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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

त्याग किसी बस्तु मात्र का करने से कुछ नहीं होगा


संयम स्वर्ण महोत्सव

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" जो आप प्राप्त करना चाहते हैं पहले आपको छोड़ना पड़ेगा क्योंकी त्याग से ही प्राप्ति सम्भव है " उक्त कथन आज पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने कहा की स्वार्थ और निस्वार्थ ये जीवन के लिए दोनों आवश्यक है जैंसे जो श्वास आपने अपने स्वार्थ के लिए भीतर ली है उसे बहार छोड़ना ही पड़ेगा ऐंसे ही मोक्ष मार्ग में आप भरोसा रखो या न रखो परंतु बिना भरोसे के मोक्ष मार्ग प्रशस्त भी नहीं हो सकता ।राग के मार्ग को छोड़े बिना बैराग्य का मार्ग प्रशस्त नहीं होता , त्याग किसी बस्तु मात्र का करने से कुछ नहीं होगा राग द्वेष की प्रवत्तियों का त्याग करने से ही त्याग सार्थक होगा । त्याग के मार्ग में समझोता नहीं होता बल्कि द्रढ़ निश्चय होता है तभी वैराग्य की गाड़ी आगे बढ़ती है।

 

उन्होंने कहा कि आपने दुनिया में हर प्रकार की दुकान देखी होगी परंतु मैं तो आप जैंसे ग्राहक रोज देखता हूँ जो आद्यात्म की इस दुकान् में ज्ञान का माल प्राप्त करने के लिए आते हैं । हमारा एक ही भाव है आप कहीं भी जाएँ घूमफिर कर ज्ञान रुपी बस्तु की प्राप्ति के लिए आपको बापिस इस दुकान की तरफ ही रुख करना पड़ेगा। त्याग का नाम ही धर्म होता है और त्याग धर्म बहुत पवित्र है , राग को मूलतः नष्ट करने का उपाय त्याग धर्म में ही निहित होता है।

 

श्वास यदि लेनी की बात करते हो तो श्वास को छोड़ने की भी बात करो परिग्रह करके आप श्वास को नहीं रख सकते हो । श्वास लेने और छोड़ने की प्रक्रिया को योग की भाषा में प्राणायाम कहते हैं इससे आँतों की क्षमता को भी ज्ञात किया जा सकता है । आप लोग भोजन आदि करते हो तो बर्तनों को कुछ समय के लिए खाली रखते हो ताकि बो थोड़ी हवा खा लें फिर उसमें तेल मसाला आदि डालते हो सब्जी पकाने के लिए  उसी तरह परिग्रह से खाली जब हम होते हैं तभी आगे की क्रिया प्रारम्भ होती है । बिना परिग्रह के जो व्यक्ति रहता है मांगता नहीं है उसे कहते हैं याचना परिश्रय विजय।

 

चक्रवर्ती का जो भोजन होता है बो 6 खण्डों में सबसे अलग ही होता है , एक लड्डू का आधा भाग भी यदि सेना को खिलाया जाय तो सैनिकों का पाचन बिगड़ सकता है इतना गरिष्ट होता है लड्डू।  और चक्रवर्ती न जाने कितने लड्डू खा जाते हैं परंतु जब चक्रवर्ती वैराग्य के मार्ग पर प्रशस्त होता है तो उसकी त्याग की परीक्षा आरम्भ होती है क्योंकि श्रावक् तो जो भोजन देगा बही लेकर संतुष्ट हो जाते हैं इसलिए उसके पेट में जो जठग्नि होती है बो ज्वालामुखी की भांति होती है लगातार आग उगलती रहती है । ऐंसे ही क्षुदा परिश्रय को सेहन करते हुए बो चक्रवर्ती त्याग के मार्ग को प्रशस्त कर निर्वाण की और बढ़ता है।

 

जब त्याग की पराकाष्ठा होती है तभी मुनिराज को केवलज्ञान होता है । उन्होंने कहा की जो कुछ भी आवश्यक है उसमें से भी थोडा सा त्याग करने से ही त्याग धर्म की अनुभूति की जा सकती है।

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