अहिंसा की निरूक्ति
अहिंसा की निरूक्ति
हिंसा के अभाव का नाम अहिंसा है। हनन हिंसा, इस प्रकार हन धातु से हिंसा शब्द निष्पन्न हुआ है जो कि हन धातु सकर्मक है। यानी किसी को भी मार देना, कष्ट पहुंचाना, सताना हिंसा है। परन्तु किसी भी अबोध बालक का पिता, गलती करते हुऐ अपने उस बच्चे की गलती सुधारने के लिए उसे डराता, धमकाता है और फिर भी नहीं मानने पर उसे मारता, पीटता है। अब शब्दार्थ के ऊपर ध्यान देने से पिता का यह काम हिंसा में आ जाता है
एवं यह हिंसक बनकर पापी ठहरता है जो कि किसी भी प्रकार किसी को भी अभीष्ट नहीं है। अत: उस दुर्गुण से बचने के लिए हमारे महापुरुषों ने इसमें एक विशेषता स्वीकार की है। वह यह कि किसी को भी बरबाद कर देने की दृष्टि से उसे कष्ट दिया जावे तो वह हिंसा है। जैसा कि उमास्वामी महाराज के प्रमत्त योगात्प्राणज्यपरोपणं हिंसा' इस सूत्र से स्पष्ट है। मतलब यह है कि जो उसके पालन-पोषण का पूर्ण अधिकारी है वह बालक के जीवन को निराकुल बनाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है। तो बालक जबकि अपने भोलेपन के कारण उसके जीवन को समुन्नत बनाने वाली भलाई की ओर न बढ़कर प्रत्युत बुराइयों में फंसने लगता है तब ऐसा करने से रोकने के लिए उसे डांट बताना पिता का कर्तव्य हो जाता है। इस प्रकार अपने कर्तव्य का निवार्ह करता हुआ पिता पुत्र का मारक नहीं किन्तु, संजीवक, संरक्षण होकर उसके द्वारा सदा के लिए समादरणीय होता है।
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