लोकनीति लोकसंग्रह है लोभसंग्रह नहीं
आचार्य श्री ने कहा की बड़ी बड़ी वस्तुएं होती है जो क्रेनें के माध्यम से उठाई जाती हैं । हिम्मत विश्वास और ताकत से ही दायित्व का भार उठाया जाता है । दायित्व दिया जाता है उसे जो सक्षम कंधे होते हैं , दायित्व का भार अनूठा होता है उसे ही दिया जाता है जो इस भरोसे को पूरा करने की सामर्थ रखता हो । जो जिसका रसिक होता है उसका पान आनंद के साथ करता है । आप सब दायित्व से न घबराएं अपने आदर्श पुरुषों को समक्ष रखकर कार्य प्रारम्भ करे । लोकतंत्र मैं जो लोक का हो जाता है उसके प्रति समर्पित हो जाता है बही लोकतंत्र का पालन कर पाता है । दायित्व का निर्बहं करने बाळा व्यक्ति जब उसमें रम जाता है तो जिस तरह संगीत की मधुर ध्वनि होती है उसी प्रकार कार्य में आनंद की ध्वनि उत्पान्न होती है । बांटो और राज्य करो ये नीति इतिहास का एक हिस्सा रही है । प्रजा और राज ये दो पहलु हैं । प्रजा की रक्षा के लिए राजा को दायित्व दिया जाता है । मैथलीशरण गुप्त की एक पंक्ति का जिक्र करते हुए कहा की यथा राजा यथा प्रजा को सार्थक तभी किया जा सकता है जब प्रजा को संतान के रूप में राजा देखता है क्योंकि संस्कृत में प्रजा को संतान कहा गया है । जीवन में जो क्षण मिलें हैं उन्हें जी भर कर जिओ और ये भू ल जाओ कोउ का कहे । कहना लोगों का काम है करना आपका काम है जो दायित्व मिला है किसी भी स्थिति में पूर्ण करना आपका कर्तव्य है । आप दूर दूर से आते हो तृप्त होने के लिए आपकी तृप्ति अनोखी होती है किसी को खाकर पुरी होती है किसी को खिलाकर पूरी होती है में तो माँ की भाँती ज्ञान परोसता हूँ।
प्रकाश विद्यमान नहीं होता परंतु बह प्रकाश आँख खोलकर ही नहीं आँख बंदकर भी देखा जाता है क्योंकि भीतर भी प्रज्ञा की आँख होती है । उन्होंने कहा की शोध प्रबंध में कुछ कहा जाता है समालोचन होता है और आलोचना के माध्यम से लोचन खुलते हैं । प्रशंशा व्यक्तिगत न होकर साहित्यिक होना चाहिए तभी प्रसंसा का महत्व होता है । राजा हमेशा प्रजा के लिए समर्पित भाव से कार्य करता है तो प्रजा भी अपना दायित्व निभाने के लिए तत्पर होती है । मत का मतलब मन का अभिप्राय होता है । लोकनीति लोक संग्रह है लोभ संग्रह नहीं । आप दौड़ना सीखो पर दौड़धूप मत सीखो क्योंकि दौड़ धुप से व्यर्थ की शक्ति लगती है ।
गुरुवर ने कहा की आधी रात में मंत्रणा चल रही है , संघर्ष की घडी है , एक पल में इतिहास पलटने को है और इसी बीच एक पक्ष से एक संदेश मिलता है । राजा सोचता है की क्या होने बाला है फिर राजा उस संदेशवाहक को बुलबाता है तो बह आकर पत्र देता है ,राजा उसे पढता है । राजा राम के समक्ष विभीषण खड़ा होता है अपना प्रस्ताव लेकर । राजा के लिए मन पर भी विश्वास करना खतरनाक होता है क्योंकि मन दगाबाज होता है । लक्ष्मण सोचते हैं राम जी को क्या हो गया जो दुश्मन के भाई को आधी रात को बु लाया। विभीषण ने कहा की मुझे धरती की रक्षा का सामर्थ राम के भीतर दिखाई देता है इसलिए में उनकी शरण में आया हूँ । ये सुनकर राम की सेना में सन्नाटा छा जाता है । सब आवाक रह जाते हैं । विभीषण ने अपनी लंका की प्रजा की रक्षा के भाव से सत्याग्रह को छोड़कर सत्याग्रही बनने का भाव प्रकट किया ।
इस अवसर पर गुरुवर ने वधशाला के सन्दर्भ में कहा की कोई कहता है शहर के बहार हो , कोई कहता है नगर के बहार हो , कोई कहता है मध्य प्रदेश से बहार हो परंतु ये सम्पूर्ण भारत हमारा है हिंसा इससे बहार होनी चाहिए । मध्यप्रदेश भारत का ह्रदय है और इसके ऊपर , नीचे , आगे ,पीछे सब जगह भारत राष्ट्र है जिसमें अहिंसा का पालन कराना हम सभी का दायित्व है । भारत की संस्कृति में राम के आर्दशों से हमें प्रेरणा लेने की आवश्यकता है उन्होंने जो दायित्वों का निर्वाहन किया है बो प्रेरणादायक है । अपने कर्तव्यों का पालन धुआंधार तरीके से कीजिये न फल की चिंता कीजिये न परिणाम की।
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