जगदलपुर, 07 जनवरी। राष्ट्र संत शिरोमणी आचार्य विद्यासागरजी ने कहा कि जिस तरह स्टेशन में ट्रेन आ रही हो और हल्लागुल्ला हो रहा हो रहा है और रेडियो, टीवी भी चल रहा हो उसी समय किसी का मोबाईल आ जाये तो केवल उससे ही संपर्क होता है उसी तरह संत मुनि, श्रुति व ग्रंथों के माध्यम से पूर्व में घटी घटनाओं और विषयों को जान लेते हैं और उसका आनंद लेते हैं। दुकान पर हम आज नगद कल उधार लिखते हैं, लेकिन ग्राहक से ऐसा नहीं कह सकते। कल का कोई स्वरूप तो हमने देखा ही नहीं यदि आज को नहीं देखा तो आज और कल दोनों हाथ से निकल जायेंगे।
घोर उत्सर्ग होने के बाद भी शरीर छिन्न-भिन्न हो जाता है। संतव्यक्ति भी उसी तरह शरीर को पड़ोसी समझते हैं, जिस तरह मोबाईल में बहुत सारे नंबर भरे हों तो जब हम उसे लगायेेंगे तभी बातचीत हो सकती है और उधर से नबंर आये और हम उठाये तभी बातचीत संभव है, जिस व्यक्ति से हम बातचीत नहीं करना चाहते उस समय उसका रिंग आने पर भी म्यिूट दबा देते हैं, क्योंकि उस समय हम ईश्वर से कनेक्शन जोड़े हुए होते हैं और हम अपना ध्यान नहीं बंटाना चाहते, अतरू ध्यान में ध्यान लगाने की आदत अच्छी है। मुनि महाराजों की कथा में सार भरा रहता है तथा कथा में उनके गुणों का वर्णन रहता है, मूल गुण 28 हैं। मुनि लक्ष्य से नहीं भटकते और न ही चमत्कार की ओर उनकी दृष्टि जाती है। अतिशय आत्मा का वैभव है उसमें दृष्टि रखनी चाहिए उपसर्ग को जीत कर सर्व सिद्धि के विमानों तक पहुंच जाती है। 24 भगवान के तीर्थ काल में दस काल होते हैं। उनका वर्णन सुनने पर शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शरीर के ऊपर उपसर्ग होता है शरीर बिखर जाता है तब केवल ज्ञान प्राप्त होता है और हम मुक्त हो जाते हैं। शरीर छिन्नभिन्न होने के बाद जुड़ नहीं सकता विभिन्न परीक्षाओं में निष्णात होकर हम मुक्त हो जाते हैं।
हम दिगंबर तो हुए नहीं और चाहते हैं कि राजा भरत जैसी कृपा बरस जाये, यदि शर्तें रखते हैं तो दीक्षा नहीं होगी। सम्यक ज्ञान की अवधारणा से कुशलता प्राप्त हो जाती है और कष्ट अनुभूत नहीं होते। कथाओं को पढ़ कर चिंतन का विषय बनाना चाहिए कथा आंसू बहने के लिए नहीं होते हम अपने दुखों पर आंसू नहीं बहाते बल्कि अपने किये हुए अनर्थों पर आंसू आ जाते हैं अज्ञानता से कितने ही अनर्थ हम से हुए हैं।
आदर्श पुरूषों व महापुरूषों को हमें याद करना चाहिए और उनकी वेदना का ध्यान करना चाहिए, जिन तिथियों में हमने धार्मिक अनुष्ठान किये हैं उन्हें ध्यान करें तो हम दुष्कर्म से बच जायेंगे। अपनी दीक्षा की तिथि को याद करना चाहिए। तीर्थकरों की दीक्षा तिथि को या आचार्य की दीक्षा तिथि को नहीं बल्कि अपनी दीक्षा तिथि को याद रखना चाहिए और यदि तिथि को भी भुला दिया और कर्म पर ही पूरा ध्यान लगा दिया तो वहीं संत है, क्योंकि कल कभी नहीं आता कल किसी ने नहीं देखा है। दूर पेड़ पर जो दिख रहा है वह हाथ नहीं आता फल तो सारे ऊपर लगे हैं नीचे के सारे फल लोगों ने तोड़ लिये हैं। ऊपर जो लगा है वह समय बीतने पर पककर नीचे गिरेगा, किंतु वह फल किसका होगा नहीं कह सकते भीतर यदि आस्था हो तभी इसका रहस्य समझ में आाता है। तीर्थकरों को देखना केंद्र है। तीर्थकर के अलावा कुछ भी दिखता नहीं।
आत्मा का वैभव तो आत्मा का वैभव है और वह संसार से न्यारा है। उसे छोड़कर संसारिक व्यक्ति नीरस पदार्थों की ओर आकर्षित होता है, किंतु आंख बंद होते ही दृश्य आ जायेगा और ज्ञान की परिणती होने लगेगी तथा ज्ञान का वैभव आप लूट सकते हैं। भावनाएं बारबार आने पर ही उसका मूल्य समझ में आता है। सत्संग सात्विक भूख है। इससे शारीरिक यात्रा समाप्त होगी और अलौकिक आनंद प्राप्त होगा।
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