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हिंसा का स्पष्टीकरण


संयम स्वर्ण महोत्सव

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हिंसा का स्पष्टीकरण

 

इस जीव को मार दें, पीट दें या यह मर जावे, पिट जावे, दु:ख पावे इस प्रकार के विचार का नाम भावहिंसा है और अपने इस विचार को कार्यान्वित करने के लिये किसी भी तरह की चेष्टा करना द्रव्यहिंसा है। भावहिंसा पूर्वक ही द्रव्यहिंसा होती है। बिना भाव हिंसा के द्रव्यहिंसा नहीं होती और जहां भावहिंसा होती है वहां द्रव्यहिंसा यदि न भी हो तो भी वह हिंसक या हत्यारा ही रहता है। उदाहरण के लिये मान लीजिये कि

 

एक शस्त्रचिकित्सक है, डॉक्टर है और वह किसी घाव वाले रोगी को नीरोग करने के लिये उसके घाव को चीरता है। घाव के चीरने में वह रोगी मर जाता है तो वहां डॉक्टर हिसंक नहीं होता। परन्तु पारधी शिकार खेलने के विचार को लेकर जंगल में जाता है। और वहां उसकी निगाह में कोई भी पशु पक्षी नहीं आता और लाचार होकर उसे यों ही अपने घर को लौटना पड़ता है, फिर भी वह हिंसक है, हत्यारा है। भले ही उसने किसी जीव को मारा नहीं है, फिर भी वह हिंसा से बचा हुआ नहीं है। क्योंकि प्राणियों को मारने के विचार को लिये हुये है। ऐसा हमारे महर्षियों का कहना है।

 

इसी को स्पष्ट समझने के लिये हमारे यहां एक कथा है कि - स्वयं भूरमण समुद्र में एक राघव मच्छ है, जो बहुत बड़ा है। वह जितनी मछलियों को खाता है, खा लेता है, और पेट भर जाने के बाद भी मुँह में अनेक मछलियां जाती हैं और वापिस निकलती रहती हैं। उन मछलियों को जीवित निकली देखकर उस मच्छ की आंखों पर जो एक तन्दुल मच्छ होता है वह सोचता है। कि मच्छ बड़ा मूर्ख है जो इन मछलियों को जीवित ही छोड़ देता है, और यदि मैं इस जैसा होता तो सबको हड़प जाता। बस इसी दुर्भाव की वजह से वह मरकर घोर नरक में जा पड़ता है।

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