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जैन वीरों की देशभक्ति


संयम स्वर्ण महोत्सव

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जैन वीरों की देशभक्ति

 

मुसलमानों ने गुजरात पर आक्रमण कर दिया। वहां के सेनापति आबूव्रती श्रावक थे। जो कि नित्य नियमपूर्वक प्रतिक्रमण किया करते थे। शत्रुओं से लड़ते-लड़ते उनके प्रतिक्रमण का समय हो गया जिसके लिए उन्होंने एकान्त स्थान पर जाना चाहा, परन्तु मुसलमानों की जबरदस्त सेना के सामने अपनी मुट्ठी भर फौज के पांव उखड़ते देखकर राष्ट्रीय सेवा के कारण रणभूमि को छोड़ना उचित न जाना और दोनों हाथों में तलवार लिए हौदे पर बैठे हुए बोलने लगें- ‘जे मे जीवा विराहिया एकगिन्दिया वा बे इन्दिया वा' इत्यादि जिसको सुनकर सेना सरदार चौंक उठे कि देखो ये रणभूमि में भी जहां तलवारों की खनाखन और मारो-मारो के भयानक शब्दों के सिवाय कुछ सुनाई नहीं देता, वहां एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय जीवों तक से क्षमा चाह रहे हैं, ये नरम-नरम हलवा खाने वाले जैनी क्या वीरता दिखा सकते हैं।

 

प्रतिक्रमण का समय समाप्त होने पर सेनापति ने शत्रुओं के सरदार को ललकारा कि ओ! इधर आ, हाथ में तलवार ले, खांडा संभाल। अपनी वीरता दिखा, होश कर मन की निकाल। धर्म का पालन किया हो तो धर्म की शक्ति दिखा वरना जान बचाकर फौरन यहां से भाग जा। इस पर शत्रुओं सरदार उत्तर भी देने न पाया था कि जैन सेनापति आबू ने इस वीरता और योग्यता से हमला किया कि शत्रुओं के छक्के छूट गये और मुसलमान सेनापति को मैदान छोड़ कर भागना पड़ा। फिर क्या था, गुजरात का बच्चा-बच्चा आबू की वीरता के गीत गाने लगा। उसको अभिनन्दन पत्र देते हुए रानी ने हंसी में कहा कि सेनापति। जब युद्ध में एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय जीवों तक से क्षमा मांग रहे थे तो हमारी फोज घबरा उठी थी कि एकेन्द्रिय जीव से क्षमा मांगने वाला पंचेन्द्रिय मनुष्य को युद्ध में कैसे मार सकेगा। इस पर व्रती श्रावक आबू ने उत्तर दिया कि महारानीजी ! मेरे अहिंसा व्रत का संबंध मेरी आत्मा के साथ है। एकेन्द्रिय दोइन्द्रिय जीवों तक को बाधा न पहुंचाने का जो नियम मैंने ले रखा है वह मेरे व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा से है। देश की सेवा अथवा राज्य की आज्ञा के लिए यदि मुझे युद्ध अथवा हिंसा करनी पड़े तो ऐसा करने में मैं मेरा धर्म समझता हूं क्योंकि मेरा यह शरीर राष्ट्रीय सम्पत्ति है। इसका उपयोग राष्ट्र की आज्ञा और आवश्यकता के अनुसार ही होना उचित है परन्तु आत्मा और मन मेरी निजी सम्पत्ति है। इन दोनों को हिंसा भाव से अलग रखना मेरे अहिंसा व्रत का लक्षण है। ठीक ही है, ऐसा किये बिना गृहस्थों का निर्वाह नहीं हो सकता। गृहस्थ ही क्या, कभी-कभी तो साधु महात्माओं तक को भी ऐसा करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

 

पद्मपुराण में एक जगह वर्णन आता है कि रावण पुष्पक विमान में बैठकर आकाश मार्ग से कहीं जा रहा था तो रास्ते में कैलाश पर्वत पर आकर उसका विमान रुक गया। मेरे विमान को किसने रोक लिया, इस विचार से वह इधर-उधर देखने लगा तो नीचे पर्वत पर बाली मुनि को तपस्या करते हुए पाया और विचार किया कि इन्हीं ने मेरे विमान को रोका है। अतः रोष में आकर सोचने लगा कि मैं मेरे इस अपमान का इनसे बदला लूंगा, पर्वत सहित इनको उठाकर समुद्र में डाल दूंगा। और जब वह अपने इस विचार को कार्य रूप में परिणत करने के लिए पहाड़ के मूल भाग में पहुंच गया तो महर्षि ने सोचा यदि कहीं यह सफल हो गया तो बड़ा अनर्थ हो जावेगा। भरत चक्रवर्ती के बनाये हुए बहुमूल्य और ऐतिहासिक जिनायतन भी नष्ट हो जायेंगे तथा पर्वत में निवास करने वाले पशु-पक्षी भी मारे जावेंगे। उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से जरा सा दबा लिया तब रावण दब कर रोने लगा। तब मन्दोदरी ने आकर महिर्ष से अपने पति की भिक्षा मांगी तो महर्षि ने पैर को ढीला किया।

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