झुकना पड़ता है उसी तरह जब साधना में ब्रह्म का भार बढ़ता है आत्मा भी मोक्ष मार्ग की और नबता जाता है। आत्म तत्व के बारे में जब पूर्ण बोध हो जाता है तो मोक्ष मार्ग की सीढ़ी मिल जाती है।
अपने पर्यायों को जानता है या प्राप्त करता है बह आत्मा है। हम अपनी गिनती भूल कर ज़माने की गिनती में रमे हुए हैं हमारी गिनती भी भव्य आत्माओं में हो ऐंसा पुरुषार्थ करो । श्रद्धा के माध्यम से ही आत्मा के अनन्त स्वरूप को जाना जा सकता है। आत्मा को चैतन्य रूप मानकर ही उसका रूप जाना जा सकता है। आत्म तत्व को जानने के बाद दुनिया के समस्त तत्वों से मोहभंग हो जाता है। दुनिया की सभी पीड़ाएं पुदगल की पर्यायें हैं स्वयं में स्थिर होने का अभ्यास किया जाय तो स्थिरता आ सकती है। मन को ठन्डे बस्ते में रखकर ही मोक्ष मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है तभी सम्यक दर्शन , ज्ञान और चारित्र को प्रकट किया जा सकता है । श्रद्धान और अभ्यास के बल पर ही आत्मतत्व का अनुभव किया जा सकता है। दूध की बिभिन्न पर्यायें हैं परंतु घी की पर्याय से ही प्रकाश फैलता है ऐंसे ही आत्मा के मूल स्वाभाव बाली पर्याय में ही प्रकाश का पुंज होता है, इसलिए उस प्रकाश पुंज तक पहुँचने का प्रयास करो अपने ब्रह्म स्वरुप को प्राप्त करने का प्रयास करो। मन के हारे हार है मन के जीते जीत है इसलिए मन को हरने मत दो।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने जैन मंदिर परिसर हबीबगंज में आयोजित धर्मसभा में कहा कि संसार में आधी व्याधि रोग ,मानसिक रोग ,बौद्धिक रोग हर प्रकार के रोग हैं और उनकी चिकित्सा भी है ।जब आप भगवान को अर्घ समर्पित करते हो तो उसके अर्थ पर भी ध्यान दिया करो ।आप बोलते हैं क्षुधा रोग विनाशनाय परंतु आपकी क्षुधा हर पल बढ़ती ही जाती है ,शांत ही नहीं होती है ।अपने रोगों को लेकर आप संतों के पास भी जाते हो संतों के पास आपके तन की नहीं मन की ओषधि होती है और ये ओषधि आपको पूर्ण रूप से निरोगी कर देती है । परंतु एक बार यदि चिकित्सक रुपी संत को आपने स्वयं को दिखा दिया तो फिर संसार के दूसरे चिकित्सक को नहीं दिखाना । संत कभी रोगी के पीछे नहीं घुमते परंतु रोगी को संसार के घुमाबदार चक्करों से जरूर बाहर निकाल देते हैं ।आप लोगों को अनादिकाल से रोग लगे हुए हैं जो बहुत पुराने रोग हैं और इनसे छुटकारा पाने के लिए आपको निर्विकल्प होकर हम जैंसे चिकित्सकों के समक्ष आना चाहिए तभी आपको फायदा होगा ।आपके क्षुधा रोग के निवारण के लिए आहार पर नियंत्रण से बड़ी कोई औषधि नहीं है । तृष्णा की खाई भी आज इतनी गहरी होती जा रही है जिसमें लोग स्वयं डूबते जा रहे हैं । आप पूजन में जन्म, जरा,मृत्यु रोग विनाशनाय कहते हैं परंतु इस और कदम बढ़ाने में कंजूसी भी करते हैं तभी आप इन रोगों से ग्रस्त रहते हो । रोगों से मुक्ति तभी होगी जब भोगों से मुक्ति की और कदम बढ़ाओगे ।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के सानिध्य में कहा की ध्यान में समय का पता नहीं लगता आप सब ध्यान में आगे हैं आप अनादिकाल से ध्यान कर रहे हैं। ध्यान के करसन संसार मिलता है ध्यान से ही मुक्ति मिलती है। परिचित को छोड़ना है और अपरिचित से परिचय करना है । मन आपको एक घोड़े की तरह दौडाता है जिस तरह घोड़े की लगाम जैंसे कसेगे बैसे ही मन भागेगा। मन को साधने से ही साधना को मजबूत बनाया जा सकता है।
उन्होंने कहा की एक अवसर पर रावण मन्त्र सिद्धि के लिए 4-5 साथियों के साथ जंगल गए और एकाग्र होकर मन्त्र की सिद्धि करने लगे विध्न बाधाएं उत्पन्न हो गई तो सभी साथी भाग गए परंतु रावण एकाग्रचित्त होकर बैठे रहे और उन्हें मन्त्र की सिद्धि हो गई । एकाग्रता रावण की अद्भुत थी मन्त्र भी थर थर कांपते थे क्योंकि मन पर पूरा नियंत्रण था उसका । मन्त्र का कोई आकार नहीं होता मन मुग्ध हो जाएँ तो मन्त्र आप पर मुग्ध हो जाता है । मन के सामने सब पीछे रह जाते हैं । रावण के पास हजारों मन्त्रों की सिद्धि हो गई थी और बो ये नहीं जानता था की मन्त्र का फल पुण्य के परिणामों से आता है । पुण्य नहीं होता तो मन्त्र फूल की तरह झड़ जाते हैं । संसार की बगिया में पुण्य और पाप दोनों के फल लगा करते हैं जो संकल्प के साथ कार्य करते हैं उसके पुण्य के फल हमेशा होते हैं । मंदिर में बैठकर माला फेरना धर्म ध्यान नहीं रौद्र ध्यान हो सकता है । ध्यान के आसान पर मन नहीं बंधता परंतु मन को बाँधने से ध्यान का उच्च आसन प्राप्त हो जाता है।
उन्होंने कहा की सीता के ऊपर जो उपसर्ग हुआ था उससे ज्यादा उपसर्ग मंदोदरी के ऊपर हुआ था । संकल्प पूर्वक ध्यान से ही सिद्धिया हो पाती हैं । जो व्यक्ति संकल्प लेता है बो ध्यान का मूल मन्त्र होता है । राम और सीता ने जो संकल्प लिया था बो मर्यादित संकल्प था और दोनों के मन एक दुसरे से बंधे थे इसलिए दूरी होने के बाद भी मन मर्यादित था इसलिए ये भी एक तरह से ध्यान की साधना थी। इतिहास लिखा नहीं जाता बल्कि इतिहास बनता है तब लिखा जाता है और इतिहास तब बनता है जब उसके लिए पुरुषार्थ किया जाता है । सरकार को अपने इतिहास से सबक लेकर जनहित में ऐंसे कार्य करना चाहिए जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो सकें । भारत का गौरवशाली इतिहास हमें बताता है राम के जीवन की ऐंसी गाथाएं जिनको लक्ष्य बनाकर नीतियां बनायीं जाएँ तो सार्थक परिणाम आएंगे । नीतिगत निर्णय ही सरकार को स्थिर और नेता को स्थाई बनाते हैं ।रावण के पास नीतियों का भंडार था परंतु अपने लिए उन नीतियों को सार्थक नहीं बनाने के कारन उसकी पराजय हो गई । इसलिए नीतियों का सदुपयोग ही आपको स्थायित्व प्रदान करता है।
आचार्य श्री ने कहा की दूरी नाप कर भी समय का ज्ञान हो सकता है इसलिए ध्यान दोनों तरह के है रौद्र ध्यान और धर्म ध्यान आप जिसे चाहे चुन सकते हैं यदि मन को स्थिर और एकाग्रचित्त बनाओगे तो धर्म ध्यान हो जायेगा और मन को बेकाबू घोड़े की तरह बनाओगे तो रौद्र ध्यान हो जाएगा । राम के जीवन को सामने रखकर ध्यान करोगे तो सिद्धि अवश्य हो जायेगी और रावण की तरफ देखकर करोगे तो असफलता ही हाथ लगेगी । जो व्यक्ति दूसरों के जीवन में व्यवधान उत्पन्न करते हैं कर्म उसके जीवन को अव्यवस्थित का देते हैं । सरकार आपके द्वारा बनाई जाती है इसलिए सरकार की अच्छी नीतियों में अपने कर्तव्यों का पालन आपको भी करना है क्योंकि आप स्थाई हो सरकार अस्थाई होती है । सरकार को ऐंसे उद्योग नहीं लगाना चाहिए जिसमें हिंसा होती हो।
इससे पूर्व लोकनिर्माण मंत्री रामपाल सिंह ने इस अवसर पर कहा की आचार्य श्री के कदम पड़ते ही भोपाल में अहिंसा धर्म की स्थापना स्वमेब ही हो गई है । हमारी सरकार द्वारा अहिंसा के और गौरक्षा के क्षेत्र में तो अभिनव योजनाओं के माध्यम से कार्य किये ही जा रहे हैं साथ ही कौशलविकास के क्षेत्र में भी अनेकों योजनाओं पर कार्य सतत् चल रहा है।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि जिस रास्ते का पता होता है उसी रस्ते पर चलने की आपकी आदत हो गई है अब एक नए रास्ते की तरफ आपको जाना होगा जो अपरिचित हो ,टेढ़ा मेढ़ा हो या सीधा हो बस सामने की तरफ देखकर चलते जाएँ इधर उधर देखने का उपक्रम न करें। समोशरण में 12 सभाएं होती हैं सभी प्रकार के देवों देवियों की अलग अलग व्यवस्था होती है सब अपने में व्यस्त रहते हैं ,मनुष्यों और मुनियों ,आर्यिकाओं की अलग अलग व्यवस्था रहती है इसी प्रकार धर्मसभा में अलग अलग व्यवस्था होती है तो कर्मसभा में आपको भी व्यवस्थित होने की आवश्यकता है।
जिस कार्य को आप करना चाहते हैं उसकी शुद्ध प्रक्रिया को अपनाएं ,जिस रोग की आप चिकित्सा करना चाहते हो उस रोग के आने बाले मार्ग के बारे में आप पहले जान लो और उसे ही बंद करने का प्रयास करो। किसी भी मार्ग में बढ़ने के पूर्व उस मार्ग की व्यवस्था को पहले समझना जरूरी होता है। अभिभावकों को ये समझना जरूरी है कि उनके बच्चे शिक्षा में किस मार्ग का अनुशरण कर रहे हैं फिर उस मार्ग के बारे में जानकर बच्चों को सही दिशा प्रदान करें। शारीरिक और मानसिक चिकित्सा बच्चों की तभी होगी जब अभिभावक स्वस्थ मानसिकता से सही मार्ग का अनुशरण उन्हें कराएँगे। आप के मन में श्रम करने के भाव जाग्रत होंगे तभी आपके बच्चे श्रम का महत्व समझ पाएंगे। आप जैंसी पद्धति बच्चों को बताएंगे बो बैंसी ही जीवनचर्या अपनाते जायेंगे। जैंसी नीति निर्धारण करेंगे बैसे ही परिणाम आपके विद्यार्थी बच्चे भविष्य में आपको देंगे। तना मजबूत रहता है तो डालियाँ भी मजबूत रहती हैं और फिर अच्छे फल उसमें लगते हैं। और छाया भी बो पेड़ अच्छी देते हैं।
आचार्य श्री ने कहा कि जिंदगी केवल काटने के लिए ही नहीं होती बल्कि जिंदगी तो बनाने के लिए होती है। सब्जी और फल कटे नहीं जाते बल्कि बनाये जाते हैं क्योंकि काटना हमारी संस्कृति नहीं है बल्कि बनाना हमारी संस्कृति है।
उन्होंने कहा की घर के दरवाजे तभी बंद करें जब घर से बहार जाएँ जब घर में हों तो दरवाजा खोल कर रखें तभी लक्ष्मी प्रवेश करेगी बैसे भी धन तेरस आने वाली है। भाषा का सही उपयोग ही आपकी और आपके परिवार की खुशहाली का कारन बनता है इसलिए बोलते समय साबधानी अवश्य रखें। आपके परिवार का विद्यार्थी जब संस्कारित होकर शिक्षा ग्रहण करेगा तो बो समाज को भी और राष्ट्र को भी सही दिशा की और अग्रसर कर सकेगा।
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विचारों को साकार किया जा रहा है ऐंसा लगता है हम सक्रीय होते जा रहे हैं विचारों के पैर नहीं होते परंतु जो संयोग होता है तो मूक भी बोलने लग जाता है ।
उन्होंने कहा कि पंगु व्यक्ति भी चलने लगता है , बुद्धिहीन व्यक्ति की बुद्धि भी चलने लग जाती है ,लोग संगीत की स्वर लहरियों में तल्लीन हो जाते हैं जब सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र की पूजन होती है। गुरुकुल परंपरा भारत की मूल संस्कृति का एक हिस्सा रहा है और पुनः इस संस्कृति को जागृत करने के लिए मंगल दीप प्रज्ज्वलित करने की आवश्यकता है। सूरज आसमान में है और नीचे टिमटिमाता दीपक है । बहुत सारे विचारों को सपनों को साकार करने के लिए पुरुषार्थ रुपी दीपक जल दिया जाय तो सूरज की तरह तेज उत्पन्न हो सकता है।प्रकृति में गति पुरुष के माध्यम से आती है प्रकृति को खिलौना समझकर उससे खेलने का उपक्रम किया जा रहा है जिसके दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। हम तोते की तरह रटने का प्रयास कर रहे हैं जबकि ज्ञान रटने से नहीं बल्कि अध्ययन से जाग्रत होता है। हम अपनी भूलों को भूलकर यदि सही उपक्रम की और दृष्टि करेंगे तो सही दिशा की और अग्रसर हो सकेंगे।
उन्होंने कहा कि भारत तो भारत के रूप में विद्यमान है उसे उसके वास्तविक स्वरुप में उद्घाटित करने की आवश्यकता है। अपने विचारों को संयोजित करके हम आपदा विपदाओं से मुक्त हो सकते हैं लेकिन श्रम के आभाव में ऐंसा नहीं हो पा रहा है, हम श्रमिक न बनकर आलस्य का पुतला बने रहे तो रुग्णता को प्राप्त होते गए। भारत एक ऐंसा वृक्ष है जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं परंतु विदेशी संस्कृति के रोपण से इस वृक्ष की सूरत हमने बिगाड़ ली है। आज प्राचीन भारत की कृषि लुप्तप्रायः हो रही है क्योंकि विदेशी यूरिया ने उर्वरा शक्ति को कमजोर बना दिया है। अलंकार और आभूषण रहित और नवरंग विहीन संस्कृति हमने बना ली है, हम विदेशी नक़ल के आदी बनते जा रहे हैं। हम जो बोल रहे हैं बह लय विहीन होता जा रहा है। भाबना बनाके और विश्वास को सुदृढ़ बनाने पर हम पुनः प्राचीन वैभव को प्राप्त कर सकते हैं बस अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक हमें इस विचार को पहुँचाने की जरूरत है। जब जीव अजीव से मिल जाता है तो सात शत्रु आ जाते हैं और आत्मतत्व कहीं खो जाता है। जीव से जीव मिले और दीप से दीप मिले तो विकास रुपी प्रकाश अवश्य फैलेगा, मोक्ष तत्व तक पहुँचने के लिए धर्म के बीज को सुरक्षित करना पड़ता है तब बट वृक्ष खड़ा होता है और मोक्ष फल की प्राप्ति होती है। विश्राम करते रहेंगे तो राम से वंचित रहेंगे क्योंकि आराम तो हराम बताया गया है। विश्राम को तजकर काम (पुरुषार्थ) करेंगे तो जरूर राम से साक्षात्कार होगा।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज कृषि के क्षेत्र में हम जिस यूरिया का प्रयोग कर रहे हैं वह हमारी कृषि को कमजोर तो बना ही रहा है साथ ही हमारे स्वास्थ्य को भी नुक्सान पहुंचा रहा है। सरकार भी इस और ध्यान नहीं दे रही है ,सरकार आप स्वयं बनो और इस तरफ आप खुद ही ध्यान दो। सरकार विज्ञापन के माध्यम से बातें तो बहुत सी करती है परंतु सही दिशा की और सार्थक कदम नहीं उठा ती है। आज अपने बच्चों को हमें स्वयं ही सही शिक्षा का ज्ञान कराने की जरूरत है क्योंकि यदि भारत का भविष्य उज्जवल और सुरक्षित बनाना है तो संस्कारों की मजवूत नींव तो हम सब को मिलकर ही डालनी होगी।
उन्होंने कहा कि आज की शिक्षा प्रणाली का जो व्यवसायीकरण हो रहा है बो भविष्य के लिए अच्छे परिणाम नहीं दे सकता। अच्छे और लुभाबने विज्ञापन देकर शिक्षा संस्थाएं अच्छी शिक्षा का ढिंढोरा पीटती हैं बो दूर के ढोल सुहाबने सिद्ध होती हैं। शिक्षा और दीक्षा ये दोनों बहुत महत्वपूर्ण बिंदु होते हैं इनमें किसी प्रकार का कोई समझोता नहीं होना चाहिए।
आचार्य श्री ने आजकल जो अशुद्ध खाद्य सामग्रियों का चलन चल रहा है उस पर अपनी बात कहते हुए कहा की हम अपने बच्चों को स्वयं ही जहर देने का काम आँख मूंदकर कर रहे हैं और उनके स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। विद्यार्थियों को जब तक शुद्ध आहार नहीं मिलेगा उनका शारीरिक और मानसिक विकास संभव नहीं है। हम से अधिक विवेक तो मूक प्राणियों में होता है जो सोच समझकर सामग्री को खाते हैं। अच्छे अच्छे पढे लिखे लोग भी इस दिशा में अज्ञानी बने हुए हैं। कुँए और नदी का शुद्ध जल छोड़कर बंद बोतल का तत्व रहित जल पीने के आदि स्वयं भी बने हैं और बच्चों को भी बना रहे हैं। ये कौनसे पढ़े लिखे होने की निशानी है। जिसे आप बिसलरी बता रहे हैं बो धीमे बिष का काम कर रहा है क्योंकि उसमें जरूरी तत्वों का आभाव है । प्राशुक और छने जल को रोग का कारण बताया जा रहा है और तत्वरहित जल को पीने की सलाह खुद चिकित्सकों द्वारा दी जा रही है । मेरे द्वारा किये गए इन जटिल प्रश्नों का हल आपको स्वयं को ही खोजना होगा तभी रोग रहित और योग सहित स्वस्थ्य भारत और सशक्त समाज के निर्माण की दिशा में आप सार्थक कदम बढ़ा सकेंगे।सरकार की तरफ टकटकी लगाकर देखने की अपेक्षा आप स्वयं ही सरकार बनकर सामाजिक ताने बाने को दुरुस्त करने का उपक्रम प्रारम्भ करें।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि प्राशुक जल की एक निश्चित अबधि तक मर्यादा रहती है उसके बाद उसमें जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। लौंग डालने से प्राशुक्ता की अवधि बढाई जा सकती है उसे जीव रहित बनाया जा सकता है। जल को उबालने से भी प्राशुक बनाया जाता है जो पीने योग्य हो जाता है। ठन्डे जल से संयम का ब्रत भंग होता है और पेट में भीतर जीवों की उत्पत्ति हो जाती है । ज्ञान के आभाव में अशुद्ध जल लेने से रोगों की उत्पत्ति होती है जो मानसिक रूप से भी लोगों को कमजोर बनाने में सहायक होती है ।हम जमीन के बहुत नीचे से जल को प्राप्त करते हैं तो उसमें बिभिन्न प्रकार के खनिज तत्व भी समाहित होते हैं जो अकेले छानने से प्रभाव् हींन नहीं होते उसे उबालना ही पड़ता है। अशुद्ध जल आपके पेट , लीवर , किडनी और ह्रदय पर सीधा प्रभाव डालता है और अधिकतर रोग भी जल की अशुद्धता के कारण ही होता है।
उन्होंने कहा कि जल का समाशोधन अग्नि के माध्यम से ही किया जा सकता है । शुद्ध हवा और सूर्य के माध्यम से भी जल का शुद्धिकरण होता है ये प्राकृतिक संसाधन है । आज जो हरी पत्ति की सब्जियां होती हैं ये भी जीव सहित होती हैं जब इन्हें सुखाकर उपयोग में लाया जाता है तो प्राशुक हो जाती हैं, जैंसे अंगूर सूखने के बाद किश्मिस् और मुनक्का बन जाते हैं बो प्राशुक हो जाते हैं । सूर्य की ऊर्जा और हवा के प्रभाव से अनेक बस्तुओं को प्राशुक बनाया जाता है। बड़े बड़े महानगरों में आज शुद्ध जलवायु का नितांत आभाव होता जा रहा है इसी कारण पर्यावरण दूषित हो रहा है। चिकित्सालय उसी व्यक्ति को जाना पड़ता है जो अपने पेट को प्रदुषण से मुक्त नहीं कर पाता। जैन दर्शन को जानने वाला प्राशुक विधि से भोजन का निर्माण करता है और जल भी प्राशुक ग्रहण करता है तो बो हमेशा रोगमुक्त रहता है। सरकार और कुछ अखबार जल ही जीवन है का नारा तो समाज को दे रहे हैं परंतु जल के प्राशुकीकरण की विधि नहीं बता रहे हैं जबकि जल तभी जीवन का वरदान होता है जब बो प्राशुक और शुद्ध होता है। प्राशुकीकरण विधि के लिए लोगों को प्रशिक्षण देने की भी आवश्यकता है। यदि जल और हवा शुद्ध नहीं होगा तो मन को भी शुद्ध नहीं बनाया जा सकता। आज मन की चिकित्सा की आवश्यकता है और मन को सही चिकित्सा तभी मिल सकती है जब शुद्ध आहार और शुद्ध जल का उचित प्रबंधन किया जाय । कितना ही विज्ञानं का अध्ययन कर लें परंतु विवेक को जाग्रत रखके और सावधानी को बरतकर ही हम प्रदुषण मुक्त जीवन जी सकते हैं। ज्ञान और साबधानी दोनों अलग अलग बस्तु हैं , अकेले ज्ञान से प्रबंधन को उचित नहीं बनाया जा सकता उसके लिए साबधानी की भी अति आवश्यकता होती है।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज व्यक्ति को जो सुख प्राप्त हुआ है वो उसे न देखकर, उसे न भोगकर पडोसी के सुख को देखकर दुखी हो रहा है। किसी ने मकान बनाया और कम समय में सूंदर मकान बन गया तो उसका खुद का घर कितना ही सूंदर क्यों न हो उसके मन में ये भाव जर्रूर आते हैं की इसका मकान इतनी जल्दी और इतना सुन्दर कैंसे बन गया। ऐंसे ही दान के क्षेत्र में कुछ लोगों को दूसरों का दान देखकर ईर्ष्या के भाव उत्पन्न होते हैं और मन में मलिनता उत्पन्न होती है। यदि किसी ने दान दिया है और उस दान की अनुमोदना अच्छे मन से आपने की है तो पुण्य का संचय आपको भी अवश्य होगा।
उन्होंने कहा कि देवलोक में सूंदर सूंदर अकृतिम भवन बने होते हैं उधर किसी को बनाने की जरूरत नहीं होती ,सारे सुख वैभव ,सारे संसाधन उपलब्ध हो जाते हैं। आप लोग उलझनों में उलझने की अपेक्षा सुलझने की तरफ कदम बढ़ाओ तो आपको भी देवों जैंसे वैभव प्राप्त हो सकते हैं।
उन्होंने कहा कि में जब ग्राम और कस्बों में विहार करता हूँ तो छोटे छोटे रस्ते भी सुगम होते हैं जबकि भोपाल में चौड़े चौड़े रास्ते होते हुए भी पाँव रखने की जगह भी नहीं मिलती है। महानगर का जीवन ऐंसे ही भीड़ भाड़ और आपा धापी में निकल जाता है।
उन्होंने कहा कि बड़ी दूर दूर से आप लोग संतों के दर्शन करने आते हो परंतु अच्छे से दर्शन नहीं हो पाते तो उसमें मन आपका खिन्न हो जाता है परंतु न तो तो आप इसमें कुछ कर सकते हो न संत इसमें कुछ कर सकते हैं, आप सबका मन भारत नहीं है। संसार की ही समस्या है की मन कभी नहीं भरता ,उस मन को ठन्डे बस्ते मेडाल दीजिये क्योंकि ठन्डे बस्ते में मन को रखना ही मोक्ष मार्ग है। कल से आप अपने साथ एक बस्ता लेकर आओ और अपना मन उस बस्ते में रखकर संतों के सानिध्य में जाओ आपके भीतर खिन्नता नहीं आएगी। सबसे ज्यादा महत्व संयम का है क्योंकि इसके बिना मोक्ष मार्ग की यात्रा प्रारम्भ ही नहीं होती है । शहर की अपेक्षा ग्रामों में ज्यादा संतोषप्रद जीवन होता है क्योंकि उधर जीवन की आपा धापी और भागदौड़ कम होती है । जो संतोष का जीवन जीता है उसका हर पल ,हर क्षण सुखमयी होता है। जो परंपरा से धर्म के संस्कार आपको प्राप्त हुए हैं उन्हें सहेजने और सँवारने की आवश्यकता है । मन की मांग को पूरा करना कोई बुरी बात नहीं है परंतु जायज मांग और फालतू मांग में फर्क का ज्ञान होना तो जरूरी है। सोच बिचार कर अपने मन की मांग का प्राथमिकता से निर्धारण करना चाहिए। आमदनी के हिसाब से खर्च का प्रबंधन करना जरूरी होता है। आमद कम खर्चा ज्यादा लक्षण है मिट जाने का, कूबत कम गुस्सा ज्यादा लक्षण है पिट जाने का। इसलिए अपनी चादर के अनुसार ही अपने पैर फैलाना चाहिए। यही धर्म है जिसे ज्ञानी लोग अच्छे से जानते हैं । मन से जो काम लेता है वो अच्छा होता है और जो मन का काम करता है वो अच्छा हो ही नहीं सकता। जो मन से काम लेता है वो सेठ होता है और जो मन का काम करता है वो नोकर होता है ।जो मन के नियंत्रण में चलता है उसकी कोई चिकित्सा हमारे पास भी नहीं है , उसका तो भगवान ही मालिक है।
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आचार्य श्री के गृहस्थ जीवन के भ्राता महावीर प्रसाद जैन ने अपने उद्बोधन में कहा की जब हम स्कूल जाते थे तो हम दोनों एक ही सायकल पर जाते थे । हम नदी के किनारे के रहने वाले धर्मानुरागी हैं और आज पहली बार आचार्य गुरुवर के सामने बोलने का मौका मिला है मैं कृतज्ञ हो गया हू।
पूज्य आचार्य श्री ने कहा कि दो विधाओं में जब हम लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं तो दोनों बिंदुओं को एक साथ लेकर चलना पड़ता है । दोनों दिशाओं को एक साथ लेना पड़ता है ।उत्थान और पतन दोनों की तरफ देखना पड़ता है । विज्ञान ऊपर उड़ने के लिए प्रेरित करता है जबकि उड़ा नहीं जाता अपितु नीचे से ऊपर उठा जाता है । दोनों आँखें एक दुसरे की पूरक होती हैं। उन्होंने कहा की उजाला हमेशा मिलता रहे ये जरूरी नहीं है क्योंकि आँखों कोबिश्राम देना भी जरूरी है । पुरुष्कार का मतलब है आगे बढ़ो आगे बढ़ो । हम आज एक ही दिशा में दौड़ते जा रहे हैं पागलपन की हदों को पार कर रहे हैं । तनाव में जल्दी आने लगे हैं आज के विद्यार्थी इसलिये पहले तनाव से मुक्त होना आवश्यक है । अभिभावकों को चाहिए बे जल्दी से भावुक न बनें बल्कि अपने बच्चों की भावनाओं को मजबूत बनाएं ।
उन्होंने कहा की आज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में दुनिया में बहुत पिछड़ गए हैं क्योंकि उन्नति के लिए शिक्षा में जिन नीतियों की जरूरत है हमने उन्हें गौण कर दियाहै । भारत में पहले जो विश्वविद्यालय थे आज उनका नितांत आभाव हो गया है । आज अभिभावकों को ये गलत धारणा हो गई है कि इतिहास पढ़ने से विकास नहीं होगा । इतिहास पढ़ने से ही विद्यार्थी को सही ज्ञान मिलता है । संकेतों के पालन में केवल आँख और कान ही प्रभावी नहीं होते बल्कि विवेक भी महत्वपूर्ण होता है । परीक्षा के द्वारा ही मूल्याङ्कन नहीं होता बल्कि गुणवत्ता के आधार पर भी मूल्याङ्कन होता है । उन्होंने कहा कि आँखों से हर कार्य पूर्ण नहीं होता बल्कि ज्ञान चक्षु भी जरूरी है । आज बच्चों को शिक्षा में खानपान का भी बहुत महत्व है । शुद्ध आहार , शुद्ध पेय उनकी बुद्धि के विकास के लिए आवश्यक है । गुरुवर ने कहा कि कभी कभी कटु लगता है सत्य और सफ़ेद झूठ हो सकता है तो सत्य तो बोलना परम आवश्यक है । आज मार्क की तरफ ध्यान न दें बल्कि ज्ञान की तरफ ध्यान दें । पूरक परीक्षा ने विद्यार्थियों को कमजोर बना दिया है इसलिए पूरक की नीति बदलना चाहिए । आज किसी बात को जैंसे से नहीं बल्कि जो है बही सत्य है कहकर पुख्ता करना चाहिए।
गुरुवर ने कहां कि क्रमिक विकास की शिक्षा नीति चल रही है । लघु शोध प्रबंध का कार्य किया जा रहा है । लघु से गुरु बनने के लिए अपनी योग्यता और अनुभव को सुदृढ़ बनाना होगा । चिंता माथे पर रखोगे तो कैंसर होगा और छाती पर रखोगे तो छाती फूल जायेगी गर्व से । आज पराश्रित शिक्षा हो गई है जो स्वाश्रित होना चाहिए । नव सृजन कर्ता बनाने की जरूरत है । श्रम रहित शिक्षा नहीं बल्कि श्रम सहित शिक्षा होनी चाहिए । नीति न्याय का आभाव शिक्षा में नहीं होनी चाहिए । जैंसे परखी से गेंहू की जांच की जाती है सब तरफ से बैसे ही शिक्षा में भी ज्ञान की परखी की जरूरत है तभी भारत को शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी बनाया जा सकता है । शब्दों में ध्वनि होसकती है बजन हो सकता है परंतु विजन तो ज्ञान में होना चाहिए । आधुनिक शिक्षा के साथ साथ आत्म तत्व को जाननेे की जो शिक्षा महापुरुषों ने दी है बो भी अनिवार्य होना चाहिए । भारतीय दर्शन को जानना भी नितांत आवश्यक होना चाहिए।
उन्होंने कहा कि जलप्रबंधन के मामले में भी भारत बहुत पिछड़ गया है इस दिशा में भी ठोस कार्य होना चाहिए । भारत से दूध दही घी का निर्यात होता था आज क्या हो रहा है ये सोचना जरूरी है । हमें उजाले का चिंतन करना है ।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि संयोग से ही नियोग होता है और फिर वियोग भी होता है। जीवन में दुःख और सुख दोनों बराबर आते रहते हैं न तो दुःख में घबराना चाहिए न सुख में इतराना चाहिए बल्कि हमेशा समता का भाव धारण करना चाहिए। जब भी आप संतों की शरण में जाओ अपना रोना लेकर मत जाओ बल्कि प्रसन्नता को लेकर जाओ।
उन्होंने कहा कि सौधर्म जैंसे बैभवशाली व्यक्ति के जीवन में भी संयोग और वियोग के क्षण आते हैं आप सब तो मनुष्य का दुर्लभ भव पाकर पुण्यशाली हो जो आपको वीतरागी परमात्मा की भक्ति का सौभाग्य प्राप्त है।
उन्होंने कहा कि विवेक तो आपके पास होता है परंतु उसका उपयोग समय पर आप नहीं कर पाते हो। जब बोलने का समय आता है तो मौन हो जाते हो और मौन के क्षणों में शांति नहीं रख पाते हो। आप विवेक पूर्वक कार्य करोगे तो पुण्य का बंध अवश्य होगा और राग द्वेष के बशीभूत होकर कार्य करोगे तो पाप का बंध होगा। विवेक के साथ काम करने में दुखों की उत्पत्ति नहीं होती। अपने स्वयं के ज्ञान को जागृत करने से ही शुभ परिणाम प्रकट होते हैं। जब दुःख के क्षण आते है तो नमकीन स्वाद होता है इस स्वाद को सहन करने का पुरुषार्थ होना चाहिए।
उन्होंने कहा कि चातुर्मास का तीसरा चरण प्रारम्भ हो गया है अब तो आप समझो की गाडी बॉर्डर पर आ गई है अब इस गाड़ी की सवारी का थोडा आनंद और प्राप्त कर लो। आज वियोग की विभोक्षा का बर्णन समझो आपको इस भूमि पर वियोग का दुःख कम होता है जबकि देवों को ज्यादा होता है। संयोग और वियोग को समता पूर्वक ग्रहण करने के लिए अपनी आत्म शक्ति को जागृत करो।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि जिसकी जितनी कुब्बत होती है उससे उतना ही काम लेना चाहिए क्योंकि ज्यादा भार किसी के कन्धों पर डालना अच्छी बात नहीं है । भगवान् से यही प्रार्थना करना चाहिए कि हे भगवन हमने तो अपने जीवन डोर आपके हाथों में सौंप दी है अब आप अपनी ओर खींचो। जो श्रावक् अणुुब्रतों की ओर अनवरत खींचता चला जाता है वही अणुव्रती कहलाता है। जैंसे थोक व्यापारी के पास जाकर फुटकर व्यापारी अपना काम चला लेता है ,उसे उधार माल भी प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार महावीर भगवान का जो तीर्थ काल चल रहा है वो ज्ञान के थोक भण्डार हैं परंतु आप उन तक नहीं पहुँच पा रहे हैं तो एक दुसरे से मेल मिलाप करके अपना काम चला लें। तीर्थंकरों के आभाव में धर्म तीर्थ के रथ को आप सब मिलकर खींच रहे हैं तो ऐंसे ही एक दूसरे को सहयोग करते हुए इस रथ को दूर तक खींच कर ले जाना है। इसी में आप सबका कल्याण निहित है।
उन्होंने कहा कि अपने बच्चों को,युवा पीढ़ी को भी ये बताना है कि ये धर्म का अक्षुण्ण रथ है इसे चलाते रहेंगे तो अहिंसा सदियों तक सलामत रहेगी। सभी के अच्छे भविष्य का लेखा जोखा इसी रथ पर आधारित है ,बहुत जिम्मेदारी का कार्य है सबको मिलकर करना होगा। बिघ्न बाधाओं से घबराने की आवश्यकता नहीं है बस सब मिलकर साथ चलेंगे तो ये रथ सतत् चलता रहेगा।
उन्होंने कहा की योग्यता के आधार पर प्रोत्साहन करते रहना चाहिए, विचारपुर्वक और समन्वय के साथ जो काम कर रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित करें। कर्तव्य में कोई शर्त नहीं होना चाहिये। अपनी अपनी कुब्बत के आधार पर कर्तव्यों का निर्बाहन् होना चाहिए। जो अपने कर्तव्यों का निर्वाहन अपनी योग्यता के आधार पर कर रहे हैं ,अपनी कुब्बत के अनुसार कर रहे हैं उनकी अनुमोदना करना सभी का कर्तव्य है।
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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने हबीबगंज जैन मंदिर में आयोजित धर्मसभा में कहा कि अपने दृष्टी कोण को बदलने से और सही दिशा में पुरुषार्थ करने से ज्ञान को भी सही दिशा मिलती है।
आचार्य श्री ने कहा कि जब दृष्टि में दोष आता है तो एक साथ दोनों आँखों की जांच नहीं होती, एक एक करके जाँच करके नम्बर निकाला जाता है। दर्पण के माध्यम से अक्षर और नम्बर पढ़ने को कहा जाता है फिर उसके आघार पर दृष्टि दोष का आंकलन किया जाता है।
उन्होंने कहा कि जब हम चलते हैं तो दृष्टि पैरों की तरफ नहीं रहती जमीन की तरफ होती है क्योंकि नियंत्रण तो दृष्टि से ही किया जाता पेर भले ही चलायमान रहते हैं। पैरों का संतुलन थोडा सा बिगड़ भी जाय दृष्टि का ध्यान पैरों को नियंत्रित कर देता है ये ध्यान बाहरी नहीं बल्कि अंतरंग का ध्यान होता है। पैरों की कोई राह नहीं होती बल्कि उन्हैं तो राह पर अपने ज्ञान के माध्यम से लाया जाता है। अपने ध्यान को अपने नियंत्रण में रखना जरूरी होता है। ध्यान से ही अपना ज्ञान भी नियंत्रित होता है। भीतरी अनुभव से ध्यान को नियंत्रित किया जा सकता है। शब्दों के अर्थों को किस अनुपात से प्रयोग करना है ये महत्वपूर्ण होता है। ध्यान से ही संयम को भी नियंत्रित किया जाता है। संयत ध्यान से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है। ध्यान घोड़े की लगाम की तरह होता है घोडा भले ही सरपट दौड़ता रहे यदि लगाम कसी रही तो बो नियंत्रण से बाहर नहीं जा सकता। ध्यान से संयम की साधना होती है। कर्तव्य को ध्यानपूर्वक करने पर ही साधना को संयत किया जा सकता है।
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पूज्य गुरुवर ने अपने आशीर्वचन में कहा कि हम आमंत्रण से जाते नहीं परंतु वृक्षों की भांति जो हमेशा खड़े रहते हैं सभी राहगीरों को छाया, फल, सुगंध,शीतलता, ठंडी बयार आदि देते हैं किसी को आमंत्रण नहीं देते बल्कि राहगीर स्वयं चलकर उनके समक्ष आश्रय लेने जाता है। आत्मा का कल्याण तभी होता है वृक्ष की भांति दूसरों को छाया के साथ साथ आश्रय प्रदान करने की भावना होती है।
उन्होंने कहा कि वीतरागी संत आमंत्रण और निमंत्रण से बहुत दूर रहते हैं। जिस तरह ट्रकों पर पीछे लिखा रहता है कि "फिर मिलेंगे" उसी तरह आप लोग भी संतों से फिर मिलने की भावना बनाए रखिये और आपस में भी सभी से मिलने की भावना बनाए रखिये क्योंकि मैत्री भाव बनाकर रखने से ही कल्याण होता है।
आचार्य श्री ने कहा कि वीतरागी संत किसी से बंधते नहीं है बे तो सर्वथा मुक्त होने के लिए ही साधना करते हैं और मुक्ति पथ की और अग्रसर होते हैं आप कभी भी किसी संत को बाँधने का प्रयास न करें उन्हें स्वतंत्र विचरण कर आत्मा की स्वतंत्रता का पर्व मनाने दें।
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