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अपनी भलाई ही है औरों के सुधारने के लिये


संयम स्वर्ण महोत्सव

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अपनी भलाई ही है औरों के सुधारने के लिये

 

उसने सोचा यहां पर मुख्य लड़ाई काम करने की है। इन्हें इनके विचारानुसार काम करने में कष्ट का अनुभव होता है ये सब अपने को आलसी बनाये रखने में ही सुखी हुआ समझती हैं, यदि घर के धन्धों को मैं मेरे हाथ से करने लग जाऊँ तो अच्छा हो, मेरा शरीर भी चुस्त रहे और इन लोगों का आपस का झगड़ा भी मिट जाये, एक तीर्थ और दो काज वाली बात है। अब रोज एक जब कि सब जनी भोजनपान के अनन्तर आकर एक जगह बैठी तो सुशिक्षिता ने कहा कि सासूजी और जीजीबाइयो सुनो, मेरे रहते हुये आप लोग काम करो यह मेरे लिये शोभा की बात नहीं, अपितु मैं इसमें अपनी हानि और मेरा अपमान ही समझती हूं। यहां कोई विशेष काम भी नहीं है और मेरा अभ्यास कुछ ऐसा ही है कि काम करने में ही मुझे आनन्द मालूम होता है।

 

अत: कल से घर का रसोई पानी का काम मैं ही कर लिया करूं, ऐसी आज्ञा चाहती हूँ। इस पर बडी जेठानी बोली कि कॅवराणी जी! अभी तो आपके खाने-पीने और विनोद कर बिताने के दिन हैं, फिर तो तुम्हें ही सब कुछ करना पड़ेगा ताकि करते-करते थक भी जाओगी। सुशिक्षिता नम्रता के साथ कहने लगी- जीजी कि मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं मुझे निराश मत करो, मेरे तो यही काम करने के दिन हैं, अभी से करने लगूंगी तो कुछ दिनों में आप लोगों के शुभाशीर्वाद से आगे को काम करने लायक रहूंगी। अन्यथा मैं तो आलसी बनी रहूंगी, तो फिर भविष्य में कुछ भी न कर सकूंगी। यथाशक्ति घर का काम करना मेरा कर्तव्य है।

 

अत: दया कीजिये और मुझ से काम लीजिये। हां यह अवश्य हो कि मैं भूल जाऊँ तो बताते तथा होशियार अवश्य करते रहने की कृपा करें। अब वह रोज सबेरे उठती नहा धोकर भगवद्भजन करके भोजन बनाने में लगी रहती थी। अनेक तरह का सरस, स्वादिष्ट भोजन थोड़ी सी देर में तैयार कर लेती और सबको भोजन करवा कर बाद मैं आप भोजन किया करती थी। यदि कभी कोई पाहुणा आ गया और असमय में भी भोजन बनाना पड़ा तो बड़े उत्साह के साथ सही भोजन बनाया करती थी।

 

यह देखकर सास ने एक दिन आश्चर्यपूर्वक पूछा कि बहू तू ऐसा क्यों करती है? सब काम अकेली ही क्यों किया करती है? तब सुशिक्षिता बोली कि सासूजी! आप यह क्या कह रही हैं? काम करने से कोई दुबला थोड़े ही हो जाता है। काम करने से तो प्रत्युत शरीर स्वस्थ रहता है। यह तो मेरे घर का कार्य है, मुझे करना ही चाहिये। कोई भी अपना काम करें इसमें तो बुराई ही क्या है? मनुष्यता तो इसमें है कि अपने घर का काम सावधानता से निबटा कर फिर पड़ौसी के भी काम में हाथ बटाया जावे। यह शरीर तो एक रोज मिट्टी में मिल जावेगा। हो सके जहां तक इसको दूसरों की सेवा में लगा देना ही ठीक है।

 

सुशिक्षिता की जेठानियां भी यह सब बात सुन रही थी अतः वे सब सोचने लगी कि देखो हम लोग कितनी भूल कर रही है। पड़ोसिन के कार्य में हाथ बटाना तो दूर कितना रहा हम लोग तो अपने घर के कार्यों को भी इसी के ऊपर छोड़कर बेखबर हो रही हैं। जैसा ही घर में होने वाला कार्य इसका है, इससे पहिले हमारा भी तो है फिर हम लोगों को क्यों न करना चाहिये, जी क्यों चुराना चाहिये? बस अब सभी अपना-अपना कार्य स्वयं करने लगीं।

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