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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

भोगकर पडोसी


संयम स्वर्ण महोत्सव

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पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज व्यक्ति को जो सुख प्राप्त हुआ है वो उसे न देखकर, उसे न भोगकर पडोसी के सुख को देखकर दुखी हो रहा है। किसी ने मकान बनाया और कम समय में सूंदर मकान बन गया तो उसका खुद का घर कितना ही सूंदर क्यों न हो उसके मन में ये भाव जर्रूर आते हैं की इसका मकान इतनी जल्दी और इतना सुन्दर कैंसे बन गया। ऐंसे ही दान के क्षेत्र में कुछ लोगों को दूसरों का दान देखकर ईर्ष्या के भाव उत्पन्न होते हैं और मन में मलिनता उत्पन्न होती है। यदि किसी ने दान दिया है और उस दान की अनुमोदना अच्छे मन से आपने की है तो पुण्य का संचय आपको भी अवश्य होगा।

 

उन्होंने कहा कि देवलोक में सूंदर सूंदर अकृतिम भवन बने होते हैं उधर किसी को बनाने की जरूरत नहीं होती ,सारे सुख वैभव ,सारे संसाधन उपलब्ध हो जाते हैं। आप लोग उलझनों में उलझने की अपेक्षा सुलझने की तरफ कदम बढ़ाओ तो आपको भी देवों जैंसे वैभव प्राप्त हो सकते हैं।

 

उन्होंने कहा कि में जब ग्राम और कस्बों में विहार करता हूँ तो छोटे छोटे रस्ते भी सुगम होते हैं जबकि भोपाल में चौड़े चौड़े रास्ते होते हुए भी पाँव रखने की जगह भी नहीं मिलती है। महानगर का जीवन ऐंसे ही भीड़ भाड़ और आपा धापी में निकल जाता है।

 

उन्होंने कहा कि बड़ी दूर दूर से आप लोग संतों के दर्शन करने आते हो परंतु अच्छे से दर्शन नहीं हो पाते तो उसमें मन आपका खिन्न हो जाता है परंतु न तो तो आप इसमें कुछ कर सकते हो न संत इसमें कुछ कर सकते हैं, आप सबका मन भारत नहीं है। संसार की ही समस्या है की मन कभी नहीं भरता ,उस मन को ठन्डे बस्ते मेडाल दीजिये क्योंकि ठन्डे बस्ते में मन को रखना ही मोक्ष मार्ग है। कल से आप अपने साथ एक बस्ता लेकर आओ और अपना मन उस बस्ते में रखकर संतों के सानिध्य में जाओ आपके भीतर खिन्नता नहीं आएगी। सबसे ज्यादा महत्व संयम का है क्योंकि इसके बिना मोक्ष मार्ग की यात्रा प्रारम्भ ही नहीं होती है । शहर की अपेक्षा ग्रामों में ज्यादा संतोषप्रद जीवन होता है क्योंकि उधर जीवन की आपा धापी और भागदौड़ कम होती है । जो संतोष का जीवन जीता है उसका हर पल ,हर क्षण सुखमयी होता है। जो परंपरा से धर्म के संस्कार आपको प्राप्त हुए हैं उन्हें सहेजने और सँवारने की आवश्यकता है । मन की मांग को पूरा करना कोई बुरी बात नहीं है परंतु जायज मांग और फालतू मांग में फर्क का ज्ञान होना तो जरूरी है। सोच बिचार कर अपने मन की मांग का प्राथमिकता से निर्धारण करना चाहिए। आमदनी के हिसाब से खर्च का प्रबंधन करना जरूरी होता है। आमद कम खर्चा ज्यादा लक्षण है मिट जाने का, कूबत कम गुस्सा ज्यादा लक्षण है पिट जाने का। इसलिए अपनी चादर के अनुसार ही अपने पैर फैलाना चाहिए। यही धर्म है जिसे ज्ञानी लोग अच्छे से जानते हैं । मन से जो काम लेता है वो अच्छा होता है और जो मन का काम करता है वो अच्छा हो ही नहीं सकता। जो मन से काम लेता है वो सेठ होता है और जो मन का काम करता है वो नोकर होता है ।जो मन के नियंत्रण में चलता है उसकी कोई चिकित्सा हमारे पास भी नहीं है , उसका तो भगवान ही मालिक है।

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