जैन कौन होता है?
जैन कौन होता है?
‘पक्षपातं जयतीति जिनः जिन एव जैनः' अर्थात् कोई भी महाशय यह तेरा है और यह मेरा, यह अच्छा है और यह बुरा। इस प्रकार के विच्छिन्न भावों को अपने मन में से निकाल बाहर कर देता है वें जो सदा सब तरफ सबके साथ एक-सी माध्यमिक व्यापक दृष्टि से देखने लगता है वह जैन कहलाता है। यह दुनियादारी का पामर प्राणी अनाया ही अपने शरीर और इन्द्रियों के सम्पोषण रूप स्वार्थ में संलग्न पाया जाता है जो कि शरीर नश्वर है। तथापित आत्मा अविनश्वर, किन्तु इसकी विचारधारा इस और नहीं जाती। यह तो अपनी मोटी बुद्धि से इस चलते फिरते शरीर को ही आत्मा समझे हुए है। अतः इसे बिगड़ने न देकर चिरस्थाई बनाये रखने की सोचता है एवं इसके काम में जो सहायता देने वाले हैं उन्हें अपने और अच्छे मानकर अपनाता है। किन्तु इससे विरुद्ध को पराये और बुरे समझकर उन्हें बरबाद करने में तत्पर हैं। एवं संघर्ष की जन्मदाता बना हुआ है शन्ति से दूर है।
हाँ, मनुष्य अगर अपनी प्रज्ञा से काम ले तो इसकी समझ में आ सकता है कि शरीर और आत्मा भिन-भिन्न चीजें हैं, शरीर जड़ और नाशवान है तो मेरी आत्मा चैतन्य की धारक शाश्वत रहने वाले। एवं जैसी मेरी आत्मा है वैसी ही इन इतर शरीरधारियों की भी आत्मायें हैं ऐसे विचार को लेकर फिर वह जिसके किसी भी प्राणी को कष्ट हो ऐसी चेष्टा न करके ऐसी प्रक्रिया करता है। जिसमें कि प्राणीमात्र का हित सन्निहित हो। यानी जो स्वार्थ से दूर रहकर पूर्णतया परमार्थ की सड़क पर आ जाता है वही जैन कहलाता है, एवं इस प्रकार जैन बनने का हरेक मनुष्य को अधिकार है यदि वह उपर्युक्त रूप से आत्म-साधना को स्वीकार कर ले। बस ऐसा जिसे विश्वास हो वह जैन होता है जो कि अहिंसा में रुचि रखने वाला होता है हिंसा से परहेज करता है।
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